उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:2 अधिनियम का परिभाषा खंड

Update: 2021-12-09 08:26 GMT

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) की धारा 2 के अंतर्गत परिभाषा खंड प्रस्तुत किया गया है। किसी भी अधिनियम को समझने के लिए उस अधिनियम का परिभाषा खंड आवश्यक होता है क्योंकि अधिनियम में उपयोग किए गए शब्दों का अर्थ इस परिभाषा खंड से ही निकल कर सामने आता है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 2 के अधीन परिभाषा से संबंधित कुछ अत्यधिक महत्वपूर्ण शब्द पर टिका प्रस्तुत किया जा रहा है।

परिवादी -परिवादी से निम्नलिखित अभिप्रेत है

1)- उपभोक्ता अथवा

2)- कम्पनी अधिनियम, 1956 अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन स्वैच्छिक उपभोक्ता संघ अथवा केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार भी परिवाद करती है।

3)- पंजीकृत शिकायत पेश करने वाला व्यक्ति परिवादी कहलाता है और परिवादी अथवा शिकायत करने वाला वही व्यक्ति हो सकता है जिसने खराब किस्म अथवा अपमिश्रित वस्तु का उपभोग किया है तथा इस उपभोग में उसे हानि हुई है, इतना ही नहीं सरकार और संस्था भी परिवादी हो सकती है। धारा 2 (1) ग उपबंधित करती है कि स्वैच्छिक संस्थाओं एवं सरकार को छोड़कर एवं परिवादी के लिए यह आवश्यक है कि वह माल या सेवाओं का उपभोक्ता हो।

इण्डस्टियल डेवलमेण्ट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम कृष्णमडू घोष व अन्य, 1996 के मामले में परीक्षा के शुल्क की जो धनराशि दी गयी थी वह लिखित परीक्षा और साक्षात्कार को करवाने के लिए थी। वह नौकरी के प्रतिफल के रूप में देय नहीं था और न ही उपयोगी था अतः यह वाद उपभोक्ता विवाद नहीं माना गया।

उपभोक्ता:- हालांकि इस शब्द की परिभाषा धारा 2 गण्ड (घ) में दी गई है परन्तु यहाँ संक्षेप में यह दर्शित करना आवश्यक है कि उपभोक्ता कौन व्यक्ति हो सकता है। उपभोक्ता होने के लिए यह आवश्यक है कि (1) उसने मूल्य देकर वस्तु का क्रय किया हो या सेवा प्राप्त की हो। यदि उसने मुफ्त में वस्तु का क्रय करके नुकसानी प्राप्त किया है तो वह उपभोक्ता नहीं है तथा वह नुकसानी के लिए इस अधिनियम के अन्तर्गत परिवादी नहीं हो सकता तथा न्यायालय में वाद नहीं प्रस्तुत कर सकता है।

(ii) उसे क्रय किए वस्तु में अथवा सेवाओं से नुकसान हुआ हो।

(iii) उसे उस वस्तु का व्यापारी नहीं होना चाहिए।

(iv) यदि उसने वस्तु का आंशिक मूल्य भी अदा किया है तो भी वह उपभोक्ता है। (ख) स्वैच्छिक उपभोक्ता संस्था स्वैच्छिक उपभोक्ता संस्था भी शिकायत पेश करने की दूसरी अधिकृत एजेन्सी है। समस्त स्वैच्छिक उपभोक्ता संस्थान न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत करने के लिए अधिकृत नहीं है। केवल वे ही संस्थाएं शिकायतें पेश कर सकती हैं जो कि किसी विधि के अन्तर्गत पंजीकृत हो। यथा कम्पनी अधिनियम, 1956 अधिवक्ता भी उपभोक्ता की ओर से शिकायत पेश कर सकता है केन्द्रीय सरकार या कोई राज्य सरकार भी इस अधिनियम के तहत परिवादी हो सकती है।

संविधि की भाषा:-

जहाँ संविधि की भाषा सरल एवं स्पष्ट हो वहाँ उसके निर्वाचन में किसी सिद्धान्त का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जो कि संविधि की अस्पष्टता के मामले में अनुमान मात्र है। न्यायालय को उनका वैसा ही निर्वचन करना है जैसे वे हैं। इन्हीं शब्दों से जैसे हो उनके उद्देश्य एवं कार्य का पता लगाना है। शब्दों को फालतू नहीं समझना चाहिए न ही उन्हें निरर्थक लेना चाहिए।

