पिछले आलेखों में साधारण अपवाद तथा निजी प्रतिरक्षा हेतु प्रावधानों पर चर्चा की गई थी, इस आलेख में दुष्प्रेरण के संबंध में चर्चा की जा रही है।
दुष्प्रेरण
प्रत्येक सांसारिक कार्य के पीछे कोई न कोई प्रेरणा होती है कहीं न कहीं से कोई न कोई विचार किसी भी नवाचार के लिए व्यक्ति को प्रेरित करता है। किसी भी कार्य से प्रेरणा को अलग नहीं किया जा सकता, बड़ी बड़ी लड़ाइयां किसी प्रेरणा से ही लड़ी गई है तथा बड़ी-बड़ी इमारतें किसी न किसी प्रेरणा के परिणामस्वरुप ही निर्माण की गई।
जब कोई अच्छे कार्य के लिए कोई विचार मिलता है तब वह प्रेरणा हो जाता है। कभी-कभी प्रेरणा निकल कर सामने आती है तथा यह तथ्य मालूम होता है कि जो कार्य किया गया है उसके पीछे कोई न कोई प्रेरणा तो थी। सामाजिक जीवन में सहायता का तत्व इस प्रकार घुल मिल गया है कि हम उसे चाहते हुए भी अलग नहीं कर सकतें। आज हमारा संपूर्ण जीवन प्रत्येक गतिविधि सहयोग पर निर्भर करती है। अकेले जीवन यापन करना अकेले ही कोई कार्य कर लेना अत्यंत कठिन है।
जब कोई अच्छा कार्य करने में सहायता मिले सहयोग मिले तो वह प्रेरणा हो सकता है परंतु कोई ऐसा कार्य जिसे अपराध घोषित किया गया है उसे करने हेतु कोई सहायता मिले तथा कोई प्रेरणा मिले तो वह दुष्प्रेरण हो जाता है तथा दुष्परिणाम दंडनीय अपराध है।
भारतीय दंड संहिता के अध्याय 5 में दुष्प्रेरण के संबंध में उल्लेख किया गया है। भारतीय दंड संहिता 1860 दुष्प्रेरण को अपराध घोषित करती है। आपराधिक कार्यों की पूर्णता के लिए दुराशय है। अपराधी के कृत्य का संवर्तन होना आवश्यक होता है। कतिपय अपराधों को छोड़कर दोनों में से किसी एक के भी अभाव में कोई आपराधिक कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अपराध के गठन के लिए आपराधिक कृत्य का पूर्ण होना आवश्यक है परंतु अपराध तब भी घटित हो सकता है जब आपराधिक कृत्य का पूर्ण संयोजन न हो पाया अर्थात यह आवश्यक नहीं है कि कोई कार्य तभी अपराध हो जब अपराध पूर्ण रूप से कारित कर दिया गया है कभी-कभी यह होता है कि अपराध पूर्ण रूप से कारित नहीं हो पाता है परंतु फिर भी कोई कार्य अपराध हो जाता है तथा इस प्रकार के अपराध को करने के पूर्व की प्रक्रिया भी अपराध होती है।
दंड संहिता के अंतर्गत धारा 107 से लेकर 120 तक दुष्प्रेरण के संबंध में प्रावधान किए गए हैं जिनका उल्लेख इस आलेख में किया जा रहा।
धारा 107
भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 107 दुष्प्रेरण के संबंध में उसकी परिभाषा प्रस्तुत कर रही है। इस परिभाषा के अनुसार दुष्प्रेरण का अपराध तीन प्रकार से कारित किया जा सकता है अर्थात 3 तरीके ऐसे हैं जिनसे दुष्प्रेरण का कोई अपराध संभव हो सकता है, जो निम्न है-
1)- किसी व्यक्ति को उकसाकर अथवा उत्साहित कर-
2)- षड्यंत्र द्वारा
3)- सहायता द्वारा
एक व्यक्ति किसी कार्य में दुष्प्रेरण का अपराध कारित करता है जो उस कार्य को करने के लिए किसी व्यक्ति को उकसाता है या उत्क्रमित करता है। एक व्यक्ति दूसरे को कोई कार्य करने के लिए उत्प्रेरित करता हुआ कहा जाता है जब वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उस कार्य को करने का सक्रिय सुझाव देता है या उसे करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
