भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग: 2 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत भारत के भीतर और भारत के बाहर होने वाले अपराध
दंड संहिता से संबंधित पहले आलेख में भारतीय दंड संहिता का सामान्य परिचय लेखक द्वारा दिया गया है। इस आलेख में भारतीय दंड संहिता के सबसे पहले अध्याय पर चर्चा की जा रही है। इस अध्याय के अंतर्गत भारतीय दंड संहिता के विस्तार और भारत के भीतर तथा भारत के बाहर होने वाले अपराधों के संबंध में उल्लेख किया गया है।
भारतीय दंड संहिता का विस्तार और भारत के भीतर तथा भारत के बाहर किए गए अपराध-
भारतीय दंड संहिता समस्त भारत के लिए एक सामान्य दंड संहिता है तथा अपराधों तथा उनके दंड के उल्लेख के लक्ष्य से भारतीय दंड संहिता का निर्माण किया गया है। मौजूदा दंड संहिता जिसे भारतीय दंड संहिता 1860 के नाम से जाना जाता है इसका प्रारूप लॉर्ड मेकाले द्वारा तैयार किया गया है। समय समय पर होते हुए परिवर्तनों के साथ लॉर्ड मेकाले द्वारा तैयार की गई दंड सहिंता आज परिष्कृत होकर भारतीय परिवेश और भारतीय समाज के अनुरूप मालूम होती है।
भारतीय दंड संहिता की पहली धारा- 1 इस संहिता के नाम और इसके विस्तार के संबंध में उल्लेख करती है। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के पहले जम्मू कश्मीर राज्य पर इस संहिता का विस्तार नहीं था परंतु जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन अधिनियम के बाद इस संहिता का विस्तार जम्मू कश्मीर राज्य पर भी हो गया है। इसके पहले जम्मू कश्मीर राज्य के लिए रणबीर पेनल कोड 1989 लागू थी। धारा-1 इस अधिनियम का नाम भारतीय दंड संहिता 1860 उल्लेखित करती है, एक जनवरी 18 62 से इसे लागू किया गया है।
प्रस्तावना इस अधिनियम का एक भाग है लेकिन संपूर्ण रूप से एक भाग नहीं है। प्रस्तावना संहिता की स्पष्ट सामान्य उपबंधों को कभी अभिभूत नहीं कर सकती है परंतु फिर भी प्रस्तावना का महत्व संहिता के प्रारंभिक पहचान के लिए आवश्यक होता है। उद्देशिका की विधि की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है यह अधिनियम के लक्ष्य एवं उद्देश्य को स्पष्ट करती है। मुख्य न्यायाधीश डायर लिखते हैं- यह एक ऐसी कुंजी है जो विधि वेत्ताओं के मस्तिष्क को खोलती है।
अधिनियम की धारा- 1 इसके नाम और उसके विस्तार पर संपूर्ण उल्लेख कर देती है। यहां पर कोई भी कमी नहीं रह जाती है, यह अद्भुत विषय है कि इतने बड़े भारत के लिए केवल यह एक दंड संहिता आज भी काम कर रही है जबकि भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है। इतनी विविधताओं के बीच एक दंड संहिता का उपयोगी होना अत्यंत आश्चर्यचकित कर देने वाली बात है। एक दंड संहिता बनाए जाने का उद्देश अखंड भारत के विचार की ओर भारतीयों को प्रेरित करता है।
भारत के भीतर किए गए अपराध-
भारतीय दंड संहिता 1860 की उपयोगिता यही कि यह संहिता केवल भारत के भीतर ही किए जाने वाले अपराधों और उनके दंड के संबंध में उल्लेख नहीं करती अपितु भारत के बाहर किए जाने वाले अपराध के संबंध में भी उल्लेख करती है। संहिता की धारा दो इसके अंतर्देशीय विस्तार का उल्लेख करती है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति इस संहिता के अनुबंधों के प्रतिकूल प्रत्येक कार्य या लोप के लिए जिसका वह भारत के भीतर दोषी होगा इस संहिता के अधीन दंडनीय होगा अन्यथा नहीं।
इस तरह इस धारा के अनुसार यदि कोई व्यक्ति भारत के किसी भाग में अपराध करने का दोषी होता है तो वह इस संहिता के अंतर्गत राष्ट्रीयता, पद, जाति अथवा वंश के भेदभाव के बिना दंड का भागी होगा।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित विधि के समक्ष समानता के सिद्धांत का संहिता में पूर्ण रुप से पालन किया गया है। विदेशी भी इस संहिता के दायित्व से मुक्त नहीं है जो भी व्यक्ति वह मनुष्य होना चाहिए। यदि भारत की सीमा के भीतर उस कार्य या लोप को कारित करता है जिसे करना अपराध इस संहिता के अंतर्गत घोषित किया गया है तो वह दंड का भागी होगा।
