
वास्तविक स्वामी की अभिव्यक्त या विवक्षित सम्मति से Ostensible Owner हो इस सिद्धान्त का दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरक वास्तविक स्वामी की स्पष्ट या विवक्षित सम्मति से Ostensible Owner हो सम्मति देते समय यह आवश्यक है कि वास्तविक स्वामी बालिग, शुद्धचित्त एवं सामान्य प्रकृति का हो नाबालिग उन्मत्त या विकृत चित्त वाले व्यक्तियों की सम्मति इस प्रयोजन हेतु पर्याप्त नहीं होगी।
इसी प्रकार वास्तविक स्वामी की मूक सम्मति (Acquiscence) भी इस प्रयोजन हेतु पर्याप्त नहीं है। उसका दायित्व इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अन्तरक को ऐसी स्थिति में रखा जिसके फलस्वरूप उसे कपट करने का अवसर मिला यदि वास्तविक स्वामी ने सम्मति के सम्बन्ध में अपनी असम्मति व्यक्त कर दी हो तो भी अन्तरक Ostensible Owner की स्थिति में नहीं होगा।
यह प्रश्न कि क्या वास्तविक स्वामी ने दृश्यमान स्वामित्व के लिए अपनी सम्मति दी थी. एक तथ्य विषयक प्रश्न है और इसका निर्धारण प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है।
उदाहरण
'अ' की मृत्यु के समय उसकी पुत्री 'ब' जीवित थी जिसे उसकी सम्पत्ति में सीमित हित उत्तराधिकार में मिला। 'ब' ने राजस्व अधिकारियों के समक्ष यह वक्तव्य दिया कि 'अ' का एक भाई 'स' भी है जो उससे अलग रहता है और उसने 'स' को अपनी सम्मति दे दी है कि वह सम्पत्ति को अपने कब्जे में ले ले। 'ब' की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र 'द' ने 'स' से सम्पत्ति मांग 'अ' के उत्तराधिकारी के रूप में की प्रश्न यह था कि क्या 'स' अपने कब्जे को बचाये रख सकता है? यह अभिनिर्णीत हुआ कि 'स' को इस सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि 'स' का धारणाधिकार वास्तविक स्वामी की सम्मति से नहीं था। 'ब' जिसने सम्मति दी थी वह केवल सीमित अधिकार से युक्त थी
'अ' की मृत्यु के समय उसका एक पुत्र तथा दो पुत्रियां जीवित थीं। उनमें आपस में सम्पत्ति का बँटवारा हुआ और प्रत्येक को एक-एक अंश प्राप्त हुआ। दोनों बहिनों ने अपने-अपने हिस्से की सम्पत्ति भाई के पास ही रहने दिया और वह लगभग 25 वर्ष तक उस सम्पत्ति को प्रयोग में लाता रहा। बाद में उसने सारी सम्पत्ति राजस्य रजिस्टर में अपने नाम में दर्ज करा लिया और फिर उसे बन्धक रख दिया। कोर्ट ने अभिनिर्णीत किया कि भाई दोनों बहिनों की सम्मति से सम्पत्ति का Ostensible Owner था। उसके द्वारा किये गये अन्तरण को बहिनें रद्द नहीं कर सकती हैं। बहिनों की सम्मति को विवक्षित सम्मति माना गया। अभिभावक की सम्मति- इस प्रयोजन हेतु अभिभावक को सम्मति पर्याप्त नहीं मानी जाती।
अन्तरण प्रतिफलार्थ हो- तीसरा आवश्यक तत्व यह है कि Ostensible Owner द्वारा किया गया अन्तरण प्रतिफल के बदले हो। यदि अन्तरण बिना प्रतिफल से किया गया है तो वह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। दान के रूप में सम्पत्ति का अन्तरण इस नियम से प्रभावित नहीं होता।
