उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:8 जिला आयोग के निष्कर्ष से संबंधित कानून
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) की धारा 39 जिला आयोग के द्वारा किसी मामले के निष्कर्ष के संबंध में प्रावधानों का उल्लेख करती है। इस धारा से ठीक पूर्व की धारा जिला आयोग में प्रकरणों को संस्थित करने से संबंधित प्रक्रिया का उल्लेख करती है और इस धारा के अंतर्गत जिला आयोग के निष्कर्ष के संबंध में उल्लेख किया गया है। इस आलेख में धारा 39 से संबंधित टीका प्रस्तुत किया जा रहा है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप है:-
धारा-39
जिला आयोग के निष्कर्ष:-
(1) जिला आयोग का यह समाधान हो जाता है कि जिन मालों के विरुद्ध परिवाद किया गया है वह परिवाद में विनिर्दिष्ट त्रुटियों में से किसी त्रुटि से ग्रस्त है या परिवाद में सेवाओं के अधीन प्रतिकर का कोई दावा साबित हो गया है तो वह विरोधी पक्षकार को निम्नलिखित में से एक या अधिक बातें करने का निर्देश देने वाला आदेश जारी कर सकेगा, अर्थात्
(क) प्रश्नगत माल में से समुचित प्रयोगशाला द्वारा प्रकट की गई त्रुटि को दूर करना;
(ख) माल को उसी वर्णन के नए और त्रुटिहीन माल से बदलना;
(ग) परिवादी द्वारा संदत्त, यथास्थिति, कीमत या प्रभारों को ऐसी कीमत या प्रभारों, जो विनिश्चित की जाए, पर व्याज सहित परिवादी को वापस लौटाना;
(घ) ऐसी रकम का संदाय करना जो विरोधी पक्षकार की उपेक्षा के कारण उपभोक्ता द्वारा सहन की गई किसी हानि या क्षति के लिए उपभोक्ता को प्रतिकर के रूप में अधिनिर्णीत किया जाए: परंतु जिला आयोग को ऐसी परिस्थितियों में जो वह ठीक समझे दंडात्मक नुकसानियों को मंजूर करने की शक्ति होगी;
(ङ) ऐसी रकम का संदाय, जो उसके द्वारा अध्याय 6 के अधीन किसी उत्पाद दायित्व में कार्रवाई के अधीन वह प्रतिकर के रूप में अधिनिर्णीत करे;
(च) प्रश्नगत माल में त्रुटियों या सेवाओं में कमियों को दूर करना;
(छ) अनुचित व्यापारिक व्यवहार या अवरोधक व्यापारिक व्यवहार को बंद करना या उनकी पुनरावृत्ति न करना;
(ज) विक्रय के लिए परिसंकट में असुरक्षित माल की स्थापना न करना;
(झ) परिसंकट में माल के विक्रय के लिए प्रस्थापित किए जाने से वापस लेना;
(ञ) परिसंकटमय माल के विनिर्माण को बंद करना और ऐसी सेवाओं की प्रस्थापना करने से प्रविरत रहना, जो परिसंकटमय प्रकृति की है;
(ट) ऐसी राशि का संदाय करना, जो उसके द्वारा अवधारितत की जाए, उसकी यह राय है कि भारी संख्या में ऐसे उपभोक्ताओं द्वारा, जिनकी यदि सुविधापूर्वक पहचान नहीं की जा सकती, को हानि या क्षति उठानी पड़ी है:
परंतु इस प्रकार संदेय राशि की कुल रकम ऐसे उपभोक्ताओं को, यथास्थिति, ऐसे विक्रीत त्रुटिपूर्ण माल या प्रदान की गई सेवाओं के मूल्य का पञ्चीस प्रतिशत से कम नहीं होगी;
(उ) ऐसे भ्रामक विज्ञापन जारी करने के लिए जिम्मेदार विरोधी पक्षकार के खर्च पर भ्रामक विज्ञापन के प्रभाव को निष्पभावी करने के लिए सुधारात्मक विज्ञापन निकालना;
(ड) पक्षकारों के लिए पर्याप्त खर्च का उपबंध करना; और
(ढ) कोई भ्रामक विज्ञापन निकालने से परिविरत रहना और प्रदवारित रहना। (2) उपधारा (1) के अधीन अभिप्राप्त रकम ऐसी निधि में जमा की जाएगी और ऐसी रीति में उपयोग की जाएगी जो विहित की जाए।
