
भारत में हाईकोर्ट न्याय व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सर्वोच्च न्यायालयों के रूप में काम करते हैं और संविधान व कानून की रक्षा करते हैं। हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति, उनका वेतन और उन्हें हटाने की प्रक्रिया भारतीय संविधान में तय की गई है ताकि न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष बनी रहे।
हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति होती है। यह प्रक्रिया कई अधिकारियों की भागीदारी से पूरी होती है, जिनमें भारत के राष्ट्रपति, भारत के चीफ जस्टिस और संबंधित राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं। इस प्रक्रिया का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केवल योग्य और अनुभवी व्यक्ति ही इस महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त हों।
जब हाईकोर्ट में कोई पद खाली होता है, तो उस न्यायालय के चीफ जस्टिस सीनियर जजों से परामर्श करके उपयुक्त उम्मीदवारों की सूची तैयार करते हैं। यह सूची राज्य के मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो इसे राज्यपाल के पास भेजते हैं।
फिर यह सूची केंद्रीय विधि मंत्रालय तक पहुंचती है, जहां से इसे भारत के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम को भेजा जाता है। सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम, जो भारत के चीफ जस्टिस और दो सीनियर जजों का समूह होता है, उम्मीदवारों की योग्यता की जांच करता है और अंतिम सिफारिश राष्ट्रपति को भेजता है।
राष्ट्रपति के पास इस सिफारिश को स्वीकार करने या पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का अधिकार होता है। लेकिन यदि कोलेजियम फिर से उसी व्यक्ति का नाम भेजता है, तो राष्ट्रपति को उस व्यक्ति को जस्टिस नियुक्त करना होता है। नियुक्ति के बाद, जस्टिस राज्य के राज्यपाल के सामने शपथ लेते हैं और संविधान की रक्षा करने का वचन देते हैं।
हाईकोर्ट के जस्टिस बनने के लिए किसी व्यक्ति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है। उसे या तो किसी हाईकोर्ट में दस वर्षों तक वकील के रूप में प्रैक्टिस करनी चाहिए या न्यायिक सेवा में दस वर्षों तक काम करने का अनुभव होना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि केवल अनुभवी और योग्य व्यक्ति ही जस्टिस बनें।
जजों का वेतन और सुविधाएं
हाईकोर्ट के जजों का वेतन संसद द्वारा तय किया जाता है और समय-समय पर इसे संशोधित किया जाता है। जजों को अच्छा वेतन और सुविधाएं दी जाती हैं ताकि वे बिना किसी दबाव या भ्रष्टाचार के अपने कार्य कर सकें।
वर्तमान में, हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को प्रति माह ₹2,50,000 वेतन मिलता है, जबकि अन्य जजों को ₹2,25,000 वेतन दिया जाता है। इसके अलावा, उन्हें कई भत्ते जैसे डियरनेस अलाउंस (Dearness Allowance) जो महंगाई से निपटने के लिए है, हाउस रेंट अलाउंस (House Rent Allowance) जो घर के लिए मदद देता है, और मेडिकल सुविधाएं (Medical Facilities) जो स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करती हैं, मिलते हैं। अन्य भत्ते में ट्रांसपोर्ट अलाउंस (Transport Allowance), लीव ट्रैवल कॉन्सेशन (Leave Travel Concession), प्रोविडेंट फंड (Provident Fund), ग्रेच्युटी (Gratuity), और पेंशन (Pension) शामिल हैं, जो रिटायरमेंट के बाद आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। ये सुविधाएं जज की स्वतंत्रता (Independence) बनाए रखने में मदद करती हैं।
भारतीय संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि जजों के वेतन में उनके कार्यकाल के दौरान कोई कटौती नहीं की जा सकती, सिवाय वित्तीय आपातकाल की स्थिति में। यह प्रावधान न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए किया गया है ताकि जजों पर किसी भी तरह का आर्थिक दबाव न डाला जा सके।
सेवानिवृत्ति के बाद, हाईकोर्ट के जजों को पेंशन दी जाती है, जो उनकी सेवा अवधि और अंतिम वेतन के आधार पर तय की जाती है। इसके अलावा, कुछ जजों को अन्य सरकारी सुविधाएं भी दी जाती हैं, जैसे सुरक्षा कवर और यात्रा भत्ता।
कार्यकाल और महाभियोग प्रक्रिया
हाईकोर्ट के जस्टिस 62 वर्ष की आयु तक पद पर बने रहते हैं। हालांकि, वे राष्ट्रपति को लिखित में इस्तीफा देकर अपने पद से स्वेच्छा से हट सकते हैं। इसके अलावा, यदि किसी जस्टिस को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया जाता है या किसी अन्य हाईकोर्ट में स्थानांतरित किया जाता है, तो उनका मौजूदा पद समाप्त हो जाता है।
यदि किसी जस्टिस को उनके पद से हटाना हो, तो इसके लिए महाभियोग प्रक्रिया अपनाई जाती है। यह एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है, ताकि जजों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाया जा सके।
संविधान के अनुच्छेद 217(1)(b) और अनुच्छेद 124(4) के तहत, जस्टिस को केवल "सिद्ध कदाचार (Misbehavior) या अक्षमता (Incapacity)" के आधार पर हटाया जा सकता है। यदि किसी जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना हो, तो इसे संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। यह प्रस्ताव लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों या राज्यसभा में 50 सांसदों के हस्ताक्षर के साथ लाया जाता है।
इसके बाद, लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति एक तीन सदस्यीय समिति गठित करते हैं, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट का जस्टिस, एक हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस और एक प्रसिद्ध विधि विशेषज्ञ शामिल होते हैं। यह समिति आरोपों की जांच करती है और रिपोर्ट संसद को सौंपती है।
यदि समिति अपनी रिपोर्ट में जस्टिस को दोषी पाती है, तो यह प्रस्ताव संसद में बहस के लिए रखा जाता है। इसे संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत (यानी उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत) से पारित किया जाना चाहिए। यदि दोनों सदन इसे पारित कर देते हैं, तो यह राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद, जस्टिस को पद से हटा दिया जाता है।
