भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 23: भारत के संविधान के अंतर्गत अनुसूचित जातियां, आंग्ल भारतीय समुदाय, पिछड़े वर्ग तथा अल्पसंख्यकों के लिए विशेष आरक्षण के उपबंध
भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख में लोकतांत्रिक व्यवस्था को समृद्ध करने हेतु निर्वाचन के संबंध में संविधान में किए गए प्रावधानों पर चर्चा की गई थी, इस आलेख के अंतर्गत कुछ विशेष समुदायों को दिए गए आरक्षण पर चर्चा की जा रही है।
जब भारत स्वतंत्र हुआ भारत के समाज की आर्थिक व सामाजिक स्थितियां अत्यंत अस्त व्यस्त थी। भारतीय समाज जातिगत व्यवस्था से एक लंबे युग से त्रस्त रहा है। किसी भी समाज के किसी भी देश की उन्नति के लिए आवश्यक है कि उस समाज देश का हर वर्ग समान रूप से आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों के अंतर्गत एक ही पंक्ति में खड़ा हो।
जब किसी देश किसी समाज में उसके नागरिक एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं उनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत एक जैसी होती है तब ही देश और समाज की उन्नति संभव है। भारत के संविधान में निहित समानता,लोकतांत्रिक गणराज्य, आर्थिक और सामाजिक और राजनीतिक स्वतंत्रता तब ही संभव थी जब समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति एक पंक्ति में खड़े दिखाई दे।
समाज का आर्थिक ढांचा ऐसा न हो के एक वर्ग ऊपर हो तथा 1 वर्ग अत्यंत नेपथ्य में हो। स्वतंत्रता के पूर्व भारत की परिस्थितियां कुछ ऐसी ही थी जहां कुछ समुदाय के लोग अत्यंत धनवान और शक्तिशाली थे तथा कुछ समुदायों के लोग अत्यंत पिछड़े थे। इस स्थिति से निपटना अत्यंत आवश्यक था क्योंकि समानता आधारित समाज की स्थापना के लिए समाज के सभी वर्गों का आगे आना नितांत आवश्यक था।
आरक्षण की व्यवस्था भारत के संविधान के मूल आदर्श के विपरीत है परंतु भारत में आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक पिछड़ापन जातियों पर ही आधारित था। कुछ जातियां उन्नत थी और आर्थिक रूप से संपन्न थी सामाजिक रूप से संपन्न थी और कुछ जातियां अत्यंत पीड़ा में थी।
भारत में आरक्षण की आधारशिला भारतीय जाति व्यवस्था के अंतर्गत पेशे से बनी जातियों को ही बनाया गया क्योंकि जातियों के आधार पर ही आसमानताएं थी इसलिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई। अनुसूचित जातियां तथा अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण दिया गया, उनके साथ आंग्ल भारतीय समुदाय तथा पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय को भी कुछ आरक्षण दिए गए।
अल्पसंख्यक समुदाय को आरक्षण देने का कारण यह था कि जब भारत स्वतंत्र हुआ तो तब भारत का विभाजन भी हुआ और अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान जाने से इनकार किया गया तथा उनकी निष्ठा भारत में ही बनी रहे। संविधान निर्माताओं ने भारत में निष्ठा रखने वाले मुसलमानों को अल्पसंख्यक मानकर इन्हें सांविधानिक विशेष उपबंध के माध्यम से कुछ ऐसे आरक्षण दिए जिससे बहुसंख्यक समुदाय के अत्याचारों से उन्हें बचाया जा सकें।
संविधान में इस प्रकार किए गए आरक्षण के प्रावधान अस्थाई प्रावधान है। संविधान में यह प्रावधान कोई स्थाई बुनियादी पत्थर नहीं है जिसे हटाया नहीं जा सकता। यदि समाज में समानता देखी जाने लगे और लोग आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर एक पंक्ति में दिखाई देने लगे तब संविधान से विशेष उपबंध की व्यवस्था हटाई जा सकती है।
संविधान के भाग-3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकार के संरक्षण के लिए अनेकों बंद है। अनुच्छेद 14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण की गारंटी करता है।
अनुच्छेद 15 धर्म मूल वंश जाति लिंग में जन्म स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों के प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव का प्रतिषेध करता है। अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जातियों के लिए उपबंध करने में बाधक न होगी।
अनुच्छेद 16 सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता की गारंटी करता है। धर्म, मूल, वंश, जाति,जन्म स्थान, निवास के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है किंतु राज्य उक्त वर्गों के व्यक्तियों के लिए यदि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान कर सकता है।
अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है जो भारतीय समाज पर एक महान कलंक है। अनुच्छेद 19(5) अनुसूचित आदिम जातियों के हितों की रक्षा के लिए इस अनुच्छेद के खंड - 4 में प्रदत्त मूल अधिकारों पर निर्बंधन लगाता है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 330 से लेकर 342 तक निम्न वर्गों के लिए विशेष उपबंध किए गए हैं जिन सभी का उल्लेख इस आलेख में संक्षेप में किया जा रहा है-
अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजातियां-
भारत के संविधान के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जातियां की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई है तथा यह निर्धारित नहीं किया गया है कि कौन व्यक्ति अनुसूचित जातियों की श्रेणी में आते हैं।
अनुच्छेद 341 342 राष्ट्रपति को इन जातियों को उल्लेखित करने की शक्ति प्रदान करता है। राष्ट्रपति उल्लेखित करते हैं उसके लिए अनुसूचित जाति या अनुसूचित जातियां समझी जाएगी। ऐसी कोई अधिसूचना किसी राज्य से संबंधित है तो वह राज्यपाल के परामर्श से की जा सके।
संसद विधि द्वारा खंड 1 के अधीन निकाली अधिसूचना में उल्लेखित सूची के अंतर्गत किसी क्षेत्र में जनजातीय समुदायों को सम्मिलित कर सकती है या निकाल सकती है। कोई जनजाति क्षेत्र के अंतर्गत जनजाति है या नहीं हमें राष्ट्रपति के द्वारा निकाली गई अधिसूचना पर ध्यान देना होगा।
अनुसूचित जातियों की श्रेणी के संबंध में राष्ट्रपति का आदेश पर्याप्त है। इस सूची की मान्यता पर इस आधार पर आपत्ति नहीं की जाएगी कि इसमें किसी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में उल्लेखित नहीं किया गया है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 332 के अधीन लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किए जाने का उपबंध किया गया है। अनुच्छेद 332 उपबंधित करता है कि लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए अनुसूचित जनजाति सिवाय असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर असम के जिलों की अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहे।
अनुच्छेद 332 उपबंध करता है कि प्रत्येक राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित होंगे। 42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा इस अनुच्छेद में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस आयोजन के लिए जनसंख्या से तात्पर्य सन 1971 में की गई जनगणना पर आधारित जनसंख्या है और वह सन 2000 तक वैसे ही बनी रहेगी।
इसका तात्पर्य यह था कि इन वर्गों के लिए लोकसभा और राज्यसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में स्थानों का आरक्षण सन 2000 तक 1971 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा और नई जनगणना पर इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अब संविधान के 84 वें संशोधन अधिनियम 2000 द्वारा अनुच्छेद 332 में संशोधन किया गया और इस प्रयोजन हेतु जनसंख्या को पुनः परिभाषित किया गया। इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 332 के स्पष्टीकरण के प्रवर्तक में सन 2000 और 1971 के स्थान पर सन 2026 और 1991 स्थापित कर दी गई है इसका तात्पर्य है कि इस प्रयोजन के लिए जनसंख्या से तात्पर्य 1991 की गई जनगणना पर आधारित जनसंख्या है और वह 2026 तक ऐसी ही बनी रहेगी।
संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा अनुच्छेद के 332 के स्पष्टीकरण को फिर से संशोधित किया गया और सन 1991 के लिए सन 2001 प्रतिस्थापित किया गया। इसका तात्पर्य यह है कि इस प्रयोजन के लिए जनसंख्या का आधार 2001 की जनगणना होगी न कि 1991 की जनगणना। इनमें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान सभा में आरक्षण जिलों को छोड़कर पूरे प्रदेश में होगा।
प्रथम आरक्षण संविधान लागू होने की तारीख से 10 वर्ष के लिए किया गया था। इसके पश्चात अवधि को समय-समय पर बढ़ाया जाता रहा। संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसे बढ़ाकर 20 वर्ष के लिए कर दिया गया। फिर 1970 में अनुच्छेद 334 में प्रयुक्त 20 के स्थान पर संविधान के 23 वे संशोधन से 30 शब्दों को प्रतिस्थापित कर दिया गया।
