उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:16 अधिनियम के अंतर्गत दाण्डिक प्रावधान

Update: 2021-12-25 04:30 GMT

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) की धारा 88, 90, 91 आपराधिक प्रावधान करती है। इन धाराओं के अंतर्गत अधिनियम में कुछ कामों को अपराध बनाया है और उनके लिए दंड तय किया गया है।

यह अधिनियम एक सिविल प्रकृति का अधिनियम है परंतु इसमें कहीं कहीं कुछ प्रावधान दाण्डिक प्रकृति के हैं। अंत में इस अधिनियम के अंतर्गत इन धाराओं को दिए जाने का उद्देश्य इस अधिनियम को समाज में प्रभावशाली बनाना है जिससे उपभोक्ताओं का शोषण करने वाले व्यापारियों के भीतर भय बना रहे। अधिनियम की इन धाराओं का उल्लेख इस आलेख में किया जा रहा है।

यह अधिनियम प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप है:-

धारा- 88

केन्द्रीय प्राधिकरणों के निदेशों के अननुपालन के लिए शास्ति जो कोई धारा 20 और धारा 21 के अधीन केन्द्रीय प्राधिकरण के किसी निदेश का अनुपालन करने में असफल रहता है, ऐसी अवधि के, जो छह मास तक की हो सकेगी, कारावास से या ऐसे जुर्माने से, जो बीस लाख रु तक का हो सकेगा या दोनों से. दंडित किया जाएगा।

दण्ड:-

यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम चेयरमैन मद्रास प्राविन्सियल कन्जूमर एसोसिएशन के मामले में प्राकृतिक न्याय जिला पीठ द्वारा रेलवे को निर्देश जारी हुआ कि पोलीथीन के झोले में पानी तथा सस्ता भोजन यात्रियों को पहुँचाये। इसके पहले भी एक आदेश था कि यदि इसमें लापरवाही बरती गयी तो महाप्रबंधक को व्यक्तिगत रूप से दण्ड का भागी होगी तथा 1 वर्ष का कारावास काटना पड़ेगा।

यह अभिनिर्धारित किया गया कि जिला पीठ को इस तरह के दण्ड आदेश पारित नहीं करना चाहिए। जिला पीठ ने इस तरह के आदेश पारित करके खुला उल्लंघन किया है तथा अपने क्षेत्राधिकार से आगे जाकर कार्य किया है। दण्ड का प्रश्न तभी पैदा होगा जब पहले सही किसी आदेश का पालन न किया गया हो तथा जिला पीठ को इस तरह से अर्थ नहीं निकालना चाहिए। धारा 88 यह वांछित करती है कि प्राकृतिक न्याय के अनुसार किसी को दण्ड देने के पूर्व उसे सुन लिया जाना चाहिए।

अन्तिम आदेश के साथ ही धारा 88 के अंतर्गत आदेश जारी किया जाना विधिमान्य नहीं होगा।

सुरेन्द्र एनोसेंटर ऑफ रेबरी बनाम शेर सिंह, 1995 के मामले में जब दोषपूर्ण ट्रैक्टर का विक्रय किया गया और इसके विरुद्ध परिवाद दायर किया गया तब भुगतान किये गये मूल्य का प्रतिदाय का आदेश पारित किया गया।

जहाँ एक महीने का समय आदेश का अनुपालन करने के लिए दिया गया और आदेश का अनुपालन न किये जाने की दशा में, 2000 रुपये के जुर्माने के साथ-साथ 3 महीने की सजा या कारावास का आदेश भी पारित किया गया। चूंकि आदेश का अनुपालन कर दिया गया इसलिए कारावास की सजा समाप्त कर दी गयी जबकि जुमाने की रकम में 3000 रुपये तक की वृद्धि कर दी गयी।

एक अन्य मामले में कहा गया है कि धारा 88 के अन्तर्गत कार्यवाही में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुपालन किया जाना चाहिए।

डी० पी० सेहगत बनाम अशोक गोयल के मामले में कहा गया है कि जब जिला फोरम द्वारा पारित किये गये कारावास एवम् जुमनि सम्बन्धी आदेश का अनुपालन करने में असफल हो गया तब याचिकाकर्ता ने पुनरीक्षण में राज्य आयोग द्वारा पारित किये गये अंतरिम आदेश का अनुपालन कर चुका था और उसने परिवाद में अधिनिर्णीत की गयी रकम एवम् जुर्माना का भी भुगतान कर चुका था।

