भारत का संविधान (Constitution of India): भारत में दल-बदल की राजनीति और दल-बदल कानून

Update: 2021-03-05 11:20 GMT

भारतीय राजनीति में 'दल-बदल' काफी प्रचलित है। इसे आसान भाषा में आप कह सकते हैं कि सांसद या विधायक द्वारा एक दल (अपना दल) छोड़कर दूसरे दल में शामिल होना। जिस तरह से सासंद और विधायक अपने राजनीतिक और निजी लाभ के लिए दल बदलते रहते हैं, इसलिए राजनीति में इन्हें 'आया राम, गया राम' कहा जाता है। इस आलेख में हम दल-बदल की राजनीतिक घटनाओं और इससे जुडें कानूनों के बारे में जानेंगे।

1957 से 1967 तक की अवधि में रिसर्च के अनुसार 542 बार लोगों ( सांसद/विधायक) ने अपने दल बदले। 1967 में चौथे आम चुनाव के प्रथम वर्ष में भारत में 430 बार सासंद/विधायक ने दल बदलने का रिकॉर्ड कायम हुआ है। 1967 के बाद एक और रिकॉर्ड कायम हुआ, जिसमें दल बदलुओं के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं। इसी समय हरियाणा के विधायक गयालाल ने 15 दिन में ही तीन बार दल-बदल के हरियाणा की राजनीति में एक नया रिकॉर्ड बनाया था।

जुलाई 1979 में जनता पार्टी में दल-बदल के कारण चौधरी चरणसिंह प्रधानमंत्री पर आसीन हो गए थे। इसकी वजह से चरणसिंह को भारत का पहला 'दल-बदलू प्रधानमंत्री' कहा जाता है। जनवरी 1980 के लोकसभा निर्वाचनों के बाद कर्नाटक की कांग्रेस(अर्स) और हरियाणा की जनता पार्टी की सरकार दल-बदल के कारण रातों-रात इंदिरा कांग्रेस की सरकार बन गई थी। हरियाणा के मुख्यमंत्री भजनलाल 47 विधायकों के साथ जनता पार्टी छोड़कर कांग्रेस (आई) में आ गए, जो एक मिसाल के साथ-साथ एक नया रिकॉर्ड कायम हुआ था।

विश्व के अन्य देशों में भी दल-बदल की राजनीति देखने को मिलती है। ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिय जैसे लोकतांत्रिक देशों में दल-बदल की राजनीतिक घटनाएं लगातार होती रहती हैं। फरवरी 1846 में अनुदारवादी (ब्रिटेन) में फूट पड़ गई और इसके बाद 231 सदस्यों ने प्रधानमंत्री पील के विरोध में मतदान कर दिया था। उन पर दल से विद्रोह करने का आरोप लगाया गया था, हालांकि पील उदार दल की सहायता से अपने पद पर बने रहे। 1900 में विंस्टन चर्चिल अनुदारवादी दल के टिकीट पर संसद के सदस्य चुने गए थे, किंतु 1904 में अनुदार दल से अलग होकर उदारवादी दल में शामिल हो गए थे। दल-बदल के कारण ऑस्ट्रेलिया में 1916, 1929, 1931 और 1941 में संघीय सरकारों का पतन हो गया था।

दल-बदल की परिभाषा

यदि कोई विधायक या सांसद अपने दल का परित्याग कर निम्नलिखित में से कोई भी कार्य करे तो दल-बदल माना जाएगा-

1. किसी विधायक का किसी दल विशेष के टिकट पर निर्वाचित होने के बाद अपने पद को और दल को छोड़ देना तथा किसी दूसरे राजनीतिक दल में शामिल होना।

2. अपने दल को छोड़ने के बाद निर्दलीय बन जाना।

3. आम चुनावों में निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ना और निर्वाचित होने के बाद किसी दूसरे विशेष दल में शामिल हो जाना।

4. अपने दल की बुनियादी नीतियों का लगातार विरोध करना।

5. दल के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन न करना।

6. जब एक मिली-जुली सरकार के घटक राजनीतिक दलों के सदस्य उस सरकार के एक घटक दल को छोड़ अन्य घटक दल में शामिल हो जाए या

7. फिर विरोधी दलों में से अपना दल छोड़कर, दूसरे विरोधी दल में शामिल हो जाना।

8. या राजनीतिक पदों और निजी स्वार्थ के लिए अपना दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल होना इत्यादि।

भारत की संसद ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52 वां संविधान संशोधन एक्ट (1985) सर्वसम्मति से पारित कर दिया। इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान दिए गए हैं:

1. निम्न परिस्थितियों में संसद/विधानसभा के सदस्य की सदस्यता समाप्त हो जाएगी:

