किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) अधिनियम का परिचय और परिभाषाएं
किशोर न्याय के संबंध में भारत की संसद द्वारा बनाए गए किशोर न्याय बालकों की देखरेख और संरक्षण अधिनियम, 2000 का सामान्य परिचय इस आलेख के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है तथा इस अधिनियम के अंतर्गत दी गई विशेष शब्दों की परिभाषाओं पर टिप्पणी की जा रही है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 82 (7) वर्ष से कम आयु के शिशु के कार्य को अपराध नहीं मानती है अर्थात कोई ऐसा बालक जिसकी आयु 7 वर्ष से कम है उसके द्वारा किया गया कोई भी कार्य अपराध नहीं माना जाता है। इसी के साथ धारा 83 (7) वर्ष से ऊपर किंतु 12 वर्ष से कम आयु के शिशु के कार्य को भी अपराध नहीं मानती है यदि उसकी समझ परिपक्व नहीं है तब परंतु 12 वर्ष से ऊपर के आयु के किशोर भारत में अधिनियमित होने वाले आपराधिक कानून के दायरे में आते हैं।
भारतीय दंड संहिता के सभी प्रावधान जो विभिन्न अपराधों के संबंध में दंड का प्रावधान करते हैं वे सभी प्रावधान भी 12 वर्ष से अधिक आयु के किशोरों पर भी लागू होते हैं अर्थात 12 वर्ष से ऊपर की आयु का कोई भी किशोर किसी भी प्रकार का अपराध करता है उस स्थिति में उसके अपराध को दंडनीय माना जाएगा तथा उस पर अभियोजन की भी व्यवस्था की गई है।
परंतु इस प्रकार 12 वर्ष से ऊपर की आयु के किशोरों के संबंध में किशोर न्याय की व्यवस्था भारत की संसद द्वारा बनाई गई है। भारत की संसद ऐसे किशोरों के संबंध में भिन्न प्रकार के न्याय की व्यवस्था करती है। यदि किसी किशोर द्वारा कोई अपराध किया जाता है तब उसके संबंध में भारत की संसद द्वारा बनाया गया किशोर न्याय बालकों की देखरेख और संरक्षण अधिनियम 2000 के प्रावधान लागू होंगे।
किसी भी राष्ट्र का निर्माण और राष्ट्र का भविष्य उस राष्ट्र के बच्चों पर निर्भर होता है यदि बच्चों के भविष्य को सुरक्षित नहीं किया गया तब राष्ट्र का भविष्य भी असुरक्षित हो जाएगा समय और परिस्थितियों के अनुरूप ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती चली जा रही है जो बालक आयु में ही अपराध कर बैठते हैं।
कानून की भाषा में अपराध की ओर प्रवृत्त बालकों को 'विधि विरोधी किशोर' कहा गया है। भारत में ऐसे किशोरों के लिए कुछ समय पूर्व किशोर, न्याय (बालकों को देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 पारित किया गया है, जो किशोर न्याय अधिनियम, 1986 (Juvenile Justice Act, 1986) का संशोधित रूप है।
सन 2000 के इस नए अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य विधि विरोधी किशोरों की देखभाल और संरक्षण की व्यवस्था एवं उनके सर्वोत्तम हित में अधिनियम के तहत विभिन्न संस्थानों के माध्यम से उनके पुनर्वास की व्यवस्था सुनिश्चित करना है।
ऐसे बालकों को जेल कचहरी आदि के वातावरण तथा पेशेवर अपराधियों से दूर रखकर उन्हें पारिवारिक माहौल उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है, जिससे वे बड़े होकर आपराधिक जगत् के बुरे वातावरण से दूर रहकर समाज में सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें।
किशोर-न्याय की परिकल्पना
उल्लेखनीय है कि विश्व की प्रायः सभी प्राचीन दण्ड-प्रणालियों में अपराधियों को दण्डित करने के मामले में वयस्क या अवयस्क, बालक, किशोर, युवा, वृद्ध पुरुष सभी को समान रूप से दण्डित किये जाए की प्रथा प्रचलित थी। अतः उस समय बाल अथवा किशोर अपराधियों को दण्डित करते समय उनके नरमी या उदारता बरतने का कोई प्रश्न ही नहीं था।
