भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 18 : लापरवाही से मृत्यु कारित करना तथा दहेज मृत्यु का अपराध

Update: 2020-12-23 05:45 GMT

पिछले आलेख में भारतीय दंड संहिता के अध्याय 16 के अंतर्गत जीवन के लिए संकटकारी अपराधों की श्रंखला में अपराधिक मानव वध तथा हत्या के अपराध पर विश्लेषण किया गया था इस आलेख में दंड संहिता के भाग 16 से ही तथा जीवन के लिए संकटकारी अपराधों में से ही अपराध लापरवाही से मृत्यु कारित करना तथा दहेज मृत्यु पर चर्चा की जा रही है।

भारतीय दंड संहिता 1860 केवल अपराधिक मानव वध और हत्या के लिए ही दंडित नहीं करती है अपितु उपेक्षा द्वारा मृत्यु कारित करने पर अर्थात लापरवाही से कोई मृत्यु होने पर तथा वर्तमान समाज का नासूर अर्थात दहेज मृत्यु पर दंडित करने का भी प्रावधान करती है। दहेज मृत्यु को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत पृथक रूप से उल्लेखित किया गया है, आलेख में आगे दहेज मृत्यु पर विस्तारपूर्वक उल्लेख किया जाएगा।

उपेक्षा द्वारा मृत्यु (धारा-304 ए)

भारतीय दंड संहिता की धारा 304 ए उपेक्षा द्वारा अर्थात लापरवाही पूर्वक किसी कार्य से मृत्यु कारित करने को अपराध करार देती है। सामान्य तौर से यह धारा वाहन दुर्घटना इत्यादि के मामलों में प्रयोज्य होती है। इस धारा के प्रावधान ऐसे ही मामलों में प्रयोज्य होते हैं जहां मृत्यु न तो आशयपूर्वक कार्य की जाती है और न ही ऐसा कोई कार्य किया जाता है जिसके बारे में यह ज्ञान रहता है कि उससे मृत्यु कारित होना संभव है।

इस धारा के अंतर्गत किए जाने वाले कार्य आपराधिक प्रकृति के कार्य नहीं होते हैं यदि ऐसा कार्य आरंभ से ही आपराधिक प्रकृति का हो तो यह धारा प्रयोग नहीं होगी। इस धारा को लागू करने के लिए उतावलापन उपेक्षा तथा आशय का नहीं होना महत्वपूर्ण तत्व है। इस धारा के अंदर दोषसिद्धि के लिए यह आवश्यक है कि उतावलापन या उपेक्षा से मृत्यु का सीधा संभव संबंध रहा हो अर्थात उतावलापन या उपेक्षा से किए गए कार्य से ही मृत्यु कारित होना चाहिए।

उपेक्षा की विधि शास्त्र संकल्पना दंड विधि और अपकृत्य सिविल विधि में एक दूसरे से भिन्न है। दंड विधि के अंतर्गत उत्तरदायित्व की परिधि में लाने के लिए उपेक्षा की मात्रा को सिविल विधि में नुकसानी के लिए अपेक्षित दायित्व से उच्चतर अर्थात गंभीर होना चाहिए। वह उपेक्षा जो कि न तो गंभीर है और न ही उच्चतर कोटि की है वह सिविल विधि के अधीन कार्यवाही का अधिकार बन सकती है परंतु वह अभियोजन का आधार नहीं बन सकती।

