मृत्युदंड पर भारत की न्यायिक व्याख्या: नियम, प्रावधान और ऐतिहासिक फैसले

Update: 2024-11-08 12:41 GMT

भारत में मृत्युदंड कुछ विशेष अपराधों के लिए भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत निर्धारित किया गया है। इनमें धारा 302 (हत्या), धारा 376A (दुष्कर्म जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु या स्थायी कोमा), और धारा 364A (फिरौती के लिए अपहरण आदि) प्रमुख हैं।

धारा 364A को 1993 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम के तहत जोड़ा गया, ताकि उन अपराधों को कवर किया जा सके जहां फिरौती के लिए अपहरण किया जाता है और पीड़ित को जान से मारने या गंभीर नुकसान की धमकी दी जाती है।

यह धारा विशेष रूप से बढ़ते अपहरण के मामलों को ध्यान में रखकर लाई गई थी, जिनमें अपराधियों द्वारा फिरौती के लिए गंभीर अपराध किए जा रहे थे। 1994 में इसे और संशोधित किया गया ताकि इसमें अंतर्राष्ट्रीय संगठनों या विदेशी सरकारों को प्रभावित करने वाले मामलों को भी शामिल किया जा सके।

'सबसे विरले मामलों' का सिद्धांत (Principle of 'Rarest of Rare')

भारतीय न्यायपालिका द्वारा मृत्युदंड का प्रयोग "सबसे विरले मामलों" (Rarest of Rare) के सिद्धांत के आधार पर किया जाता है। यह सिद्धांत बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (Bachan Singh v. State of Punjab) के मामले से उत्पन्न हुआ था।

इसमें बताया गया था कि मृत्युदंड केवल उन्हीं मामलों में दिया जाना चाहिए जहां कोई और सजा अपर्याप्त हो। इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मृत्युदंड का उपयोग सामान्यतः न हो, बल्कि केवल अत्यधिक गंभीर अपराधों के लिए ही हो।

इस सिद्धांत को आगे मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य (Machhi Singh v. State of Punjab) के मामले में और स्पष्ट किया गया। इसमें न्यायालय ने उन परिस्थितियों को बताया जो "सबसे विरले" श्रेणी में आती हैं, जैसे अपराध की क्रूरता, उसके पीछे का उद्देश्य, समाज पर उसका प्रभाव, और अपराध की निंदनीय प्रकृति।

पूर्ववर्ती निर्णयों का विश्लेषण (Analysis of Precedents)

इस निर्णय में विभिन्न मामलों का जिक्र किया गया, जिनसे मृत्युदंड के प्रयोग पर गहराई से चर्चा होती है:

1. अपहरण और हत्या के मामले (Kidnapping and Murder Cases): उदाहरण के लिए, हेनरी वेस्टमुलर रॉबर्ट्स बनाम असम राज्य (Henry Westmuller Roberts v. State of Assam) और मोहन बनाम तमिलनाडु राज्य (Mohan v. State of T.N.) जैसे मामलों में मृत्युदंड की सजा दी गई क्योंकि इन मामलों में मासूम बच्चों का अपहरण और हत्या शामिल था। इन निर्णयों में यह दिखाया गया कि जब अपराध निर्दोष बच्चों का क्रूरतापूर्वक अपहरण और हत्या हो, तो यह "सबसे विरले मामलों" की श्रेणी में आता है।

2. संवेदनशील तथ्यों पर विचार (Considering Mitigating Factors): न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड देने से पहले दोषी के पक्ष में ऐसे संवेदनशील पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए। बच्चन सिंह के मामले में कहा गया कि दोषी की उम्र, सुधार की संभावना और मानसिक स्थिति जैसे तत्वों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। अन्य मामलों जैसे धोंडिबा गुंडू पोमाजे बनाम महाराष्ट्र राज्य (Dhondiba Gundu Pomaje v. State of Maharashtra) में युवा उम्र को एक नरम कारण के रूप में देखा गया।

