संविदा विधि (Contract Law) भाग 5 : कोई करार कब संविदा बनता है और संविदा करने के लिए सक्षम कौन होता है (धारा 10-12)

Update: 2020-10-18 05:30 GMT

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब करार हो जाता है तो कौन से करार संविदा बनते हैं और संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकार कौन होते हैं? इस प्रश्न का जवाब हमें इस अधिनियम की धारा 10 और 12 में प्राप्त होता है। इस अधिनियम की धारा 10 भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के सर्वाधिक महत्वपूर्ण धाराओं में से एक धारा है। यदि इस धारा को गहनता से अध्ययन किया जाए तो यह प्राप्त होता है कि संविदा अधिनियम का संपूर्ण निचोड़ तथा निष्कर्ष इस धारा के अंतर्गत समाहित कर दिया गया है। इस धारा में दी गई परिभाषा को पूर्ण करने के लिए ही अगली 20 धाराएं लिखी गई है क्योंकि अधिनियम की धारा 10 का संबंध सीधे अगली 20 धाराओं से भी है। धारा 10 से धारा 30 तक संविदा अधिनियम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण धाराएं है, यह धाराएं संविदा विधि की आधारभूत धाराएं हैं।

हम एक पूर्व लेख के माध्यम से यह समझ चुके हैंं कि एक नाबालिग संविदा करने में क्या कहता है कानूनइस लेख में हम संंविदा को और नज़दीक से समझने का प्रयास कर रहे हैंं।

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 (धारा 10)

अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत की गई परिभाषा

सब करार संविदाएं हैंं, यदि वह संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति से किसी विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और किसी विधि पूर्ण उद्देश्य से किए गए हैं और एतद् द्वारा अभिव्यक्त शून्य घोषित नहीं किए गए हैं।

इसमें अंतर्दृष्टि कोई भी बात भारत में प्रवत्त और विधि द्वारा अभिव्यक्त निश्चायक की गई किसी विधि पर जिसके द्वारा किसी संविदा का लिखित रूप में या साक्ष्यों की उपस्थिति में किया जाना अपेक्षित हो या किसी ऐसी विधि पर जो दस्तावेजों के रजिस्ट्रीकरण से संबंधित हो प्रभाव न डालेगी।

इस धारा के अंतर्गत इस बात का उल्लेख किया गया है कि कौन से करार से संविदाएं है और संविदा का प्रमुख सार और तत्व क्या है। इस संदर्भ में पहले करार हो और उक्त करार को करार के पक्षकारों द्वारा किया जाए यदि करार के पीछे विधि का बल न हो तो करार संविदा का रूप धारण नहीं कर सकेगा। इस प्रकार सभी करार संविदा हैं यदि में संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति से किसी विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और किसी विधिपूर्ण उद्देश्य के लिए किए जाते हैं।

इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि कोई भी करार संविदा बनता है किंतु यह संविदा कुछ बातों से दूषित हो जाती है। पक्षकार असक्षम है और स्वतंत्र सहमति का अभाव है या फिर करार अवैध है ऐसी परिस्थिति में वैध संविदा का सृजन नहीं हो पाता है।

इस धारा 10 को कुछ इस प्रकार समझा जाए कि धारा 11 एवं 12 सक्षमता का उल्लेख करता है, धारा 13 से 23 तक में स्वतंत्र सहमति का प्रयोग किया गया है और धारा 23 से 30 तक में वैध प्रतिफल या उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया है। इन तीनों बातों को अगली 20 धाराओं में प्रयोग किया गया है। इस आलेख में यह बात प्राप्त होती है कि किसी भी वैध संविदा के लिए पक्षकारों की सक्षमता, स्वतंत्र सहमति और विधिपूर्ण उद्देश्य और प्रतिफल होना चाहिए।

अगली धाराओं में यह समझा जायेगा कि संविदा करने के लिए कौन पक्षकार सक्षम होते हैं और स्वतंत्र सहमति क्या होती है और विधिपूर्ण प्रतिफल और उद्देश्य क्या होता है!