भारत में अब तक किसी भी हाईकोर्ट के जस्टिस को महाभियोग द्वारा हटाया नहीं गया है। यह प्रक्रिया इतनी कठिन है कि केवल गंभीर मामलों में ही इसे अपनाया जाता है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहती है और जजों को राजनीतिक दबाव से बचाया जा सकता है।
न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 (The Judges (Inquiry) Act, 1968)
न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968, भारत में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की प्रक्रिया निर्धारित करने वाला एक महत्वपूर्ण कानून है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 217(1)(b) के तहत, किसी भी जस्टिस को केवल "सिद्ध दुर्व्यवहार" या "अक्षम्यता" के आधार पर ही हटाया जा सकता है। यह अधिनियम इस पूरी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिए बनाया गया था ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखा जा सके और किसी भी जस्टिस को बिना उचित प्रक्रिया के हटाया न जा सके।
इस अधिनियम के तहत, किसी जस्टिस के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही तभी शुरू हो सकती है जब संसद के किसी एक सदन में प्रस्ताव लाने के लिए लोकसभा के कम से कम 100 या राज्यसभा के 50 सदस्य इसका समर्थन करें। प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के बाद, एक जांच समिति गठित की जाती है जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस, एक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और एक प्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ होते हैं।
यह समिति जस्टिस के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच करती है और अपनी रिपोर्ट संसद को प्रस्तुत करती है। यदि रिपोर्ट में जस्टिस को दोषी ठहराया जाता है, तो संसद में इस प्रस्ताव पर चर्चा होती है और इसे विशेष बहुमत (सदस्य उपस्थित और मतदान करने वालों के दो-तिहाई तथा सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत) से पारित किया जाना आवश्यक होता है। इसके बाद, प्रस्ताव को राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, जिनकी स्वीकृति मिलने पर जस्टिस पद से हटा दिया जाता है।
यह अधिनियम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि, इसे लेकर कुछ आलोचनाएं भी हैं, जैसे कि महाभियोग प्रक्रिया का अत्यधिक जटिल और कठिन होना, जिसके कारण आज तक किसी भी जस्टिस को सफलतापूर्वक हटाया नहीं जा सका है। इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि कभी-कभी राजनीतिक कारणों से जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश की जाती है, जिससे न्यायपालिका की गरिमा प्रभावित हो सकती है। इन चुनौतियों के बावजूद, यह अधिनियम भारतीय न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण बना हुआ है।
के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ
जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच और उन पर कार्रवाई के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) मामले में महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश प्रदान किए हैं।
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जजों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 के तहत "लोक सेवक" माना। इसका अर्थ है कि ये जस्टिस भी इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत आते हैं और उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा सकते हैं। हालांकि, न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए, अदालत ने यह भी निर्धारित किया कि किसी जस्टिस के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने से पहले भारत के चीफ जस्टिस से परामर्श आवश्यक है। इसके अलावा, ऐसे मामलों में राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति भी आवश्यक है।
न्यायपालिका की स्वायत्तता और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए, न्यायपालिका ने अपने आंतरिक तंत्र (In House Inquiry) भी स्थापित किए हैं। इन-हाउस जांच प्रक्रियाओं के माध्यम से, न्यायपालिका अपने सदस्यों के खिलाफ लगे आरोपों की जांच करती है। यह तंत्र सुनिश्चित करता है कि जजों के खिलाफ कार्रवाई निष्पक्ष और पारदर्शी हो, साथ ही उन्हें अनावश्यक बाहरी दबाव से भी बचाया जा सके।
के. वीरास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न्यायिक जवाबदेही और स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति और चीफ जस्टिस से परामर्श की आवश्यकता जजों को अनुचित उत्पीड़न से बचाती है, जबकि यह भी सुनिश्चित करती है कि वे कानून से ऊपर नहीं हैं। इस प्रकार, भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों का जजों पर लागू होना और आंतरिक जांच तंत्र का होना न्यायपालिका की स्वच्छता और जनता के विश्वास को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इन प्रावधानों का महत्व
हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति, वेतन और महाभियोग प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाए रखती है। एक पारदर्शी और निष्पक्ष नियुक्ति प्रक्रिया से न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनी रहती है। उचित वेतन और सुविधाएं जजों को भ्रष्टाचार से दूर रखते हैं और उन्हें निष्पक्ष निर्णय लेने के लिए सक्षम बनाते हैं। महाभियोग प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि केवल गंभीर मामलों में ही जजों को हटाया जाए, जिससे न्यायपालिका की गरिमा बनी रहे।
संविधान ने यह सुनिश्चित किया है कि न्यायपालिका सरकार और राजनीति से स्वतंत्र रहे, ताकि जस्टिस बिना किसी भय या पक्षपात के अपने कर्तव्य निभा सकें। हाईकोर्ट का कार्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना, कानूनों की व्याख्या करना और संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखना है। इसलिए, उनकी नियुक्ति और कार्यप्रणाली किसी भी बाहरी दबाव से मुक्त होनी चाहिए।
भविष्य में न्यायपालिका में सुधार के तहत नियुक्ति प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता, न्यायिक कदाचार के लिए बेहतर समाधान और जजों की जवाबदेही बढ़ाने की संभावनाएं हैं। हालांकि, भारतीय संविधान में स्थापित बुनियादी सिद्धांत न्यायपालिका की स्वतंत्रता और गरिमा को बनाए रखने में हमेशा सहायक रहेंगे।