3. न्यायिक विवेक और समानुपातिकता (Judicial Discretion and Proportionality): न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सजा तय करने में न्यायिक विवेक का महत्व है। धारा 303 IPC (जिसे मिथु बनाम पंजाब राज्य (Mithu v. State of Punjab) मामले में असंवैधानिक घोषित किया गया था) के विपरीत, धारा 364A न्यायालय को विवेक का अधिकार देती है। इस तरह की संरचना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अनुरूप है।

न्यायिक विवेक और उचित सजा (Judicial Prudence and Just Punishment)

न्यायालय ने कहा कि सजा का अपराध के अनुरूप होना आवश्यक है। यदि कोई सजा बहुत कठोर हो और अपराध के अनुपात में न हो, तो उसे असंवैधानिक माना जा सकता है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के वीम्स बनाम यूनाइटेड स्टेट्स (Weems v. United States) और एन्मुंड बनाम फ्लोरिडा (Enmund v. Florida) जैसे मामलों में न्यायालय ने कहा कि सजा अपराध के अनुपात में होनी चाहिए।

सोलेम बनाम हेल्म (Solem v. Helm) के मामले में, यह बताया गया कि समानुपातिकता का सिद्धांत न केवल मृत्युदंड बल्कि अन्य सजा के मामलों में भी लागू होता है। भारत में न्यायालयों ने भी यह सिद्ध किया है कि वे सजा के प्रकार पर विधायिका के निर्णयों का सम्मान करते हैं, लेकिन यह सुनिश्चित करते हैं कि वे संविधान के प्रावधानों और नागरिकों के मूल अधिकारों के अनुकूल हों।

अनिवार्य मृत्युदंड के खिलाफ तर्क (Arguments Against Mandatory Death Sentences)

न्यायालय ने बार-बार यह कहा है कि अनिवार्य मृत्युदंड को संवैधानिक नहीं माना जा सकता। मिथु बनाम पंजाब राज्य (Mithu v. State of Punjab) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 303 IPC को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित किया कि यह न्यायालयों के विवेक को समाप्त करता है। इसके विपरीत, धारा 364A अदालत को सजा के चयन का अधिकार देती है, जिससे निष्पक्षता सुनिश्चित होती है।

इसकी वजह यह है कि अनिवार्य मृत्युदंड से व्यक्तिगत परिस्थितियों पर विचार करने की संभावना समाप्त हो जाती है, जैसे दोषी के सुधार की संभावना और सामाजिक पृष्ठभूमि। धारा 364A में अदालत को यह अधिकार देने से न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों का पालन होता है।

विधायी इरादा और न्यायिक विवेक (Legislative Intent and Judicial Prudence)

धारा 364A के पीछे विधायिका का उद्देश्य यह था कि गंभीर अपराधों के लिए सख्त प्रावधान हों, जिनका समाज पर गहरा प्रभाव हो सकता है। हालांकि, न्यायपालिका का दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करना है कि इस प्रावधान का उपयोग सावधानी से हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि यह केवल उन मामलों में हो जहां समाज की सामूहिक अंतरात्मा की मांग हो कि ऐसी कठोर सजा दी जाए।

इस निर्णय में अदालत ने दोहराया कि मृत्युदंड का प्रयोग केवल उन्हीं मामलों में किया जाना चाहिए जहां जीवन पर्यंत कारावास (Life Imprisonment) का विकल्प अपर्याप्त हो। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि सजा का निर्धारण मनमाने या अनुपातहीन तरीके से न हो और प्रत्येक मामले के सभी पहलुओं पर पूर्ण विचार किया जाए।

भारत में मृत्युदंड के प्रावधान और उनके न्यायिक व्याख्या से पता चलता है कि इसमें विधायी इरादे, संवैधानिक सुरक्षा और नैतिक मुद्दों का जटिल मिश्रण है।

न्यायपालिका ने ऐसे ढांचे को परिभाषित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जो सुनिश्चित करता है कि मृत्युदंड का प्रयोग केवल "सबसे विरले मामलों" में हो। यह दृष्टिकोण नागरिकों के जीवन के अधिकार की रक्षा करते हुए सबसे गंभीर अपराधों के लिए राज्य के न्यायसंगत उद्देश्य की भी सेवा करता है।

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