परन्तु दण्ड व्यवस्था में सुधारात्मक दृष्टिकोण को अपना लिए जाने के साथ किशोर अपराधियों के प्रति उदार एवं सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाए जाने पर बल दिया गया क्योंकि यह धारणा बदल गई कि बालक एवं किशोर स्वभावतः चंचल, दुःसाहसी और जिज्ञासु होते हैं तथा के विभिन्न प्रलोभनों की ओर शीघ्रता से आकर्षित होते हैं।
इसी कारण वे आपराधिकता की ओर सहज हो कर आकर्षित होते हैं और यदि उनकी इस प्रवृत्ति पर समय रहतें नियंत्रण न रखा गया, तो आगे चलकर उनके अपराधी बन जाने की संभावना बनी रहती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए किशोर अपराधियों से निपटने के लिए विश्व स्तर पर प्रयास किये गये तथा इनके विचारण, देखरेख एवं संरक्षण हेतु प्रचलित सामान न्यायलयीन प्रक्रिया के स्थान पर एक विशिष्ट किशोर न्याय व्यवस्था लागू की गई है।
बाल अधिनियम, 1960
भारत की दण्ड प्रक्रिया संहिता, की धारा 27 एवं 360 में उपबंधित था कि एक निश्चित भीमा से कम आयु के व्यक्तियों को दण्डित करते समय उनके प्रति विशेष उदारता बरतो जानी चाहिए। किशोर न्याय के प्रति बढ़ती हुई कटिबद्धता को ध्यान में रखते हुए ये प्रावधान कम प्रतीत हुए।
अतः विश्व स्तर पर किशोरों के प्रति उदारता को नौति का अनुसरण करते हुए भारत में सन् 1960 में बाल अधिनियम पारित किया गया। यह अधिनियम सन 1986 लागू रहा। परंतु राष्ट्र संघ के सदस्य देश के नाते भारत के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह सितम्बर, 1965 में राष्ट्रसंघ द्वारा किशोर न्याय प्रशासन हेतु पारित किये गए कतिपय न्यूनतम मानक नियमों को स्वीकार करते हुए उनके अनुरूप अपनी किशोर-न्याय व्यवस्था लागू करे।
किशोर न्याय अधिनियम, 1986
इसके बाद किशोर न्याय अधिनियम 1986 पारित किया गया। किशोर न्याय संबंधी उपर्युक्त न्यूनतम मानक नियमों को अपनाते हुए भारत में किशोर अपराधियों के लिए एक व्यापक कानून पारित किया जो किशोर-न्याय अधिनियम, 1986 के नाम से लागू हुआ। इस अधिनियम के लागू होते ही पूर्ववर्ती बाल अधिनियम, 1960 का निरसन हो गया।
किशोर-न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 (Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2000)-
किशोर-न्याय अधिनियम, 1986 के बाद में यह पाया गया कि इस कानून को और अधिक व्यापक और प्रभावी बनाये जाने की आवश्यकता है। इस अवधि में निरंतर बढ़ती जा रही किशोर अपराधियों की संख्या तथा उनकी समुचित देखरेख और सुरक्षा की अव्यवस्था के कारण उक्त अधिनियम के स्थान पर एक नया किशोर न्याय अधिनियम लागू करने का निर्णय लिया गया।
अत: किशोर न्याय अधिनियम, 1986 को निरसित कर किशोर न्याय ( बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 लागू किया गया है। इस अधिनियम का मूल उद्देश्य किशोर अपराधियों को न्याय सुनिश्चित कराने के साथ-साथ निराश्रित बालकों एवं किशोरों की उचित देखरेख और संरक्षण की व्यवस्था करना है।
किशोर-न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अंतर्गत विशेष शब्दों की परिभाषाएं
इस अधिनियम की धारा दो के अनुसार कुछ विशेष शब्दों की परिभाषाएं दी गई हैं इन शब्दों को इस अधिनियम के अंतर्गत उपयोग किया गया है।
इस आलेख में इन परिभाषाओं में से कुछ विशेष शब्दों के संदर्भ में व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है-
इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो -
(क) "सलाहकार बोर्ड" से केन्द्रीय अथवा राज्य सलाहकार बोर्ड अथवा किसी जिले और नगर स्तर का सलाहकार बोर्ड अभिप्रेत है, जैसी स्थिति हो, और जो धारा 62 के अधीन गठित हो।
