भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 8 : आपराधिक षड्यंत्र क्या होता है?

Update: 2020-12-12 05:45 GMT

पिछले आलेख में भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दुष्प्रेरण के अपराध से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की गई है। इस आलेख में दुष्प्रेरण की ही तरह आपराधिक षड्यंत्र पर चर्चा की जा रही है। दुष्प्रेरण और आपराधिक षड्यंत्र में अंतर होता है। आपराधिक षड्यंत्र को पृथक रूप से भारतीय दंड संहिता के अध्याय 5 (ए) में परिभाषित किया गया है। इसके लिए एक पृथक धारा 120(ए) और 120(बी) में प्रावधान किए गए।

षड्यंत्र शब्द प्राचीन शब्द है। षड्यंत्र से आशय लगाया जाता है किसी अवैध कार्य को करने की पूर्व योजना। षड्यंत्र किसी एक व्यक्ति द्वारा भी बनाया जा सकता है परंतु भारतीय दंड संहिता ने एक से अधिक व्यक्तियों के बीच षड्यंत्र के लिए आवश्यक तत्व बताए हैं। किसी भी अवैध काम को वैध साधनों के द्वारा या वैध काम को अवैध साधनों के द्वारा जब एक से अधिक व्यक्ति द्वारा किसी समझौते के तहत किया जाता है तब ऐसा कार्य आपराधिक षड्यंत्र होता है।

आज इस आधुनिक युग में अनेक अपराध आपराधिक षड्यंत्र के अंतर्गत किए जा रहे हैं। हत्याकांड अधिकांश आपराधिक षड्यंत्र के अंतर्गत कारित किए जा रहे हैं। चोरी लूट डकैती के अपराध भी आपराधिक षड्यंत्र के अंतर्गत किए जा रहे हैं। भारतीय दंड संहिता में आपराधिक षड्यंत्र पर विशेष प्रावधानों की नितांत आवश्यकता थी। किसी समय भारतीय दंड संहिता में आपराधिक षड्यंत्र का कोई समावेश नहीं था। सन 1913 में एक संशोधन के द्वारा आपराधिक षड्यंत्र को भारतीय दंड संहिता में सम्मिलित किया गया है, इसके पूर्व इस संहिता में आपराधिक षड्यंत्र के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। सन 1868 में मुल्की बनाम आर के मामले में न्यायाधीश विल्लेस ने यह कहा था कि षड्यंत्र दो या दो से अधिक व्यक्तियों के केवल आशय में ही समाविष्ट नहीं रहता है अपितु यह उनके द्वारा किसी अवैध कार्य को या किसी वैध कार्य को अवैध साधनों से करने की सहमति में निहित रहता है।

षड्यंत्र का सबूत प्रत्यक्ष साक्ष्य हो सकता है, यद्यपि वह यदा-कदा ही उपलब्ध हो सकता है। षड्यंत्र को परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा ही साबित किया जा सकता है अर्थात किसी अपराध की परिस्थितियों से ही षड्यंत्र के विद्यमान होने की जानकारी उपलब्ध हो जाती है। अभियुक्त की सह अपराधिता को भी निश्चित करने के लिए घटना के पूर्व उस के दरमियान और उसके बाद की परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए।

सह अभियुक्त की संस्वीकृति पर संपोषण के बिना भी विचार किया जा सकता है। किसी भी षड्यंत्रकारी द्वारा कुचक्र को अग्रसर करने में किसी भी कार्य द्वारा षड्यंत्र को बनाए रखा जा सकता है और उसके सभी सदस्यों के संदर्भ में उसका नवीनीकरण किया जा सकता है। यह ऐसा अपराध है जो अन्य अपराधों से स्वतंत्र है यह तब घटित होता है जब किसी अवैध कार्य को करने या उसका किया जाना कार्य करने या अवैध साधनों से किसी ऐसे कार्य को करने की जो अवैध नहीं है कोई सहमति होती है।

सहमति के अभाव में अपराध करने का विचार मात्र अपराध का निर्माण नहीं करता है। षड्यंत्र का जन्म साधारण तौर पर गोपनीयता में होता है अतः प्रत्यक्ष साक्ष्य को उपलब्ध करना कठिन होता है। आपराधिक षड्यंत्र को परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर और यह आवश्यक विवक्षा के द्वारा साबित किया जा सकता है। छोटा षड्यंत्र किसी बड़े षड्यंत्र का भाग हो सकता है।

जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा कुछ व्यक्तियों को एकत्रित करके उनसे यह समझौता करना कि किसी आमुख व्यक्ति की हत्या कर देने पर वह व्यक्ति उन सभी व्यक्तियों को कोई निश्चित धनराशि या कोई अन्य लाभ देगा, यहां पर आपराधिक षड्यंत्र का मामला बनता है। आपराधिक षड्यंत्र में किसी करार के माध्यम से कोई व्यक्ति किसी अवैध कार्य को करने के लिए एक दूसरे को सहमत करते हैं।

धारा 120(क)

भारतीय दंड संहिता की धारा 120 क आपराधिक षड्यंत्र की परिभाषा प्रस्तुत करती है। सहिंता की इस धारा के अंतर्गत आपराधिक षड्यंत्र पर विस्तृत विचार रख दिए गए हैं तथा इस धारा के बाद आपराधिक षड्यंत्र में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रह जाती है। इस परिभाषा के अनुसार जब दो या दो से अधिक व्यक्ति कोई अवैध कार्य अथवा कोई कार्य जो अवैध नहीं है अवैध साधनों द्वारा करने या करवाने को सहमत होते हैं तब ऐसी सहमति को आपराधिक षड्यंत्र कहा जाता है परंतु किसी अपराध को करने की कोई सहमति के सिवाय कोई सहमति आपराधिक षड्यंत्र तब तक नहीं होगी जब तक की सहमति के अलावा कोई कार्य उसके अनुसरण में उस सहमति के एक या अधिक पक्षकारों द्वारा नहीं कर दिया जाता है।

इस धारा के स्पष्टीकरण के अनुसार यह तत्वहीन है कि अवैध कार्य ऐसी सहमति का चरम उद्देश्य है या उस शेष का अनुषांगिक मात्र है।

इस प्रकार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच किसी अवैध कार्य को करने अथवा किसी वैध कार्य को अवैध साधनों के द्वारा किए जाने का करार अथवा समझौता ही आपराधिक षड्यंत्र है।

भारतीय दंड संहिता का अध्ययन करते समय भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अध्ययन को भी ध्यान में लाना चाहिए। संविदा अधिनियम के अनुसार धारा 10 में संविदा की जो परिभाषा दी गई है उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई करार संविदा तभी होता है जब वह विधिपूर्ण उद्देश और वैध प्रतिफल लिए होता है अर्थात किसी करार में यदि कोई विधिपूर्ण प्रतिफल अर्थात कोई ऐसा प्रतिफल हो जिसे विधि द्वारा मान्यता दी गई है और विधिपूर्ण उद्देश्य हो अर्थात कोई ऐसा उद्देश हो जिसे विधि द्वारा निषिद्ध नहीं किया गया है तब ही कोई करार संविदा बन पाता है।

कोई करार जब विधिपूर्ण उद्देश्य के साथ नहीं होता है तो उसे संविदा का रूप नहीं प्राप्त होता है। जैसे कि यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को गोली मारने के बदले ₹100000 की धनराशि देने का करार करता है यहां पर दोनों व्यक्तियों के बीच करार तो हो गया परंतु इस प्रकार का करार संविदा का रूप नहीं रखता है, इस करार को प्रवर्तन कराने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता तथा न्यायालय इस प्रकार के करार को प्रवर्तन करने के लिए बाध्य नहीं होता है तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 120(क) के अंतर्गत इस प्रकार का करार दंडनीय अपराध है।

भारतीय दंड संहिता ने अनेक ऐसे कार्यों को अपराध घोषित किया है जो इस समाज के लिए घातक है। इन कार्यों को यदि कोई व्यक्ति किसी करार के माध्यम से करता है तो वह अपराध का रूप ले लेता है। कोई भी ऐसा कार्य जिसे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध घोषित किया गया है किसी करार के माध्यम से नहीं किया जा सकता यदि किया जाएगा तो धारा 120 (ए) के अंतर्गत उसे अपराध घोषित करके दंडित किया जाएगा।

इस संबंध में स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम सोमनाथ थापा एआईआर 2013 एससी 651 के प्रकरण में कहा गया है कि आपराधिक षड्यंत्र के अपराध के गठन के लिए निम्नांकित बातें आवश्यक हैं- किसी अवैध कार्य में लिप्त रहने का ज्ञान होना और किसी वैध कार्य को अवैध साधनों द्वारा किए जाने का ज्ञान होना।