चूंकि याचिका कर्ता उस समय अधिनियम की धारा 88 के प्रावधानों के अधीन प्रारम्भ की गयी कार्यवाही में जिला फोरम के समक्ष हाजिर हो पाने में असफल हो गया जब उसको प्रकाशन द्वारा नोटिस की तामील करायी गयी इसलिए उसे कारण प्रदर्शित करने के लिए एक अवसर प्रदान करना न्यायोचित होगा। अंततोगत्वा प्रश्नगत् आदेश को अपास्त कर दिया गया।

रवीकांत बनाम श्रीमती वीणा भटनागर के वाद में परिवादी ने कम्पनी के साथ धन का निक्षेप किया और गत दिनांकित चेक, राज्य आयोग के आदेश के बावजूद भी ब्याज के साथ भुगतान किया जाने के लिए जारी किये गये। लेकिन जब कम्पनी उसका प्रतिसंदाय करने में असफल रही तब अभियोजन की कार्यवाही प्रारम्भ की गयी।

अभिनिर्धारण में प्रबन्धक निर्देशक के विरुद्ध जुर्माना एवम् एक वर्ष का सादा कारावास का दण्डादेश पारित किया गया और निर्देशक के ऊपर जुर्माना अधिरोपित किया गया और यदि वह ऐसी जुर्माने की रकम का संदाय करने में व्यक्तिकम करे तो उसके विरुद्ध कारावास की भी दाण्डिक प्रक्रिया अपनाये जाने का निर्देश दिया गया। इसके अलावा, जहाँ प्रश्नगत निर्णयादेश के विरुद्ध अपील दायर की गयी, वहाँ अपीलीय न्यायालय ने भी, राज्य आयोग द्वारा जो प्रबन्ध निर्देशक एवम् निर्देशक के विरुद्ध दोषसिद्धि एवम् दण्डादेश पारित किया गया, की संपुष्टि कर दिया।

किसी पक्ष को पक्षकार न बनाना-

जहाँ पर अपीलार्थी एक अधिशासी अभियंता था। धारा 88 की कार्यवाही के अन्तर्गत उसे नामतः पक्षकार नहीं बनाया गया। उस आदेश को पालन न करना उचित न था।

जिला पीठ के आदेश के विरूद्ध अपील अनुयोज्यता जिला पीठ के आदेश के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती है।

नीडिल इण्डस्ट्रीज इण्डिया लिमिटेड बनाम जनरल मैनेजर, टेली काम्युनीकेशन व अन्य 1997 के वाद में निष्पादन याचिका प्रतिकर के रूप में जिस रकम का भुगतान परिवादी के पक्ष में किये जाने के बारे में डिक्री पारित की गयी उसका निष्पादन नहीं किया गया।

इसके बावत विरोधी पक्षकार ने राष्ट्रीय आयोग के समक्ष विचारणार्थ एक फाइल की अपील का प्रतिवाद किया, और जिसके परिणामस्वरूप न केवल अपीलकर्ता की इस याचना को अस्वीकृत कर दिया गया कि उसके विरुद्ध पारित की गयी, आज्ञप्ति में अधिनिर्णीत प्रतिकर की वसूली किये जाने हेतु निष्पादन की कार्यवाही को स्थगित कर दिया जाय; बल्कि यह भी उसे निर्देश दिया गया कि जिस रकम का संदाय सम्बन्धित पक्षकार को करने के सन्दर्भ डिक्री पारित की गयी उसका अविलम्ब उसे भुगतान किया जाए।

एक प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 88 में उपबन्धित आधारभूत आदेश को संशोधित, परिवर्तित या परिवर्धित नहीं किया जा सकता है।

जहां किसी धनराशि को ब्याज सहित वापस किये जाने के सन्दर्भ राज्य आयोग द्वारा आदेश दिया गया था, वहां इसके विरूद्ध यह प्रतिक्रिया व्यक्त की गई थी कि उक्त आदेश अवैधता से युक्त था। वहां यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिनियम के परे जाना अनुमन्य नहीं है।

धारा 88 के अन्तर्गत कार्यवाही की प्रकृति दाण्डिक है और इस धारा के अधीन निष्पादन कार्यवाही में तीसरे पक्षकार का आक्षेप स्वीकार्य नहीं है।

निर्देशों का अनुपालन नहीं प्रभाव:-

संभावना विल्डर्स एग्रीड मेमर्स एसोशिएशन बनाम संभावना बिल्डर्स प्राइवेट लिमिटेड के मामले में कहा गया है कि जब अन्तिम अवसर प्रदान किये जाने के बावजूद भी विरोधी पक्षकार ने उन निर्देशों का अनुपालन नहीं किया, जिनका कि उन्हें अनुपालन करना चाहिए था, तब पुलिस प्राधिकारियों को निर्देशकों के विरुद्ध गिरफ्तारी के वारण्टों का निष्पादन करने के लिए निर्देश दिया गया।

