क्या PoSH Act के तहत जांच समितियों को बिना प्रक्रिया अपनाए सजा देने का अधिकार है?
पीड़िता को न्याय देने और आरोपी के अधिकारों के बीच संतुलन
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए ऐतिहासिक फैसले ऑरेलियानो फर्नांडिस बनाम गोवा राज्य (2023) में यह स्पष्ट किया गया कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment) की शिकायतों की जांच में प्रकृतिक न्याय (Natural Justice) और न्यायिक प्रक्रिया (Procedural Fairness) को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने यह निर्णय न केवल आरोपी के अधिकारों की रक्षा के लिए दिया, बल्कि PoSH कानून के तहत गठित आंतरिक समिति (Internal Complaints Committee – ICC) की जिम्मेदारियों और सीमाओं को भी स्पष्ट किया।
संवैधानिक ढांचा (Constitutional Framework): अनुच्छेद 309, 310, और 311 के तहत सरकारी कर्मचारियों के अधिकार
अनुच्छेद 309 (Article 309) सरकारी सेवाओं के नियम बनाने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 310 (Article 310) "डॉक्ट्रिन ऑफ प्लेज़र" (Doctrine of Pleasure) को मान्यता देता है, यानी राष्ट्रपति या राज्यपाल की इच्छा से सेवा समाप्त की जा सकती है।
लेकिन अनुच्छेद 311 (Article 311) यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को बिना उचित जांच और बिना आरोपों की जानकारी दिए सेवा से नहीं निकाला जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इन अनुच्छेदों की व्याख्या करते हुए कहा कि सरकारी सेवा में भी प्रक्रिया की न्यायप्रियता (Fairness of Process) आवश्यक है।
अनुच्छेद 14 और प्राकृतिक न्याय (Article 14 and Natural Justice): समानता और निष्पक्ष प्रक्रिया
कोर्ट ने यह दोहराया कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत जैसे ऑडी एल्टेरम पार्टम (Audi Alteram Partem) – यानी सुनवाई का अधिकार, और नीमो जुडेक्स इन कॉज़ा सूआ (Nemo Judex in Causa Sua) – यानी कोई अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता, ये अनुच्छेद 14 (Article 14) में समाहित हैं। यदि किसी को निष्पक्ष सुनवाई नहीं दी जाती, तो यह संविधान के तहत प्राप्त समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है। कोर्ट ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ और दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन बनाम डीटीसी मजदूर कांग्रेस जैसे मामलों का हवाला देते हुए यह सिद्धांत दोहराया।
PoSH अधिनियम (PoSH Act): विशाखा निर्णय से लेकर कानून बनने तक
PoSH कानून की जड़ें विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) के निर्णय में हैं, जिसमें पहली बार कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए दिशानिर्देश (Guidelines) जारी किए गए थे।
मेधा कोटवाल लेले बनाम भारत संघ (2013) के फैसले ने इन दिशानिर्देशों को और मजबूत किया और इसके परिणामस्वरूप PoSH अधिनियम, 2013 अस्तित्व में आया। इसके अंतर्गत ICC को अधिकार दिए गए कि वह एक प्रकार की विभागीय जांच (Departmental Inquiry) करे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ICC द्वारा की गई जांच में भी निष्पक्षता (Fairness) और प्रक्रिया की न्यायप्रियता अनिवार्य है।
जांच प्रक्रिया में खामियां (Procedural Failures): कोर्ट की सख्त टिप्पणियां
कोर्ट ने पाया कि इस मामले में ICC द्वारा जांच प्रक्रिया बहुत जल्दबाजी में की गई। एक ही सप्ताह में 12 सुनवाई करना और आरोपी को पर्याप्त समय न देना, यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है। हालांकि आरोपी को दस्तावेज़ और जवाब देने का मौका दिया गया, लेकिन उसे सही तरीके से गवाहों से जिरह करने (Cross-Examination) का अवसर नहीं मिला और कानूनी सहायता (Legal Representation) भी नहीं दी गई। कोर्ट ने इसे “लाइटनिंग स्पीड इनक्वायरी” (Lightning Speed Inquiry) कहकर अस्वीकार कर दिया।
