भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 19: भारत संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन

Update: 2021-02-23 03:45 GMT

भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख में संविधान के अंतर्गत दी गई नगरपालिकायें और पंचायतों के संबंध में चर्चा की गई थी, इस आलेख के अंतर्गत भारत के संविधान के परिसंघ ढांचे को बरकरार रखने के उद्देश्य से संघ और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन पर किए गए उपबंधों पर चर्चा की जा रही है।

संघ और राज्यों के बीच शक्ति का विभाजन

भारत का संविधान एक परिसंघ संविधान है जिसके अंतर्गत संघ और राज्यों के लिए अलग-अलग व्यवस्था दी गई है। परिसंघ संविधान के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा निश्चित होना चाहिए जिससे दोनों के बीच टकराव की स्थिति का जन्म नहीं हो।

प्रत्येक सरकार अपने क्षेत्र में स्वतंत्र और सर्वोच्च होती है और वह एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, यह परिसंघ संविधान का सैद्धांतिक रूप है। भारत का संविधान संविधान निर्माता अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार उन देशों में जहां परिसंघ संविधान की व्यवस्था की गई है की प्रणाली को देखते हुए संविधान का निर्माण करतें हैं क्योंकि भारत का संविधान सबसे अंत में अस्तित्व में आया इसलिए सारे विश्व की व्यवस्था को भारत के संविधान निर्माताओं ने पहले देखा उसके बाद भारत के संविधान का निर्माण किया गया।

भारत के संविधान में परिसंघ प्रणाली को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार लागू करके संविधान निर्माताओं ने एक नया स्वरूप प्रदान किया है। संविधान के भीतर राज्य और संघ के बीच जितने संभव हो सके सभी शक्तियों के विभाजन कर दिए हैं।

केंद्र और राज्यों के बीच तीन प्रकार से शक्तियों के विभाजन किए गए हैं और इन तीनों के बीच तीन प्रकार के संबंध प्रतीत होते हैं-

विधायी संबंध।

प्रशासनिक संबंध।

वित्तीय संबंध।

विधायी शक्तियों का विभाजन

भारत के संविधान के अंतर्गत संघ और राज्यों के बीच विधायी संबंधों के अंतर्गत शक्तियों का विभाजन किया गया है, संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन अत्यंत महत्वपूर्ण विभाजन है।

अनुच्छेद 245 यह उपबंधित करता है कि इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए संसद भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधान मंडल उस संपूर्ण राज्य के लिए उसके अलावा किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा।

इस अनुच्छेद के खंड 2 के अनुसार संसद द्वारा बनाई गई कोई विधि इस आधार पर अविधिमान्य नहीं समझी जाएगी कि वह भारत के राज्य क्षेत्र से बाहर लागू होती है। इसका यह तात्पर्य है कि संसद द्वारा बनाई गई विधि न केवल भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर स्थित व्यक्तियों की संपत्तियों पर लागू होगी बल्कि विश्व के किसी भी भाग में निवास करने वाले भारत के नागरिकों और उनकी वहां स्थित संपत्ति को भी लागू होगी।

ऐसा विधान जो अंतर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन कर सकता है विदेशी न्यायालय द्वारा मान्य नहीं किया जा सकता उन्हें लागू करने में व्यवहारिक कठिनाइयां हो सकती है किंतु यह सब विधि के प्रश्न है जिन प्रश्नों पर न्यायालय में विचार नहीं किया जा सकता।

अनुच्छेद 243(1) के अनुसार किसी राज्य का विधान मंडल उस संपूर्ण राज्य के या उसके किसी बात के लिए विधि बना सकता है इसका तात्पर्य यह है कि राज्य की विधायी शक्ति का विस्तार राज्य क्षेत्र तक ही सीमित है किंतु नियम का एक अपवाद भी है अर्थात राज्य द्वारा बनाई गई विधि भी राज्य क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र में लागू हो सकती है, इसकी वस्तु से कोई संबंध हो जिसके ऊपर वह विधि लागू होती है इसे क्षेत्रीय संबंध का सिद्धांत कहते हैं।

