भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग: 3 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत विशेष शब्दों की परिभाषा (General Explanation)
भारतीय दंड संहिता से संबंधित आलेखों की सीरीज में अब तक दंड संहिता का सामान्य परिचय तथा इस संहिता के विस्तार पर चर्चा की जा चुकी है। भारत के भीतर और भारत के बाहर किए जाने वाले अपराधों पर भी प्रकाश डाला जा चुका है। इस आलेख में भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत प्रयुक्त उन शब्दों पर चर्चा की जा रही है जिनका उल्लेख इस संहिता के अध्याय 2 'साधारण स्पष्टीकरण' में किया गया है।
भारतीय दंड संहिता 1860 के विशेष शब्द-
भारतीय दंड संहिता समस्त भारतवर्ष के लिए एक साधारण दंड विधि है। इस संहिता के अध्याय 2 के अंतर्गत साधारण स्पष्टीकरण नाम का अध्याय उल्लेखित किया गया है। इस अध्याय में संहिता में प्रयुक्त होने वाले उन शब्दों की परिभाषाएं प्रस्तुत की गई है जो शब्द इस संहिता में महत्वपूर्ण रूप से कार्य करते हैं। विद्वानों ने भारतीय दंड संहिता के इस अध्याय को दंड संहिता की कुंजी तक कहा है अर्थात यदि भारतीय दंड संहिता का अध्ययन करना है तो सर्वप्रथम इस अध्याय का अध्ययन करना होगा जिससे इस संहिता के अगले अध्याय को समझने में कोई कठिनाई न हो। इसमें इस संहिता में प्रयुक्त किए गए शब्दों और अभिव्यक्तियों का अर्थ स्पष्ट किया गया है जिससे किसी भी धारा के संबंध में कोई संशय न रह जाए। यह अध्याय अविवेकपूर्ण रीति से हर मामलों के निमित्य स्पष्टीकरण नहीं प्रस्तुत करता है अपितु केवल उन्हीं मामलों के लिए स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता है जहां कठिनाई उत्पन्न हो सकती है और इस अध्याय का संदर्भ आवश्यक हो जाता है ताकि सहिंता का अर्थ ज्ञात हो सकें।
लेखक द्वारा इस अध्याय में प्रयुक्त होने वाले शब्दों में से कुछ विशेष शब्दों का उल्लेख अपने स्तर पर किया जा रहा है-
1)- लिंग
भारतीय दंड संहिता की धारा 8 के अंतर्गत लिंग शब्द को परिभाषित किया गया है। इस धारा में लिंग शब्द में नर नारी दोनों को शामिल किया गया है। कभी-कभी ऐसी स्थिति का जन्म हो जाता है कि पुरुषवाचक शब्दों से ही स्त्री के संबंध में भी उल्लेख कर दिया जाता है। ऐसे शब्द जो एकवचन अर्थ के घोतक हैं बहुवचन भी सम्मिलित होंगे, ऐसे शब्द जिनसे पुलिंग अर्थ का बोध होता हो उनके अंतर्गत स्त्रीलिंग शब्द भी आएंगे।
गिरधर गोपाल बनाम स्टेट एआईआर 1953 एमबी 147 के प्रकरण में ऐसी ही समस्या का जन्म हुआ। भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के अंतर्गत लज्जा भंग के अपराध के लिए पुरुष और स्त्री दोनों अभियोजित किए जा सकते हैं या नहीं इस पर प्रश्न था क्योंकि इस धारा के अंतर्गत शब्द पुरुषवाचक था तथा कहा गया था कि-
'जो कोई किसी स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से या यह संभव भी जानते हुए कि तदद्वारा उसकी लज्जा भंग करेगा उस स्त्री पर हमला करेगा आपराधिक बल का प्रयोग करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास जिसकी अवधि 2 वर्ष तक की हो सकेंगी या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा'
विवादित प्रश्न यह था कि इस धारा के अंतर्गत पुरुष के साथ स्त्री भी शामिल है? क्या लज्जा भंग का अपराध केवल पुरुष द्वारा ही किया जाएगा?