के हासिम बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि आपराधिक षडयंत्र के लिए किसी अवैध कार्य को करने का करार मात्र आवश्यक है कोई प्रकट कार्य कर लिया जाना आवश्यक नहीं है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 120 (ए) का अध्ययन करने के पश्चात आपराधिक षडयंत्र के कुछ आवश्यक तत्वों का ज्ञान होता है जिनको लेखक द्वारा इस आलेख में प्रस्तुत किया जा रहा है-

षड्यंत्रकारियो के बीच किसी करार का होना-

भारतीय दंड संहिता की इस धारा के अनुसार आपराधिक षड्यंत्र का अपराध तभी बनता है जब षड्यंत्रकारियो के मध्य इस प्रकार का कोई करार होता है। करार का अर्थ एग्रीमेंट है करार का अर्थ संविदा नहीं है। आपराधिक षड्यंत्र के अपराध का सार इस करार के आसपास ही है। किसी विधि का उल्लंघन करने के लिए संगठित होना मात्र अपराध के लिए पर्याप्त है फिर चाहे उसके अनुसरण में कोई कार्य किया गया हो या नहीं किया गया हो।

आपराधिक षड्यंत्र के लिए आवश्यक नहीं है कि समझौता करने वाले सभी व्यक्तियों को कोई अपराध कारित किए जाने के लिए सक्षम होना चाहिए। अभी तो विधि का उल्लंघन करने के उद्देश्य से संगठन के रुप में सम्मिलित होना ही आपराधिक षड्यंत्र के लिए पर्याप्त है फिर यह भी आवश्यक नहीं है कि आपराधिक षड्यंत्र में भाग लेने वाले सभी सदस्यों को षड्यंत्र के बारे में विस्तृत जानकारी हो। आपराधिक षड्यंत्र के अपराध के गठन के लिए यह भी आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक षड्यंत्रकारी षड्यंत्र के प्रत्येक कार्य में सक्रिय रूप से भाग ले। किसी अवैध कार्य को करने का मन बना लेना मात्र षड्यंत्र है, कोई व्यक्ति दूर रहकर भी आपराधिक षड्यंत्र के कार्य में संलिप्त हो सकता है, आपराधिक षड्यंत्र के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि कोई व्यक्ति उस कार्य में भागीदारी करें यदि किसी व्यक्ति की हत्या की जाती है तथा इस प्रकार की हत्या किसी षड्यंत्र के उपरांत की जाती है तो यहां पर आवश्यक नहीं है कि षड्यंत्र के सभी सदस्य इस हत्याकांड में भाग ले, कुछ सदस्य हत्याकांड के स्थल से दूर हो सकते हैं और दूर रहकर भी वह इस हत्याकांड में भाग ले सकते हैं।

हीरालाल भगवती बनाम सीबीआई एआईआर 2003 एससी 2545 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि आपराधिक षड्यंत्र को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना कठिन है क्योंकि इस प्रकार के षड्यंत्रकारी आपस में हुए करार के लिए कोई लिखित समझौता नहीं करते हैं तथा इनके समझौते को साबित किया जाना कठिन होता है, इसके लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि अभियुक्त किसी अवैध कार्य को करने के लिए सहमत हुए थे। इस प्रकार की सहमति को परिस्थितिजन्य साक्ष्य के द्वारा साबित किया जा सकता है।

इस संबंध में के आर पुरुषोत्तम बनाम स्टेट ऑफ़ केरल एआईआर 2006 एससी 35 के प्रकरण में एक मंदिर में कुछ सोने के आभूषण बनाए जा रहे थे देवासम अधिकारी तथा देवासम बोर्ड के आयुक्त पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने आपस में षड्यंत्र रच कर सोने का दुर्विनियोग किया है लेकिन इस संबंध में कोई साक्ष्य नहीं उपलब्ध हो सके। षड्यंत्रकारियों के बीच ऐसा कोई करार था इसे साबित नहीं किया जा सका। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसे करार के अभाव में अभियुक्तगणों को धारा 120 (बी) के अंतर्गत आपराधिक षडयंत्र के लिए दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।