इसके अलावा, जहाँ विरोधी पक्षकारों को 3 महीने की कालावधि तक जेल में निरुद्ध किये जाने का आदेश पारित किया गया, वहाँ यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि वह धनराशि जिसका संदाय किया जा चुका था, का सभी परिवादियों को अनुपातिक दर से वितरित किये जाने का भी निर्देश दिया गया।

आशीष कुमार विश्वास बनाम दिल्ली विकास प्राधिकरण व अन्य, के वाद में आयोग द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि परिवादी दिल्ली क्षेत्र में एक वर्ग तीन फ्लैट का आवंटन प्राप्त करने का हकदार था, वहाँ इस आदेश के विरुद्ध किसी भी अपील के. दायर न किये जाने के परिणामस्वरूप उसे अंतिम आदेश माना जा चुका था और इसलिए यदि कथित फ्लैट का आवंटन भी किया गया तो वह आदेश का अनुपालन किये जाने का लुतनात्मक दृष्टिकोण से भाव रखने वाला नहीं माना जा सकता था।

एक मामले में कहा गया है कि जहाँ दिये गये निर्देश का अनुपालन विरोधी पक्षकार उस दशा में भी नहीं किया जब उसे वैसा करने का अंतिम मौका प्रदान किया गया था, वहाँ तीन महीने की कालावधि के लिए जेल में विरुद्ध किये जाने के लिए निर्देशकों के विरुद्ध गिरफ्तारी के वारण्ट जारी किये गये तथा उ उनका निष्पादन करने के लिए पुलिस आयुक्त एवम् उपआयुक्त को निर्देश भी दिये गये, वहाँ यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि अधिनिर्णीत की गयी, 5,00,000 रुपये की प्रतिकर की रकम को एक निश्चित दर से सभी परिवादीगण के बीच कर दिया जाय।

क्षेत्राधिकार धारा 88 के अन्तर्गत कार्यवाही में मूल आदेश में कोई सुधार या संशोधन नहीं किया जा सकता है। न्यायालय को मूल आदेश के विरुद्ध कोई विधिक क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं है।

आदेश की वैधता का अवधारण-

ऐसे अजमानतीय वारण्ट को जारी करने वाले आदेश को विधिमान्य माना गया जिसे उचित अधिसूचना के बिना ही जारी किया गया था।

पुनरीक्षण धारा 88 के अन्तर्गत जिला फोरम द्वारा पारित आदेश में राज्य आयोग को पुनरीक्षण अधिकारिता में केवल उस स्थिति में हस्तक्षेप करने की अधिकारिता होगी जब अधिकारिता के संबंधी गलती का कोई प्रकरण हो।

राज्य आयोग के आदेश के अनुपालन में जिला फोरम द्वारा पारित आदेश में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता और यह पुनरीक्षण योग्य नहीं है।

चूंकि याची ने राज्य आयोग द्वारा आदेश की घोषणा की तारीख कालावधि 60 दिनों के अन्दर परिवादी से यान को कर्मशाला के दोष दूर करने के लिए लाने हेतु कहा था इसलिए पुनरीक्षण याचिका को अनुज्ञात कर दिया गया।

उपभोक्ता विवाद:-

धारा 88 के अन्तर्गत कार्यवाही को उपभोक्ता विवाद की तरह नहीं माना जा सकता। फलस्वरूप धारा 27 के अन्तर्गत पारित आदेश रिट याचिका में चुनौती योग्य होगा।

जहां परिवादी को फ्लेट एस सी /एस टी श्रेणी के अन्तर्गत आंवटित किया जाना चाहिए था, किन्तु उसके मामले को उक्त सन्दर्भ में दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा नहीं स्वीकार किया गया। राज्य आयोग ने दिल्ली विकास प्राधिकरण को ऐसा करने के लिए निर्देश दिया कि परिवादी को एस सी/एस टी अभ्यर्थियों के मूल्य पर फ्लैट का आवंटन किया जाय, किन्तु दिल्ली विकास प्राधिकरण ने उक्त आदेश का अनुपालन नहीं किया, वहां न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दिल्ली विकास प्राधिकरण बिना किसी संशोधन, परिवर्तन या परिवर्द्धन के राज्य आयोग के आधारभूत आदेश को मानने के लिए बाध्य है।

जिस प्रावधान को उच्च न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित कर दिया गया हो, इस प्रावधान के अधीन जिला फोरम द्वारा जो उच्च न्यायालय की अधिकारिता के अन्तर्गत हो, पारित आदेश अपास्त किए जाने के लिए दावी है।