संविधान के 95वें संशोधन अधिनियम 2009 द्वारा शब्दावली 60 वर्ष के स्थान पर 70 वर्ष कर दी गई अर्थात विभिन्न वर्गों के लिए लोकसभा और राज्यसभा विधानसभा में आरक्षण 70 वर्ष तक का बना रहेगा अर्थात् सन् 2010 के पश्चात तक इनके लिए स्थान आरक्षित है किंतु वह चुनाव क्षेत्र के सभी मतदाताओं द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं उनके लिए कोई पृथक निर्वाचन मंडल नहीं है। अनुच्छेद 325 निर्वाचन के लिए एक साधारण निर्वाचन नामावली का उपबंध करता है इसका अर्थ यह इन जातियों के लोग सामान्य स्थानों के लिए भी निर्वाचित किए जा सकते हैं।
अनुच्छेद 335 में संशोधन किया गया और एक नया परंतुक जोड़ा गया है। नया परंतुक यह कहता है कि अनुच्छेद 335 की कोई बात राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सहयोग के लिए उपबंध करने से नहीं रोकेगा जो संघ ने राज्य से संबंधित किसी वर्ग या सेवा के वर्गों में पदोन्नति के संबंध में आरक्षित है। किसी परीक्षा में और उनको या मूल्यांकन की मांगों को लेकर बनाया गया।
संविधान के कुल 89वें संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा अनुच्छेद 338 में एक अनुसूचित जाति आयोग रखा गया और खंड 2 के लिए नया खंड रखा गया है। इसके अनुसार अनुसूचित जातियों के लिए राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग की स्थापना का उपबंध किया गया है।
संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए आयोग एक अध्यक्ष उपाध्यक्ष व तीन अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा। आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
संविधान संशोधन द्वारा नया अनुच्छेद 338 (ए) जोड़ा गया है। अनुच्छेद 338 (ए) का कार्य आयोग के कार्य करने की प्रक्रिया और उसके कर्तव्यों को उपबंध करना है।
आंग्ल भारतीय समुदाय को आरक्षण
आंग्ल भारतीय समुदाय एक समुदाय हैं जो भारत से आए ब्रिटिश लोगों के वंश के हैं तथा स्वतंत्रता के बाद ब्रिटिश लोगों के भारत से जाने के पश्चात भी यह लोग भारत में निष्ठा रखकर स्वतंत्र भारत में बने रहे। इन लोगों को भारत के संविधान में कुछ आरक्षण दिए हैं। यदि राष्ट्रपति की राय में लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है तो वह इस समुदाय से अधिक से अधिक 2 सदस्यों को लोकसभा में नामजद कर सकता है।
इसी प्रकार किसी राज्य का राज्यपाल यह कर सकता है कि राज्य की विधानसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो समुदाय के एक सदस्य को विधानसभा में नामजद कर सकता है।
संविधान के साथ प्रारंभ की गई यह सुविधा प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए की गई थी 8 वें संविधान संशोधन द्वारा 20 वर्ष के लिए बढ़ा दी गई फिर 30 वर्ष के लिए बढ़ा दी गई। 45 वें संशोधन द्वारा इसे बढ़ाकर 40 वर्ष तक के लिए कर दिया गया है।
भारतीय संविधान आंग्ल समुदाय के संविधान पूर्व अधिकारों और विशेष अधिकारों को भी संरक्षण प्रदान करता है। अनुच्छेद 336 कहता है कि संविधान के प्रारंभ के पश्चात प्रथम 2 वर्ष में संघ की रेल,सीमा शुल्क, डाक संबंधित सेवाओं में पदों के लिए आंग्ल भारतीय समुदाय के लोगों की नियुक्तियां 15 अगस्त 1947 ईस्वी के पूर्व वाले आधार पर की जाएगी।
इसके पश्चात प्रत्येक 2 वर्ष के बाद उक्त समुदाय के लिए आरक्षित पदों की संख्या 10% कम हो जाएगी और संविधान के प्रारंभ से 10 वर्ष के बाद ऐसे सब आरक्षणों का अंत हो जाएगा।
संविधान के लागू होने के बाद प्रथम 2 वर्षों में आंग्ल भारतीय समुदाय के लिए शिक्षा के संबंधों में संघ द्वारा वही अनुदान दिए जाएंगे 31 मार्च 1947 ईस्वी तक दिए जाते रहे थे। ऐसा कोई अनुदान अगले 3 वर्षों बाद 10% कम होता जाएगा और संविधान के प्रारंभ से 10 वर्ष के बाद समाप्त हो जाएगा पर आंग्ल भारतीय समुदाय द्वारा चलाई जाने वाली किसी शिक्षा संस्था को अनुदान पाने का हक तब तक न होगा जब तक कि उसके वार्षिक प्रवेशों में कम से कम 40% दूसरे समुदाय के लोगों को प्रवेश दिया गया हो।
पिछड़े वर्ग के लिए विशेष उपबंध
भारत के संविधान में ऐसा कुछ नहीं मिलता है कि वहां पिछड़े वर्ग और अनुसूचित वर्ग हो। इस प्रकार के शब्द भारत के संविधान में उपलब्ध नहीं है। ऐसे वर्गों में कौन जन शामिल है इसको उल्लेखित करने की शक्ति संघ तथा राज्य सरकार के पास है अर्थात कौन पिछड़े वर्ग का है इसे उल्लेखित करने की शक्ति भारत के संघ और राज्य के पास है।