शब्द उत्प्रेरण का अर्थ किसी कार्य को करने के लिए उत्प्रेरित करना आगे बढ़ाना यह प्रेरित करना है। यह प्रोत्साहित करना है दुष्प्रेरण के लिए दुष्प्रेरण द्वारा प्रयुक्त किए गए शब्दों के अर्थ में युक्तियुक्त अनिश्चितता का होना आवश्यक होता है लेकिन वास्तविक शब्दों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है।
कोई व्यक्ति पत्र द्वारा भी किसी व्यक्ति को दुष्प्रेरित कर सकता है बशर्ते कि वह पत्र पाने वाले को मिल जाए यदि वह पत्र पाने वाले को नहीं मिलता है तो यह दुष्प्रेरण का प्रयास या दुष्प्रेरण के पूर्व की प्रक्रिया हो सकती।
उकसा कर अथवा उत्प्रेरित करके दुष्प्रेरण किया जाता है, इससे संबंधित घनश्याम सिंह का मामला है-
कुछ व्यक्तियों ने मिलकर एक विधि विरुद्ध जमाव का गठन किया था इसमें कुछ व्यक्तियों के हाथों में लकड़ियां थी लेकिन उनमें से एक व्यक्ति के पास लकड़ी नहीं थी। उसने भी लकड़ी उठा ली, एक व्यक्ति ने मारने पीटने के संबंध में सभी व्यक्तियों को आदेश दिया तथा बलवाई भीड़े ने मारना पीटना शुरू कर दिया। इस प्रकरण में यह माना गया कि जिस व्यक्ति ने मारने पीटने का आदेश दिया था उस व्यक्ति ने दुष्प्रेरण किया है तथा व दुष्कर्म का दोषी है।
षड्यंत्र द्वारा
दुष्प्रेरण का अपराध षड्यंत्र द्वारा भी कारित किया जा सकता है। षड्यंत्र द्वारा इस अपराध को कारित किया जाना इस अपराध का दूसरा प्रकार है जिसके अनुसार दो या अधिक व्यक्तियों के द्वारा किसी अवैध कार्य को करने का करार अथवा किसी अवैध साधन के द्वारा किसी वैध कार्य को करने का करार है। केवल कार्य ही अवैध नहीं होता है परंतु कभी-कभी यह भी होता है कि अवैध कार्य को वैध साधनों के द्वारा किया जाता है तथा कभी-कभी यह होता है कि वैध कार्य को अवैध साधनों के द्वारा किया जाता है।
इस परिस्थिति में दोनों ही प्रकार से कार्य अपराध हो जाता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि दुष्प्रेरक का उस व्यक्ति के साथ सम्मिलित होना आवश्यक नहीं है जो अपराध कारित करता है इतना ही पर्याप्त है कि वह किसी व्यक्ति को अपने षड्यंत्र में सम्मिलित कर ले जिसके परिणाम स्वरुप वह व्यक्ति अपराध कर बैठे।
एक मामले में अभियुक्त ने इस तरह से कहा कि यदि मरते-मरते राम-राम कहे तो वह सती हो जाएगी वह उस स्त्री की चिता तक गया उसने राम-राम का उच्चारण किया और चिता में आग लगा दी गई और महिला जल मरी। प्रकरण में निर्धारण किया गया है कि अभियुक्त आत्महत्या के दुष्परिणाम का दोषी है।
सहायता द्वारा
दुष्प्रेरण का अपराध किए जाने का तीसरा प्रकार सहायता द्वारा अपराध किया जाना है। एक व्यक्ति दुष्प्रेरण का दोषी होता है जो किसी बात के किए जाने में किसी कार्य या अवैध कार्य या लोप द्वारा जानबूझकर सहायता करता है। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के किसी कार्य को सरल यह सुगम बनाकर उसमें सहायता करता है तो वह इस धारा के अंतर्गत दोषी होता है।