सुंदर गोपाल बनाम सुंदर रजनी के प्रकरण में पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण की कार्यवाही में पति ने याचिका का धारणीय होना इस आधार पर प्रश्न गत किया कि उन दोनों ने स्वीडन की नागरिकता प्राप्त कर ली थी।

पत्नी ने यह कहा कि उसने अपने अधिवास में कभी भी परिवर्तन नहीं किया जहां तक कि यदि मान भी लिया जाए कि उसने स्वीडन का अधिवास प्राप्त कर लिया था तो जब युगल ऑस्ट्रेलिया चला गया था तो उसने इस का परित्याग कर दिया था और इसलिए भारत का अधिवास पुनः लागू हो गया था। पति का यह तर्क था कि पति का अधिवास पत्नी का अधिवास होगा।

मामले में यह पाया गया कि पत्नी और पति दोनों ही भारत में अधिवास इस थे क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा एक और धारा 2 जम्मू कश्मीर सहित संपूर्ण भारत में विस्तृत होती है। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के पहले यह धारा जम्मू कश्मीर में लागू नहीं होती थी और यह भारत में अधिवासी उन हिंदुओं को भी लागू होती है जो भारत के बाहर रहते हैं जिन्होंने अन्य देश की नागरिकता ग्रहण कर ली है।

न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम उन्हें भी लागू होता है, यह कहना कि अधिनियम हिंदुओं को उनके अधिवास को विचार में लिए बिना लागू करना चाहिए, अधिनियम को किसी संबंध को ध्यान दिए बिना संपूर्ण विश्व में राज्य क्षेत्र से बाहर प्रवर्तित करना है। इस निर्वाचन के को अनुज्ञात कर देने पर यह प्रावधान को अधिमान हो जाएगा।

इसके अतिरिक्त हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 1(2) में अधिवास इस शब्द को अनावश्यक कर देगा। यह स्वीकार सिद्धांत है की विधायिका सामान्यताः अपने शब्दों को व्यर्थ नहीं करती है।

कानून बनाना मुख्य रूप से विधानमंडल का कार्य होता है किंतु प्राय विधानमंडल विधि बनाने की शक्ति अन्य व्यक्तियों अथवा निकायों को प्रत्यायोजित कर देता है।

इन व्यक्तियों द्वारा बनाए गए नियमों परिणामों आदेशों पूर्व उपविधियों को प्रत्यायोजित विधान कहते हैं किंतु विधानमंडल के लिए आवश्यक होता है कि अधिनियम बनाकर उन मार्गदर्शक सिद्धांतों को विहित करें जिसके अनुसार अन्य निकायों अथवा व्यक्तियों द्वारा प्रत्यायोजित विधान बनाए जा सकते हैं।

परिसंघ व्यवस्था में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन रहता है। साधारण राष्ट्रीय महत्व के विषय केंद्र को दिए जाते हैं जैसे सुरक्षा रेल डाक करेंसी आदि और स्थानीय महत्व के विषय राज्यों को सौंपा जाते हैं। वह विभाजन किसी निश्चित या ठोस आधार पर नहीं किया जा सकता।

प्रत्येक देश की स्थानीय और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार शक्ति विभाजन भी भिन्न-भिन्न होता है। भारत सरकार अधिनियम 1935 में भी 3 अनुसूचियों का समावेश किया गया था। संघ सूची राज्य सूची समवर्ती सूची भारत के संविधान में उक्त अधिनियम की प्रणाली का अनुसरण किया गया और राज्यों को तीन सूची में विभाजित किया गया। यह तीन सूचियां इस प्रकार है-

