हिंदू विधि भाग 19 : कोई हिंदू व्यक्ति अपनी साहदायिकी संपत्ति सहित कोई भी संपत्ति कहीं भी वसीयत कर सकता है
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 किसी निर्वसीयती मरने वाले हिंदुओं की संपत्ति के उत्तराधिकार के संबंध में वारिसान की व्यवस्था करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत हिंदू पुरुष और हिंदू नारी दोनों की संपत्ति के उत्तराधिकार की व्यवस्था की गई है पर यह अधिनियम केवल तब ही लागू होता है जब कोई हिंदू व्यक्ति अपने उत्तराधिकार के संबंध में कोई वसीयत कर कर नहीं मृत हुआ है। इस अधिनियम की धारा 30 महत्वपूर्ण धाराओं में से एक धारा है। इस धारा के अंतर्गत किसी हिंदू व्यक्ति को यह अधिकार दिया गया है कि वह अपनी संपत्ति को कहीं भी वसीयत कर सकता है, यहां तक वह अपनी साहदायिकी संपत्ति को भी वसीयत कर सकता है। साहदायिकी संपत्ति उस संपत्ति को कहा जाता है जो संयुक्त परिवार की संपत्ति होती है तथा जिसमें सभी साहदायिक अधिकारी होते हैं।
यह हिंदू विधि सीरीज का अंतिम आलेख है जिसके माध्यम से इस सीरीज को यहां पर समाप्त किया जा रहा है। इस सीरीज में लेखक द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 दोनों महत्वपूर्ण अधिनियमों पर टीका टिप्पणी सहित आलेख लिखे हैं।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 (धारा-30)
कोई भी हिंदू व्यक्ति अपनी संपत्ति की वसीयत भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 के प्रावधानों के अंतर्गत करता है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 समस्त भारत के नागरिकों पर लागू होता है। इस अधिनियम के भीतर वसीयत संबंधी सभी प्रावधान दिए गए हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 30 यह प्रावधान कर रही है कि कोई भी हिंदू विल द्वारा अपनी कोई भी संपत्ति को व्यनित कर सकता है।
प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन कोई भी हिंदू संयुक्त परिवार का सदस्य अथवा साहदायिक साहदायिकी संपत्ति में अपने हित के संबंध में वसीयत के द्वारा अंतरण या व्ययन नहीं कर सकता था। इस प्रकार कोई हिंदू वसीयत के द्वारा या अन्य वसीयती डिस्पोजल के द्वारा संपत्ति को अंतरित नहीं कर सकता था। इस धारा के प्रावधान के अनुसार साहदायिकी संपत्ति को धारित करने वाले साहदायिक को यह अधिकार है कि संयुक्त संपत्ति के विभाजन कराए बिना वह अपने हित को वसीयत के द्वारा डिस्पोजल कर सकता है। इस अधिनियम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के पारित हो जाने के पश्चात कोई भी हिंदू पुरुष अपनी संपत्ति को वसीयत के द्वारा डिस्पोजल कर सकता है।
इस अधिनियम की धारा 30 के अंतर्गत 'कोई भी हिंदू' शब्द इस्तेमाल किया गया है अर्थात यहां पर कोई हिंदू पुरुष या नारी का भेद नहीं है। कोई भी हिंदू व्यक्ति जिसमें नारी और पुरुष दोनों का समावेश हो गया है।
अपनी कोई संयुक्त संपत्ति या अपनी अर्जित संपत्ति के किसी भी अधिकार को किसी भी अन्य व्यक्ति को वसीयत कर सकता है। साहदायिकी संपत्ति में हिंदू पुरुष जो मिताक्षरा शाखा से शासित होता के हित के न्यागमन के संबंध में है इस धारा के अधीन प्रख्यापित विधि की व्याख्या उक्त धारा के अधीन विस्तार से की गई है।
धारा 6 के प्रावधानों के अनुसार संपूर्ण साहदायिकी संपत्ति के पक्ष में उसके प्रत्यक्ष अदायगी का अधिकार होता है इसलिए साहदायिकी के मध्य जब तक विभाजन नहीं हो जाता यह कहना संभव नहीं है साहदायिकी संपत्ति में कौन सी संपत्ति अथवा संपत्ति का कौन सा भाग के स्वामित्व में है।
किसी से संपत्ति का क्रेता साहदायिकी संपत्ति में से क्रय किए गए भाग पर तब तक आधिपत्य नहीं प्राप्त कर सकता है जब तक विभाजन द्वारा क्रय की गई संपत्ति को पृथक करा कर अपने हिस्से में न ले ले।
यह धारा वर्तमान अधिनियम के अध्याय 3 तथा धारा 30 का हेडिंग वसीयती उत्तराधिकारी उचित प्रतीत नहीं होता है। धारा 30 वसीयती उत्तराधिकारी से संबंधित नहीं है वरन यह धारा एक हिंदू व्यक्ति को जिसका मिताक्षरा साहदायिकी अविभक्त हित है तथा अन्य हिंदुओं को जिनका संयुक्त परिवार संपत्ति में सदस्य होने के कारण यह अधिकार देता है कि वह अपने अंश का वसीयती व्ययन कर सकता है। प्राचीन काल में संयुक्त परिवार का संगठित होने के कारण यह आवश्यकता कभी नहीं हुई कि कोई साहदायिकी अथवा संयुक्त परिवार का सदस्य अपना विभक्त अंश वसीयत के द्वारा व्ययन कर दे।
जमुना बाई बनाम सुरेंद्र कुमार 1995 मध्यप्रदेश 274 के वाद में कहा है कि संयुक्त परिवार संपत्ति के संबंध में एक वसीयत की जा सकती है। एक साहदायिक की निर्योग्यता जिसके अधीन वह साहदायिकी संपत्ति में अविभक्त अंश के संबंध में वसीयत नहीं कर सकता था धारा 30 के अधीन समाप्त कर दिया गया है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 4 यह प्रावधान करती है कि पूर्व विधि, नियम, प्रथा और रूढ़ि जो वर्तमान अधिनियम में किए गए प्रावधानों के प्रतिकूल है उन्हें मान्यता नहीं दी जाएगी और इस अधिनियम के प्रावधान अध्यारोही प्रभाव रखेंगे।
धारा 30 में स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी हिंदू व्यक्ति जिसमें हिंदू पुरुष और हिंदू नारी दोनों का समावेश है अपना अधिकार रखने वाली किसी भी संपत्ति को चाहे वह स्वयं की अर्जित संपत्ति हो या फिर साहदायिकी संयुक्त परिवार की संपत्ति हो उसके अपने हित को किसी भी व्यक्ति को वसीयत के द्वारा या किसी अन्य रूढ़ि और प्रथा के द्वारा डिस्पोजल कर सकता है।
किसी भी हिंदू व्यक्ति को उसका अधिकार रखने वाली संपत्ति को किसी भी व्यक्ति को वसीयत कर दिए जाने से कोई भी विधि नहीं रोकती है। हिंदुओं पर लागू होने वाली समस्त विधि किसी हिंदू व्यक्ति को यह स्वतंत्रता देती है कि वह अपनी संपत्ति के संबंध में किसी भी प्रकार का कोई भी वसीयतनामा तैयार कर सकता है और अपनी संपत्ति को वसीयत के माध्यम से व्ययन सकता है।