खास तौर से इसी स्थिति में किसी निर्वाचन की आवश्यकता नहीं सिवाय वहां जहाँ पर शब्दों के दो अर्थ निकल रहे हैं। संविधि निर्वाचन का सबसे अच्छा एवं सुरक्षित तरीका यह है कि उसमें जैसे शब्द है, वैसे ही लेने चाहिए और यदि संभव हो उनके अर्थ को बिना वादों एवं सिद्धान्तों का सहारा लिए समझने की कोशिश करनी चाहिए।

सबूत का भार:- यदि परिवादी अपने केस को सकारात्मक रूप से साबित करने में असफल हो जाता है तो उसका परिवाद निरस्त हो सकता है।

परिवाद में उल्लिखित आरोपों को साबित करने का भार परिवादी पर होता है, यदि वह स्थापित करने में असफल रहता है तो वह किसी भी को प्राप्त करने का हकदार नहीं है।

यह एक सामान्य आधार है कि अपीलार्थी अपने वाद के पक्ष में किसी साध्य का सहारा नहीं लेता है। इसी क्षेत्र में यह सुनिश्चित है कि उपभोक्ता का वाद केवल अभिवचनों के आधार पर अभिनिर्धारित नहीं किया जा सकता है, परन्तु आवश्यक रूप से किसी ठोस सबूत के आधार पर किया जाना चाहिए। हालांकि परिवादी पर यह सबूत का भार बहुत मामूली हो सकता है तथा यही अपीलार्थी पर दूर जाकर भी सबूत का भार नहीं होता है और उसे स्वयं अपने को इस त्रुटि के लिए दोषी ठहराना पड़ता है।

परिवादी का आशय सत्य एवं स्पष्ट होना चाहिए:-

सुशील कुमार बनाम ओरिएण्टल बीमा कं लिमिटेड जहाँ परिवादी फर्म का सहभागी बीमा कम्पनी में अपना दावा दाखिल किया और वह निरस्त कर दिया गया है, तब दूसरा सहभागी दावा की राशि को दुगने से ज्यादा बढ़ाने के लिए उपभोक्ता मंच में परिवाद प्रस्तुत करता है, तब प्रथम सहभागी इसके परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः रहता है और अभिवचन तथा माध्य में इस बात का जिक्र तक नहीं किया गया तथा इस छिपाव की न तो स्पष्टीकरण ही दिया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि परिवादी को आवश्यक रूप से उपचार प्रदान करने वाली संस्थाओं के समक्ष साफ इरादे से आना चाहिए था वर्ता उपचार प्रदान नहीं किया जाना चाहिए।

प्रतिफल भुगतान पर अथवा भविष्य में भुगतान पर सेवाएं प्राप्त करने वाले लाभार्थी विद्युत आपूर्ति तथा बिल भुगतान:-

एक मामले में परिवादी का वाद यह था कि उसके पिता की मृत्यु के बाद वह बिजली का उपभोग करता रहा तथा बिजली का बिल भुगतान करता रहा। इस अधिनियम की धारा 2 (1) (ब) के अधीन उपभोक्ता की परिभाषा के अन्तर्गत वे सेवा लाभार्थी आते हैं जिनको सेवा तुरन्त प्रतिफल पर या प्रतिफल देने के वचन पर प्रदान की जाती है अथवा वे सेवाएं आती हैं जो किरायेदार द्वारा सेवा लेते रहने के रूप में अनुमोदन कर दिया जाता है।

यहाँ तक कि यह भी माना गया कि परिवादी के पिता की मृत्यु के बाद उसके सभी उत्तराधिकारी बिजली कनेक्शन के संयुक्त मालिक हो गये, और जब परिवादी बाद में यह कह कर आया कि वह अकेले ही उस कनेक्शन से विद्युत आपूर्ति का उपभोग करता रहता था।