(3) अध्यक्ष और किसी सदस्य द्वारा संचालित किसी कार्यवाही में और यदि उनका किसी मुद्दे या मुद्दों पर मतभेद है, वे उस मुद्दे या उन मुद्दों का कथन करेंगे जिन पर उनका मतभेद है और उसे ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर सुनवाई के लिए किसी अन्य सदस्य को निर्दिष्ट करेंगे तथा बहुइमत की राय जिला आयोग का आदेश होगा :
परंतु अन्य सदस्य उसको निर्दिष्ट ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर ऐसे निर्देश की तारीख से एक मास की अवधि के भीतर अपनी राय देगा।
(4) उपधारा (1) के अधीन जिला आयोग द्वारा किया गया प्रत्येक आदेश उसके अध्यक्ष और सदस्य द्वारा, जिन्होंने कार्यवाही संचालित की थी, हस्ताक्षरित किया जाएगा : परंतु जहां आदेश उपधारा (3) के अधीन बहुमत की राय के अनुसार किया जाता है वहां ऐसा आदेश भी अन्य सदस्य द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा।
एक मामले में कहा गया है कि जहां कतिपय अनुतोषों की माँग करने वाले विरोधी पक्षकारों के विरूद्ध परिवाद दायर किया गया; वहाँ सहायक रजिस्ट्रार ने यह निष्कर्ष अभिलिखित कर परिवाद को वापस कर दिया कि यह परिवाद अधिनियम की धारा 2 (1) (घ) के अन्तर्गत नहीं आता है।
आगे; जब इस निर्णयादेश के विरूद्ध अपील दायर की गयी तब अपीलीय राज्य आयोग ने रजिस्ट्रार द्वारा अभिलिखित किये गये निर्णयादेश को विधिमान्य नहीं माना और इस तर्क की भी पुष्टि कर दिया कि उसके पास ऐसे न्यायिक आदेश को पारित करने की शक्ति नहीं थी।
कारण कि फोरमों की हर एक कार्यवाही का क्रियान्वयन, कम से कम अध्यक्ष एवम् उसके साथ बैठे हुए एक सदस्य द्वारा किया जाना चाहिए और न किसी सहायक रजिस्ट्रार द्वारा अतएव, प्रश्नगत् आदेश को अपास्त कर इस मामले सम्बन्धी परिवाद को पुनः निस्तारण के लिए जिला फोरम को भेज दिया गया।
कानपुर डेवेलपमेंट एवारिटी बनाम अजय वर्मा, 2012 (3) जहां पुनरीक्षण याचिका को दाखिल करने में विलम्ब हुआ लेकिन विलम्ब को दोषमार्जित करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं पेश किया गया वहां विलम्ब को दोषमार्जित नहीं किया गया और इसलिए पुनरीक्षण याचिका को पोषणीय नहीं माना गया।
न्यायालय का कोरम आदेश जिला फोरम द्वारा केवल तभी पारित किया जाना चाहिए जब कि अध्यक्ष तथा एक सदस्य उपस्थित रहा हो तथा मामले को सुना हो, कोई दूसरी प्रक्रिया अवैध तथा गलत है।
एक मामले में जिला फोरम के अध्यक्ष ने आदेश दिनांक 22.5.1992 द्वारा कहा है कि जिला फोरम मामले को निर्णीत करने के लिए क्षेत्राधिकार रखता है। दो महीने बीत जाने के उपरान्त दो सदस्यों ने आदेश पारित किया कि मामले को निर्णीत करने के लिए फोरम के पास क्षेत्राधिकार नहीं है। जिस रीति से मामले को व्ययनित किया गया है जिला फोरम गलत है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अन्तर्गत आदेश केवल तभी पारित किया जा सकता है जबकि अध्यक्ष जिला फोरम के कम से कम एक सदस्य के साथ आदेश पारित करते समय उपस्थित रहा हो।
अभिलेख इंगित करता है कि अध्यक्ष ने सदस्य की सहायता के बिना ही आदेश को पारित किया है। हमारे विचार से यह प्रक्रिया गलत है और सम्यक् अनुक्रम यह था कि क्षेत्राधिकार के प्रश्न को केवल तभी निर्णीत करता था जबकि अध्यक्ष जिला फोरम के कम से कम एक सदस्य के साथ उपस्थित रहा हो ।