धारा 304 ए में घोर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है परंतु इसमें उतावलापन या उपेक्षा पूर्ण कार्य सभी अभिव्यक्ति को अत्यधिक अभिव्यक्ति के साथ पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि धारा 304 ए अपराधिक उत्तरदायित्व के अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त के उतावलापन या उपेक्षापूर्ण कार्य का प्रत्यक्ष परिणाम मृत्यु था और यह भी कि कार्य अवश्य ही मृत्यु के सन्निकट और कारण था। उसके साथ किसी अन्य व्यक्ति की उपेक्षा का हस्तक्षेप नहीं हुआ था जैसे कि कोई डॉक्टर ऐसी कोई औषधि देता है जो चिकित्सा विभाग की किसी विशेष शाखा से ज्ञात है या प्रयुक्त होती है तो वह इस बात की घोषणा करता है कि उसे विज्ञान की शाखा का ज्ञान है। यदि वास्तव में उसे वह शाखा का ज्ञान नहीं है तो प्रथम दृष्टि उतावलेपन या उपेक्षा पूर्ण कार्य से मृत्यु कारित करता है।

किसी डॉक्टर के पास में यदि कोई दवाई देने का अधिकार नहीं है और फिर भी उसके द्वारा इस प्रकार दवाई दी गई जिससे मरीज की मृत्यु हो गई इस स्थिति में धारा 304 ए का प्रकरण बनेगा।

उतावलापन की उपेक्षा से वाहन चालन के मामलों में केवल गति निर्णायक बिंदु नहीं हो सकती वाहन चलाने का तरीका भी काफी महत्वपूर्ण होता है। यदि वाहन इस तरीके से चलाया जाए जिससे मानव जीवन संकट में पड़ जाए तो वह धारा 304 ए की परिधि में आ जाता है। ऐसे मामलों में घटना स्वयं बोलती है सिद्धांत लागू होता है।

मोहम्मद अयूब बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश एआईआर 2000 उच्चतम न्यायालय 2511 के प्रकरण में अभिनिर्धारित किया गया है कि उतावलापन से किए गए कार्य जानबूझकर किए गए कार्य में अंतर है। दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं फिर भी उतावलेपन में किया गया कार्य इस अर्थ में साशय किया गया कार्य हो सकता है की सम्यक सावधानी और सतर्कता के बिना किया गया था।

जगन्नाथ बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के प्रकरण में अभियुक्त जगन्नाथ जब बंदूक चला रहा था तब मृतक बंसी अचानक ही पीछे से सामने आ गया। यह धारण किया गया कि मृतक बंसी की मृत्यु दुर्घटना का परिणाम थी अभियुक्त के उतावलापन और उपेक्षा का परिणाम नहीं थी। एक अन्य मामले में इसमें अभियुक्त 17 वर्ष की लड़की थी जो संयोग से अपनी पीठ पर बांधकर अपनी अल्पायु पुत्री को ले जा रही थी। उसका उसके पति से झगड़ा हो गया था। अभियुक्त ने कुएं में कूदकर आत्महत्या करने का प्रयास किया दूसरे दिन वह लड़की कुएं में जीवित मिली लेकिन उसकी अल्पायु पुत्री मर चुकी थी। यह धारण किया गया कि अभियुक्त धारा 304 ए के अंतर्गत अपराध के दोषी थी क्योंकि उसने कुएं में गिरने से पूर्व अपनी पुत्री को नीचे जमीन पर नहीं उतारा था।

भारतीय दंड संहिता की धारा 304 ए आपराधिक उतावलेपन खतरा अथवा लापरवाही से परिपूर्ण वह कार्य है जिसके खतरेपन लापरवाही नुकसान पहुंचाने की प्रकृति का ज्ञान अपराधकर्ता को रहता है परंतु शिकायत करने क्षति कारित करने की संभावना का आशय अथवा ज्ञान उसे नहीं रहता है। ऐसो कार्यों की अपराधिकता उपेक्षा अथवा परिणाम के प्रति बिना कोई विचार किए करने की जोखिम में विद्यमान रहती है। आपराधिक उपेक्षा वह घोर सदोष असावधानी हैं जिसमें कोई व्यक्ति सामान्य रूप से लोक वर्ग और विशेषता किसी व्यक्ति के प्रति क्षति पहुंचाने के विपरीत युक्तियुक्त सम्यक सावधानी तथा संरक्षण का प्रयोग करने में विफल रह जाता है।