बिल भुगतान करता रहा तब उन लोगों के अनुमोदन पर जिन लोगों को माना गया के विद्युत परिषद की ओर से विद्युत आपूर्ति सेवा प्रदान की। उसे लाभार्थी (उपभोक्ता) माना गया। यहाँ तक कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अन्तर्गत जो कोई व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति में अपनी सम्पत्ति मिला देता है वह उस व्यक्ति के वैध प्रतिनिधि के रूप में मान लिया जाता है।

यह अभिनिर्धारित किया गया कि परिवादी विद्युत परिषद द्वारा उस कनेक्शन के मार्फत विद्युत आपूर्ति के संबंध में एक उपभोक्ता था और उसे इस अधिनियम के तहत परिवाद दाखिल करने का अधिकार है। परिवाद स्वीकार कर लिया गया और विद्युत परिषद को यह निर्देश दिया गया कि परिवादी के विद्युत आपूर्ति का कनेक्शन न काटें।

परिवाद का अर्थ:-

परिवाद से किसी परिवादी द्वारा लिखित रूप में किया गया ऐसा कोई अभिप्रेत है, कि

(i) किसी व्यापारी द्वारा किए गए किसी अनुचित व्यापारिक व्यवहार के परिणामस्वरूप परिवादी को कोई नुकसान हुआ है।

(ii) परिवाद के उल्लिखित काल में एक या एक से अधिक त्रुटियां हैं।

(iii) परिवाद में वर्णित माल में किसी भी प्रकार की कोई कमी है।

(iv) व्यापारी ने परिवाद में वर्णित माल के लिए तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन नियम या ऐसे माल या ऐसे माल को अन्तर्विष्ट करने वाले किसी पैके पर संप्रदर्शित मूल्य से अधिक मूल्य प्रभारित किया है।

जिससे कि वह उस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन उपबंधित कोई अनुतोष अभिप्राप्त कर सके। साधारण शब्दों में परिवाद का अर्थ ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध आरोप लगाना है जिसके द्वारा प्रार्थी को क्षति हानि या कष्ट हुआ हो।

दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत व्यक्ति मौखिक या लिखित किसी प्रकार से परिवाद कर सकता है परन्तु इस अधिनियम के अन्तर्गत केवल लिखित रूप में ही परिवाद प्रस्तुत किया जा सकता है। इस अधिनियम के अन्तर्गत मौखिक शिकायत को परिवाद नहीं माना गया है।

परिवाद में क्या लिखा जाना आवश्यक है:-

(1) व्यापारी या दुकानदार के किस गैरकानूनी अन्यायपूर्ण अथवा कार्यवाही के कारण परिवादी को नुकसान या क्षति हुई है।

(2) क्या लिखित मूल्य से अधिक कीमत ली गई है अथवा फर्जी बांट एवं कम तौला गया है।

(3) माल व सेवा में कितनी कमियां या त्रुटियाँ हैं, लिखा जाना चाहिए।

(4) इण्डस्ट्रियल प्रोडक्ट, करनाल बनाम पंजाब नेशनल बैंक व अन्य, (1992) के मामले में क्षति का अनुमान और क्षतिपूर्ति का पूर्ण विवरण परिवादी अकेले खाते के द्वारा बैंक से साथ एवं अग्रिम लेने के योग था। बैंक ने इसको दो खातों में बांट दिया, जिसके कारण गंभीर आर्थिक अभाव उत्पन्न हो गया। इसलिए परिवाद दाखिल करना पड़ा।

बैंक का कथन था कि परिवादी ने फण्ड को व्यक्तिगत उपयोग के लिए निर्देशित करके आर्थिक अनुसाशन का उल्लंघन किया है, परिवादी स्टाक कथन का बैलेन्स शीट प्रस्तुत करने में असफल रहा है प्रचुर धनराशि निर्गत की गई थी और बैंक ने इसकी वसूली के लिए परिवादी के विरुद्ध बाद संस्थित करना चाहती थी। यह धारण किया कि परिवाद पोषणीय नहीं था।

परिवादी गम्भीर रूप से बीमार था, उसने विपक्षी द्वारा मद्रास से अमेरिका के एक डाक्टर के पास एक पार्मल भेजा जो कि संवेदना का परीक्षण कर रहा था तथा मरीज के लिए दवा का परीक्षण कर रहा था। पार्सल समय के अन्दर गन्तव्य तक नहीं पहुंचा प्रश्न यह था कि क्या परिवादी उपभोक्ता था। यह धारण किया गया कि परिवादी उपभोक्ता था तथा उसके द्वारा संस्थित परिवाद पोषणीय था।