(कक) दत्तक ग्रहण (Adoption) से वह प्रक्रिया अभिप्रेत है, जिसके द्वारा दत्तक संतान स्थायी रूप से अपने जैविक माता-पिता से पृथक् हो जाती है।
(ख) "भीख माँगना" से अभिप्रेत है-
किसी लोक स्थान में भिक्षा की याचना करना अथवा भिक्षा की याचना करते या उसको प्राप्त करने के लिए किसी प्राइवेट परिसर में प्रवेश करना, चाहे किसी भी बहाने से।
(a) भिक्षा अभिप्राप्त करने के उद्देश्य से अपना या किसी अन्य व्यक्ति का कोई व्रण, घाव, चोट या रोग अभिदर्शित करना।
(ग) "बोर्ड" से धारा 4 के अधीन गठित किशोर न्याय बोर्ड अभिप्रेत है।
(घ) "देखरेख" और "संरक्षण को आवश्यकता वाले बालक" से कोई ऐसा बालक अभिप्रेत है जिसे गृह विहीन अथवा किसी निश्चित स्थान या निवास स्थान के और जीवन निर्वाह के किसी दृश्यमान साधन के बिना पाया जाता है।
[1-क) जिसे भीख को याचना करते हुये पाया जाता है, या जो गलो-गली भटकने वाला या कामकाजी बालक है।] (i1) जो किसी व्यक्ति के साथ रहता है (जो उस बालक का संरक्षक हो अथवा नही)
(iii) जो मानसिक अथवा शारीरिक रूप से विवादित या रोगग्रस्त है या ऐसा बालक है जो बीमारियों या ऐसी बीमारियों से ग्रस्त रहता है जिनका कोई उपचार नहीं है और उसको सहारा देने वाला या उसकी देखरेख करने वाला कोई नहीं है।
(iv) उसके माता-पिता या संरक्षक हैं और ऐसे माता-पिता या संरक्षक बालक पर नियंत्रण स्थापित करने के योग्य नहीं हैं या अक्षम हैं।
(v) जिसके माता-पिता नहीं हैं और कोई भी ऐसा नहीं है जो उसकी देख-रेख करने का इच्छुक हो या उसके माता-पिता ने उसका परित्याग या अध्यर्पण कर रखा है या वे गायव हैं या बालक को छोड़कर भाग गये हैं और उसके माता पिता को युक्तियुक्त क्षति के बाद भी नहीं पाया जा सकता है।
(vi) जो कि लैंगिक दुरुपयोग अथवा अवैध कार्यों का शिकार हो रहा है अथवा इस बात की संभावना है कि उसके लिये उसका घोर दुरुपयोग होगा, उसको यातना दी जाएगी।
(ब) "संरक्षक" से किसी बालक के सम्बन्ध में उसका नैसर्गिक संरक्षक अथवा कोई अन्य व्यक्ति अभिप्रेत है जिसका कि बालक पर वास्तविक भार और नियंत्रण है और सक्षम प्राधिकारी द्वारा उसे उस समय एक संरक्षक के रूप में मान्य किया गया हो जब उस प्राधिकारी के समक्ष कोई कार्यवाही चलाई गई हो।
(ट) "किशोर" अथवा "बालक" से कोई ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जिसने अठारह वर्ष की आयु पूरी न की हो।
(ठ) "विधि-विरोधी किशोर" से कोई वह किशोर अभिप्रेत है जिसके बारे में यह अभिकथित है कि उसने कोई अपराध किया है।
(ड) "स्थानीय प्राधिकारी" से ग्राम स्तर पर पंचायतें और जिला स्तर पर जिला परिषद् अभिप्रेत हैं और उसमें कोई नगरपालिका समिति अथवा निगम अथवा कैण्टोनमेन्ट (छावनो) बोर्ड या ऐसा अन्य निकाय भी सम्मिलित है जो कि स्थानीय प्राधिकारी के रूप में कार्य करने के लिए सरकार द्वारा वैधानिक रूप से हकदार बनाया गया है।
(ढ) "स्वापक औषधि" और "मनः प्रभावी पदार्थ" से वही अभिप्रेत होगा जो कि उनसे स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 में अभिप्रेत है।
(ण) "संप्रेक्षण गृह" से वह गृह अभिप्रेत है जो कि किसी राज्य सरकार द्वारा या किसी स्वैच्छिक संगठन द्वारा स्थापित किया गया है और उस सरकार द्वारा उसको विधि विवादित किशोर के लिये धारा 8 के अधीन एक संप्रेक्षण गृह के रूप में प्रमाणित किया गया है।
(त) "अपराध" से कोई ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो कि तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन दण्डनीय बनाया गया है।