न्यायालय ने इस मामले में निर्णय दिया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 8 लिंग शब्द को उल्लेखित कर रही जिसके अंतर्गत पुलिंग वाचक शब्द जहां प्रयोग किए गए हैं वहां हर व्यक्ति के बारे में लागू होते हैं चाहे नर हो या नारी।
2)- पुरुष और स्त्री
अध्याय 2 के अंतर्गत पुरुष और स्त्री शब्द की भी परिभाषा प्रस्तुत की गई है। संहिता की धारा 10 के अनुसार पुरुष शब्द से किसी भी आयु के मानव नर से घोतक है तथा स्त्री शब्द किसी भी आयु की मानव नारी से घोतक है। यहां पर भारतीय दंड संहिता स्पष्ट कर देती है कि किसी भी मानव को 2 लिंग में विभाजित किया है, स्त्री और पुरुष नर के संबंध में पुरुष शब्द होगा तथा नारी के संबंध में स्त्री शब्द होगा।
लिंग से संबंधित परिभाषा को लेकर स्टेट ऑफ पंजाब बनाम मेजर सिंह एआईआर 1967 एसी 63 का प्रकरण महत्वपूर्ण है। इस मुकदमे में भारत के उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि महिला के शील या लज्जा का सार लिंग अधेड़ उम्र की महिला का शील पूर्ण रूप से उसके शरीर में मिलता है। स्त्री चाहे जवान हो या वृद्ध, बुद्धिमान हो या पागल, जागती हो या सोती उसके शील भंग किए जाने की संभावना होती है। अभियुक्त का सदोष अभिप्राय ही इस संबंध में निर्णायक तत्व है शील नारी का एक विशेष गुण है।
3)- व्यक्ति
भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 11 व्यक्ति की परिभाषा प्रस्तुत करती है। इस परिभाषा के अनुसार कोई भी कंपनी या संघ या व्यक्तियों के निकाय चाहे वह निगमित हो या नहीं व्यक्ति शब्द के अंतर्गत सम्मिलित हैं।
इस परिभाषा के अंतर्गत वैधानिक व्यक्ति को भी व्यक्ति की परिभाषा में रखा गया है। साधारण तौर पर हमें चलते-फिरते मानव प्राणी को व्यक्ति कहा करते हैं लेकिन विधि व्यक्ति की विस्तृत परिभाषा और उसके अर्थ प्रस्तुत करती है और वह इस अभिव्यक्ति में सजीव और निर्जीव सभी को शामिल करती है।
व्यक्ति के अंतर्गत जनमे या अजन्मे बच्चे को भी सम्मिलित किया गया है। बच्चा भले ही अजन्मा हो और माता के गर्भाशय में हो उसे व्यक्ति ही कहा जाता है किंतु शर्त यह है कि उसका शरीर इतना विकसित हो गया हो कि बच्चा कहा जा सकें।
कारावास और मृत्युदंड किसी मानव को दिया जा सकता है परंतु कोई अर्थदंड या जुर्माना किसी व्यक्ति को भी दिया जा सकता है अर्थात कोई फर्म या निगमित निकाय इस संदर्भ में व्यक्ति होकर जुर्माने के लिए दायीं हो सकता है।
4)-लोक
भारतीय दंड संहिता की धारा-12 लोक की परिभाषा प्रस्तुत करती है। इस धारा के अनुसार लोक का कोई भी वर्ग या कोई भी समुदाय लोक शब्द के अंतर्गत आता है। इस परिभाषा में लोक शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है अपितु सिर्फ यह बताया गया है कि इसमें लोक का कोई भी वर्ग या समुदाय सम्मिलित है। बहुत सारे व्यक्ति यह बहुत सारे मानव जिस स्थान पर एकत्रित है वहां पर लोक हो जाएगा किसी भी समुदाय को लोक कहा जा सकता है। साधारण तौर पर लोक का उपयोग उन अपराधों के संदर्भ में किया जाता है जहां पर सारे समुदाय विशेष को ही किन्ही कार्य या लोप के द्वारा व्यथित किया जा रहा है।
5)- भारत
भारतीय दंड संहिता की धारा 18 भारत की परिभाषा प्रस्तुत करती है। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के पहले इस धारा के अनुसार जम्मू कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत का राज्य क्षेत्र भारत था परंतु आज वर्तमान में जम्मू कश्मीर भी भारत का हिस्सा इस धारा के अनुसार माना जाएगा। भारतीय दंड संहिता के अनुसार समस्त भारत राज्य क्षेत्र भारत माना जाएगा।
भारत वह देश है जो विभाजन के बाद दिनांक 14 अगस्त 1947 के बाद वजूद में आया। जम्मू कश्मीर को इस धारा में सम्मिलित नहीं किए जाने का कारण संविधान की प्रथम अनुसूची के अनुच्छेद-1 के अंदर अवैध नहीं है ऐसा के आर के वी प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया एआईआर 1980 आंध्र प्रदेश 243 के कहा गया था जब जम्मू कश्मीर को लेकर इस धारा पर प्रश्न खड़े हुए थे परंतु आज जम्मू कश्मीर पुनर्गठन के बाद स्थिति स्पष्ट हो चुकी है।