सहायता कार्य द्वारा भी की जा सकती है और लोप द्वारा भी की जा सकती है। आशयित सहायता का अभिप्राय होता है।
किसी ऐसे कार्य का करना जिससे अपराध करने में सीधे सहायता मिलती हो।
जानबूझकर किसी ऐसे कार्य को न करना जिसको करने के लिए कोई आबद्ध है।
ऐसे कार्य करना जिससे किसी अन्य के द्वारा किए जाने वाले अपराध को मदद मिल सके।
इम्तियाज हसन के बहुत पुराने प्रकरण में एक जमीदार ने पुलिस अधिकारी को जो चोरी के एक मामले में अनुसंधान कर रहा था अपना मकान किराए पर दिया यह जानते हुए कि उसका उपयोग संदेहपत्र व्यक्तियों को यातना देने में किया जाएगा। मामले में धारण किया गया कि वह सहायता के दुष्कर्म का दोषी था।
जैसे कि देह व्यापार की गतिविधियों में संलिप्त रहने वाले लोगों को यदि किसी मकान मालिक द्वारा कोई मकान किराए से दिया जाता है तो यहां पर वह मकान मालिक भी सहायता के द्वारा दुष्प्रेरण के अपराध का दोषी होता है।
उत्प्रेरण का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है इसके लिए कोई शब्द भी निर्धारित नहीं है। उत्प्रेरक आचरण द्वारा भी हो सकता है उत्प्रेरण किसी किए गए कार्य के बारे में होना अपेक्षित है। किसी आपराधिक षड्यंत्र में सम्मिलित होना भी दुष्प्रेरण हो सकता है लेकिन इन दोनों में अंतर है। आपराधिक षड्यंत्र के लिए दो या अधिक व्यक्तियों का कोई अपराध कार्य करने के लिए सहमत होना मात्र पर्याप्त है चाहे वह अपराध कार्य हुआ हो या नहीं जबकि दुष्प्रेरण में से कुछ और अधिक अपेक्षित है अथवा आपराधिक षड्यंत्र के अनुसरण में कोई अवैध कार्य का होना आवश्यक है।
कुछ प्रकरणों में मूल अपराधी दोषमुक्त हो जाता है इस परिस्थिति में दुष्प्रेरक को दंडित तथा दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता। जहां किसी व्यक्ति पर किसी अपराध के दुराशय अथवा आपराधिक षड्यंत्र का आरोप हो वहां मूल अपराधी को दोष मुक्त कर दिए जाने पर दुष्प्रेरण को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता अर्थात मूल अपराधी के दोष मुक्त हो जाने पर दुष्प्रेरक भी दोष मुक्त हो जाता है। उदाहरण के लिए चोरी के मामले में अभियुक्त चोरी करने वाला मूल अपराधी दोषमुक्त कर दिया जाता है तो चोरी के लिए दुष्प्रेरक रहे व्यक्ति को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।
सामान्य आशय और दुष्प्रेरण लगभग एक समान नजर आते हैं परंतु सामान्य आशय और दुष्प्रेरण में बहुत अंतर है। सामान्य श्रेणी के अंतर्गत एक आपराधिक कृत्य कई व्यक्तियों द्वारा उन सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया जाता है प्रत्येक व्यक्ति उस कार्य के लिए उसी प्रकार उत्तरदायी होता है मानो वह कार्य उस अकेले द्वारा किया गया हो जबकि दुष्प्रेरण में एक व्यक्ति अपराध होने के पूर्व उकसाने द्वारा या सहायता द्वारा अथवा षड्यंत्र द्वारा अपने को दुष्प्रेरक के रूप में दंडनीय बना लेता है।
सामान्य आशय के अंतर्गत किसी दुष्प्रेरण का होना आवश्यक नहीं है इसी प्रकार दुष्प्रेरण के अंतर्गत सामान्य आशय का होना आवश्यक नहीं है। सामान्य आशय से दुष्प्रेरण का क्षेत्र विस्तृत है किसी निर्दोष अभिकर्ता के माध्यम से कार्य करने वाला व्यक्ति सामान्य आशय के लिए दंडनीय नहीं है जबकि वह दुष्प्रेरण के लिए दंडनीय है।