अन्तरिती ने सद्भाव में कार्य किया हो और यह पता लगाने के लिए कि अन्तरक को अन्तरित करने का अधिकार है युक्तियुक्त सावधानी बरती हो- चौथा आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरितो ने सद्भाव में सम्पत्ति ली हो और इस तथ्य का पता लगाने के लिए कि अन्तरक को सम्पत्ति अन्तरित करने का अधिकार है युक्तियुक्त सावधानी बरती हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अन्तरिती ने कोई ऐसा कार्य न किया हो जिससे यह आभास हो कि सम्पत्ति प्राप्त करते समय उसका आचरण युक्तियुक्त नहीं था।
सद्भाव - 'सद्भाव शब्द की व्याख्या जनरल क्लाजेज एक्ट 1997 में की गयी है जिसके अनुसार किसी कार्य को सद्भाव में किया गया कहा जाएगा यदि उस कार्य को इमानदारी पूर्वक किया गया तो, चाहे उसे उपेक्षापूर्वक किया गया हो या नहीं।। कोई भी अन्तरिती केवल यह कहकर कि उसे वास्तविक स्वामी का ज्ञान नहीं था. अपने हितों की सुरक्षा नहीं सकेगा। उसे इस तथ्य का पता लगाना होगा कि जो कुछ भी वह क्रय कर रहा है, उसे बेचने का अधिकार विक्रेता को है।
उदाहरणार्थ अ' की मृत्यु के उपरान्त उसकी सम्पत्ति उसकी पुत्रियों को उत्तराधिकार में मिली। कुछ समय पश्चात् तीनों ने 'ब' को अपनी सम्पत्ति का कब्जा दे दिया तदनन्तर ब ने उसे 'स' को बेच दिया। 'स' उसी गाँव तथा जाति का था जिस गाँव और जाति का अ था। साथ ही वह 'अ' के परिवार को भी भलीभाँति जानता था। यह अभिनिर्णत हुआ कि स यह नहीं कह सकता था कि अन्तरक को अन्तरण का अधिकार नहीं था। इसे यह ज्ञात होना चाहिए था कि पिता की मृत्यु के उपरान्त सम्पत्ति उसके पुत्रियों को प्राप्त होगी।
यदि सम्पत्ति अन्तरक के कब्जे में है तथा राजस्व अभिलेखों में उसका नाम भी अंकित है और सम्पत्ति के हक विलेख भी उसी के पास है तो ऐसे अन्तर से संव्यवहार करने वाला अन्तरिती सद्भाव में कार्य करता हुआ समझा जाएगा।
युक्तियुक्त सावधानी इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए इतना हो आवश्यक नहीं है कि अन्तरिती ने 'सद्भाव' में कार्य किया हो, अपितु यह भी आवश्यक है कि उसने युक्तियुक्त सावधानी से कार्य किया हो। 'सद्भाव' तथा 'युक्तियुक्त सावधानी' दोनों अवयवों का एक साथ होना आवश्यक है। 'युक्तियुक्त सावधानी से आशय ऐसी सावधानी से है जो एक साधारण प्रज्ञा वाला व्यक्ति सम्पत्ति प्राप्त करते समय अपने हितों की सुरक्षा हेतु बरतता है किसी व्यक्ति के स्वत्व के विषय में छानबीन करने से आशय है।
इस तथ्य का पता लगाना कि कौन व्यक्ति सम्पत्ति को धारण किये हुए है तथा पंजीकरण कार्यालय के अभिलेखों में किस व्यक्ति के नाम में वह सम्पत्ति अभिलिखित है। केवल राजस्व अभिलेखों पर विश्वास कर लेना इस प्रयोजन हेतु पर्याप्त न होगा, क्योंकि राजस्व विलेख किसी व्यक्ति के स्वत्व (title) को निर्धारित नहीं करते हैं। किसी मामले में युक्तियुक्त सावधानी बरती गयी है अथवा नहीं, इस प्रश्न का निर्धारण मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा एक प्रकार का आचरण एक परिस्थिति के लिए युक्तियुक्त सावधानी हो सकता है, परन्तु दूसरी परिस्थिति के लिए वही अपर्याप्त हो सकता है।
उदाहरण-