आपराधिक षड्यंत्र पर एनी सिटी लोबो बनाम स्टेट ऑफ़ गोवा के मामले में तीन अभियुक्त थे। एक अभियुक्त बैंक का कर्मचारी था। उसने बैंक से एक खाली बैंक ड्राफ्ट लिया दूसरे अभियुक्त ने उस पर बैंक अधिकारी के जाली हस्ताक्षर किए तथा तीसरे अभियुक्त ने बैंक में कल्पित व्यक्ति के नाम से खाता खोलकर रुपए उठाएं। उच्चतम न्यायालय ने तीनों अभियुक्तों को आपराधिक षडयंत्र का दोषी ठहराया।

आपराधिक षड्यंत्र के अंतर्गत किसी अवैध कार्य को करने का करार तब तक बना रहता है जब तक कि ऐसा करार करने वाले व्यक्ति उससे संबंध रहते हैं उसके अनुसरण में कोई कार्य करते रहते हैं।

अनेक प्रकरणों के माध्यम से यह साबित हो चुका है कि आपराधिक षड्यंत्रओं के लिए सभी सदस्यों का किसी एक स्थान पर उपस्थित होना आवश्यक नहीं है कोई भी सदस्य किसी भी स्थान पर हो सकता है तथा घटनास्थल से दूर हो सकता है उसके बावजूद भी वह आपराधिक षडयंत्र में शामिल हो सकता है।

करार किसी अवैध कार्य के लिए किया जाना-

आपराधिक षड्यंत्र का करार षड्यंत्र के पक्षकारों के मध्य किसी अवैध कार्य को किए जाने के लिए होना चाहिए या फिर कोई वैध कार्य को किसी अवैध साधनों के माध्यम से किए जाने के लिए होना चाहिए। विधि केवल अवैध कार्यों को ही अपराध घोषित नहीं करती है अपितु किसी वैध कार्य को अवैध साधनों के माध्यम से कारित किए जाने पर भी अपराध का उल्लेख किया गया है। इस धारा के अंतर्गत कोई करार किया जाना मात्र आपराधिक षड्यंत्र का अपराध घटित नहीं करता है जब तक कि ऐसा करार किसी अवैध कार्य को किए जाने के लिए नहीं हो अर्थात स्पष्ट है कि कोई भी ऐसा कार्य किया जाना चाहिए जो आपराधिक षड्यंत्र की कोटि में रखा जा सके, कोई भी अवैध कार्य जब करार के माध्यम से किया जाएगा वह आपराधिक षड्यंत्र कहलाएगा।

उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न भागों में धारा 120 (ए) के अपने कुछ अभिमत व्यक्त किए हैं। टोपनदास बनाम बांबे के बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 120 (ए) में आरोपी चार व्यक्तियों में से तीन व्यक्ति दोषमुक्त कर दिए जाते हैं तो चौथे अभियुक्त को आपराधिक षडयंत्र का दोषी नहीं माना जा सकता परंतु बद्री प्रधान बनाम उड़ीसा राज्य एआईआर 1956 उच्चतम न्यायालय 469 के प्रकरण में कहा गया है कि एक अभियुक्त को षड्यंत्र के अपराध में दोषसिद्ध किया जा सकता है और अन्य अभियुक्तों को मुक्त कर दिया जा सकता है।

दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच करार होना-

षड्यंत्र किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं होता है षड्यंत्र में एक से अधिक व्यक्ति चाहिए होते हैं। कोई भी षड्यंत्र दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच ही होता है। आपराधिक षड्यंत्र का मूल तत्व अवैध सहमति है और साधारण तौर पर यह अपराध उसी क्षण पूर्ण हो जाता है जब सहमति हो जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी षड्यंत्रकारी षड्यंत्र के प्रत्येक विवरण या विस्तार को जानते हो और यह भी आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक को सभी षड्यंत्रकारी कृत्य को करने में सक्रिय रूप से भाग ले।

इसी तरह षड्यंत्रकारी योजना की केवल जानकारी या उस पर विचार विमर्श स्वयं अपने आप में षड्यंत्र का निर्माण नहीं करता है, सहमति के समापन तक षड्यंत्र चलता रहता है। धारा 120 (ए) के अंतर्गत अपराध संगठित करने के लिए सहमति आवश्यक है, दूसरे शब्दों में आपराधिक षड्यंत्र का मूल तत्व दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सहमति में निहित है। षड्यंत्र के हर प्रकार के बीच एक सामान्य आशय का होना आवश्यक है। इस हेतु नई तकनीकों का अन्वेषण किया जा सकता है। वह नए कौशल और चालो का साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