(थ) "सुरक्षा का स्थान " से ऐसा कोई स्थान या संस्थान (जो कि पुलिस हवालात या कारागार नहीं है) अभिप्रेत है जिसका प्रभावी व्यक्ति अस्थायी रूप से किशोर को लेने और उसकी देखरेख करने के लिये इच्छुक है और जो कि सक्षम प्राधिकारी की राय में किशोर के लिये सुरक्षा का स्थान हो सकता है।
किशोर अथवा बालक
इस अधिनियम के अन्तर्गत किशोर या बालक शब्द से आशय ऐसे व्यक्ति से है जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी न की हो। यह परिभाषा 18 वर्ष की आयु से कम किशोर अवस्था के सभी व्यक्तियों के प्रति लागू होती है चाहे वह लड़का हो या लड़की।
उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के अधीन 'किशोर' की परिभाषा में सोलह वर्ष से कम आयु के किशोर अथवा अठारह वर्ष से कम आयु की किशोरी को ही किशोर आयु का माना गया तथा उक्त अधिनियम के पूर्व, बाल-अधिनियम, 1960 के अधीन यह आयु किशोर एवं किशोरियों, दोनों के लिए इक्कीस वर्ष से कम आयु रखी गयी थी।
परन्तु वर्तमान किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के लड़के या लड़की को 'किशोर' अथवा 'बालक' की श्रेणी में रखा गया है।
विधि-विरोधी किशोर
इस अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत अपराध कारित करने वाले किशोर को अपराधी या अपचारी किशोर संबोधित न करते हुए विधि-विरोधी किशोर कहा गया है।
विधि-विरोधी किशोर की आयु का अभिनिर्धारण-न्यायिक दृष्टिकोण-
विधि विरोधी किशोरों के विचारण में उनके आयु के संबंध में निम्नलिखित दो बिन्दुओं पर प्रमुखता से विचार किया जाना आवश्यक होता है-
1- विधि विरोधी व्यक्ति की आयु किशोर वय की कोटि में आती है अथवा नहीं।
2- किशोर माने जाने के लिए विधि विरोधी व्यक्ति की आयु निर्धारण की तिथि उसके द्वारा कारित अपराध की तिथि हो, अथवा वह तिथि हो, जिस दिन उसे सक्षम अधिकारी के समक्ष विचारण हेतु प्रस्तुत किया गया था।
उच्चतम न्यायालय ने देवकी नन्दन दायमा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य में विनिश्चित किया कि अभियुक्त के किशोर आयु के होने या न होने की जाँच करते समय विचारण न्यायालय स्कूल रजिस्टर में अंकित की गयी विधि-विरोधी किशोर की जन्म तारीख को साक्ष्य के रूप में ग्राह्य कर सकता है परन्तु उसे स्वीकार किया जाए अथवा नहीं, यह इसके प्रमाणक मूल्य (probative value) पर निर्भर करेगा।
जहाँ स्कूल सर्टिफिकेट में दर्शायी गयी जन्म तारीख और मेडिकल प्रमाण- पत्र में अंकित जन्म तिथि में अन्तर हो, तो स्कूल सर्टिफिकेट की तारीख को बेहतर साक्ष्य माना जायेगा क्योंकि मेडिकल प्रमाण- पत्र में दर्शाई गई जन्म तारीख अनुमान पर आधारित हो सकती है अत: उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुए उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय को मामले की पुन: सुनवाई करने के निर्देश दिये।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने सुनील तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में अभिनिर्धारित किया कि विधि विरोधी व्यक्ति किशोर आयु की कोटि में आता है अथवा नहीं, यह साबित करने का भार 'किशोर' पर नहीं होगा, अपितु इसका निर्धारण न्यायालय की हो स्वप्रेरणा (suo motu) से किया जाना चाहिए।
इस वाद में सत्र न्यायालय ने किशोर की जमानत को अर्जी इस आधार पर नामंजूर कर दी थी कि उसकी मेडिकल रिपोर्ट से पता चलता था कि वह किशोर आयु को कोटि में नही आता है। न्यायालय ने विनिश्चित किया कि आयु सिद्ध करने का भार विधि- विरोधी किशोर पर नहीं होगा और न्यायालय को स्वयं ही स्व-प्रेरणा से इसका निर्धारण करना चाहिए।