6)- न्यायाधीश
संपूर्ण न्याय व्यवस्था में न्यायाधीश अत्यधिक महत्वपूर्ण पद है। भारतीय दंड संहिता की धारा 19 न्यायाधीश को परिभाषित करती है। इस धारा के अनुसार कोई भी अंतिम निर्णय देने की शक्ति रखने वाला प्राधिकार न्यायाधीश शब्द के भीतर है। ऐसे व्यक्ति का घोतक है जो पद रूप से न्यायाधीश हो किंतु हर उस व्यक्ति का भी घोतक है जो किसी विधिक कार्यवाही में चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक अंतिम निर्णय ऐसा निर्णय जो इसके विरुद्ध अपील न होने पर अंतिम हो जाए, ऐसा निर्णय जो किसी अधिकारी द्वारा पोस्ट किए जाने पर अंतिम हो जाए देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया अथवा जो व्यक्ति निकाय में से एक हो जो व्यक्तियों ऐसा निर्णय देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो।
दंड संहिता की धारा में उपयोग किया गया शब्द निर्णय से तात्पर्य कानून का वह दंडादेश है जिसे किसी न्यायालय में अभिलेख में निहित विषय पर उद्घोषक किया है।
किसी आपराधिक मामले में दंडादेश भी निर्णय होता है। सामान्य तौर पर निर्णय से तात्पर्य औपचारिक न्याय निर्णय से है जिसे न्यायालय में ऐसे किसी बिंदु पर प्रदान किया है जिस पर न्यायालय में किसी पक्षकार ने विरोध अथवा दावा प्रस्तुत किया।
अभय नायडू बनाम कनिया 1929 के प्रकरण में कहा गया है कि विधिक कार्यवाही वह कार्यवाही है जो विधि नियंत्रित अथवा विधि विहित हो और जिस में न्यायिक निर्णय दिया जा सकता है अथवा ऐसे निर्णय का देना बाध्य हो।
इस धारा का सीधा सा अर्थ है कि कोई भी ऐसी शक्ति यदि कोई निर्णय जैसा आदेश देती है जिसकी अपील नहीं हो वह भी निर्णय है और उसे देना वाला न्यायधीश है। जैसे एस डी एम और कलेक्टर भी अनेक मामलों में निर्णय देते है तथा इस धारा के सार में उन्हें भी न्यायाधीश माना जायेगा।
7)- लोक सेवक
भारतीय दंड संहिता की धारा 21 लोक सेवाक की विस्तृत परिभाषा प्रस्तुत कर रही है। इस धारा के अनुसार लोक सेवक बहुत से सरकारी पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों को घोषित किया गया है। नरेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ़ मध्य प्रदेश के मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा मध्य प्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के कार्यालय में नियोजित व्यक्ति को इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई 1948 के अंतर्गत लोकसेवक माना है।
एस धनोआ बनाम मुंसिपल कॉरपोरेशन आफ दिल्ली इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा का सदस्य जिसको जिसकी सेवाएं मुंबई सहकारी समितियां अधिनियम के अधीन रजिस्टर्ड किसी सहकारी समिति को सौंप दी गई हो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के प्रयोजन के लिए इस संहिता की धारा 21में लोक सेवक नहीं है क्योंकि ऐसी नियुक्ति के दौरान वह राजकीय सेवा में अधिकारी नहीं होता है उसे वेतन का भुगतान सरकार द्वारा नहीं किया जाता वह किसी अधिनियम के अधीन स्थापित स्थानीय प्राधिकरण की सेवा में नहीं होता।
लोक सेवक के संदर्भ में सर्वप्रथम प्रचलित सिद्धांत यह है कि उसकी नियुक्ति किस शासकीय प्राधिकार के अंतर्गत की गई तथा उसको वेतन किसके द्वारा दिया जा रहा है।
डोमा बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में कोतवाल को लोक सेवक इसलिए नहीं माना गया क्योंकि उसका मुख्य कर्तव्य अपराधियों को न्याय के लिए प्रस्तुत करना एवं लोक स्वास्थ्य छेम और सुरक्षा से संबंधित होता है।
रमेश बालकृष्ण कुलकर्णी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में नगर पालिका पार्षद लोक सेवक नहीं माना गया है। स्टेट ऑफ पंजाब केसरी के मामले में सहकारी समिति के अध्यक्ष सचिव को नहीं मानते हुए कि इन पर गबन के संबंध में भारतीय दंड संहिता की धारा 409 के प्रावधान लागू नहीं होते।