फोरम के अध्यक्ष की अनुपस्थिति में जिला फोरम के दो सदस्यों द्वारा पारित एक आदेश अवैध है क्योंकि ऐसा आदेश क्षेत्राधिकार के परे है। यह धारण किया गया कि ऐसे परिवाद को राज्य आयोग के पास स्थानान्तरण के लिए भेजा जाना चाहिए।
चिकित्सक सेवा से संबंधित एक प्रसिद्ध मामला है जहां अस्पताल एवं डॉक्टर की असावधानी से मृतक को सामान्य कक्ष में रखा गया जबकि विशेष सुरक्षा कक्ष (आई सी यू) की व्यवस्था थी। मृतक की शल्य चिकित्सा होनी थी जो विपक्षीगण की लापरवाही के कारण नहीं हो सकी। एवं जूनियर डॉक्टर को देखरेख के लिए छोड दिया गया था। उसकी मृत्यु हो गई। पिता, माता एवं पत्नी ने क्षतिपूर्ति के लिए दावा किया। क्या मृतक को आई सी यू स्थानान्तरित किया जाना आवश्यक था। क्या शल्य चिकित्सा आवश्यक थी।
विनिर्णीत किया गया कि मृतक को शल्य चिकित्सा हेतु हालत खराब होने पर (आई सी यू) में ले जाना आवश्यक था। यदि आई सी यू उपलब्ध नहीं था तो समय से मृतक के स्वजनों को सूचित किया जाना था। परिवादी को अस्पताल द्वारा क्षतिपूर्ति प्रदान की जानी चाहिए।
इस बात का साध्य है कि डाक्टर टी मृतक को आईसीयू में स्थानान्तरण हेतु दृढ ये मृतक की बिगड़ती हुई हालत को सुधरने के लिए आई सी यू में ही उपचार सम्भव था। आई सी यू में मरीजों को विशेष सावधानी रखी जाती है। आईसीयू में उपचार के अनेक यन्त्र उपलब्ध रहते हैं जब कि साधारण वार्ड में ऐसी व्यवस्था नहीं थी।
इसीलिये गम्भीर मरीजों को आई सी यू में रखने की सलाह दी जाती है। बचाव में डाक्टर ने कहा कि जो व्यवस्था आई सी यू में है उसी तरह की व्यवस्था मृतक को उसके कमरे में दी जाती रही है।
इसलिये आई सी यू में रखने या न रखने का कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता है। डॉक्टर के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा गया कि गम्भीर मराजों को आई सी यू में भर्ती करने की सलाह डाक्टर देते रहते हैं एवं मृतक को भी आई सी यू में ही भर्ती की सलाह डाक्टर ने स्वयं दी थी।
यह बात विवादित नहीं रही कि मरीज के लिये आई सी यू में विशेष सुविधा थी। यह स्थापित नहीं किया जा सका कि मृतक को उतनी सुविधा प्रदान की गई थी जितना उसे आवश्यक थी।
यह भी साबित नहीं किया जा सका कि मृतक को यन्त्रों की सुविधा प्रदान की गई थी। यह भी दलील दी गई कि उक्त साधारण वार्ड में किसी भी समय डॉक्टर को बुलाया जा सकता था। यह दलील निराधार है।
वस्तुस्थिति यह है कि मरीज के प्रति लापरवाही की गई। नर्स और डाक्टर को बुलाने के लिए इधर-उधर दौड़ना पड़ता था। आई सी यू एवं साधारण वार्ड दोनों में अत्यन्त फर्क है। मरीज को आई सी यू में भर्ती किया जाना आवश्यक था।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि आई सी यू में मरीज की भर्ती की जानी आवश्यक थी। डॉक्टर एवं अस्पताल के अधिकारियों ने कोई ध्यान नहीं दिया जब कि मरीज की हालत गम्भीर थी। यदि आई सी यू में कोई जगह रिक्त नहीं थी तो इसकी सूचना परिवादीगण को दी जानी चाहिए थी। अस्पताल के रिकार्ड देखने से स्पष्ट था कि अस्पताल के अधिकारियों ने मरीज की हालत को गम्भीरता से नहीं लिया रिकार्ड के अवलोकन से यह भी स्पष्ट है कि अगले 2-3 दिन तक आई सी यू में जगह रिक्त होने की सम्भावना नहीं थी।