यशपाल मित्तल बनाम पंजाब 1977 एसएससी 540 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि धारा 120 (ए) के अधीन आपराधिक षड्यंत्र के अपराध का मूल तत्व सहमति है। इसे सामान्य सहमति या संघ भी कहा जा सकता है। षड्यंत्र के प्रत्येक पक्षकार के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं उसकी प्रत्येक बारी की योजना को विस्तार से जाने षड्यंत्र के कुछ पक्षकारों द्वारा लक्ष्य पर पहुंचने के लिए अलग-अलग अपराध किए जा सकते हैं जिससे अन्य षड्यंत्रकारी चाहे भले ही अवगत न हो सके।

आपराधिक षड्यंत्र के अपराध का मुख्य लक्षण यह है कि जितने भी साधन व्यवहार में प्रयुक्त जितने भी अवैध कार्य संपन्न किए गए हो वह सब षड्यंत्र के उद्देश्य को अग्रसर करने में किए गए हो चाहे भले ही षड्यंत्र में सम्मिलित एक से अधिक अपराधियों द्वारा कुछ ऐसे कार्य किए गए हो जिसकी जानकारी अन्य षड्यंत्रकारियो को नहीं उपलब्ध हो। इस प्रकार षड्यंत्र में सम्मिलित प्रत्येक अपराधी षड्यंत्र के लिए उत्तरदायी होता है।

इस प्रकरण से यह समझा जा सकता है कि षड्यंत्र के लिए यह भी आवश्यक नहीं होता है कि सभी पक्षकार किसी अपराध को एक ही प्रकार से कारित करतें हो परंतु यह जरूर आवश्यक है कि इस षड्यंत्र के सभी सदस्य एक ही लक्ष्य रखते हैं।

जैसे कि यदि किसी शहर में कोई बड़ा बम विस्फोट करना है। इस विस्फोट करने में कोई विस्फोटक पदार्थ लेकर आता है, कोई उससे बम का निर्माण करता है,कोई उस बम को किसी अन्य स्थान पर रखता है तथा कोई उस बम से विस्फोट करता है। लक्ष्य सभी का एक ही है बम विस्फोट परंतु कार्य सभी के द्वारा प्रथक प्रथक किए जा रहे हैं। इसमें यह भी आवश्यक नहीं है कि सभी षड्यंत्रकारियो को एक दूसरे के कार्यों की जानकारी हो एक दूसरे के कार्यों की जानकारी होना ही आवश्यक नहीं है परंतु सभी का आशय अत्यंत सामान्य है।

दुराशय आपराधिक षड्यंत्र का एक अनिवार्य तत्व होता है। दुराशय के अभाव में किसी व्यक्ति को आपराधिक षड्यंत्र में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। सेठ सुरंग भाई बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात एआईआर 1984 एससी 151 के प्रकरण में कहा गया है कि किसी सोसायटी के अध्यक्ष को मात्र इस आधार पर आपराधिक षड्यंत्र में सम्मिलित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह सोसाइटी के सभी कागज पत्रों दस्तावेजों आदि पर हस्ताक्षर करता था या विवादास्पद दस्तावेजों पर भी उसके हस्ताक्षर थे।

आपराधिक षड्यंत्र का सामान्य आशय के बीच में अत्यंत सूक्ष्म अंतर होता है। इन दोनों के भीतर वही अंतर है जो आपराधिक षड्यंत्र एवं दुष्प्रेरण में है अर्थात प्रथम में करार मात्र पर्याप्त होता है जबकि दूसरे में किसी कार्य का वस्तुत व संपादित होना आवश्यक है। षड्यंत्र केवल करार के माध्यम से ही विद्यमान हो जाता है।

पीके चंद्रसेन बनाम स्टेट ऑफ केरल एआईआर 1955 एससी 1066 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि आपराधिक षडयंत्र के मामलों में प्रत्यक्ष साक्ष्य मिलना अत्यंत कठिन होता है क्योंकि आपराधिक षडयंत्र की योजनाएं अत्यंत गोपनीयता से बनाई जाती है। इस मामले में मिथाइल अल्कोहल लेकर 24 व्यक्तियों को दृष्टि विहीन कर दिया गया था जो साक्ष्य आया उसमें यह कहा गया है कि किसी विशेष प्रमुख अभियुक्त अन्य अभियुक्तगण के साथ नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने कहा ऐसा आवश्यक नहीं था ऐसे अपराधों को परिस्थितिजन्य साक्ष्य से साबित किया जा सकता है।