'अ' एक सम्पत्ति का स्वामी था जो राजस्व विलेखों में 'ब' के नाम में दर्ज थी और जिसके विरुद्ध 'अ' ने आपत्ति की थी। 'ब' ने सम्पत्ति 'स' के पास बन्धक रख दिया और 'स' ने राजस्व विलेखों पर विश्वास करते हुए बन्धक को स्वीकार कर लिया। यदि 'स' ने बन्धक स्वीकार करने से पहले दस्तावेजों की छानबीन की होती तो उसे ज्ञात हो गया होता कि 'ब' का नाम दर्ज होने के विरुद्ध 'अ' ने आपत्ति की थी। 'स' युक्तियुक्त सावधानी बरतता हुआ नहीं माना जाएगा।
सकीना बीबी नामक एक स्त्री एक मकान को स्वामिनी थी जो कानपुर में विद्यमान था। सन् 1912 में वह तीर्थ यात्रा पर मक्का गयी और मकान अब्दुल्ला नामक एक व्यक्ति को सुपुर्द कर गयी। सन् 1915 में अब्दुल्ला म्युनिसिपल कार्यालय में एक आवेदन प्रस्तुत किया कि सकीना बीबी के विषय में कोई सूचना नहीं है अतः मकान उसके नाम में दर्ज कर दिया जाए क्योंकि वह उसका वारिस है। मकान अपने नाम में दर्ज हो जाने के उपरान्त उसका मकान मो० सुलेमान नामक व्यक्ति के हाथों बेच दिया जिसने म्युनिसिपल दस्तावेजों को देखने के बाद सद्भाव में उसे खरीद लिया।
सकीना बोबी सन् 1918 में वापस लौटी और मकान की मांग की। यह अभिनिर्णीत हुआ कि मो० सुलेमान इस सिद्धान्त का लाभ पाने का अधिकारी नहीं है, क्योंकि उसे ज्ञात था कि मकान सकीना बीबी का है और जिन परिस्थितियों में अब्दुल्ला ने सम्पत्ति को बेचा था उसमें उसे बेचने का अधिकार नहीं था। यदि उसने छानबीन की होती तो उसे वास्तविक तथ्यों का पता लग गया होता।
एक सम्पत्ति संयुक्त रूप में क्रमशः क, ख एवं ग द्वारा धारित की जा रही थी। उनके बीच सम्पत्ति का बंटवारा नहीं हुआ था। यदि क उक्त सम्पत्ति का अन्तरण करना चाहता है तो उसे ख एवं ग की सहमति प्राप्त करनी होगी। यदि अन्तरिती 'घ' यह सुनिश्चित नहीं करता है कि अन्तरक को उक्त सम्पत्ति का अन्तरण करने का अधिकार है या नहीं, तो यह नहीं कहा जा सकेगा कि अन्तरिती एक सद्भाव पूर्ण क्रेता था। अत: उसे इस सिद्धान्त का लाभ नहीं प्राप्त होगा।
सद्भाव तथा युक्तियुक्त सावधानी अन्तरितो पर बाध्यकारी दायित्व है और यदि इनका अनुपालन करने में वह विफल रहता है तो उसे इस धारा में उल्लिखित सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा।
सिद्ध करने का दायित्व- यह सिद्ध करने का दायित्व कि उसने सद्भाव में तथा युक्तियुक्त सावधानी के साथ कार्य किया था सदैव अन्तरिती पर होता है। यदि वह इस तथ्य को सिद्ध कर देता है तो दायित्व वास्तविक स्वामी पर चला जाता है और उसे यह सिद्ध करना होता है कि अन्तरिती को अन्तरक के दोषपूर्ण स्वत्व का ज्ञान था और उसने बिना समुचित सावधानी बरते हुए सम्पत्ति को प्राप्त किया था।
धारा 41 में वर्णित सिद्धान्त का लाभ प्राप्त करने के लिए अन्तरिती को यह साबित करना आवश्यक होगा कि अन्तरक Ostensible Owner है तथा वह वास्तविक स्वामी की अभिव्यक्त या विवक्षित सम्मति से Ostensible Owner है तथा अन्तरण प्रतिफल के एवज में किया गया था तथा उसने सद्भाव में कार्य किया था तथा यह सुनिश्चित करने हेतु कि अन्तरक सम्पत्ति अन्तरित करने की शक्ति रखता है, युक्तियुक्त सावधानी बरती थी।