संघ सूची

भारत के संविधान के अंतर्गत दी गई संघ सूची में वह विषय है जिनमें मुख्य रूप से देश की रक्षा, विदेशी संबंध, युद्ध और समझौता, परमाणु ऊर्जा, रेल, वायु मार्ग, समुद्री जहाज, डाकतार, टेलीफोन, बेहतर रोड, कास्टिंग, विदेशी व्यापार, नागरिकता, जनगणना, मुद्रा, विदेशी ऋण, रिजर्व बैंक, बीमा विनिमय, चेक, वचन पत्र, बांट और माप का स्थापन, प्रदर्शन के लिए चल चित्रों की मंजूरी, कृषि आय से भिन्न कर, सीमा शुल्क जिनके अंतर्गत निर्यात शुल्क भी आता है। इन सभी विषयों पर संसद ही कानून बना सकती है।

राज्य सूची

राज्य सूची के अंतर्गत स्थानीय महत्व के 61 विषय हैं जिसमें लोक व्यवस्था, पुलिस न्याय प्रशासन, जेल, स्थानीय शासन, लोक स्वास्थ्य स्वच्छता और उच्च शिक्षा, औषधालय, मादक शराब का उत्पादन निर्माण कब्जा परिवहन, क्रय विक्रय, शिक्षा कृषि, शिक्षा एवं सार्वजनिक आमोद प्रमोद आदि विषय है। राज्य के विधान मंडल को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।

समवर्ती सूची

समवर्ती सूची के अंतर्गत कुल 52 विषय दिए गए हैं जिनमें दंड विधि, दंड प्रक्रिया, विवाह तथा विवाह विच्छेद, संविधान न्याय प्रशासन, उच्चतम तथा उच्च न्यायालय से भिन्न सिविल प्रक्रिया, वन्य आर्थिक और सामाजिक योजना, जनसंख्या नियंत्रण व परिवार नियोजन, व्यापार संघ सामाजिक सुरक्षा विधि और राष्ट्रीय जलमार्ग, बांध और कीमत नियंत्रण, कारखाने विद्युत समाचार पत्र, संपत्ति आदि विषय आते हैं।

इन विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने की अधिकारिता प्राप्त है पर दोनों सरकारों द्वारा बनाई गई विधियों में विरोध होने पर केंद्र द्वारा बनाई गई विधि राज्य की विधि पर अभिभावी होती है। संविधान निर्माताओं ने देश की मुख्य विधियों में एकरूपता और शक्ति विभाजन की कठोरता को कम करने की दृष्टि से समवर्ती सूची को संविधान में जोड़ा है। 42 वें संविधान संशोधन द्वारा संघ सूची में शासन का नियंत्रण संघ और सशस्त्र बल पर संघ का नियंत्रण विषय जोड़ा गया है।

भारत के संविधान में स्पष्ट रूप से इन सूचियों को इसलिए डाला गया है ताकि विधि निर्माण में संघ और राज्यों के बीच किसी प्रकार का विवाद पैदा न हो। अनुच्छेद 248 अपशिष्ट विधायी शक्तियों अर्थात जो उक्त तीनों सूचियों में उल्लेखित नहीं है को केंद्र सरकार में निहित करता है। संघ सूची की प्रविष्टि नंबर 97 उपबंध करती है कि कोई ऐसे दूसरे विषय जो राज्य सूची समवर्ती सूची में उल्लेखित नहीं है उन पर केंद्र सरकार को अनन्य रूप से कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है।

भारत संघ बनाम एसएस ढिल्लन के मामले में न्यायालय के सामने प्रश्न था कि क्या संसद को धन कर अधिनियम जिसके अधीन किसी व्यक्ति की कृषि भूमि से प्राप्त संपत्ति पर धनकर लगाने का उपबंध किया गया है पारित करने की विधायी शक्ति प्राप्त है।

उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में कहा कि केंद्रीय विधान मंडल द्वारा पारित विधाओं के मामले में सही कसौटी यह देखना है कि क्या विषय वस्तु राज्य सूची में है या समवर्ती सूची में है, यदि यह पता लग जाए कि वह राज्य सूची में नहीं है तो संसद इस विषय पर अपनी अपशिष्ट शक्ति के अधीन विधान बनाने के लिए सक्षम होगी और ऐसे मामलों में यह पता लगाना आवश्यक होगा की विषय केंद्र सूची की प्रविष्टि 1 से लेकर 97 में है या नहीं।