(a) यदि वह स्वेच्छा से अपने दल से त्यागपत्र दे दे।

(b) यदि वह अपने दल या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की अनुमति के बिना सदन में उसके किसी निर्देश के प्रतिकूल मतदान में उपस्थित रहे, पंरतु यदि पंद्रह दिन के अंदर दल उसे इस उल्लंघन के लिए क्षमा कर दे तो उसकी सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

(c) यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाए।

(d) यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के छह माह के बाद किसी राजनीतिक दल में सम्मलित हो जाए।

(2) किसी राजनीतिक दल के विघटन पर सदस्यता समाप्त नहीं होगी, यदि मूल दल के एक-तिहाई सांसद/विधायक दल छोड़ दें।

(3) इसी प्रकार विलय की स्थिति में भी दल-बदल नहीं माना जाएगा, यदि किसी दल के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य उसकी स्वीकृति दें।

(4) दल-बदल पर उठे किसी भी प्रश्न पर अंतिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होगा और किसी भी न्यायालय को उसमें हस्तेक्षप करने का अधिकार नहीं होगा।

(5) सदन के अध्यक्ष को इस विधेयक को कार्यान्वित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार होगा।

दल-बदल पर पूर्ण रोक लगाने और मंत्रिपरिषद का आकार सीमित करने के उद्देश्य से 91 वां संवैधानिक संशोधन, 2003 ऐतिहासिक सीमा-चिन्ह है। इस अधिनियम की निम्नलिखित विशेषताएं हैं;

(1) दल-बदल करने वाले सांसद एंव विधायक की सदस्यता स्वत: ही समाप्त हो जाएगी, भले ही उनकी संख्या कितनी भी क्यों न हो।

(2) दल-बदल करने वाले सदस्य किसी भी प्रकार का सरकारी एंव लाभ का पद प्राप्त नहीं कर सकता है।

(3) सदन की सदस्यता हासिल करने के लिए पुन: चुनाव जीतना अनिवार्य है।

(4) मंत्रिपरिषद का आकार केंद्र एंव बड़े राज्यों में लोकप्रिय सदन की सदस्य संख्या का 15 फीसदी ही हो सकेगा।

(5) छोटे राज्यों में मंत्रियों की न्यूनतम संख्या 12 निर्धारित की गई है।

(6) जहां अभी मंत्रिपरिषद का आकार 15 प्रतिशत से ज्यादा है, इस अधिनियम के लागू होने के छह महिने के अंदर आकार को 15 प्रतिशत तक करना होगा।

(7) अधिनियम द्वारा 1985 के 52वें संविधान संशोधन के एक-तिहाई वाले प्रावधान को हटा दिया गया है। अब एक-तिहाई सदस्यों के विभाजन को मान्यता नहीं दी जा सकेगी।

भारत में दल-बदल की घटनाएं कोई ऐसी नई बात नहीं है जो चौथे आम चुनाव के बाद ही सामने आई हैं। 1947 के निर्वाचनों के बाद संयुक्त प्रांत के बाद से मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया गया था और दल-बदलुओं में से हाफिज मुहम्मद इब्राहिम को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया था।

साल 1962 में मद्रास के राज्यपाल श्रीप्रकाश ने राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया था। कांग्रेस के अल्पमत में होते हुए भी जैसे ही राजाजी को सरकार बनाने का अवसर दिया गया वैसे ही 16 विरोधी सदस्यों ने कांग्रेस पार्टी में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया था और इस तरह कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया था।

अगस्त 1958 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के 98 सदस्यों ने मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद में अविश्वास वक्त किया था, जिसके परिणाम स्वरूप कुछ ही समय बाद मुख्यमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा गया था।

साल 1960 में केरल में कांग्रेस दल को सबसे अधिक सीट प्राप्त हुई थी और उसने आर.शंकर के नेतृत्व में वहां मंत्रिमंडल की स्थापना की। 2 सितंबर,1964 को 15 कांग्रेस सदस्यों ने कांग्रसे दल से नाता तोड़ दिया और परिणामस्वरूप मंत्रिमंडल का पतन हो गया था।

1952 में राजस्थान में कांग्रेस सरकार के स्थायित्व की वजह दल-बदल थी। कई निर्दलीय सदस्यों ने कांग्रेस के पक्ष में दल-बदला, जिससे कांग्रेस के विधायकों की संख्या अधिक हो गई।

प्रो. रजनी कोठारी के अनुसार,

" इसके अतिरिक्त 1967 के बाद गैर-कांग्रेसी दलों में गठजोड़ होते रहे हैं। अनेक बार ये गठजोड़ बिल्कुल विरोधी और विपरीत दलों में भी हुए हैं। ये गठजोड़ भानमती के कुनबे जैसा हैं। फलस्वरूप ये विधायक मुख्यमंत्री से नहीं डरते हैं बल्कि मुख्यमंत्री विधायक से डरने लगे हैं।"