जहां तक जिला फोरम के समक्ष प्रस्तुत किये जाने वाले परिवाद के संशोधन का प्रश्न उठता है तो यह सभी संबंधित पक्षकारों के लिए खुला होता है। इस मामले में परिवादियों ने प्रतिवादी द्वारा चलायी जा रही एक स्कीम में आवद्ध पेशन क्रय किये लेकिन इस स्कीम के अधीन रकम का संदाय नहीं किया जा सका।

जब जिला फोरम ने इस परिवाद को आंशिक तौर पर स्वीकृति प्रदान कर दिया तब परिवादी द्वारा जिला फोरम के आदेश के विरुद्ध अपील दायर की गयी और परिवादी ने अपीलीय राज्य आयोग के समक्ष परिवाद में संशोधन के लिए एक आवेदन पत्र प्रस्तुत किया और इस आवेदन पत्र के माध्यम से प्राप्त किये गये संदायों एवं देय रकम तथा संविदा की शर्तों के सविवरण को अभिलेख पर लाया जाना था।

ऐसी दशा में जहां संशोधन को स्वीकृति प्रदान करने की शक्ति मात्र प्रक्रियात्मक होती थी वहां अधिनियम की धारा 14 (4) के अधीन विशिष्ट तौर पर उसको मंजूरी प्रदान करने की कोई आवश्यकता नहीं थी और इसलिए संशोधन आवेदन पत्र को अस्वीकृत करने वाले आदेश को संधारणीय नहीं माना गया।

पोस्ट मास्टर पोस्ट हेड ऑफिस बनाम कासिम अली के मामले में परिवादी ने 10 वर्ष हेतु पोस्ट आफिस में दो जमा आवर्ती खोके परिवक्वता पर काम रकम इस आधार पर दी गयी कि परिवादी चूककर्ता था और मासिक किश्तें जमा करने में अनियमितता थी। जिला फोरम द्वारा परिवाद मंजूर किया गया, इसके विरुद्ध अपील की गयी।

अभिनिर्धारित कि आवर्ती जमा खाते संपूर्ण आवधि तक चालू रहे। जब कोई चूक की गयी तब पोस्ट आफिसने इस चूक को माफ करने हेतु अपेक्षित फीस ली तथा रकम स्वीकार की थी। इस प्रकार दोनों खातों ऐसी चूक के बाद भी पुनः प्रवर्तित थे। इसलिए जिला फोरम के आदेश में कोई गलती नहीं अपील खारिज की गयी।

टाटा डीजल मोटर्स लिए बनाम ललिता देवी, 2013 के मामले में प्रत्यर्थिनी ने वाणिज्यिक प्रयोजन हेतु टाटा 407 बस खरीदी तथा उसकी छः सर्विस भी करवायी। शिकायत की गयी कि बस निर्धारित से प्रतिदिन तीन लीटर डीजल तथा ऑयल की अधिक खपत कर रही थी।

जिला फोरम द्वारा परिवाद मंजूर किय गया तथा गलती को सुधारने हेतु निर्देश के साथ प्रतिकर के रूप में 37,440/- रु० प्रदान किया गया अपील खारिज की गयी। अभिनिर्धारित कि कोई साक्ष्य नहीं कि बस निर्धारित से प्रतिदिन तीन लीटर डीजल तथा ऑयल की अधिक खपत कर रही थी। प्रत्यर्थिनी की अटकलबाजी पर रकम नहीं प्रदान की जा सकती आक्षेपित आदेश अपास्त किया गया।

आवासीय भवन जहां मूल्य वृद्धि के कारण ऊपर की ओर जलाशय टैंक बनवाने से असफल हुये, वहां सेवा में कमी मानी गई। इस मामले में, मुजैक की फर्श से युक्त फ्लैट, परिवादी को आबंटित किया गया, उसका 1/27 से 3-1/2" तक का भाग पानी में डूब गया, जिसके परिणामस्वरूप वह असमतल हो गयी और इसलिए परिवादी द्वारा प्रतिकर एक दावा वाद संस्थित किया गया।