धारा 108
भारतीय दंड संहिता की धारा 108 दुष्प्रेरक की परिभाषा प्रस्तुत कर रही है। इस धारा के अनुसार वह व्यक्ति दुष्प्रेरक होता है जो अपराध करने का दुष्प्रेरण करता है। किसी ऐसे कार्य के किए जाने का दुष्प्रेरण करता है जो यदि किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो शारीरिक अथवा मानसिक क्षमता से पीड़ित नहीं है तो अपराध होता है। दुष्प्रेरण का आशय दुष्प्रेरण करने वाले व्यक्ति के आशय पर निर्भर करता है न कि उस व्यक्ति के ज्ञान पर जिन्हें उसने अपने लिए अपराध करने हेतु नियोजित किया है।
अपराध हो जाने के बाद यदि कोई व्यक्ति अपराधकर्ता के लिए कोई ऐसा कार्य करता है जो यदि पहले किया जाता तो अपराधकर्ता के लिए सहायक होता दुष्प्रेरण का कार्य नहीं माना जाता। यदि किसी व्यक्ति को प्रमुख अपराधी के रूप में दंडित किया जा चुका है तो उसे उसी अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सकता।
दुष्प्रेरण का अभियोग साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना चाहिए। इस्तियाक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां अभियुक्त पर यह आरोप लगाया गया है कि उसने एक व्यक्ति पर गोली चलाने के लिए सहअभियुक्त को उत्साहित किया था और अभियोजन का साक्षी इस संबंध में संतोषजनक न रहा हो वहां अभियुक्त के पक्ष में संदेह का लाभ मिलना चाहिए।
इसी प्रकार मेरा लिली बनाम केरल राज्य के मामले में यह भी निर्धारित किया गया है कि जहां अभियुक्त के विरुद्ध अपराध में सहभागिता और दुष्प्रेरण का कोई साक्ष्य न हो वहां केवल इस परिस्थिति के आधार पर कि अभियुक्त नहीं अभियुक्त का भाई आपराधिक कार्यकलापों में लिप्त रहता था और अड्डा चलाया करता था अभियुक्त को दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना सकता
दुष्प्रेरण के लिए दंड
भारतीय दंड संहिता की धारा 109 दुष्प्रेरण के लिए दंड की व्यवस्था करती है। धारा के अंतर्गत दुष्प्रेरण का उत्तरदायित्व वही निर्धारित किया जाता है जो प्रमुख अपराधकर्ता का हो सकता है। इसके लिए यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि प्रमुख अपराधकर्ता ने उस दुष्प्रेरण के परिणामस्वरुप ही अपराध किया है तथा दुष्प्रेरण के कार्य पर दंड प्रदान करने के लिए इस संहिता में किसी अभिव्यक्त प्रावधान का उल्लेख नहीं किया गया है।
अपराध की जाते समय दुष्प्रेरक की उपस्थिति
यदि दुष्प्रेरक प्रेरित अपराध कार्य किए जाने के समय उपस्थित रहता है तो यह समझा जाएगा कि उसने स्वयं अपराध कारित किया है। इस प्रकार की धारा 114 ऐसे मामलों में प्रयोग होती है जहां दुष्प्रेरक किसी भिन्न स्थान पर कोई अपराध कारित करने के लिए दुष्प्रेरित करता है एवं अपराध कार्य किए जाने के समय एवं स्थान पर उपस्थित हो जाता है।
उदाहरण के लिए जो षड्यंत्रकारी अपने मित्रों को किसी घर में प्रवेश करते हुए उनसे लूटते हुए घर के बाहर खड़े होकर आंखों से देखता रहता है वह धारा 114 में दंड से नहीं बच सकता।
