क्या पिछड़े वर्गों के भीतर विशेष आरक्षण संवैधानिक रूप से वैध है?

Update: 2025-03-29 11:18 GMT
क्या पिछड़े वर्गों के भीतर विशेष आरक्षण संवैधानिक रूप से वैध है?

Pattali Makkal Katchi v. A. Mayilerumperumal (2022) मामले ने विशेष रूप से पिछड़े वर्गों (Most Backward Classes - MBC) के भीतर दिए गए आरक्षण की संवैधानिकता (Constitutionality) पर महत्वपूर्ण सवाल उठाए। मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडु विशेष आरक्षण अधिनियम, 2021 (Tamil Nadu Special Reservation Act, 2021) को रद्द कर दिया, जिसने वन्नियार (Vanniyar) समुदाय को MBC श्रेणी के भीतर 10.5% आंतरिक आरक्षण (Internal Reservation) दिया था।

यह निर्णय इस आधार पर लिया गया कि यह अधिनियम पर्याप्त ठोस आधार पर आधारित नहीं था और संवैधानिक सिद्धांतों के विपरीत था। यह मामला भारत में आरक्षण नीतियों (Reservation Policies) को नियंत्रित करने वाले मूल संवैधानिक प्रावधानों (Constitutional Provisions) और न्यायिक मिसालों (Judicial Precedents) पर प्रकाश डालता है।

न्यायालय द्वारा विचार किए गए मुख्य मुद्दे (Fundamental Issues Considered by the Court)

इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या राज्य सरकार को 2021 के इस अधिनियम को लागू करने का विधायी अधिकार (Legislative Competence) था और क्या वन्नियार समुदाय को MBC श्रेणी के भीतर विशेष आरक्षण देना संवैधानिक रूप से वैध था। न्यायालय ने यह जांच की कि क्या यह कानून ठोस आंकड़ों (Empirical Data) पर आधारित था और क्या यह संविधान में निहित समानता (Equality) के सिद्धांतों के अनुरूप था। निर्णय ने व्यापक रूप से यह भी संबोधित किया कि क्या एक पिछड़े वर्ग के भीतर एक विशेष समूह को सिर्फ ऐतिहासिक या राजनीतिक कारणों से आरक्षण दिया जा सकता है, बिना किसी ठोस साक्ष्य (Substantial Evidence) के।

संवैधानिक प्रावधानों का विश्लेषण (Constitutional Provisions Analyzed)

इस मामले में कई महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधानों जैसे अनुच्छेद 15(4) (Article 15(4)), अनुच्छेद 16(4) (Article 16(4)) और हाल के संशोधनों (Amendments) पर विस्तार से चर्चा की गई।

अनुच्छेद 15(4) राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (Socially and Educationally Backward Classes - SEBC) के लिए विशेष प्रावधान (Special Provisions) बनाने की शक्ति देता है। हालांकि, ऐसा वर्गीकरण (Classification) स्पष्ट मानकों (Objective Criteria) पर आधारित होना चाहिए और मनमाने तरीके से नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने पाया कि वन्नियार समुदाय को दिया गया विशेष आरक्षण पर्याप्त डेटा (Sufficient Data) पर आधारित नहीं था, जिससे यह संवैधानिक रूप से गलत साबित हुआ।

अनुच्छेद 16(4) सरकारी नौकरियों (Public Employment) में उन पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की अनुमति देता है जो पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं। इस निर्णय में यह दोहराया गया कि आरक्षण नीति (Reservation Policy) केवल तभी लागू हो सकती है जब इसके समर्थन में पर्याप्त मात्रात्मक आंकड़े (Quantifiable Data) उपलब्ध हों। तमिलनाडु विशेष आरक्षण अधिनियम (Tamil Nadu Special Reservation Act) इस आवश्यक शर्त को पूरा करने में असफल रहा।

102वें संवैधानिक संशोधन (102nd Constitutional Amendment) इस मामले में प्रमुख मुद्दा था। इस संशोधन के तहत, केवल राष्ट्रपति (President) को यह अधिकार दिया गया कि वे राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (National Commission for Backward Classes - NCBC) की सिफारिशों (Recommendations) के आधार पर सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करें।