चिकित्साधारियों की यह चूक लापरवाही के अन्तर्गत आयेगी क्योंकि चिकित्सकों को विशेष सावधानी रखनी चाहिए। यदि वह ऐसा करने में असफल होते हैं तो उपेक्षा के अपराधी होते हैं तथा नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए जिम्मेदार होते हैं। यथोचित सावधानी का कोई मापदण्ड नहीं है अपितु प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
मरीजों के प्रति सामान्य असुविधा के प्रति डाक्टर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। बल्कि चिकित्सक को दोषी ठहराने के लिये आवश्यक है कि वह चिकित्सा जगत में असावधानी व लापरवाही बरतता है या नहीं।
समस्त तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करने के पश्चात् न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि प्रत्यर्थी चिकित्सक एवं अधिकारियों परिवादीगण को यह सूचित करने में असमर्थ रहे कि अस्पताल में आई सी यू में विस्तर (बेड) रिक्त नहीं है। यदि आई सी यू में स्थान मिल गया होता तो मृतक की मृत्यु इतनी शीघ्र न हुई होती।
मृतक की बीमारी इतनी गम्भीर थी कि उसका बचना सम्भव प्रतीत नहीं होता था किन्तु यदि उचित उपचार किया गया होता तो मरीज कुछ और अधिक समय के लिए जीवित रह गया होता तथा परिवादीगण को राहत मिली होती। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि परिवादीगण को मृतक राजेश की मृत्यु के बाद मानसिक कष्ट हुआ।
एक लाख रुपये की क्षतिपूर्ति की मांग की गई है। न्यायालय 80,000/ रुपये अस्पताल एवं 20,000/- रुपये डाक्टर टी० द्वारा क्षतिपूर्ति देने का आदेश दिया।
न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि प्रत्यर्थी नं0 1 डॉ० टी० अकेले उपेक्षा के लिये जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि उनके अलावा भी डाक्टरों की पूरी टीम ने लापरवाही की। इन सबसे अधिक अस्पताल जिम्मेदार है जिसने सलाह के बाद भी आई० सी० यू० में भर्ती नहीं किया एवं उसकी सुविधाएं प्रदान नहीं कर सका। इस प्रकार अस्पताल उपेक्षा के दोष से मुक्त नहीं हो सकता। 80,000/- रुपये अस्पताल एवं 20,000/- रुपये डॉ0 टी0 को क्षतिपूर्ति देनी पड़ेगी।
बैंक के विरुद्ध परिवाद:-
बैंक में से जमा से अधिक रकम निकालने की सुविधाओं (overdratt facilities) के बारे में रकम को संस्वीकृत किये जाने के विषय में, बैंकों को संस्वीकृति करने में और उसके पश्चात् रकम को मुक्त करने में व्यापक स्वविवेक है जो कि संबंधित पक्षकार की वास्तविक मांग और इसके उचित उपयोग पर आधारित है। उपभोक्ता फोरम बैंकों द्वारा लिये गये विनिश्चयों के निर्णय में नहीं बैठ सकते हैं।
कन्यूमर युनिटी एण्ड ट्रस्ट सोसायटी, कलकत्ता बनाम दि चेयरमैन मैनेजिंग डाइरेक्टर के मामले में बैंकिंग कम्पनी में कुछ समय तक कोई कार्य नहीं हो सका क्योंकि उसके कर्मचारीगण अवैध हड़ताल पर थे। हड़ताल के समय तक परिसर में प्रवेश वर्जित था। हड़ताल के समय तक खाताधारी ग्राहकों का जो नुकसान हुआ कम्पनी जिम्मेदार होगी एवं क्षतिपूर्ति के लिये दायी होगी।
एक प्रकरण में परिवादी कम्पनी ने नवम्बर, 1987 में बैंक प्रतिभूति के लिए संस्तुति किया था एवं बैंक भुगतान नहीं किया गया, परिवाद अगस्त, 1991 में दाखिल किया गया जबकि बैंक प्रतिभूति चार दिसम्बर 1991 तक की वैध थी, एवं बैंक ने परिवादी कम्पनी द्वारा किये गये दावें को कभी नहीं तोड़ा था, वहाँ यह निर्धारित किया गया कि वाद हेतुक बैंक प्रतिभूति की वैधता तक जीवित रहा एवं परिवादी परिसीमा द्वारा वर्जित नहीं था।