विक्रय विलेख के निष्पादन में विलम्ब का प्रभाव-विक्रय विएव को निष्पादित करने में याची की ओर से विलम्ब वर्धित न्यायालय फीस का संदाय करने के लिए परिवादी के दायित्व में वृद्धि नहीं कर सकता है।

दाण्डिक कार्यवाही की पोषणीयता:-

चूंकि ऐसे रूप में कोई भी अंतिम आदेश अधिनियम की धारा 88 के अधीन प्रत्यर्थियों द्वारा दाखिल की गयी याचिकाओं पर स्वीकार्यरूपेण नहीं पारित किया गया इसलिए धारा 88 के अधीन कोई प्रश्न नहीं होता है। अतएव अपील के वैकल्पिक कानूनी उपचार की धारा के आधार पर रिट याचिका की पोषणीयता के बारे में प्रत्यर्थियों की ओर से किसी भी प्रारम्भिक आक्षेप को स्वीकृत नहीं किया जा सकता।

परिवाद का खारिज किया जाने के विरुद्ध पुनरीक्षण जहां याची को एक फ्लैट आवंटित किया गया और उसको उसका कब्जा भी दे दिया गया वहां चूंकि वह रकम की बकाया किस्त का संदाय करने में असफल रहा इसलिए विरोधी पक्षकार को उससे फ्लैट वापस ले लेने को न्यायसंगत माना गया जिसके परिणामस्वरूप याची द्वारा दाखिल किये गये परिवाद की पारिजी तथा उसके विरुद्ध पुनरीक्षक की वारिजी को उचित माना गया।

धारा- 89

मिथ्या या भ्रामक विज्ञापन के लिए दंड:-

कोई विनिर्माता सेवा प्रदाता, जो किए जाने वाले ऐसे मिथ्या या भ्रामक विज्ञापन कारित करवाता है जो उपभोक्ताओं के हित पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, वह ऐसी अवधि के कारावास से, जो दो वर्ष का हो सकेगा और ऐसे जुमाने से, जो दस लाख रुपए तक का हो सकेगा, से दंडनीय होगा और प्रत्येक पश्चात्वर्ती अपराध के लिए ऐसी अवधि के कारावास से, जो पांच वर्ष का हो सकेगा और ऐसे जुमाने से, जो पचास लाख तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा भ्रमक और झूठे विज्ञापन को रोकने हेतु निर्मित की गई है। इस धारा के अंतर्गत किसी भी व्यापारी द्वारा अपने उत्पाद को बेचने के लिए कोई झूठा या भ्रामक विज्ञापन किसी टेलीविजन या अखबार में चलाया जाता है और उसका विज्ञापन झूठा भ्रमक पाया जाता है तथा उसके विज्ञापन के कारण किसी व्यक्ति को क्षति होती है। ऐसी स्थिति में धारा 89 दंड का प्रावधान करती है। जहां 2 वर्ष तक के दंड के कारावास का उल्लेख किया गया है और साथ में पचास लाख रुपए तक के जुर्माने का भी उल्लेख किया गया है।

धारा-90

अपद्रवव्य को अन्तर्विष्ट करने वाले उत्पादों के विक्रय का भंडारण, विक्रीत या वितरण या आयात के लिए विनिर्माण हेतु दंड-

(1) जो कोई, स्वयं या उसकी ओर सेकिसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी अपद्रव्य को अन्तर्विष्ट करने वाले किसी उत्पाद को विक्रय के लिए विनिर्माण करता है या भंडारित करता है या उसका विक्रय करता है या आयात करता है, -

(क) यदि ऐसे कार्य का परिणाम उपभोक्ता को कोई क्षति नहीं है, ऐसे कारावास से, जो छह मास तक का हो सकेगा और ऐसे जुर्माने से, जो तीन लाख रु० तक का हो सकेगा, से दंडनीय होगा;

(ख) ऐसी क्षति कारित करना, जो उपभोक्ता को हुई घोर उपहति की कोटि में नहीं आती है, ऐसी अवधि के कारावास से, जो एक वर्ष तक का हो सकेगा और ऐसे जुर्माने से, जो तीस लाख रू तक का हो सकेगा, से दंडनीय होगा;

(ग) ऐसी क्षति कारित करना जिसका परिणाम उपभोक्ता को हुई घोर उपहति है, ऐसी अवधि के कारावास से, जो सात वर्ष तक का हो सकेगा और ऐसे जुमनि से, जो पांच लाख रू तक का हो सकेगा, से दंडनीय होगा;