यह दंड संहिता किसी भी देशी और विदेशी के बीच में कोई भेद नहीं करती है। भारत की सीमा के भीतर कोई भी अपराध किया गया है भले ही वह किसी भारतीय नागरिक से किया गया हो या किसी गैर भारतीय से किया गया हो इस दंड संहिता के अधीन दंडनीय होगा।
कोई विदेशी यदि भारत में आकर कोई अपराध करता है तो ऐसा अपराध भी इस दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय होगा। मुश्ताक अली बनाम स्टेट ऑफ़ मुंबई का एक महत्वपूर्ण मामला है। इसमें धारण किया गया है कि जब एक पाकिस्तानी नागरिक ने माल का प्रदान करने के लिए अपने सामर्थ के विषय में कपटपूर्ण मिथ्यानिरूपण का अपराध कारित किया है और छल द्वारा मूल्यवान प्रतिफल प्राप्त किया है तो उसे अपराधी घोषित किया जाना चाहिए। इस तथ्य के होते हुए भी की अपराध किए जाने के समय वह भारत में शारीरिक रूप से विद्यमान नहीं था, दंड संहिता के अंतर्गत उसे दंडित किया जाना चाहिए।
भारतीय दंड संहिता समस्त मनुष्यों के बीच में समतावादी सिद्धांतों के अनुसार न्याय करती है। भारतीय दंड संहिता बिना किसी पद, जाति, वंश, रंग आदि के भेदभाव के समस्त व्यक्तियों पर प्रयोज्य होती है। यहां पर व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया जाता है न की किसी भारतीय गैर भारतीय शब्द का प्रयोग किया गया है। व्यक्ति के अंतर्गत समस्त मानव जाति आ जाती है पर कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें इन संहिता के प्रभाव से मुक्त रखा गया है जिनका यहां पर उल्लेख कर दिया जाना आवश्यक है-
1)- भारत के राष्ट्रपति, राज्यपाल और प्रधानमंत्री गरिमा और प्रतिष्ठा के पद है। संविधान के अनुच्छेद 361 के अनुसार राष्ट्रपति और राज्यपाल और 1975 में किए गए संविधान के 40 वें संशोधन के बाद प्रधानमंत्री भी इस दंड संहिता से प्रभाव मुक्त है। अर्थात राष्ट्रपति राज्यपाल प्रधानमंत्री पर न्यायालय में न तो सिविल और न ही आपराधिक कार्यवाही चलाई जा सकती है और न ही इनके विरुद्ध कोई गिरफ्तारी वारंट जारी किया जा सकता है। ऐसा करने का कारण भारत के इन सर्वोच्च पदों को मान और सम्मान से विभूषित करना है। भारत के सर्वोच्च पद कोई तानाशाही द्वारा नहीं हैं अपितु लोकतंत्र के माध्यम से इन पदों पर आसीन होने वाले व्यक्तियों को चुना जाता है।
किसी भी विदेशी सम्राट कोई संहिता के अंतर्गत दंडित नहीं किया जा सकता। अनेक राष्ट्रों के सम्राट होते हैं जैसे कि सऊदी अरब के सम्राट जहां पर आज भी राजशाही चलती है, यह मुक्ति उनको प्रदत विशिष्ट अधिकारों एवं उन्मुक्ति के अंतर्गत दी गई है। अंतर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार भारत के समझौते से हैं जिनके आधार पर विदेशी सम्राटों को भारतीय दंड संहिता से मुक्ति दी गई है।
2)- राजदूत और राजनयिक एजेंट-
राजदूत और राजनीतिक एजेंट एवं स्वतंत्र संप्रभु राजा राज्य के प्रतिनिधि होते हैं अतः उन्हें भी दंड संहिता के प्रावधानों से मुक्त रखा गया है। यह मुक्ति उनको प्रदत विशेष अधिकारों के अंतर्गत प्रदान की गई है। यदि कोई भी राजदूत और राजनियक किसी भी प्रकार का घोर अपराध करता है तो उसे उस संप्रभु राज्य के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता है। यह मुक्ति सिर्फ राजदूतों एवं राजनयिक को ही नहीं अपितु उनके परिवारजनों सेवकों को भी प्रदान की गई है।
परंतु उक्त इस मुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि कोई भी राजदूत या उसके परिवारजन कोई भी संगीन अपराध कारित कर देंगे यदि वह अपराध कारित करते हैं तो उन्हें उस राष्ट्र के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है जिस राष्ट्र से उनका संबंध है।
3)- विदेशी शत्रुओं पर दंड संहिता के अंतर्गत प्रकरण नहीं चलाया जा सकता क्योंकि उन पर युद्ध के नियमों के अनुसार सैनिक न्यायालय में प्रकरण चलाया जाता है। जब भी युद्ध होता है और कोई विदेशी शत्रु को पकड़ा जाता है तो उन्हें सैनिक न्यायालय को ही सौंप दिया जाता है लेकिन यदि कोई विदेशी शत्रु ऐसा कोई अपराध कारित करता है जो युद्ध से संबंधित नहीं है तो वह सामान्य दंड न्यायालयों द्वारा दंडित किया जा सकता है।
