क्या धर्म या जाति के नाम पर वोट मांगना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अनुसार भ्रष्ट आचरण है?

Update: 2024-10-11 13:50 GMT

इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) की धारा 123(3) (Section 123(3)) की व्याख्या पर महत्वपूर्ण सवाल उठाया। मुख्य मुद्दा यह था कि क्या धर्म, जाति, समुदाय या नस्ल के नाम पर वोट मांगना, भ्रष्ट आचरण (Corrupt Practice) माना जाएगा? यह फैसला इसलिए भी अहम है क्योंकि यह चुनावों में भ्रष्ट आचरण की सीमाओं को स्पष्ट करता है और चुनाव को अमान्य कर सकता है।

कानूनी पृष्ठभूमि (Legal Background)

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 (Section 123) विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट आचरणों की सूची देती है, जिनमें धर्म, जाति, नस्ल या समुदाय के आधार पर वोट मांगना भी शामिल है।

विशेष रूप से, धारा 123(3) (Section 123(3)) उम्मीदवारों (Candidates) को चुनाव प्रचार के दौरान इस तरह की अपीलों से रोकती है। इस कानून का उद्देश्य चुनावों की पवित्रता बनाए रखना और देश की धर्मनिरपेक्ष (Secular) संरचना को सुरक्षित रखना है।

इस मामले में मुख्य प्रश्न यह था कि क्या मतदाताओं (Voters) के धर्म या जाति के आधार पर अपील करना भ्रष्ट आचरण माना जाएगा, भले ही वह अपील उम्मीदवार के धर्म या जाति के बारे में न हो? न्यायालय को यह तय करना था कि इस तरह की अपील धारा 123(3) का उल्लंघन करती है या नहीं।

धारा 123(3) की न्यायिक व्याख्या (Judicial Interpretation of Section 123(3))

इस मामले की जड़ धारा 123(3) में मौजूद "उसका धर्म" (His Religion) शब्द के अर्थ में है। 1961 के संशोधन के बाद, यह प्रावधान (Provision) उम्मीदवार या उसके प्रतिद्वंद्वी (Rival) उम्मीदवार के धर्म के आधार पर अपील करने पर रोक लगाता है।

हालांकि, एक संकीर्ण व्याख्या (Narrow Interpretation) इस प्रावधान को केवल उस स्थिति तक सीमित करती है जहां उम्मीदवार खुद मतदाताओं से अपने धर्म के आधार पर वोट मांगता है, न कि व्यापक रूप से मतदाताओं के धार्मिक पहचान के आधार पर।

पूर्व के कुछ निर्णयों (Judgments) में इस प्रावधान की अलग-अलग व्याख्याएं की गई थीं:

1. जगदेव सिंह सिधांति बनाम प्रताप सिंह दौलता (1964) – इस मामले में यह कहा गया था कि उम्मीदवार की भाषा या धर्म के आधार पर अपील करना भ्रष्ट आचरण है। लेकिन मतदाताओं की धार्मिक पहचान के आधार पर की गई अपील पर कोई टिप्पणी नहीं की गई थी।

2. कुलतर सिंह बनाम मुख्तियार सिंह (1964) – इस फैसले में व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा गया कि धार्मिक पहचान के आधार पर की गई कोई भी अपील धर्मनिरपेक्ष (Secular) लोकतंत्र (Democracy) का उल्लंघन करती है और भ्रष्ट आचरण है।

3. रमेश यशवंत प्रभु बनाम प्रभाकर काशीनाथ कुंते (1996) – इस फैसले ने धारा 123(3) की संकीर्ण व्याख्या की और कहा कि अपील उम्मीदवार के धर्म के आधार पर होनी चाहिए, न कि मतदाताओं के धर्म पर आधारित होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Supreme Court's Ruling)

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 123(3) की संकीर्ण और व्यापक व्याख्याओं के बीच के विवाद का निपटारा किया।

न्यायालय ने एक उद्देश्यपूर्ण (Purposive) व्याख्या को अपनाया और कहा कि धर्म, जाति, नस्ल या समुदाय के आधार पर मतदाताओं से वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है। यह निर्णय पिछले मामलों में दी गई संकीर्ण व्याख्याओं से भिन्न था, जिसमें भ्रष्ट आचरण को केवल उम्मीदवार के धर्म के संदर्भ में सीमित किया गया था।

न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि लोकतंत्र (Democracy) को धर्मनिरपेक्ष पहचान से अलग रहना चाहिए। चुनावी लाभ के लिए किसी भी प्रकार से धार्मिक या जातिगत पहचान का इस्तेमाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया (Democratic Process) को नुकसान पहुंचाता है।

इसलिए, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि धर्म के आधार पर की गई कोई भी अपील, चाहे वह उम्मीदवार के धर्म से संबंधित हो या मतदाताओं के धर्म से, धारा 123(3) के तहत भ्रष्ट आचरण के दायरे में आती है।

निर्णय का महत्व (Significance of the Judgment)

यह फैसला चुनावी प्रक्रिया (Electoral Process) के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि चुनावों को धर्म, जाति या समुदाय के विभाजनकारी प्रभावों से मुक्त रहना चाहिए। इस फैसले ने भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र (Secular Democracy) को मजबूत किया है और सुनिश्चित किया है कि राजनीतिक प्रचार धार्मिक या जातिगत भावनाओं से प्रभावित न हो।

यह निर्णय यह भी स्पष्ट करता है कि भ्रष्ट आचरण की परिभाषा कितनी व्यापक है। न्यायालय द्वारा धारा 123(3) की व्याख्या के विस्तार से यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी उम्मीदवार या उसका एजेंट, जो धार्मिक या जातिगत विभाजनों का फायदा उठाने की कोशिश करता है, भ्रष्ट आचरण का दोषी माना जाएगा और उसका चुनाव अमान्य हो सकता है।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय चुनावी न्यायशास्त्र (Electoral Jurisprudence) में एक मील का पत्थर है। इसने इस बुनियादी प्रश्न का उत्तर दिया है कि क्या धर्म या जाति के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है।

अदालत ने धारा 123(3) की व्यापक और उद्देश्यपूर्ण व्याख्या की और भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया (Democratic Process) की धर्मनिरपेक्ष नींव की पुष्टि की। इस फैसले से यह सुनिश्चित होता है कि धर्म या जाति के आधार पर की गई अपीलें निषिद्ध रहेंगी और भविष्य में ऐसे मामलों में यह फैसला एक महत्वपूर्ण मिसाल बनेगा, जिससे चुनावी प्रक्रिया स्वच्छ और निष्पक्ष बनी रहेगी।

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