आपराधिक उतावलापन के अंतर्गत अपराधकर्ता चेतना विधान रहती है उसके कार्य के परिणाम स्वरुप सृष्टि पूर्ण और विधि विरुद्ध परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं परंतु वह यही आशा करता है कि यह परिणाम उत्पन्न नहीं होंगे। आपराधिक उत्तरदायित्व इसी चेतना पर परंतु उसकी चेतना के विपरीत कार्य करने के कारण उत्पन्न होता है। आपराधिक उपेक्षा के अंतर्गत व्यक्ति इस चेतना पर कार्य नहीं करता है उसके कार्य के परिणामस्वरूप दृष्टिकोण विधि विरुद्ध परिणाम होंगे।

धारा 304 ए उन अपराधों पर लागू होती है जो धारा 299 और धारा 300 की परिधि में नहीं आते हैं अर्थात उन प्रकरणों में लागू होती है जो न तो आपराधिक मानव वध होते हैं और न ही हत्या होता है। यह धारा ऐसे मामलों की परिकल्पना करती है जिसमें न तो मृत्यु कारित करने का आशय है और न ही यह ज्ञान है कि किए गए कार्य से किसी भी संभावना के अंतर्गत मृत्यु कारित हो सकती है। यह धारा ऐसे मामलों में लागू नहीं होती है जिसमें मृत्यु उतावलापन या उपेक्षा पूर्ण कार्य द्वारा कार्य नहीं की गई है अपितु किसी ऐसी घटना के प्रभाव से कारित हुई है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

धारा 304 ए के संबंध में समय-समय पर न्यायालय में प्रकरण आते रहे हैं। इस आलेख में इस धारा से संबंधित कुछ ऐसे प्रकरणों का उल्लेख किया जा रहा है। रतन सिंह बनाम पंजाब राज्य 1979 के प्रकरण में अपीलकर्ता ने उतावलापन और उपेक्षा पूर्ण रीति से वाहन चलाकर मृत्यु कारित कर दी थी। नीचे के न्यायालयों द्वारा उसे 2 वर्षों के कठोर कारावास का दंडादेश दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने दंड की मात्रा में कमी रहने की अपील पर विचार करते हुए यह निर्णय प्रदान किया कि चाहे भले ही अभियुक्त चालक पर अकेले ही अपने एक बहुत बड़े परिवार के पालन पोषण का भार रहा हो और वाहन का मालिक भी उसके परिवार का भरण पोषण करने में विफल रहा हो उसके प्रति कोई अनुकंपा नहीं दिखाई जा सकती और न ही इसके विपरीत पारित किए गए दंडादेश के साथ कोई हस्तक्षेप किया जा सकता है।

दांडिक विधिशास्त्र का एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि आपराधिक विचारण में जहां दो प्रकार का अर्थ संभव हो वहां उस अर्थ का चयन होना चाहिए जो अभियुक्त के लिए लाभकारी हो। ऐसे मामलों में वस्तु स्वयं बोलती है का सिद्धांत लागू नहीं होता है।

एनकेबी ब्रदर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम एम कारूमाई अंबाला के प्रकरण में बस को उतावलेपन से चलाने के कारण दुर्घटना हो गई थी और चालक को दोष मुक्ति मिल चुकी थी। उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकार के प्रश्न पर यह निर्णय प्रदान किया था कि ऐसे मामलों में अपराधकर्ता को दोषमुक्ति मिल जाने से क्षति मूल्य के दावे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। धारा 304 ए के अंतर्गत उतावलापन की अपेक्षाएं अपकृत्य विधि के अंतर्गत उत्तरदायित्व सृजन के निमित्त अपेक्षित उपेक्षा की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी है।

