क्या धारा 143A के तहत अंतरिम मुआवजा देना जरूरी है या अदालत का विवेकाधिकार?

Update: 2025-07-24 14:53 GMT

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक अत्यंत महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न पर आधारित है क्या Negotiable Instruments Act, 1881 की धारा 143A(1) में 'interim compensation' (अंतरिम मुआवज़ा) देने का आदेश अनिवार्य (Mandatory) है या यह सिर्फ़ अदालत का विवेकाधिकार (Discretionary) है। इस निर्णय में अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यह प्रावधान अनिवार्य नहीं, बल्कि निर्देशात्मक (Directory) है।

धारा 143A की भूमिका और उद्देश्य (Purpose and Context of Section 143A)

साल 2018 में अधिनियम संख्या 20 के माध्यम से धारा 143A कानून में जोड़ी गई थी। इसका उद्देश्य यह था कि आरोपी व्यक्ति जो जानबूझकर मुकदमेबाज़ी को लंबा करते हैं, उन्हें प्रारंभिक चरण में ही कुछ मुआवज़ा शिकायतकर्ता को देने के लिए बाध्य किया जाए। इससे शिकायतकर्ता को राहत मिल सके और चेक अनादरण (cheque dishonour) के मामलों में तेजी लाई जा सके।

हालांकि, यह मुआवज़ा केवल अंतरिम (interim) रूप में होता है और आरोपी दोषी सिद्ध नहीं हुआ होता है। इसलिए इसका दुरुपयोग न हो, यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।

कानूनी प्रश्न: क्या 'may' का अर्थ 'shall' माना जाए? (The Core Issue: Interpretation of 'May' as 'Shall')

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सामान्य रूप से 'may' का अर्थ 'shall' नहीं होता। परंतु कई बार संदर्भ और विधायिका की मंशा के अनुसार 'may' को 'shall' के रूप में पढ़ा जा सकता है। लेकिन इस मामले में अदालत ने कहा कि धारा 143A(1) में प्रयुक्त 'may' को 'shall' नहीं माना जा सकता क्योंकि इससे आरोपी को दोषी सिद्ध होने से पहले ही आर्थिक दंड भुगतना पड़ता है जो कि Article 14 (समानता का अधिकार) के विरुद्ध हो सकता है।

धारा 143A और धारा 148 का अंतर (Distinction between Section 143A and 148)

धारा 143A उस स्थिति में लागू होती है जब मुकदमा अभी प्रारंभिक चरण में है यानी आरोप तय हुए हैं पर निर्णय नहीं हुआ।

वहीं धारा 148 तब लागू होती है जब आरोपी को ट्रायल कोर्ट ने दोषी ठहराया है और वह अपील कर रहा है।

Surinder Singh Deswal v. Virender Gandhi (2019) 11 SCC 341 और

Jamboo Bhandari v. MP State Industrial Development Corporation (2023) 10 SCC 446 जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 148 की प्रकृति को अधिक बाध्यकारी (mandatory) माना है, लेकिन इन्हीं सिद्धांतों को धारा 143A पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें आरोपी अब भी दोषमुक्त है।

अदालत का निर्णय: धारा 143A वैकल्पिक है (Court's Holding: Section 143A is Directory)

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि धारा 143A(1) के अंतर्गत अंतरिम मुआवज़ा देना अदालत का विवेकाधिकार (Discretionary Power) है। अदालत को शिकायतकर्ता की prima facie (प्रथमदृष्टया) स्थिति, आरोपी का प्रतिवाद (defence), आरोपी की आर्थिक स्थिति और लेन-देन का स्वरूप जैसे तथ्यों पर विचार करना होगा।

अगर अदालत यह पाती है कि शिकायतकर्ता का मामला प्रथमदृष्टया मज़बूत है और आरोपी की कोई विश्वसनीय सफाई नहीं है, तभी अंतरिम मुआवज़ा देने का आदेश उचित होगा।

क्या आरोपी की संपत्ति कुर्क हो सकती है? (Can Interim Compensation be Recovered Like Fine?)

धारा 143A(5) के अनुसार, यदि आरोपी अंतरिम मुआवज़ा नहीं देता, तो उस राशि को CrPC की धारा 421 के तहत वसूल किया जा सकता है, जैसे किसी जुर्माने की वसूली होती है आरोपी की संपत्ति कुर्क कर उसे बेचा जा सकता है। लेकिन अगर बाद में आरोपी दोषमुक्त होता है, तो उसे यह राशि ब्याज सहित शिकायतकर्ता से वापस लेनी होती है।

अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि अगर आरोपी की संपत्ति जब्त होकर बेच दी गई, तो दोषमुक्ति के बाद वह संपत्ति उसे वापस नहीं मिल सकती इसलिए अंतरिम मुआवज़ा आदेश देते समय अदालत को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए।

किन बातों पर विचार किया जाना चाहिए? (Relevant Factors for Granting Interim Compensation)

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मुख्य बिंदुओं की पहचान की जिन्हें मजिस्ट्रेट को ध्यान में रखना चाहिए:

• क्या शिकायतकर्ता ने प्रथमदृष्टया विश्वसनीय मामला प्रस्तुत किया है?

• क्या आरोपी की सफाई प्रथमदृष्टया विश्वसनीय और संभाव्य है?

• क्या आरोपी आर्थिक रूप से सक्षम है?

• लेन-देन की प्रकृति क्या है? क्या शिकायतकर्ता और आरोपी के बीच कोई व्यापारिक या व्यक्तिगत संबंध था?

• कोई लंबित सिविल मुकदमा या अन्य प्रासंगिक तथ्य जो मुआवज़ा आदेश को प्रभावित कर सकते हैं।

इन बिंदुओं पर विचार किए बिना 20% मुआवज़ा का आदेश स्वतः नहीं दिया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपी राकेश रंजन को दिए गए 10 लाख रुपये अंतरिम मुआवज़ा आदेश को निरस्त कर दिया और निर्देश दिए कि वह पुनः विचार करे।

यह निर्णय न्यायिक विवेकाधिकार, अभियुक्त के अधिकार और आर्थिक ज़िम्मेदारी जैसे जटिल मुद्दों के बीच संतुलन बनाता है।

• धारा 143A(1) अनिवार्य नहीं है।

• अदालत को प्रथमदृष्टया मूल्यांकन करके ही मुआवज़ा देना चाहिए।

• आरोपी की वित्तीय स्थिति और वास्तविकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

• आदेश में संक्षिप्त लेकिन स्पष्ट कारण लिखना अनिवार्य है।

यह निर्णय चेक बाउंस मामलों में न्यायिक प्रक्रियाओं को और अधिक न्यायसंगत और संतुलित बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम है।

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