4)- विदेशी सेनाओं को भी दंड संहिता के प्रावधानों से मुक्त रखा गया है लेकिन उनको प्रदत यह छूट निरपेक्ष नहीं होकर सीमित है। यदि कोई विदेशी सेना का व्यक्ति सैनिक कार्य से अन्यथा कोई अपराध करता है तो वह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडित किया जाएगा केवल सैनिक कार्य से अंतर्गत मामलों में ही उन्हें दंड सहिंता से छूट प्राप्त होती है परंतु सैनिक कार्य से अलग हटकर कोई कार्य कर दिया गया जैसे कि किसी महिला का बलात्कार कर दिया गया। इस मामले में किसी विदेशी सैनिक को विदेशी सेना को किसी प्रकार की कोई बात नहीं होगी इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय विधि के सिद्धांतों के अनुसार युद्ध के अपराधियों को भी दंड संहिता के प्रावधानों से मुक्त रखा गया है।
भारत से बाहर किए गए अपराध-
जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है की भारतीय दंड संहिता सभी प्रकार के अपराधों के संबंध में सभी व्यक्तियों पर समतावादी सिद्धांत के अनुसार लागू होती है तथा संविधान के अनुच्छेद 14 के अधीन विधि के समक्ष समता के सिद्धांत का यहां पर मजबूती के साथ अनुसरण किया गया है। इस प्रकार के अनुसरण से भारतीय दंड संहिता 1860 के अंतर्गत अपराधों का उल्लेख किया गया। अब कोई भी अपराध जिसे संहिता के अंतर्गत अपराध बना दिया गया है कोई भी ऐसा कार्य कोई भी ऐसा लोप जिसे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध घोषित कर दिया गया है उसे भारत की सीमा के भीतर किया जाए तो भी अपराध है।
कोई विदेशी व्यक्ति आकर भारत की सीमा के अंतर्गत अपराध को करेगा तो भी अपराध है, यदि कोई भारतीय उसको भारत की सीमा के भीतर करेगा तो भी वह अपराध है और यदि कोई भारत का नागरिक भारत के बाहर जाकर भारत के राज्य क्षेत्र के बाहर जाकर कोई अपराध कारित करता है जिसे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय घोषित किया गया है इस प्रकार के भारतीय नागरिक को भी इस दंड संहिता के अंतर्गत दंडित किया जाएगा।
संहिता का अंतर्देशीय विस्तार भारतीय दंड संहिता की धारा 4 के भीतर उल्लेखित किया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा-3 और 4 विधिमान्य सिद्धांत का प्रतिपादन करती है कि कोई भी ऐसा कार्य जो भारत के भीतर अपराध है उस दशा में भी अपराध समझा जाएगा जब वह भारतीय सीमा के बाहर किया गया हो परंतु इसके लिए शर्त है कि अपराध है-
भारतीय नागरिक द्वारा भारत से बाहर किसी स्थान पर कारित किया जाए-
वह व्यक्ति ऐसे पोत अथवा विमान पर हो जिसका रजिस्ट्रीकरण भारत में हुआ हो चाहे वह किसी भी स्थान पर क्यों न हो।
यदि कोई जहाज भारत में रजिस्टर है तथा वह हवा में उड़ रहा है और उस जहाज में किसी के द्वारा हत्या कारित कर दी जाती है तो उस संबंध में भी भारतीय दंड संहिता लागू होगी। वह हत्या करने वाले को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडित किया जाएगा।
उदाहरण के लिए राम भारत का नागरिक है और राम अमेरिका जाकर बलात्कार जैसे संगीन अपराध कारित कर देता है ऐसी स्थिति में राम भारत में कहीं भी पकड़ा जाए उस पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं के अंतर्गत अभियोजन चलाया जाएगा तथा दोष सिद्ध होने पर उसे दंडित किया जाएगा।
सहिंता की धारा 4 के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि इस धारा में अपराध शब्द के अंतर्गत भारत से बाहर किया गया ऐसा प्रत्येक कार्य आता है जो यदि भारत में किया जाता तो इस संहिता के अधीन दंडनीय होता। भारत के बाहर किया गया कार्य ऐसा हो जो इस दंड संहिता के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में आता हो।
इस प्रकार के अपराध के संदर्भ में अभियोजन की कार्यवाही दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 188 के अंतर्गत उसी प्रकार से की जाएगी जिस प्रकार से भारत के भीतर किए जाने वाले अपराधों के संबंध में की जाती है। मुबारक अली बनाम स्टेट ऑफ़ मुंबई एआईआर 1957 एससी 857 के प्रकरण में कहा गया है कि भारत के अंदर अपराध कारित करने वाला एक विदेशी व्यक्ति अपराधी है उस समय अपनी प्रत्यक्ष उपस्थिति के बिना भी दंडनीय है।