इस निर्णय के फलस्वरूप राज्य सूची का क्षेत्र काफी संकुचित हो गया क्योंकि केंद्र की अपशिष्ट शक्ति के इतने व्यापक निर्वचन से राज्य की विधान शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अपशिष्ट शक्ति का सहारा सबसे अंत में लेना चाहिए।

सामान्य नियम यह है कि ऐसी दशा में केंद्रीय विधि राज्य के विधान मंडल की विधि पर अभिभावी होगी। अनुच्छेद 254 यह उपबंधित करता है कि यदि किसी राज्य के विधान मंडल द्वारा बनाई गई विधि का कोई उपबंध संसद द्वारा बनाई गई विधि के जिसे बनाने के लिए संसद सक्षम है यह समवर्ती सूची में विधमान विधि के किसी उपबंध के विरुद्ध है तो खंड 2 के उपबंधों के अधीन रहते हुए संसद द्वारा बनाई गई विधि चाहे वह राज्य के विधान मंडल द्वारा बनाई गई विधि से पहले या उसके बाद में पारित की गई हो राज्य की विधि पर अभिभावी होगी।

जावेद भाई बनाम मुंबई राज्य के मामले में सन 1946 में केंद्रीय विधान मंडल ने आवश्यक वस्तु अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार इसके उल्लंघन करने वालों को धारा 3 के अंतर्गत अधिक से अधिक 3 वर्ष का कारावास या जुर्माना दोनों दंड दिया जा सकता था।

मुंबई राज्य के विधान मंडल ने इस दंड को कम समझ कर एक अधिनियम पारित करके उनको बढ़ाकर 7 वर्ष का कारावास या जुर्माना दोनों कर दिया। इस अधिनियम को गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त हो गई और इस प्रकार केंद्रीय विधि निर्मित हो गई।

निश्चित इस अधिनियम को गवर्नर जनरल की पर 1957 में संसद में अपने 1946 वाले अधिनियम में संशोधन करके धारा 3 में विहित दंड में काफी परिवर्तन कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में निर्णय दिया कि 1957 में संसद के संशोधित अधिनियम द्वारा मुंबई विधान मंडल का अधिनियम विवक्षित रूप से निरस्त हो गया। अतः केंद्र विधि संविधानिक है।

सामान्य परिस्थितियों में केंद्र और राज्यों में विधान शक्ति के विभाजन को कठोरता से कायम रखना आवश्यक है और कोई भी सरकार किसी दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती किंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में उक्त शक्ति का वितरण या तो निलंबित कर दिया जाता है यह केंद्र को राज्य सूची के विषयों पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है जिसके अंतर्गत राष्ट्र हित या आपात उद्घोषणा के समय राज्यों की सहमति से बनाई गई विधि में या अंतरराष्ट्रीय करारों को प्रभावित करने के लिए विधान बनाते समय या फिर राज्यों में राजनीतिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में केंद्र राज्यों की सूची पर भी कानून निर्माण कर सकता है।

संघ और राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंध

संघात्मक संविधान दो सरकारों की स्थापना करता है केंद्र और राज्य इनके बीच शक्तियों का विभाजन देता है। संघीय शासन व्यवस्था की शक्ति और सफलता संघ और राज्यों के बीच अधिकतम सहयोग और समन्वय पर निर्भर करती है।

केंद्र और राज्यों में प्रशासनिक संबंधों का समायोजन एक कठिन कार्य होता है। सरकारों में मतभेद की अधिक संभावना रहती है। केंद्रीय और राज्य अपने अपने क्षेत्र में प्रभुत्व संपन्न होते हैं पर केंद्र को संविधान में राज्यों की अपेक्षा अधिक कर्तव्य दिए गए हैं। एक दृष्टि से देखें तो केंद्र राज्यों के मुकाबले में बड़ा है। देश में विधि व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व केंद्र सरकार का है।