(घ) जिसका परिणाम उपभोक्ता की मृत्यु है, ऐसी अवधि के कारावास से, जो सात वर्ष से कम नहीं होगा किन्तु जो आजीवन कारावास तक का हो सकेगा और ऐसे जुमान से, जो दस लाख रूप से कम का नहीं होगा, से दंडनीय होगा।

(2) उपधारा (1) के खंड (ग) और खंड (घ) के अधीन अपराध संज्ञेय तथा अजमानतीय होंगे।

(3) उपधारा (1) के अधीन दंड के होते हुए भी, न्यायालय प्रथम बार की दोषसिद्धि के मामले में तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन उस उपधारा में निर्दिष्ट व्यक्ति को जारी की गई अनुज्ञप्ति को दो वर्ष तक की अवधि के लिए निलंबित कर सकेगा और दूसरी बार या पश्चात् दोषसिद्धि के मामले में अनुज्ञप्ति को रद्द कर सकेगा।

स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिए

(क) अपद्रव्य से ऐसी कोई सामग्री, जिसके अन्तर्गत बाह्य पदार्थ भी है, अभिप्रेत है जिसे उत्पाद को असुरक्षित बनाने के लिए नियंत्रित या प्रयुक्त किया जाता है;

(ख) घोर उपहति का वही अर्थ होगा जो उसका भारतीय दंड संहिता, 1860 (1860 का 45) की धारा 320 में है।

धारा-91

नकली माल के विक्रय के लिए विनिर्माण या उनके भंडारण या विक्रय या वितरण या आयात के लिए दंड (1) कोई, स्वयं या उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी नकली माल का विक्रय के लिए विनिर्माण करता है या भंडारण करता है या विक्रय करता है या वितरण करता है या उसका आयात करता है, यदि ऐसा कार्य

(क) ऐसी क्षति कारित करता है, जो उपभोक्ता को हुई घोर उपहति की कोटि में नहीं आता है, ऐसी अवधि के कारावास से, जो एक वर्ष तक का हो सकेगा और ऐसे जुमाने से, जो तीन लाख रु तक का हो सकेगा, से दंडनीय होगा;

(ख) ऐसी क्षति कारित करता है, जिसका परिणाम उपभोक्ता को हुई घोर उपहति है, ऐसी अवधि के कारावास से, जो सात वर्ष तक का हो सकेगा और ऐसे जुमनि से, जो पांच लाख रु तक का हो सकेगा से दंडनीय होगा;

(ग) ऐसी क्षति कारित करता है, जिसका परिणाम उपभोक्ता की मृत्यु है, ऐसी अवधि के कारावास से, जो सात वर्ष से कम का नहीं होगा किन्तु जो आजीवन कारावास तक का हो सकेगा और ऐसे जुर्माने से, जो दस लाख रू तक का हो सकेगा, से दंडनीय होगा।

(2) उपधारा (1) के खंड (ख) और खंड (ग) के अधीन अपराध संज्ञीएय तथा अजमानतीय होंगे।

(3) उपधारा (1) के अधीन दंड के होते हुए भी, न्यायालय प्रथम बार की दोषसिद्धि के मामले में तत्समय प्रवृत्तक किसी विधि के अधीन उस उपधारा में निर्दिष्ट व्यक्ति को जारी की गई किसी अनुज्ञप्ति को दो वर्ष की अवधि के लिए निलंबित कर सकेगा और दूसरी बार या पश्चात् दोषसिद्धि के मामले में अनुज्ञात को रद्द कर सकेगा।

धारा-92

न्यायालय द्वारा अपराधों का संज्ञान केन्द्रीय प्राधिकारी या इस निमित्त उसके द्वारा प्राधिकृत किसी अधिकारी द्वारा फाइल किए गए किसी परिवाद पर धारा 88 और धारा 89 के अधीन किसी अपराध का सक्षम न्यायालय द्वारा ही संज्ञान लिया जाएगा अन्यथा नहीं।

धारा- 93

तंग करने वाली तलाशी

धारा 22 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करने वाला महानिदेशक या कोई अन्य अधिकारी, जिसको यह जानकारी है कि ऐसा करने के लिए कोई युक्तियुक्त आधार नहीं है और फिर भी, -

(क) किसी परिसर की तलाशी लेता है या तलाशी करवाई जाती है;या

(ख) किसी अभिलेख, रजिस्टर या अन्य दस्तावेज या वस्तु का अभिग्रहण करता है,

ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए ऐसी अवधि के कारावास से, जो एक वर्ष तक का हो सकेगा और ऐसे जुर्माने से, जो दस हजार रु तक का हो सकेगा या दोनों से दंडनीय होगा।

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