आपराधिक षड्यंत्र के लिए दंड-

भारतीय दंड संहिता की धारा 120 (बी) आपराधिक षड्यंत्र के लिए दंड की व्यवस्था करती है। प्रैक्टिकल मामलों में पुलिस द्वारा जब भी कोई प्रकरण मनाया जाता है तथा अनुसंधान में एक से अधिक व्यक्ति पाए जाते हैं वह सभी के बीच में कोई षड्यंत्र की उपस्थिति प्रतीत होती है तब प्रकरण में पुलिस द्वारा धारा 120 (b) का प्रयोग किया जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 120(बी) आपराधिक षड्यंत्र के लिए दंड का प्रावधान कर रही है। इस धारा के अनुसार आपराधिक षड्यंत्र का दंड उस समय कठोरतम होता है जब षड्यंत्रकारी सहमति यह समझौता किसी गंभीर अपराध को करने के लिए करते हैं, यदि सहमति से समझौता किसी हल्के और साधारण अपराध के लिए किया जाए तो उसका दंड साधारण होता है।

इस धारा के अनुसार यदि कोई ऐसा अपराध किया गया है जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय है या 2 वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय हैं उस स्थिति में आपराधिक षड्यंत्र के लिए दंड वही होगा जो दंड दुष्प्रेरण के लिए होता है अर्थात जिस प्रकार का अपराध किया गया है उस अपराध के लिए जो दंड की व्यवस्था है वही दंड आपराधिक षड्यंत्र के मामले में भी दिया जाएगा।

जैसे कि यदि आपराधिक षड्यंत्र के माध्यम से कोई हत्या का अपराध कारित किया जाता है। हत्या का अपराध करने पर मृत्यु दंड तक की व्यवस्था की गई है यदि आपराधिक षड्यंत्र के माध्यम से हत्या का अपराध होता है तो वही दंड होगा जो दंड हत्या के लिए होगा।

यदि आपराधिक षड्यंत्र 2 वर्ष से कम अवधि के कारावास के अपराध से संबंधित है ऐसी परिस्थिति में षड्यंत्र के लिए दंड 6 माह की अवधि के कारावास तक का हो सकता है।

यह धारा उन व्यक्तियों पर प्रयोज्य होती है जो षड्यंत्र की निरंतरता के दौरान ऐसे षड्यंत्र के सदस्य होते हैं।

उदाहरण के लिए 2 से अधिक व्यक्तियों द्वारा मिलकर आपराधिक षड्यंत्र के माध्यम से लूट की योजना बनाई गई है तब उन सभी व्यक्तियों के भीतर सामान्य आशय के अंतर्गत लूट कारित की जाएगी। लूट में भी आपराधिक षड्यंत्र का समावेश होगा अब जो दंड की व्यवस्था लूट हेतु रखी गई है वही आपराधिक षड्यंत्र के लिए होगी अर्थात जो अपराध किया गया है जिस अपराध के लिए जो दंड भारतीय दंड संहिता में उल्लेखित किया गया है वहीं दंड आपराधिक षड्यंत्र के लिए भी होगा।

मोहम्मद उस्मान मोहम्मद हुसैन मनिहार और स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह भी निर्धारित किया गया की धारा 120 (बी) के अधीन अपराध के लिए अभियोजन पक्ष को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं होती कि अवैध कार्य करने के लिए अभिव्यक्त रूप से करार किया गया है। ऐसा करार किसी अवैध कार्य में लिप्त रहने मात्र के आधार पर साबित किया जा सकता है जैसे कि षड्यंत्रकारियों का साथ साथ में रहना, कोई हथियार लाकर साथ में रखना, रुपए पैसों का कोई लेन-देन हो, तथा घटनास्थल के निकट सभी अपराधियों का एक साथ पाया जाना यह सभी परस्थितिजन्य साक्ष्य हैं तथा आपराधिक षड्यंत्र को साबित कर रहे हैं।

आपराधिक षड्यंत्र के अंतर्गत षड्यंत्र के दोषी व्यक्ति को भी वही दंड दिया जाता है जो मूल अपराध के लिए दंड दिया जाता है यदि हत्या षड्यंत्र के माध्यम से कारित की गई है तो अन्य हत्यारों को जो दंड दिया जाएगा वहीं दंड आपराधिक षड्यंत्र के लिए भी दिया जाएगा।

Tags:    

Similar News