NI Act में इंस्ट्रूमेंट के Consideration से रिलेटेड एविडेन्स

Update: 2025-04-18 03:48 GMT
NI Act में इंस्ट्रूमेंट के Consideration से रिलेटेड एविडेन्स

अधिनियम की धारा 118 के अंतर्गत सभी लिखत अर्थात् वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक एक निश्चित धनराशि के संदाय करने का संविदा होते हैं। एक सामान्य संविदा में प्रतिफल सिने क्वानान (आवश्यक) होता है एवं बिना प्रतिफल के एक करार न्यूडम पैक्टम होता है, एवं अप्रवर्तनीय होता है। परन्तु परक्राम्य लिखत में जब तक प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता है, प्रतिफल उपधारित की जाती है।

धारा 118 की उपधारा (क) कहती है : "यह कि हर एक परक्राम्य लिखत प्रतिफलार्थ रचित या लिखी गयी थी और यह कि हर ऐसी लिखत जब प्रतिग्रहीत पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गई थी।

परक्राम्य लिखतों के संविदा के सम्बन्ध में प्रतिफल को उपधारणा होती है जब तक कि प्रतिकूल साबित न कर दिया जाय। प्रत्येक परक्राम्य लिखत में यह उपधारित किया जाता है कि इसे प्रतिफल के लिए रचित, लिखित प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित किया गया है। परक्राम्य लिखत का यह विशेषाधिकार केवल लिखत के मूल पक्षकारों में ही नहीं, बल्कि उन पक्षकारों में भी माना जाता है जो पृष्ठांकन या अन्यथा रूप में सद्भावपूर्वक लिखत के धारक बनते हैं।

प्रतिफल की उपधारणा को हालांकि जहाँ लिखत को इसके विधिक स्वामित्व से कपट या असम्यक् असर या अवैध प्रतिफल से प्राप्त किया गया है, खण्डित की जाती है।

परक्राम्य लिखत के बाद में प्रतिवादी अपने दायित्व को प्रतिफल के अभाव में साबित के द्वारा लिखत का पक्षकार बनने की दशा में वर्जित कर सकता है। यदि प्रतिवादी, प्रतिफल के अभाव में वादी की धनराशि वसूल करने के अधिकार को विवादित करना चाहता है, तो उसे इसे साबित करना होगा। यदि प्रतिवादी प्रतिफल के बिना वाद को साबित करने में एक अच्छा याद बनाता है तो यह साबित करने का दायित्व वादी पर होता है कि वहाँ प्रतिफल था।

धारा 43 में उपबन्धित है कि प्रतिफल के बिना या ऐसे प्रतिफल के लिए, जो निष्फल हो जाता है, रचित, लिखित प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित या अन्तरणीय, परक्राम्य लिखत, उस संव्यवहार के पक्षकारों के बीच संदाय की कोई बाध्यता सृजित नहीं करती।

कब उपधारणा होती है- किसी लिखत में उपधारणा केवल प्रतिफल के सम्बन्ध में होती है न कि उसकी रचना, लिखने, पृष्ठांकन इत्यादि करने के सम्बन्ध में होती है। जब तक कि कोई विधिमान्य वचन पत्र विनिमय पत्र या चेक न हो, प्रतिफल साबित नहीं होती हैं।

रामुलू बनाम सिनौय्या में यह धारित किया गया है कि प्रतिफल की उपधारणा केवल उस समय उत्पन्न होती है, जबकि लिखत की सम्यक् निष्पादन स्थापित हो। उदाहरण के लिए एक वचन पत्र में वाद में वादी को प्रारम्भ में यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी के द्वारा वचन पत्र निष्पादित किया गया है। ज्यों ही लिखत का निष्पादन साबित कर दिया जाता है कोर्ट यह उपधारणा रखेगा कि वचन पत्र प्रतिफल के लिए रचित किया गया है। यह उपधारणा उस समय तक बनी रहती है जब तक कि इसके प्रतिकूल साबित न कर दिया जाय।

कुन्दन लाल बनाम कस्टोडियन आफ इवैकुंद प्रापर्टी के मामले में न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने यह सम्प्रेक्षित किया था कि "यह धारा परक्राम्य लिखत में प्रयोज्य साक्ष्य का विशेष नियम स्थापित करती है। यह : लिखतों के स्थापना के सम्बन्ध में उपधारणा नहीं करती है। ज्यों ही वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक की स्थापना साबित हो जाती है, तब यह विधि में यह उपधारणा होती है कि ऐसा लिखत, रचा, लिखा, प्रतिग्रहीत आदि प्रतिफल के लिए किया गया है।" धारा 118 (क) का क्षेत्र प्रतिफल की उपधारणा तक ही सीमित होता है न कि प्रतिफल के मूल्य एवं प्रकार जिसमें यह दिया गया है। यह लिखत के स्थापना के सम्बन्ध में उपधारणा नहीं करता है। थिरुमलाई बनाम सुब्बा राजू के मामले में यह धारित किया गया है कि प्रतिफल की मात्रा एवं लिखत में लिखित प्रतिफल के मूल्य के सम्बन्ध में उपधारणा नहीं होती है।

मोती गुलाब चन्द बनाम मोहम्मद के महत्वपूर्ण बाद में एक वृत्तिक ऋणदाता ने वचन पत्र पर एक युवक जो हाल ही में अपने पिता की सम्पदा का वारिस बना था, पर बाद लाया। युवक का कथन था कि उसने प्रतिफल का एक भाग प्राप्त नहीं किया था और दूसरा भाग अनैतिक था। इस मामले के सम्बन्ध में मामले के तथ्यों को ध्यानगत रखते हुए कोर्ट ने यह धारित किया कि सामान्य उपधारणा कि एक लिखत प्रतिफलार्थं लिखा गया, इस सीमा तक कमजोर होता है और प्रतिवादी (युवक) के आरोप को ऋणदाता पर डालता है कि वह साबित करे कि उसने पूर्ण प्रतिफल का संदाय किया था।

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