संविदा करने के लिए कौन सक्षम है

संविदा करने के लिए सक्षम होने के संबंध में धारा 11 और 12 में प्रावधान दिए गए हैं। धारा 11 में यह बतलाया गया है कि कोई भी व्यक्ति जो प्राप्तवय हो जो स्वस्थचित्त हो और किसी विधि द्वारा संविदा करने से निर्योग्य न हो।

धारा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम में जो प्राप्तवय हो जो स्वस्थचित्त हो और किसी विधि द्वारा संविदा करने के निर्योग्य न हो।

अवयस्क के साथ संविदा

अवयस्क व्यक्ति के साथ संविदा के प्रश्न समय-समय पर उठते रहे हैं। यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न न्यायालयों के समक्ष आता रहा है कि अवयस्क के साथ संविदा वैध होती है या नहीं!

भारतीय वयस्कता अधिनियम के अंतर्गत 18 वर्ष की आयु वयस्कता की आयु है। भारत में अवयस्क के साथ संविदा को शून्य मानी जाती है। भारतीय विधि में वयस्क संविदा करने के लिए सक्षम माना जाता है। यह उल्लेखनीय है कि यदि वयस्क के लिए संरक्षक नियुक्त किया गया है तो ऐसी स्थिति में वह 21 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेगा वह समझा जाएगा कि संविदा करने के लिए सक्षम है।

नरेंद्र लाल बनाम ऋषिकेश 1918 आईसी 765 के प्रकरण में यह कहा गया है कि अवयस्क के साथ संविदा शून्य है पर जब वह वयस्कता की आयु प्राप्त कर लेता है तो उक्त कृत्य की बाबत अनुसमर्थन कर सकता है। मोहिरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष 1903 30 Cal 539 के प्रकरण में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति किसी को अवयस्क बताता है तो उसकी अवयस्कता को साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा जो ऐसा वाद प्रस्तुत करता है। जहां कोई अवयस्क अपने आप को अवयस्क के रूप में प्रस्तुत करता है और संविदा करना चाहता है तो उसे उक्त कार्य से रोका जाएगा।

मोहिरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष 1903 30 Cal 539 के निर्णय में प्रिवी काउंसिल ने यह माना कि एक नाबालिग का करार, void ab initio (आरंभतः शून्य) है अर्थात ऐसा करार जो शुरुआत से ही शून्य है। इस निर्णय के बाद यह साफ़ है कि कानून की नजर में ऐसे करार का कोई मूल्य नहीं है।

यदि किसी अवयस्क ने धोखाधड़ी के उद्देश्य से कोई संविदा कर संपत्ति प्राप्त कर ली है तो अवयस्क के साथ होने वाली शून्य संविदा के परिणामस्वरूप अवयस्क द्वारा प्राप्त किया गया लाभ उसे पुनः लौटाना होगा। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 65 के अधीन यह उपबंध किया गया है जबकि किसी करार के शून्य होने का पता चला है या कोई संविदा शून्य हो जाए तब वह व्यक्ति जिसने ऐसा कर या लोप के अधीन कोई फायदा प्राप्त किया है तो फायदा उस व्यक्ति को जिस से वह प्राप्त किया गया है प्रत्यावर्ती करने या लौटने का बाध्य हो जायेगा।

पागल के साथ संविदा

पागल के साथ संविदा के संबंध में भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 12 महत्वपूर्ण धारा है। इस धारा के अंतर्गत स्वास्थ्यचित्त व्यक्ति के साथ संविदा को वैध संविदा माना गया है। किसी भी व्यक्ति को बार बार उन्मत्ता के दौरे नहीं आना चाहिए तथा वह मानसिक रूप से पागल नहीं होना चाहिए। उसका पागलपन इतना नहीं होना चाहिए कि वह कोई भी हितार्थ निर्णय ले पाने में सक्षम हो।

मोहम्मद बनाम अब्दुल के प्रकरण में यह कहा गया है कि उन्मत्ता का तात्पर्य पागलपन से है। उन्मत्ता का अर्थ ऐसा पागलपन जिसके कारण कोई भी व्यक्ति अपना कोई भी निर्णय ले पाने में असमर्थ है। किसी करार को अवैध घोषित करने के प्रयोजन के लिए जो प्रसंगिकता है वह यह कि इसे निष्पादित करने वाला व्यक्ति ऐसे करार को निष्पादित करने की तिथि पर ऐसी अयोग्यता से पीड़ित था।

इस प्रकरण में धारित किया गया कि वर्ष 1990 की चिकित्सीय रिपोर्ट पर प्रकाश क्रमश वर्ष 1985 से 1987 में किए गए। करार के समय पागलपन का साक्ष्य होना चाहिए। करार पहले यदि कोई पागल था तो इसमें कोई अर्थ नहीं रह जाता है।

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