दल-बदल कानून को चुनौती देने वाले मामले

दल-बदल कानून की वैधता को पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाशसिंह बादल और 25 अन्य विधायकों ने चुनौती दी थी। ये सभी विधायक अकाली दल से पृथक हो गए थे।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 1 मई,1987 को एक महत्वपूर्ण निर्णय में दल-बदल रोकने के लिए बनाए गए संविधान के 52वें संविधान संशोधन अधिनियम को वैध ठहराया था, लेकिन कोर्ट ने इसकी धारा 7 को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था। अधिनियम की धारा 7 में यह प्रावधान है कि किसी सद्स्य को अयोग्य ठहराए जाने के निर्णय को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है।

इस निर्णय के कुछ ही समय बाद पंजाब के विधानसभा अध्यक्ष सुरजीतसिंह मिन्हास ने प्रकाशसिंह बादल सहित 11 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था, जिससे उनकी सीट खाली हो गई थी।

दल-बदल रोकने के लिए 52 वां संविधान संशोधन जैसा कानून बन जाने के बाद भी नागालैंड (1988), मिजोरम (1988), कर्नाटक (1989), गोवा (1990), नागालैंड (1990), मेघालय (1991), मणिपुर (1992), नागालैंड (1992) और मणिपुर (2001) में दल-बदल हुआ था। उस स्थिति में कानून के प्रावधानों को लागू न करके वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। साल 1998-99 में गोवा दल-बदल और बदलती सरकारों के कारण सुर्खियों में रहा था। 17 महीने में गोवा में पांच मुख्यमंत्री बदल गए थे और फरवरी-जून 1999 में चार महीने तक के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था।

28 जुलाई, 1989 को राज्यसभा के सभापति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की राज्यसभा की सदस्यता दल-बदल अधिनियम के तहत समाप्त कर दी थी। नंवबर 1990 में केंद्र में वी.पी सिंह सरकार के पतन के बाद जिस तहर चंद्रशेखर के नेतृत्व में 54 सांसदों के एक गुट ने दल-बदल करते हुए समाजवादी जनता पार्टी के रूप में विपक्षी कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में दल-बदल के जरिए नई सरकार बनाई गई, यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की एक अपूर्व और निराली घटना थी।

हालंकि बाद में लोकसभा अध्यक्ष रवि राय ने उनके मंत्रिमंडल के मात्र 5 सदस्यों को 52 वें संविधान संशोधन के तहत दल-बदल का दोषी पाया और उनकी संसद की सदस्यता समाप्त कर दी गई थी।

19 अक्टूबर, 1997 को कल्याण सिंह की सरकार से मायावती द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद कल्याण सिंह ने बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस, जनता दल और बहुजन समाज पार्टी का जो विभाजन करवाया था, वह एक तरह से दल-बदल ही था। कल्याण सिंह ने विधानसभा में इनकी सरकार को समर्थन देने वाले दल-बदलू को मंत्रिमंडल में शामिल करके 93 सदस्यीय मंत्रिमंडल बना डाला था।

साल 2016 में उत्तराखंड और अरूणाचल प्रदेश में दल-बदल के कारण ही राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हुई थी और फिर राष्ट्रपति शासन लागू करने की स्थिति पैदा हुई थी। 31 दिसंबर, 2016 को अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू सहित पीपुल्स पार्टी ऑफ अरूणाचल (पीपीए) के 33 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे। इसके साथ ही बिना मुख्यमंत्री बदले अरूणाचल प्रदेश में भाजपा की पहली पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई थी। इससे पहले साल 2016 में ही पेमा खांडू कांग्रेस और पीपीए की सरकार में मुख्यमंत्री रह चुके थे।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दल-बदल कानून से जुड़े मामले

सुप्रीम कोर्ट ने नंवबर 1991 में दल-बदल विरोधी कानून के बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था। यह फैसला मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, गुजरात और मध्य प्रदेश के अयोग्य ठहराए गए विधायकों की याचिकाओं के सिलसिले में दिया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने मेघालय विधानसभा के अध्यक्ष के. आर. किंडियाह के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जिसमें उन्होंने लिंगदोह मंत्रिमंडल के पाच सदस्यों को बर्खास्त कर दिया था, जो निर्दलीय विधायक थे। इन विधायकों को बर्खास्त किए जाने से एक राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।

कोर्ट ने दल-बदल विरोधी कानून को वैध ठहराया, लेकिन 10 वीं अनुसूची के अनुच्छेद 7 के प्रावधानों को स्पष्ट किया था। अनुच्छेद 7 के अनुसार अध्यक्षों के निर्णयों पर कोर्ट को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने दल-बदल विरोधी अधिनिमय के इस प्रावधान को अवैध करार दिया। कोर्ट के मुताबिक किसी सदस्य को अयोग्य करार देते समय अध्यक्ष या सभापति न्यायाधिकरण के रुप में कार्य करते हैं, इसलिए न्यायाधिकरण के निर्णयों की तरह उनके निर्णयों पर भी कोर्ट के द्वारा समीक्षा की जा सकती है।

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