नियमों की व्याख्या (Statutory Interpretation): “जितना संभव हो” का मतलब अन्याय नहीं
केंद्रीय सिविल सेवा नियम (CCS CCA Rules) में ICC को जांच “जितना संभव हो” विभागीय जांच की तरह करने की अनुमति है। लेकिन कोर्ट ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि ICC मनमानी कर सकती है। इस लचीलापन (Flexibility) का उद्देश्य केवल पीड़िता की संवेदनशीलता (Sensitivity) को समझना है, न कि आरोपी के अधिकारों का हनन। कोर्ट ने तुलसीराम पटेल और स्वदेशी कॉटन मिल्स जैसे निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि निष्पक्ष प्रक्रिया हर हाल में बनी रहनी चाहिए।
संस्थागत सुधार (Institutional Directions): PoSH कानून के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के सभी सरकारी विभागों, सार्वजनिक उपक्रमों, पेशेवर निकायों, अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों और निजी संस्थानों को ICC की स्थिति की समीक्षा करने का आदेश दिया। उन्होंने यह भी निर्देश दिए कि ICC की जानकारी हर जगह सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की जाए।
सभी ICC सदस्यों को प्रशिक्षण देना अनिवार्य किया गया। NALSA (राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण), SLSAs और नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी को कार्यशालाएं (Workshops) और SOPs (Standard Operating Procedures) तैयार करने का निर्देश दिया गया। केंद्र और राज्य सरकारों से आठ सप्ताह में अनुपालन शपथपत्र (Compliance Affidavit) मांगा गया।
सेवा कानून में प्राकृतिक न्याय की पुनः पुष्टि (Natural Justice in Service Law)
कोर्ट ने एके क्रैपाक बनाम भारत संघ, हीरा नाथ मिश्रा बनाम राजेंद्र मेडिकल कॉलेज और मंगीलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य जैसे निर्णयों को उद्धृत करते हुए कहा कि जब किसी व्यक्ति के अधिकारों पर असर पड़ता है, तो प्राकृतिक न्याय का पालन आवश्यक होता है, चाहे कानून कुछ भी कहे। खासकर यौन उत्पीड़न जैसे संवेदनशील मामलों में अगर जांच प्रक्रिया जल्दबाज़ी और पक्षपातपूर्ण हो, तो पूरा निर्णय ही असंवैधानिक हो सकता है।
सुधारात्मक उपाय (Corrective Mandate): जांच को दोबारा शुरू करने का निर्देश
कोर्ट ने अपीलकर्ता की सेवा समाप्ति को रद्द करते हुए जांच को पुनः मई 2009 की स्थिति से शुरू करने का आदेश दिया। ICC को निर्देश दिया गया कि वह निष्पक्ष अवसर दे और प्रक्रिया तीन महीनों के भीतर पूरी करे। साथ ही कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि आरोपी को न तो तुरंत बहाल किया जाएगा और न ही बकाया वेतन मिलेगा। सब कुछ जांच के अंतिम परिणाम पर निर्भर करेगा।
ऑरेलियानो फर्नांडिस बनाम गोवा राज्य निर्णय यह स्पष्ट करता है कि यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोपों की जांच में भी प्रक्रिया की निष्पक्षता (Procedural Fairness) और प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह निर्णय PoSH कानून को कमजोर नहीं करता, बल्कि इसे और अधिक न्यायसंगत और विश्वसनीय बनाता है।
कोर्ट ने संस्थागत अनुपालन (Institutional Compliance) और निष्पक्ष जांच प्रक्रिया को अनिवार्य बनाकर यह सुनिश्चित किया है कि शिकायतकर्ता और आरोपी दोनों के साथ न्याय हो। यह फैसला एक सशक्त संदेश देता है कि न्याय केवल परिणाम तक सीमित नहीं होता, बल्कि प्रक्रिया की पवित्रता से ही उसकी नींव बनती है।