गोविंद सिंह के एक पुराने प्रकरण में अभियुक्त एक भरे ट्रक का चालक था। यातायात पुलिस ने ट्रक को रोकने का संकेत दिया लेकिन वह उसमें उससे बचकर निकलना चाहता था। अतः उस ने ट्रक को तेजी से चलाया इतने में एक लड़की जो सड़क पार कर रही थी उस से टकराई और उसकी मृत्यु हो गई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त इस धारा के अंतर्गत अपराध का दोषी था।

दहेज मृत्यु (धारा-304 बी) (Dowry Death)

दहेज भारत की एक अत्यंत दारुण कथा है। दहेज भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप है तथा सामाजिक बुराइयों में सर्वोच्च स्थान रखता है। दहेज की जड़े भारतीय समाज में काफी गहराई तक जा चुकी है और उसके परिणाम स्वरूप बहुत सी नववधू हो को दुर्भाग्यशाली मृत्यु का वरण करना पड़ा है। दहेज न दे पाने के कारण कई महिलाओं ने अपनी जान गवाई है। दहेज न दे पाने के कारण नृशंस और क्रूर हत्याओं का सामना महिलाओं ने किया है। दहेज एक बर्बर अपराध है जो भारतीय समाज की महिलाओं को निरंतर खा रहा है। यह अपराध घर की चारदीवारी के भीतर किया जाता है और ऐसी परिस्थितियों में किया जाता है जो यह छाप डालती है कि आत्मघाती मृत्यु थी अर्थात दहेज की मांग के लिए अनेकों महिलाएं दम तोड़ देती हैं और यह मान लिया जाता है इस प्रकार की हत्या आत्महत्या के माध्यम से हुई है जबकि उस आत्मदाह का मुख्य कारण दहेज है उसकी जड़ में दहेज छिपा हुआ है।

भारतीय दंड संहिता की धारा-304 बी इस संबंध में दंड का उल्लेख कर रही है। इस धारा के अंतर्गत पति और उसके नातेदरों के विरुद्ध एक ऐसी अपराधिकता की परिकल्पना की गई है जो अभी तक हमारे विधिशास्त्र में ज्ञात नहीं थी।

दंड संहिता की धारा-304 बी को लागू करने के लिए कुछ तत्व आवश्यक हैं जैसे कि किसी स्त्री की मृत्यु जलने के कारण यह शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा कारित हो जाती है। ढक्कन झा बनाम बिहार राज्य 2004 उच्चतम न्यायालय 348 के प्रकरण में सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा अभिव्यक्ति का यह तात्पर्य बताया गया है कि मृत्यु मामूली अनुक्रम में न होकर प्रकट रूप से संदेह प्रति परिस्थितियों के अधीन हुई है यदि वह दहा यह शारीरिक क्षति से कारित नहीं हुई है।

इस धारा के प्रयोग से होने के लिए यह भी आवश्यक है कि-

ऐसी मृत्यु हुई स्त्री के विवाह के 7 वर्षों के भीतर हुई हो।

ऐसी स्त्री को उसके पति ने उसके पति के किसी नातेदार ने क्रूरता का बर्ताव या तंग किया हो।

यह की स्त्री से दहेज की मांग के लिए उसके साथ क्रूरता की गई थी।

उसे तंग किया गया था और यह की स्त्री की मृत्यु के पूर्व उसके साथ क्रूरता का बर्ताव किया गया हो या उसे तंग किया गया हो।

राकेश कुमार बनाम हरियाणा राज्य 2009 उच्चतम न्यायालय 21 के प्रकरण में मृतका का मृत्यु कालीन कथन कार्यपालिक मजिस्ट्रेट द्वारा भी लिखित किया गया था और उसने अभियुक्त को दोषी घोषित नहीं किया गया था और अभियोजन पक्ष द्वारा भी उस पर अभियोग नहीं लगाया गया था। मृतक का द्वारा अपने नातेदारों को लिखे गए पन्नों पर अभियोजन पक्ष ने अपेक्षाकृत अधिक निर्भरता दिखाई थी। हस्त लेख विशेषज्ञों की रिपोर्ट स्पष्ट रूप से आकर्षित कर रही थी कि वह पत्र मृतका के हस्त लेख नहीं थे। अभिनिर्धारित किया गया है कि अपीलकर्ता कि दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया जाता है।

दीनदयाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2009 उच्चतम न्यायालय 157 के प्रकरण में तथ्य इस प्रकार है कि अपने विवाह के 15 महीनों के भीतर अस्वाभाविक परिस्थितियों में मृतका की मृत्यु हो गई थी। यह प्रस्तुति की इस बात का कि दहेज की कोई मांग नहीं की गई थी कोई भी साक्ष्य नहीं था और यह भी उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व दहेज की मांग की गई थी या यह कि दहेज की मांग से संबंधित उत्पीड़न मृत्यु का कारण था स्वीकार नहीं की गई और अभिनिर्धारित किया गया कि दहेज की मांग और उसके परिणाम स्वरूप उत्पीड़न स्पष्ट रूप से प्रभावित हो गई थी।

कांतिलाल बनाम राजस्थान राज्य 2009 उच्चतम न्यायालय 498 प्रकरण में दाह क्षति के कारण विवाह के तीसरे चौथे वर्ष मृतका की मृत्यु हो गई थी। क्रूरता और उत्पीड़न साबित हो गया था, दहेज की मांग भी साबित हो गई थी। बचाव पक्ष इस मृत्यु कालीन कथन पर निर्भर कर रहा था की मृत्यु का कारण दुर्घटना थी और यह ग्राहम तथा विश्वसनीय नहीं पाया। नीचे की अदालतों द्वारा किए गए साक्ष्य के मूल्यांकन को युक्तियुक्त सत्याभासी पाया उसमें कोई दुर्बलता या अनुचित बात नहीं पाई, दोषसिद्धि को मान लिया गया।

भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 113 बी के अधीन सहपाठी धारा है। इस धारा में उपबंधित आवश्यक तत्व के साबित हो जाने पर न्यायालय के लिए बाध्यकारी हो जाता है कि वह इस बात की उद्धारणा करें कि अभियुक्त ने दहेज मृत्यु कारित की है। इस अवधारणा को कुछ तथ्यों के साबित होने पर मान लिया जाता है अर्थात हत्या हुई है न हुई इसकी अवधारणा हत्या हुई है कर ली जाएगी अगर कुछ बातें साबित हो जाती है।

वे बातें निम्न है-

यह कि न्यायालय के समक्ष सदैव यह प्रश्न उत्पन्न किया जाना चाहिए कि क्या अभियुक्त द्वारा किसी स्त्री की दहेज मृत्यु कारित की गई है। विचारण धारा 304 बी के अधीन चलना चाहिए।

यह की स्त्री को उसके पति या पति के नातेदारों द्वारा क्रूरता यातना किए जाने का शिकार बनाया गया हो।

यह की क्रूरता का बर्ताव किया जाना दहेज की किसी मांग के लिए उसके संबंध में था।

यह की क्रूरता का बर्ताव यातना किया जाना मृत्यु के ठीक पूर्व किया गया हो।

हरजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य के प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि दहेज के लिए दहेज की मांग के संबंध में मृत्यु के ठीक पूर्व मृतका के साथ पति या उसके नातेदारों द्वारा क्रूरता का बर्ताव या तंग किया जाना साबित हो जाता है तो धारा 304 बी के अधीन एक विधिक परिकल्पना का जन्म हो जाता है जिसके द्वारा ऐसी मृत्यु को दहेज मृत्यु की संज्ञा प्रदान की जाती है। यदि धारा 304 बी के साथ पाठीत साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 बी के तत्व का समाधान नहीं होता तो अभियुक्त को दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।