जहां करार का एक खण्ड यह था कि क्रेता को किसी भी ढंग से प्रतिकर के लिए दावा करने का कोई अधिकार नहीं होगा चाहे जो कुछ भी कमी या दोष कथित फ्लैट के निर्माण किये जाने में विक्रेता की ओर से हो जायेगी। वहां फ्लैट का प्रयोग किया जाने पर कथित दोष उसके फर्या में पैदा हो गया।

यद्यपि गुप्त-दोषों के सन्दर्भ में बोर्ड करार में खण्ड के अधीन संरक्षण नहीं प्राप्त कर सकता था, फिर भी अधिशासी अभियंता और बोर्ड के अन्य प्रशासनिक अधिकारियों तथा परिवादी के साथ हुई बैठक में कथित दोष को संशोधित करने का निर्णय लिया जा चुका था।

ऐसी दशा में दावा को खारिज करने का राज्य आयोग द्वारा पारित किये गये आदेश में अधिकारिता सम्बन्धी अवैधानिकता का दोष से आये जाने की पुष्टि कर दी गयी तथा परिवादी को ऐसे 25,000 रुपये के प्रतिकर प्राप्त करने का हकदार माना जिसका वह व्यय फर्श के संशोधन कराये जाने में करेगा। |

चण्डीगढ़ हाउसिंग बोर्ड बनाम विद्यासागर एवं अन्य 1997 के प्रकरण में आवामन बोर्ड द्वारा मकानों के आवंटन किये जा रहे थे। परिवादी ने इस बोर्ड के विरुद्ध इस आधार पर परिवाद दायर किया कि उसने उससे अधिक मकान की कीमत वसूल किया अर्थात् 2.22 लाख के प्राकलित मूल्य के स्थान पर 2,83,700 रुपये ग्रहण किये। इसके साथ ही साथ परिवादी ने यह भी उल्लेख किया कि जहां फ्लैट के लिए 1330 वर्ग फिट देने का वचन दिया गया था; वहां उसके स्थान पर 1250 वर्ग फिट की ही भूखण्ड की आपूर्ति की गयी।

अतएव, अतिरिक्त, धनराशि को वापस करने का दावा किया और स्कीम के विज्ञापन के समय घोषित किया गया मूल्य व्यवहारिक था। मूल्य में वृद्धि को एक सेवा में कमी होने के रूप में चुनौती किसी फोरम के समक्ष नहीं दी जा सकती थी और न ही ऐसे मुद्दे उसके द्वारा विचारणार्थ ग्रहण ही किया जा सकता था।

जहां मकान निर्मित किये गये, उसकी भूमि के क्षेत्रफल में कमी किये जाने के बाबत स्थानीय आयुक्त की हैसियत से विमुक्त किये गये अधीक्षण करने वाली अभियन्ता की रिपोर्ट थी, वहां इसकी पुष्टि न तो आयुक्त के शपथपत्र द्वारा की गयी और न ही परिवादी के शपथपत्र द्वारा ही की गयी। अतएव, यह अभिनिधारित किया गया कि विरोधी पक्षकार की सेवा में कोई कमी नहीं हुई।

परिवादी ने आवास के लिए भू-खण्ड के आवंटन हेतु आवेदन पत्र प्रस्तुत किया तथा उसके लिए अग्रिम तौर पर 10,000 रुपये की एक धन राशि जमा कर दी थी। लेकिन आवंटन के लिए, कोई कार्यवाही नहीं की गयी। अतएव, व्याज सहित अग्रिम धनराशि के प्रतिदाय किये जाने का दावा किया गया।

जहां, अनेक व्यक्तियों के धनराशि की निकासी में, मूल्य नियतन से संबंधित रिट याचिका के लंबित रहने के कारण, विलंब हुआ, वहां बोर्ड ने स्वयं के विवेक का प्रयोग कर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि फरवरी 1992 से प्रभाव के साथ सभी भागीदारों को 10% वार्षिक ब्याज की दर से, अग्रिम धनराशि पर ब्याज का संदाय किया जाना था और इसलिए प्रतिवादी को 1 फरवरी सन् 1992 से नवम्बर, 1992 की कालावधि तक 10,000 रुपये की रकम पर 10% वार्षिक दर से ब्याज पाने का हकदार माना गया।

Tags:    

Similar News