परिवादी के अनुरोध पर बैंक ने उसके पक्ष में रोकड़ उधार की सुविधा प्रदान किये जाने की मंजूरी दे दी। जहाँ, परिवादी ने यह अभिकथन किया कि जब कारखाने में उत्पादन उच्चतम सीमा तक पहुँच गया था; तब बैंक ने परिसीमा में घटोत्तरी कर दिया और परिवादी को कारखाने के समापन के परिणामस्वरूप, बकाया रहने वाले ऋण का समायोजन करने के लिए बुलाया, वहाँ बैंक ने यह प्रतिपादना किया कि परिवादी ने उधार की शर्तों का अनुपालन नहीं किया।
बैंक ने परिसीमा को समाप्त कर दिया और एक सिविल वाद के दायर किये जाने पर राज्य आयोग ने प्रतिकर का अधिनिर्णय किया। लेकिन जब इस प्रतिकर के अधिनिर्णय के विरुद्ध अपील दायर की गयी, तब राज्य आयोग के प्रश्नगत् आदेश को अवैधानिक माना गया और अपास्त कर दिया गया तथा मामले को समाधान एवम् न्याय निर्णयन के लिए राज्य आयोग को प्रतिप्रेषित कर दिया गया।
रेलवे के विरुद्ध परिवाद:-
फिरोज अमरोली बनाम भारतीय रेलवे, 1993 के वाद में रेलवे द्वारा कुछ गाड़ियों को मनमाने ढंग से सुपर गाड़ियों के रूप में वर्गीकृत करने तथा यात्रियों से अतिरिक्त चार्ज वसूलने के संबंध में परिवाद संस्थित किया गया। सुपर फास्ट गाड़ी के रूप में वर्गीकृत करने के लिए जो मापदण्ड था वह अधिकारियों द्वारा अनुसरित निर्देशांक के रूप में बहुत अल्प सुसंगत अपवा सहायतार्थ पाया गया। रेलवे बोर्ड ने मामले के प्रति अपना ध्यानाकर्षण करने के लिए नवीन निर्देशांको (guidelines) को प्रतिपादित किया।
मामले का परिशीलन करने के उपरान्त राष्ट्रीय आयोग ने रेलवे बोर्ड को निर्देश दिया कि वह मामले के प्रति सावधानीपूर्वक अपने ध्यान में केन्द्रित करे तथा सुपर फास्ट गाड़ियों के प्रति नवीन निर्देशाकों को निर्धारित करे जैसे उक्त गाड़ी की जीमन चाल रुकने वाले स्टेशनों की संख्या तथा गाड़ी में चलने वाले यात्रियों को सुविधा इत्यादि। उपर्युक्त बिन्दुओं पर निर्देश देने के उपरान्त ही वह गाड़ियों को सुपर फास्ट गाड़ी के रूप में वर्गीकृत करे। उपर्युक्त उद्देश्यों के कारण यह मामला 2 माह के लिए स्थगित रहेगा।
नेशनल कमीशन परिवादी द्वारा रेलवे से 6 टिकट कप किया गया था लेकिन रेलवे विभाग ने परिवादी को 5 शयन सीटें उपलब्ध करायी सेवा में कमी का स्पष्ट मामला माना गया। इस बारे में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत प्रतिकर की मांग की जा सकती है। रेलवे दावा अधिकरण को धारा 13, 15 इस प्रकृति के दावे को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के द्वारा निराकृत किए जाने को वर्जित नहीं करती।
किसी दुर्घटना में इन्स्योर्ड कार को क्षति यह सर्वविदित है कि बीमा संविदा के अन्तर्गत बीमा कंपनी किसी माल अथवा तीसरे व्यक्ति या संपत्ति की क्षति पूर्ण करने का वचन देती है। चंपक लाल भुण्डन लाल (डा) बनाम न्यू इण्डिया इन्स्योरेंस कम्पनी लिमिटेड, (1993) के एक वाद में आयोग इन्स्योर्ड वाहन की क्षतिपूर्ति से संबंधित था। अतः यह एक प्रारम्भिक कर्तव्य था बीमा कम्पनी बीमित को क्षतिपूर्ति करे।
