क्या गवाहों की जांच में देरी न्याय प्रणाली को कमजोर कर रही है?

Update: 2025-01-09 11:32 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने राजेश यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) मामले में आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रक्रियात्मक कमियों (Procedural Loopholes) पर चिंता जताई। विशेष रूप से, गवाहों की जांच (Examination of Witnesses) में देरी पर चर्चा की गई, जो न्याय प्रक्रिया को कमजोर करती है।

अदालत ने इस फैसले में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973) के महत्व को रेखांकित किया। यह निर्णय न्यायपालिका (Judiciary) को गवाहों की समय पर और प्रभावी जांच सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित करता है ताकि न्याय की प्रक्रिया बाधित न हो।

साक्ष्य का मूल्य और उसकी संरचना (Evidentiary Value and its Framework)

भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) न्यायालय को तथ्यों (Facts) को स्थापित करने में सहायता प्रदान करता है। इसके तहत "साक्ष्य" (Evidence) की परिभाषा में मौखिक (Oral) और दस्तावेजी (Documentary) बयान शामिल हैं।

न्यायालय के लिए "सिद्ध" (Proved) शब्द का अर्थ यह है कि वह किसी तथ्य की उपस्थिति को संभाव्यता (Probability) के आधार पर स्वीकार करे।

अदालत को यह तय करने के लिए "मामलों" (Matters) पर विचार करना होता है, जो साक्ष्य का व्यापक रूप है। न्यायाधीश को "साधारण व्यक्ति" (Prudent Man) की दृष्टि से सामग्री की जांच करनी चाहिए और फिर न्यायिक भूमिका में लौटकर निर्णय लेना चाहिए। यह लचीला दृष्टिकोण (Flexible Approach) अदालत को व्यावहारिक और कानूनी नियमों में संतुलन स्थापित करने में मदद करता है।

शत्रुता दिखाने वाले गवाह (Hostile Witnesses)

राजेश यादव मामले में शत्रुतापूर्ण गवाहों (Hostile Witnesses) की भूमिका पर जोर दिया गया। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में "शत्रुतापूर्ण गवाह" की परिभाषा नहीं है, लेकिन अदालतें ऐसी गवाही को आंशिक रूप से स्वीकार कर सकती हैं यदि वह जांच में विश्वसनीय (Reliable) पाई जाए।

भगवान सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1976) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शत्रुतापूर्ण गवाह की गवाही को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जाना चाहिए।

इस मामले में, अदालत ने पाया कि गवाहों के मुख्य (Chief) और प्रतिपरीक्षण (Cross-Examination) के बीच लंबे अंतराल के कारण गवाह प्रभावित हो सकते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए अदालत ने मुख्य और प्रतिपरीक्षण को एक ही दिन में पूरा करने की सलाह दी।

संबंधित और रुचि रखने वाले गवाह (Related and Interested Witnesses)

अदालत ने "संबंधित" (Related) और "रुचि रखने वाले" (Interested) गवाहों के बीच अंतर स्पष्ट किया। संबंधित गवाह, जैसे पीड़ित के परिवार के सदस्य, स्वाभाविक (Natural) गवाह होते हैं और उन्हें पक्षपाती मानना उचित नहीं है। दलीप सिंह बनाम पंजाब राज्य (1953) में, अदालत ने कहा कि निकट संबंधी गवाह अक्सर वास्तविक अपराधियों को बचाने की बजाय सच्चाई बताते हैं।

इस मामले में, अदालत ने पाया कि संबंधित गवाहों की गवाही सुसंगत (Consistent) और विश्वसनीय थी। इसने यह भी दोहराया कि गवाही की गुणवत्ता (Quality), न कि मात्रा (Quantity), उसकी स्वीकार्यता तय करती है।

प्रक्रियात्मक सुरक्षा (Procedural Safeguards)

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173(2) के तहत जांच अधिकारी (Investigating Officer) को अपनी अंतिम रिपोर्ट (Final Report) अदालत में प्रस्तुत करनी होती है। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि यह रिपोर्ट केवल एक राय है, और इसे स्वतंत्र साक्ष्य (Substantive Evidence) नहीं माना जा सकता।

लहू कमलाकर पाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य (2013) मामले में, अदालत ने कहा कि जांच अधिकारी की अनुपस्थिति तब तक घातक नहीं है जब तक बचाव पक्ष (Defense) किसी विशेष पूर्वाग्रह (Prejudice) को साबित न करे।

गवाहों की जांच में देरी (Delay in Witness Examination)

सुप्रीम कोर्ट ने गवाहों की जांच में देरी को लेकर गंभीर चिंता जताई। अदालत ने पाया कि अनावश्यक स्थगन (Adjournments) के कारण गवाहों को प्रभावित किया जा सकता है। विनोद कुमार बनाम पंजाब राज्य (2015) में, अदालत ने मुख्य और प्रतिपरीक्षण एक ही दिन में पूरा करने का सुझाव दिया ताकि गवाहों को प्रभावित होने से बचाया जा सके।

इस फैसले में अदालत ने निजी गवाहों (Private Witnesses) को प्राथमिकता देकर उनकी जांच पहले करने का निर्देश दिया। यह सुधार अभियुक्तों (Accused) के अधिकारों और समाज के हितों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास है।

अवसरवादी गवाह (Chance Witnesses)

"अवसरवादी गवाह" (Chance Witness) वे होते हैं जो अप्रत्याशित रूप से घटना के साक्षी बन जाते हैं। ऐसे गवाहों की गवाही स्वाभाविक रूप से संदिग्ध नहीं होती, लेकिन उनकी उपस्थिति को सावधानीपूर्वक जांचने की आवश्यकता होती है।

आंध्र प्रदेश राज्य बनाम के. श्रीनिवासुलु रेड्डी (2003) मामले में अदालत ने कहा कि यदि कोई अवसरवादी गवाह अपने वहां होने का स्पष्टीकरण दे सके, तो उसकी गवाही स्वीकार्य हो सकती है।

राजेश यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का निर्णय न्यायिक प्रक्रियाओं (Judicial Processes) में सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह अदालतों को गवाहों की समय पर और प्रभावी जांच सुनिश्चित करने का निर्देश देता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्थापित सिद्धांतों को दोहराते हुए, त्वरित और न्यायपूर्ण परीक्षण (Fair Trial) की आवश्यकता को रेखांकित किया है।

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