अनुच्छेद 340(1) के अंतर्गत राष्ट्रपति को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशा तथा उनकी कठिनाइयों के अनुसंधान के लिए आयोग की नियुक्ति करने की शक्ति है। आयोग वर्गों की कठिनाइयों को दूर करने के उपायों के बारे में या उनके दिए गए अनुदान या अनुदान के बारे में राज्य सरकारों को अपनी सिफारिश भेजेगा और वह अनुसंधान करेगा। उसकी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजेगा।
राष्ट्रपति आयोग द्वारा दिए गए प्रतिवेदन को उस पर की गई कार्यवाहियों सहित संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रख पाएगा। आयोग के प्रतिवेदन प्राप्त होने के पश्चात राष्ट्रपति आदेश द्वारा पिछड़े वर्गों को उल्लेखित करेगा। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियां, आदिम जातियों के लिए नियुक्त विशेष पदाधिकारी पिछड़े वर्गों के लिए भी कार्य करेंगे।
अनुच्छेद 15(4) के अंतर्गत राज्य को सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए प्रावधान बनाने की शक्ति प्राप्त है। अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत राज्य को इन वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान पर आरक्षित करने की शक्ति प्राप्त है। संविधान में पिछड़े वर्ग की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। सरकार को श्रेणी में आने वाले लोगों को लिखित करने की शक्ति प्राप्त है।
रामकृष्ण बनाम मैसूर राज्य के मामले में सरकार ने एक आदेश द्वारा राज्य की जनसंख्या के 25% भाग को पिछड़ा वर्ग घोषित कर दिया। यह वर्गीकरण आर्थिक सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर नहीं बल्कि जातियों धर्म के आधार पर किया गया था। मैसूर उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश को अवैध घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि पिछड़े वर्गों को उल्लेखित करने वाला सरकारी आदेश न्यायिक जांच के अधीन है।
इस विषय में सरकार का निर्णय अंतिम नहीं है। न्यायालय इस बात की मांग कर सकते हैं कि सरकार का निर्णय किसी युक्तियुक्त सिद्धांत पर आधारित है या नहीं। न्यायालय इस बात की भी जांच कर सकते हैं कि किसी पद के लिए आरक्षित स्थानों नियुक्त है या नहीं।
अखिल भारतीय कर्मचारी संघ के मामले में दिए गए निर्णय के परिणाम स्वरुप देवदासन का निर्णय विवक्षित रूप से उलट दिया गया। उक्त मामलों में निर्णय लिया गया कि 50% का नियम कोई सर्वमान्य नियम नहीं है। आरक्षण तथ्यों परिस्थितियों के अनुसार इससे अधिक भी हो सकता है किंतु अत्यंत अधिक नहीं होना चाहिए।
भाषागत अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपबंध
भाषागत अल्पसंख्यक वर्ग में वे लोग शामिल है जिन की भाषा राज्य के किसी भाग के बहुसंख्यक में भिन्न-भिन्न है। भारतीय संविधान के हितों के संरक्षण के लिए भी उत्पन्न करता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 350 प्रत्येक राज्य पर कर्तव्य आरोपित करता है कि वह भाषागत अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों को शिक्षा की प्रथम अवस्था में मातृभाषा में शिक्षा देने के लिए पर्याप्त सुविधाएं देने का प्रयास करें।
राष्ट्रपति ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिए किसी राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जिसे वह आवश्यक या उचित समझता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 343, 347 उपबंधित करता है कि इस विषय पर मांग की जाने पर यदि राष्ट्रपति को समाधान हो जाए कि किसी राज्य की जनसंख्या का 14 वां भाग अपने द्वारा बोली जाने वाली किसी भाषा के प्रयोग की मांग करता है तो राष्ट्रपति निदेश दे सकता है कि ऐसी भाषा भी उस राज्य में या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए जैसा कि वह लिखित करें सरकारी रूप में मान्यता दी जाएगी।
अनुच्छेद 350 के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपनी किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ राज्य के किसी पदाधिकारी या अधिकारी को संघ या राज्य के प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का अधिकार प्राप्त है।
अल्पसंख्यक समुदाय के लिए एक विशेष पदाधिकारी नियुक्त किया जा सकता है, ऐसा पदाधिकारी संविधान द्वारा इन वर्गों को आरक्षणों से संबंधित विषयों का अनुसंधान करेगा और राष्ट्रपति को जैसा वह निर्दिष्ट करें प्रतिवेदन भेजेगा।