दूसरे शब्दों में, उसके माल को उस स्थिति में पहुँचना जिसमें वह था। अतः उन शर्तों एवं दशाओं को सख्ती से निर्वाचित किया जाना चाहिए खास तौर से वहाँ जहां पर बीमा कम्पनी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य की परिभाषा में आती हो व्यापार पर एकाधिकार रखती हो। चाहे कोई ऐसा पसन्द करता हो या न करता है उसको स्वयं या अपने अनुषंगको के मार्फत सामान्य बीमा निगम के अन्तर्गत इन्स्योरेंस लेना है।
प्रस्तुत वाद में बीमा कम्पनी ने स्वच्छता से कार्य न करते हुए डेढ़ साल बाद जब कीमतें बढ़ गयी तो प्रस्ताव प्रस्तुत किया है तथा परिवादी को न तो सर्वे की कापी देता है न उसका पूरा विवरण दिया है जिसमें दशायें आदि दिखाई गयी हैं। सेवा में कमी माना गया अतः यह मामला धन हानि के आधार पर तय किया जाना चाहिए।
अतः बीमा कम्पनी को दुर्घटना से 3 महीने के अन्दर 3000/- देने को उत्तरदायी ठहराया गया। चूंकि समय भीतर न तो भुगतान ही किया गया और न ही क्षतिपूर्ति की गयी इसलिए उसे दावे के साथ 18% ब्याज सहित द्द 1500/- खर्चे को भी देना पड़ा।
खराब रंगीन टी० बी० के विरुद्ध परिवाद:-
जिलाधिकरण ने नया टीवी देने एवं क्षतिपूर्ति के लिए 2,500/- रुपये निर्णीत किया। अपील-राज्य आयोग ने क्षतिपूर्ति को घटाकर 500/- रुपये कर दिया। अपील में राष्ट्रीय आयोग ने विनिर्णीत किया कि क्षतिपूर्ति का उचित मूल्यांकन जिलाधिकरण ही कर सकती है एवं जिलाधिकरण के आदेश को पुनर्स्थापित किया।
राज्य आयोग ने निम्न एवं तकनीकी दृष्टिकोण क्षतिपूर्ति के निर्धारण में अपनाया। यह सत्य है कि क्षतिपूर्ति का निर्धारण मनमानी ढंग से नहीं अपितु विधिक सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। उपरोक्त वाद में परिवादी को अत्यन्त मानसिक एवं शारीरिक क्षति हुई क्योंकि उसे खराब रंगीन टी० वी० दिया गया था, जिसे नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता।
जिस दिन कोई व्यक्ति कोई सामान खरीदता है उसी दिन से उसका लाभ प्राप्त करने की इच्छा रखता है। प्रस्तुत बाद में परिवादी रंगीन टी० बी० को खरीदने के लगभग 2 वर्ष बाद तक उसका उपभोग नहीं कर सका वल्कि 2-3 बार टी0 वी0 को मरम्मत हेतु ले जाना पड़ा। जिलाधिकरण द्वारा विनिर्णीत 2500/- रुपये की क्षतिपूर्ति उचित थी। जिलाधिकरण को क्षतिपूर्ति निर्धारित करते समय परिवादी की परेशानी, कष्ट एवं असुविधा पर विशेष रूप से विचार करना चाहिए।
रमेश ठाकर बनाम असलम, 2001 के मामले में बिल्डर द्वारा निवास गृह की पूरी राशि प्राप्त कर ली गयी थी लेकिन वह निर्धारित समय के अन्दर इसे नहीं ना सका। इस मामले में जहां दो वर्ष के विलम्ब से कब्जा दिया गया था वही निर्माण में भी कोई दोष उत्पन्न होना पाया गया। बिल्डर के नाम पर सेवा में कभी होना मानी गयी। 1,00,000/- रुपये प्रतिकर 18 प्रतिशत व्याज सहित राज्य आयोग द्वारा मंजूर किया गया। राष्ट्रीय आयोग ने जिला फोरम तथा राज्य आयोग को निष्कर्ष को पुष्ट किया लेकिन प्रतिकर की राशि घटाकर 50,000/- रुपये कर दी।
इस राशि को 6 सप्ताह के अन्दर भुगतान करने का निर्देश दिया गया। यह स्पष्टीकृत किया गया कि यदि इस अवधि के भीतर प्रतिका की राशि का भुगतान नहीं इया जाता है तो परिवाद प्रस्तुत करने की दिनांक से भुगतान किए जाने की दिनांक तक 18 प्रतिशत वार्षिक ब्याज भी भुगतान करने का दायित्व होगा।