भारतीय दंड संहिता की धारा 34 धारा 114 में बहुत ही सूक्ष्म अंतर है। धारा 34 उस समय पर प्रयोज्य होती है जब कोई आपराधिक कार्य सामान्य आशय की पूर्ति के लिए सब के द्वारा किया गया हो। इसके अनुसार आपराधिक कार्य किए जाने के समय यह आवश्यक नहीं है कि अपराधी स्वयं उपस्थित रहे जबकि धारा 114 के अंतर्गत प्रेरक को आपराधिक कार्य किए जाने समय उपस्थित रहना आवश्यक होता है चाहे वह उसमें सक्रिय भाग ले या नहीं ले। सामान्य आशय वहां भी घटित हो जाता है जहां पर इस प्रकार का आशय रखने वाला व्यक्ति उपस्थित नहीं हो जबकि धारा 114 दुष्प्रेरक की उपस्थिति पर बल दे रही है इस स्थान पर उपस्थित होना चाहिए जिस स्थान पर अपराध घटित हुआ है।
धारा 115
भारतीय दंड संहिता की धारा 115 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति मृत्यु आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध का दुष्प्रेरण करता है और ऐसे दुष्प्रेरण के लिए दंड के लिए कोई विशेष उपबंध नहीं किया गया है तो दुष्प्रेरक को 7 वर्ष तक की अवधि के कारावास से दंडित किया जाएगा और वह जुर्माना से भी दंडनीय होगा बशर्ते कि ऐसा अपराध कारित नहीं किया गया हो परंतु यदि दुष्प्रेरण के परिणामस्वरुप चोट आ गई हो तो दुष्प्रेरक को 14 वर्ष की अवधि के कारावास से दंडित किया जाएगा।
दंड संहिता के भीतर दिए गए एक दृष्टांत के माध्यम से इसे समझा जा सकता है-
'क ख ग की हत्या करने के लिए उकसाता है वह अपराध नहीं किया जाता है। यदि ख ग की हत्या कर देता तो वह मृत्यु या आजीवन कारावास के दंड से दंडनीय होता इसलिए क कारावास से जिसकी अवधि 7 वर्ष तक की हो सकेगी दंडनीय हैं और जुर्माने से भी दंडनीय है यदि दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप ग को कोई चोट कारित हो गई जाती है तो वह कारावास से जिसकी अवधि 14 वर्ष तक की हो सकेगी दंडनीय होगा और वह जुर्माने से भी दंडनीय होगा। धारा 115 इस प्रकार के अपराधों में प्रयोज्य होती है जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध होते हैं।
धारा 117
भारतीय दंड संहिता की धारा 117 राजनीतिक और सामाजिक द्वेष के अंतर्गत अपराध कारित किए जाने के संदर्भ में लागू होती है। इस धारा के अनुसार 10 से अधिक व्यक्तियों को एक साथ उकसा कर यदि कोई अपराध कारित किया जाता है तो 7 वर्ष तक का कारावास दिया जा सकेगा। इस धारा के अनुसार किसी पंथ या समाज पर कोई हमला किया जाना या फिर पर्चा चिपकाकर या फिर कोई सभा बुलाकर 10 से अधिक व्यक्तियों को किसी अपराध को करने हेतु उकसाया जाना सम्मिलित है।
आज अनेकों ऐसे धार्मिक और राजनीतिक जलसों में इस प्रकार का दुष्प्रेरण देखने को मिलता है जहां पर किसी नेता द्वारा 10 से अधिक व्यक्तियों को किसी पद या किसी दल के विरुद्ध कोई अपराध करने हेतु उकसाया जाता है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत किसी अपराध को किए जाने की सूचना को छुपाना भी अपराध होता है। किसी अपराध को संश्रय देना, किसी योजना की जानकारी होते हुए भी उसकी जानकारी को छुपाए रखना तथा किसी अपराध को सूकर बनाना भी दंडनीय अपराध है।