यूनियन आफ इंडिया बनाम अशोक कुमार मिश्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने राष्ट्रीयकृत बैंक के कर्मचारी को भारतीय दंड संहिता की धारा 21 के अर्थों में लोक सेवक माना है और यह अभिनिर्धारित किया है कि बैंक कर्मचारी के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप का विचारण विशेष न्यायालय द्वारा किया जा सकता है।
समय समय पर आने वाले प्रकरणों में लोक सेवक की विभिन्न परिभाषाएं सामने आई है परंतु भारतीय दंड संहिता की धारा 21 के अर्थ को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है जब भी लोक सेवक को लेकर कोई प्रश्न आते हैं तब दंड संहिता की धारा 21 की सहायता ली जाती है।
8)- कपटपूर्वक
भारतीय दंड संहिता की धारा 25 का कपटपूर्वक शब्द की परिभाषा प्रस्तुत कर रही है। इस धारा के अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात को कपटपूर्वक करता है तब कहा जाता है यदि वह उस बात को कपट करने के आशय से करता है अन्यथा नहीं।
कपट शब्द की परिभाषा करना अत्यंत कठिन है। अब तक कोई न्यायाधीश का पद शब्द की परिभाषा प्रस्तुत नहीं कर पाया है। ऐसा करने में विधि विशेषज्ञों द्वारा संशय रखा गया है।
कपट के लिए कुछ बातें महत्वपूर्ण होती है जैसे धोखा और क्षति। केवल धोखा ही कपट नहीं होता है धोखे के साथ क्षति भी होना चाहिए।
कपट के संबंध में डॉ विमला बनाम दिल्ली प्रशासन एआईआर 1963 एससी 1572 के प्रकरण में अभिनिश्चय किया गया कि कपट में दो तत्व सम्मिलित है धोखा और क्षति उस व्यक्ति के प्रति किए जाते हैं जिसके साथ कपट किया जाता है। यहां पर क्षति शब्द आर्थिक क्षति से विनती किसी भी प्रकार की हो सकती है इसमें किसी भी प्रकार की हानि का समावेश होता है जैसे कोई शारीरिक क्षति भी हो सकती है मानसिक क्षति हो सकती है और प्रतिष्ठा और गरिमा की भी क्षति हो सकती है। किसी भी हाल में उसे क्षति माना जा सकता है।
क्षति करने वाले को होने वाले लाभ को हमेशा उस व्यक्ति को हानि पहुंचती है जिसके साथ कपट किया गया है। संपत्ति से जुड़े हुए अपराधों के संबंध में कपटपूर्वक शब्द का अत्यधिक महत्व है क्योंकि संपत्ति से जुड़े हुए ऐसे अनेक अपराध की आधारशिला कपट होता है तथा किसी कार्य या लोप में कपट है या नहीं इसका निर्धारण करना बहुत कठिन कार्य है। न्यायाधीश अत्यंत सावधानी से कपट का निर्धारण करते हैं, किसी व्यक्ति का कोई कार्य करने में कपट का आशय था या नहीं इसे फरियादी की क्षति को देखकर अंदाजा लगाया जाता है।
9)- कार्य या लोप
भारतीय दंड संहिता की धारा 33 छोटी सी धारा है किन्तु अपने आप में या बहुत महत्वपूर्ण धारा है। समस्त आपराधिक और सिविल विधि कार्य और लोप की आधारशिला पर टिकी होती है। कोई भी अपराध किसी कार्य या लोप के माध्यम से ही किया जाता है।
धारा के अनुसार- कार्य शब्द कार्यपाली का घोतक है उसी प्रकार जिस प्रकार एक कार्य का, लोप शब्द लोपावली का घोतक है जिस प्रकार एक लोप का।
मनुष्य द्वारा जीवन में अनेक कार्य किए जाते हैं। कार्य का अर्थ होता है किसी कार्य को करना। लोप का अर्थ होता है किसी कार्य को छोड़ देना। कार्य और लोप ही किसी अपराध का निर्धारण करते हैं।
जैसे की विधि द्वारा किसी मनुष्य की हत्या करना कार्य है, यहां पर विधि ने हत्या करने से रोका है। जैसे आयकर का भुगतान करना, यहां पर विधि ने भुगतान करने को कहा है। कहीं पर विधि किसी कार्य को करने को कहती है तथा कहीं पर विधि किसी कार्य करने से रोकती है।
जहां पर विधि किसी कार्य करने को कहती है वह कार्य है तथा जहां पर विधि किसी कार्य को करने से रोकती है वहां पर लोप हैं। आयकर का भुगतान नहीं करना लोप हैं। भुगतान करने को कहा गया तो भुगतान नहीं किया गया तो यहां पर लोप के द्वारा अपराध घटित हो गया। केवल कार्य के द्वारा ही अपराध नहीं होता है अपराध लोप के द्वारा भी हो जाता है।