इसी प्रकार एजाज अहमद बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में भी यह निर्णौत किया गया कि अभियुक्त किशोर आयु का है अथवा नहीं इसकी जाँच करके निर्णय करने का दायित्व न्यायालय का स्वयं का है। अत: ऐसी जाँच के अभाव में प्रकरण के विचारण न्यायालय को वापस लौटाने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है ताकि आयु संबंधी जाँच करके निर्णय लिया जा सके।
अजय प्रताप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में उच्च न्यायालय ने आरोपों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसकी अपराध के निर्धारण के कोई जांच नहीं की गई थी। इस मामले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपने आदेश द्वारा निर्णीत किया था कि मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार विचारण हेतु लाए गए विधि विरोधी किशोर की आयु निर्धारित अधिकतम आयु से अधिक थी, अतः उसे किशोर न्याय अधिनियम के लाभ की पात्रता नहीं थी, क्योंकि वह किशोर आयु का नहीं था।
उच्च न्यापातय ने इस मामले की अपील सुनवाई करते हुए अभिनिर्धारित किया कि जहाँ विचाराधीन किशोर द्वारा किशोर आयु का होने का तर्क किया गया हो, तो न्यायालय की यह बाध्यता हो जाती है कि वह स्वयं जाच करें कि वास्तविक सही आयु क्या है। अत: न्यायालय ने प्रकरण को अतिरिक्त सत्र न्यायालय जगदलपुर को लौटते हुए जाँच करने के निर्देश दिये।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने धीरू बनाम राजस्थान राज्य के वाद में विनिश्चित किशोर-न्याय अधिनियम के प्रयोजन के लिए विधि-विरोधी किशोर की आयु का निर्धारण केवल शारीरिक गठन आदि के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, अपितु इस हेतु स्कूल उस में अंकित जन्म तिथि के अलावा अन्य उपलब्ध प्रमाणों पर भी विचार किया जाना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय ने प्रभुनाथ प्रसाद बनाम बिहार राज्य के वाद में इस बात पर जोर दिया कि -विधि विरोधी किशोरों के विचारण में विचारण न्यायालय को सर्वप्रथम किशोर को आयु का निर्धारण स्वप्रेरणा कर लेना चाहिए ताकि बाद में इस संबंध में कोई भ्रान्ति या विवाद न रहे।
कुछ अनीता बनाम अटल बिहारी के वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि जन्म और मृत्यु रजिस्टर में प्रविष्टियाँ कानूनी रूप से रखी जाती हैं। अत: इन प्रविष्टियों का प्रयोग किशोर की आयु निवारण हेतु किया जा सकेगा तथा इसे चिकित्सकीय राय की तुलना में अधिमान्यता प्राप्त होगी।
रामदेव उर्फ राजनाथ चौहान बनाम असम राज्य के वाद में उचतम न्यायालय ने अभिनिधारेत किया कि किसी किशोर की आयु के बारे में निर्धारण हेतु स्कूल रजिस्टर में दर्ज को गयी उसकी जन्मतिथि को विश्वसनीय माना जा सकता है, परन्तु यह केवल उसी स्थिति में ग्राह्य होगी यदि वह सक्षम अधिकारी सम्यक् रूप से संधारित को गई हो।
इस वाद में स्कूल रजिस्टर में अंकित किशोर की जन्म तिथि के अनुसार वह किशोर आयु को कोटि में आना था लेकिन वह यह साबित करने में असफल रहा कि जन्म तिथि नयी उक्त प्रविष्टि किसी लोक सेवक या सक्षम प्राधिकारी द्वारा उसके कार्यकालीन कर्तव्य के अनुपालन में में गई थी। अत: न्यायालय ने उसे विश्वसनीय मानने से इन्कार कर दिया।
कृष्ण भगवान बनाय राज्य के वाद में विनिश्चित किया कि किशोर न्याय अधिनियम के प्रयोजनों के लिए 'किशोर माने जाने हेतु अभियुक्त को आयु उसके द्वारा अपराध कारित किये जाने की तारीख को विपरित अधिकतम आयु से कम होनी चाहिए।