ऐसी स्थिति में भी केंद्र को कुछ आर्थिक शक्ति न प्राप्त हो तो प्रशासन तंत्र का सुचारू रूप से संचालन नहीं किया जा सकता है। कठिनाइयों को दूर करने के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में आवश्यक गुणों का समावेश किया है और सभी विषयों के लिए राज्यों के ऊपर आवश्यक नियंत्रण की शक्ति प्रदान की है।

आपातकालीन स्थिति में तो राज्य सरकार केंद्र सरकार के अधीन कार्य करती हैं, सामान्य परिस्थितियों में भी संविधान राज्यों के ऊपर केंद्र के नियंत्रण करता है, जैसे-

संघ द्वारा राज्यों को निर्देश अनुच्छेद 256, 257, 339 में दिया जाता है।

अखिल भारतीय लोक सेवाएं (अनुच्छेद 312)

केंद्रीय अनुदान (अनुच्छेद 275)

केंद्र और राज्यों को केंद्र द्वारा राज्यों को निर्देश देने की व्यवस्था संग सिद्धांत के सार्थक प्रतिकूल है और एक किसी भी परिसंघ संविधान में नहीं पाई जाती है हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए कुछ व्यवस्था को संविधान में शामिल करना उचित समझा है।

अनुच्छेद 256 यह कहता है कि प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति किस प्रकार प्रयोग किया जाएगा जिसमें संसद द्वारा बनाई गई विधियों का पालन सुनिश्चित रहे तो संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को निर्देश देने तक विस्तृत होगा जिसे भारत सरकार उस प्रयोजन के लिए आवश्यक समझे केंद्रीय वीडियो के अनुपालन में कोई बाधा उत्पन्न ना हो इसलिए केंद्र सरकार को ऐसी शक्ति प्रदान की गई है अनुच्छेद 200 शक्ति का प्रयोग करेगा जिससे संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में कोई प्रतिकूल प्रभाव ना पड़े इस प्रयोजन के लिए केंद्र राज्यों का आवश्यक निर्देश देगा।

इसके अतिरिक्त केंद्र राज्यों को राष्ट्रीय सैनिक महत्व के संसाधनों के अंदर की रक्षा के लिए किए जाने वाले उपायों के बारे में भी आवश्यक निर्देश दे सकता है

अनुच्छेद 258 ए के अधीन संसद किसी राज्य सरकार की सहमति से संघ में कार्यपालिका शक्ति से संबंधित किसी विषय को उस सरकार को या उसके पदाधिकारियों को सशर्त सौंप सकती है। खंड 2 के अधीन संसद को संघ के विधायकों क्रियान्वयन के लिए राज्य के प्रशासन तंत्र का प्रयोग करने की शक्ति भी है। इस प्रयोजन के लिए संसद राज्य अथवा उसके पदाधिकारियों को ऐसी शक्ति प्रदान कर सकती है जिससे उसकी विधियों को उस राज्य में समुचित रूप से लागू किया जा सके।

संघीय संविधान में केंद्र और राज्यों को अलग-अलग सेवाएं दी गई हैं, उनकी सेवाएं अलग-अलग होती है पर भारतीय संविधान में इन सेवाओं के अतिरिक्त एक संघ और राज्यों के सम्मिलित सेवाओं का भी उपबंध है जिसे अखिल भारतीय सेवाएं कहा जाता है।

अनुच्छेद 312 के अंतर्गत राज्यसभा अपने उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित संकल्प द्वारा यह घोषित कर देती है कि राष्ट्रहित में ऐसा करना आवश्यक या इस प्रकार है तो संसद विधि द्वारा संघ और राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन कर सकती है और उन सेवाओं की भर्ती तथा उक्त व्यक्ति की सेवाओं के शर्तों का विनियमन कर सकती है।

संविधान के अंतर्गत राज्यों के राजस्व के स्त्रोत अत्यंत सीमित है जबकि नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत पूर्ण समाज उत्थान में अनेक कार्य करने पड़ते हैं। इन सब कार्यों के लिए उसे प्राप्त होने वाला राजस्व कम होता है।