यदि किसी स्त्री की मृत्यु हुई है और इस प्रकार की मृत्यु अस्वाभाविक रूप से हुई है तथा विवाह के 7 वर्ष के बीच हुई है यदि वह स्त्री जलकर मर जाती है या फांसी लगाकर आत्महत्या करती है ऐसी स्थिति में यदि स्त्री के साथ पति और उसके नातेदरों द्वारा क्रूरता को साबित कर दिया जाता है और क्रूरता का बर्ताव और उसके साथ दहेज की मांग को साबित कर दिया जाता है तथा यह सब कुछ मृत्यु के ठीक पूर्व सिद्ध कर दिया जाता है तो अभियुक्त को दहेज मृत्यु के लिए दोष सिद्ध किया जा सकता है।

हेमचंद्र हरियाणा राज्य 1994 उच्चतम न्यायालय 727 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 304 बी के अधीन आजीवन कारावास का अधिकतम दंड विरले मामलों में ही दिया जा सकता है प्रत्येक मामले में मृतका की मृत्यु से अभियुक्त का प्रत्यक्ष संबंध न होना एक प्रत्यक्ष साक्ष्य हेतु है परंतु जहां अभियुक्त स्वयं एक पुलिस कर्मचारी है वहां उसे तो ऐसी मृत्यु पर अंकुश लगाना होता है यद्यपि उच्च न्यायालय द्वारा पारित आजीवन कारावास के दंडादेश को उच्चतम न्यायालय ने 10 वर्षों के कठोर कारावास में परिवर्तित कर दिया। इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां विवाहिता स्त्री की उसके विवाह के 7 वर्ष के भीतर स्वभाविक मृत्यु हुई हो वहां उस मृत्यु की धारणा दहेज मृत्यु के रूप में नहीं की जा सकती यदि उसकी मृत्यु के पूर्व अभियुक्त के द्वारा दहेज की मांग इस संबंध में उसके साथ क्रूरता अथवा उत्पीड़न का व्यवहार किया गया हो उसकी मृत्यु के साथ अभियुक्त के प्रत्यक्ष संबंध स्थापित होना आवश्यक नहीं है। अतः जहां किसी विवाहिता की गला घोटकर मृत्यु कार्य की गई है और अभियुक्त धारा 302 के अंतर्गत आरोपी किया गया मृत्यु से अभियुक्त का संबंध नहीं है वहां धारा 304 बी लागू होती है। विवाह के समय दिए गए उपहारों को कम मूल्य और निम्न कोटि का कहकर परेशान कर देने वाली टिप्पणियों को दहेज की अपर्याप्तता से संबंधित क्रूरता का बर्ताव माना गया है।

विट्ठल तुकाराम मोरे बनाम महाराष्ट्र राज्य 2002 उच्चतम न्यायालय 414 के प्रकरण में दहेज के लिए वधू दहन का अपराध किया गया था और परिवार के अन्य सदस्यों को भी दोषसिद्ध किया गया था। इस प्रकरण में मृतका कि उसके ससुराल पर हत्या की गई थी। अभिनिर्धारित किया गया कि किसी भी स्वास्थ्य न्याय व्यवस्था में स्त्रियों के विरुद्ध किए जाने वाले अपराधों को अवश्य ही दंडित किया जाना चाहिए परंतु सामाजिक हित में समान रूप से यह भी वांछनीय है कि पति के परिवार के अन्य सदस्य केवल इसलिए दंड की पीड़ा के लिए पात्र न बना दिया जाए क्योंकि उसके नातेदारी में आते हैं। इस प्रकार के मामलों में प्रत्यक्ष सबूत बहुत कम उपलब्ध होता है अतः परिस्थितिजन्य साक्ष्य को जिस पर इस तरह के मामलों में दोषसिद्धि के लिए निर्भर होना पड़ता है समुचित स्तर का होना चाहिए। न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह यह देखे कि दंड के उपबंधों का आशय क्या है। ऐसे अपराधों का विनाश करना है और अपराधकर्ता को सामने लाकर खड़ा करना है परंतु निर्दोष व्यक्तियों को अन्याय का शिकार नहीं होने देना है।

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