अत: यदि अभियुक्त अपराध कारित होने को तिथि को किशोर आयु का है, जो किशोर न्यायालय में विचारण के समय उसकी आयु निर्धारित आयु से अधिक भी हो, तो भी उसका मामला किशोर न्यायालय में ही निर्णीत होगा और बाद की कार्यवाही भी इसी अधिनियम के अन्तर्गत होगी उसे कारवासित नहीं किया जा सकेगा ।
भोला भगत बनाम बिहार राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिपारित किया कि अभियुक्त 'किशोर' है अथवा नहीं, इसका निर्धारण अपराध कारित होने की तारीख को उसकी वास्तविक आयु क्या है, इस आधार पर किया जायेगा और यह निर्णय न्यायालय को ही लेना होगा कि अभियुक्त को किशोर न्याय अधिनियम के हितकारी उपबंधों की पात्रता है अथवा नहीं।
परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपने उपर्युक्त निर्णय को पलटते हुए बिहार राज्य के एक वाद में अभिनिर्धारित किया कि अभियुक्त 'किशोर' है अथवा नहीं इसकी निर्णायक तारीख यह नहीं है जिस दिन अपराध कारित हुआ था, अपितु यह तारीख है जिस दिन अभियुक्त को सक्षम अधिकारी (न्यायालय) के समक्ष प्रस्तुत किया गया था।
राजिन्दर चन्द्र बनाम चंडीगढ़ रान्य' के बाद में अभियुक्त को दिनांक 27-2-97 को अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/34 के अधीन आरोपित करके उसे उसी दिन हिरासत में लिया गया। अभियुक्त ने स्वयं को किशोर बताया क्योंकि उसने 16 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं की थी।
(किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के अन्तर्गत 16 वर्ष से कम आयु के लड़के को किशोर माना गया था लेकिन किशोर न्याय (बालकों का संरक्षण) अधिनियम 2000 के अधीन लड़के और लड़कियों दोनों के लिए यह आयु 18 वर्ष से कम होनी चाहिए) और किशोर न्याय अधिनियम 1986 का लाभ दिये जाने की माँग की ।
अभियुक्त की आयु के संबंध में जाँच के पश्चात् न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी तथा सत्र न्यायालय ने उसे 'किशोर' मानने से इन्कार कर दिया। इसके विरुद्ध अभियुक्त ने उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दायर की जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार करते हुए अभियुक्त का किशोर होना मंजूर कर लिया।
परिवादी तथा पीड़ित व्यक्ति के पिता ने उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को जन्म कुंडली, जन्म-मृत्यु रजिस्टर में दर्ज जन्म तिथि, हाईस्कूल जन्म प्रमाण पत्र आदि के आधार पर उसको जन्म तिथि 30-9-1981 होना पाया। अभियुक्त के माता-पिता तथा उसके प्रायमरी एवं हाईस्कूल अध्यापकों द्वारा दी गयी साक्ष्य पर भी विचारण न्यायालय तथा सत्र न्यायालय ने विचार किया था और यह निष्कर्ष निकाला कि किशोर न्याय अधिनियम का लाभ दिये जाने की मांग किशोर ने स्वयं की थी।
अत: आयु की गणना के अनुसार स्वयं को 'किशोर' साबित करने का भार भी उसी पर था क्योंकि इस संबंध में प्रस्तुत किये गये मौखिक एवं दस्तावेजी साक्ष्य संदेह की स्थिति उत्पन्न करते थे चूंकि अभियुक्त यह सिद्ध करने में विफल रहा था।
अतः विचारण न्यायालय तथा सत्र न्यायालय ने उसे किशोर मानने से इंकार करते हुए किशोर न्याय अधिनियम, 1986 का लाभ दिया जाना न्यायोचित नहीं माना था परन्तु उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण में निचले न्यायालयों का निर्णय उलट दिया था जिसके विरुद्ध परिवादी तथा अभियुक्त के अपराध से पीड़ित व्यक्ति के पिता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की थी।