इस प्रकार निरंतर बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों को अनुदान प्रदान करती है। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के सहायता में अनुदान से दो उद्देश्यों की पूर्ति होती है। इसके माध्यम से केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर नियंत्रण रखती है, कृपया अनुदान प्राप्त कुछ शर्तों के अधीन प्रदान किए जाते हैं जिन शर्तों को राज्य पूरा नहीं करता है तो उसका अनुदान रोका जा सकता है।

इसके द्वारा केंद्र और राज्यों में सहयोग और समन्वय की भावना पैदा होती है। कोई राज्य अपनी जनता के कल्याण हेतु योजनाओं का विकास करना चाहता है तो केंद्र से अनुदान मांग सकता है।

एक संघात्मक संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन देता है तथा प्रत्येक सरकार संविधान द्वारा सीमा में ही कार्य करती है पर इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका एक दूसरे से कोई संबंध नहीं होता है क्योंकि दोनों सरकारें एक ही नागरिक पर प्रशासन करती है और उनके कल्याण के लिए कार्यों को संपादित करती है, इसलिए इनमें आपस में सहयोग और समन्वय आवश्यक होता है।

एक दूसरे से अलग अलग रहते हुए भी परस्पर सहयोगी होते हैं। संघात्मक संविधान की स्थापना के प्रारंभिक काल में विभिन्न सरकारों में प्रतियोगिता और स्पर्धा की भावना में सम्मिलित हुए थे। कहीं केंद्र सरकार अधिक शक्तिशाली न हो जाए और उनके क्षेत्र में हस्तक्षेप न करें इसी उद्देश्य से शक्तियों के विभाजन की योजना भी अपनाई गई थी जिसमें किसी को कम से कम शक्ति और किसी को अधिक शक्ति प्रदान की गई थी।

अनेक देशों में विवाद भी उत्पन्न हो गए हैं इन विवादों का कारण क्या कारण यही था। भविष्य में कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिनके कारण यह प्रतियोगिता की भावना कम होती गई और उनके बीच सहयोग के संबंध में बढ़ता गया और एक दूसरे के सहयोगी व सहायक के रूप में हो गए। केंद्रीय और राज्यों के बीच सहयोग और समन्वय की भावना के उत्पन्न होने के कारण आज हम इसे सहकारी संघ कहते हैं।

संघ और राज्यों के बीच वित्त की संबंध

परीसंघात्मक प्रणाली की सफलता के लिए आवश्यक है कि केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संबंध पर्याप्त हो जिससे संविधान द्वारा आरोपित अपने अपने उत्तरदायित्व को सुचारू रूप से पालन कर सकें। राज्यों के विधायी शासकीय प्राधिकार को कायम रखने के लिए उनकी वित्तीय स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है किंतु उक्त संघीय सिद्धांत का विश्व के किसी भी परीसंघात्मक संविधान में पूर्ण रुप से पालन नहीं किया गया।

आज राज्यों की कल्याणकारी धरना के विकास से उनके कर्तव्यों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है जिसके कारण राज्यों को केंद्र अनुदान पर निर्भर रहना के लिए बाध्य होना पड़ता है। भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों में राजस्व का वितरण भारतीय सरकार अधिनियम 1935 की पद्धति के आधार पर किया गया है।

हमारे संविधान निर्माताओं का यह मत था कि केंद्र और राज्यों के बीच संबंध लचीले वह बदलती परिस्थितियों तथा समय के अनुकूल रहें। इस प्रयोजन के लिए 1 वित्त आयोग की स्थापना का उपबंध भी किया गया जो समय समय पर वित्तीय स्थिति पर पुनर्विचार करता है और संशोधन द्वारा परिवर्तन का सुझाव देता।

संविधान में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है जिसके माध्यम से केंद्र और राज्यों में राजस्व के वितरण का समायोजन में वितरण होता रहे, इस व्यवस्था को अपनाकर भारतीय संविधान ने निसंदेह इस जटिल क्षेत्र में एक मौलिक योगदान दिया है।

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