सुप्रीम कोर्ट ने Dr. Jaishri Laxmanrao Patil v. Chief Minister, Maharashtra (2021) मामले में इस संशोधन की व्याख्या की थी और कहा था कि राज्य अब स्वतंत्र रूप से SEBC की पहचान नहीं कर सकते, जब तक कि उन्हें स्पष्ट रूप से ऐसा करने की अनुमति न दी जाए। मद्रास हाई कोर्ट ने इस फैसले का अनुसरण किया और कहा कि तमिलनाडु का विशेष आरक्षण कानून संवैधानिक अधिकार क्षेत्र (Legislative Authority) से बाहर था।

बाद में 105वें संवैधानिक संशोधन (105th Constitutional Amendment) के माध्यम से राज्यों को पुनः पिछड़े वर्गों की पहचान करने की शक्ति दी गई। लेकिन न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह संशोधन उन कानूनों को वैध नहीं कर सकता जो पहले से ही असंवैधानिक (Unconstitutional) घोषित हो चुके हैं। यह मामला यह भी दिखाता है कि आरक्षण नीति (Reservation Policy) की व्याख्या और राज्य व केंद्र सरकार की भूमिका लगातार बदल रही है।

महत्वपूर्ण न्यायिक मिसालें (Important Judgments Considered)

इस फैसले में कई ऐतिहासिक न्यायिक मिसालों (Judicial Precedents) का हवाला दिया गया।

State of Madras v. Srimathi Champakam Dorairajan (1951) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जाति आधारित आरक्षण (Caste-Based Reservation) अनुच्छेद 29(2) (Article 29(2)) का उल्लंघन करता है, जो सभी को शैक्षिक संस्थानों (Educational Institutions) में समान प्रवेश का अधिकार देता है। इस फैसले के बाद संविधान में पहला संशोधन किया गया और अनुच्छेद 15(4) जोड़ा गया, जिससे पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान की अनुमति मिली। लेकिन, Pattali Makkal Katchi मामले में न्यायालय ने दोहराया कि अनुच्छेद 15(4) के तहत भी आरक्षण नीतियां पर्याप्त साक्ष्य (Substantial Evidence) पर आधारित होनी चाहिए।

Deep Chand v. State of U.P. (1959) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जब कोई कानून असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है, तो बाद में किए गए संशोधनों से उसे वैध नहीं बनाया जा सकता। मद्रास हाई कोर्ट ने इस सिद्धांत का अनुसरण करते हुए यह स्पष्ट किया कि 105वें संशोधन के बावजूद तमिलनाडु विशेष आरक्षण अधिनियम असंवैधानिक ही रहेगा।

फैसले का प्रभाव (Impact of the Judgment)

इस फैसले का भारत में आरक्षण नीतियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। यह स्थापित करता है कि आरक्षण कानून (Reservation Law) को केवल राजनीतिक लाभ (Political Gain) के लिए लागू नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए ठोस शोध (Substantial Research) और आंकड़े (Empirical Data) आवश्यक हैं।

यह फैसला राज्यों को यह चेतावनी देता है कि पिछड़े वर्गों के भीतर विशेष आरक्षण को संवैधानिक परीक्षण (Constitutional Scrutiny) पास करना जरूरी है। यह निर्णय यह भी दोहराता है कि आरक्षण केवल सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन (Social and Educational Backwardness) और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व (Inadequate Representation) के आधार पर ही दिया जाना चाहिए।

Pattali Makkal Katchi मामला एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो पिछड़े वर्गों के भीतर विशेष आरक्षण की कानूनी रूपरेखा (Legal Framework) को स्पष्ट करता है। मद्रास हाई कोर्ट के इस फैसले ने यह स्थापित किया कि आरक्षण नीति को ठोस आंकड़ों और संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।

यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि संवैधानिक संशोधन (Constitutional Amendments) किस प्रकार राज्य सरकारों की शक्ति को प्रभावित करते हैं और भारत में आरक्षण कानून कैसे विकसित हो रहे हैं। भविष्य में, राज्यों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी आरक्षण नीतियां संवैधानिक सिद्धांतों (Constitutional Principles) और न्यायिक मिसालों (Judicial Precedents) के अनुरूप हों, ताकि वे कानूनी चुनौतियों (Legal Challenges) का सामना कर सकें।

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