सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) के आदेश 1 के अंतर्गत नियम 4 से लेकर 8क तक के प्रावधानों पर चर्चा इस आलेख के अंतर्गत प्रस्तुत की जा रही है। नियम 4 से 7 में पक्षकारों के बारे में कुछ सामान्य बातें बताई गई हैं, जो संहिता में दी गई प्रक्रिया को लागू होती हैं। नियम 8 एवं नियम 8क में समान हित की रक्षा करने के लिए नियम तथा नियम 8-क प्रतिनिधिवाद की व्यवस्था करता है।
संहिता का यह महत्वपूर्ण नियम है। यह इस सामान्य सिद्धान्त का एक अपवाद है कि सभी व्यक्ति जो किसी वाद में हितबद्ध है, पक्षकार बनाये जाने चाहिए। यह एक शक्तिदाता उपबन्ध है, जो समान (कॉमन) वादहेतुक के लिए एक पक्षकार को दूसरों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सक्षम बनाती है। इसे 1976 के संशोधन द्वारा प्रतिस्थापित कर स्पष्ट कर दिया गया है।
नियम 4 से लेकर 7 के संहिता के शब्द इस प्रकार हैं
नियम 4-
न्यायालय, संयुक्त पक्षकारों में से एक या अधिक के पक्ष में या उनके विरुद्ध निर्णय दे सकेगा-
(क) वादियों में से जो एक या अधिक वादी अनुतोष के हकदार पाए जाएँ उसके या उनके पक्ष में, उस अनुतोष के लिए, जिसके वह या वे हकदार हों;
(ख) प्रतिवादियों में से जो एक या अधिक प्रतिवादी दायी पाए जाएँ उसके या उनके विरुद्ध उनके अपने-अपने दायित्वों के अनुसार निर्णय किसी संशोधन के बिना दिया जा सकेगा।
नियम 5-
दावाकृत सम्पूर्ण अनुतोष में प्रतिवादी का हितबद्ध होना आवश्यक नहीं है- यह आवश्यक नहीं होगा कि हर प्रतिवादी अपने विरुद्ध किसी वाद में दावाकृत सम्पूर्ण अनुतोष के बारे में हितबद्ध हो।
नियम 6-
एक ही संविदा के आधार पर दायी पक्षकारों का संयोजन- वादी किसी भी संविदा के आधार पर पृथकृतः या संयुक्ततः और पृथक्तः दायी सभी या किन्हीं व्यक्तियों को उनके अन्तर्गत विनिमय- पत्रों, हुण्डियों और वचनपत्रों के पक्षकार भी हैं, एक ही वाद के पक्षकारों के तौर पर अपने विकल्प के अनुसार संयोजित कर सकेगा।
नियम 7-
जब वादी को संदेह है कि किससे प्रतितोष चाहा गया है- जहां वादी को इस बारे में संदेह है कि वह व्यक्ति कौन है, जिससे प्रतितोष अभिप्राप्त करने का वह हकदार है वहां वह दो या अधिक प्रतिवादियों का इसलिए संयोजित कर सकेगा कि सभी पक्षकारों के बीच इस प्रश्न के बारे में अवधारित किया जा सके कि प्रतिवादियों में से कौन और किस विस्तार तक दायी है।
न्यायालय द्वारा निर्णय (नियम 4) - इस नियम के दो खण्ड हैं। खण्ड (क) के अनुसार वादी अनेक होने पर उनमें से जो किसी अनुतोष का हकदार है, उसे न्यायालय वह अनुतोष प्रदान कर सकता है और इसके लिए किसी संशोधन को आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार खण्ड (ख) के अनुसार प्रतिवादी कई हैं, पर उनमें से जो एक या अधिक प्रतिवादी दावी पाए जाते हैं, तो उसके या उनके विरुद्ध उनके दायित्व के अनुसार न्यायालय निर्णय दे सकेगा और किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं होगी। नियम 4 के खण्ड (क) को नियम (1) के साथ तथा खण्ड (ख) को नियम 3 के साथ पढ़ना चाहिए।
जब कई अतिचारियों के विरुद्ध वाद एक को छोड़कर सब के विरुद्ध खारिज कर दिया गया तो उस एक के विरुद्ध डिक्री दी जा सकती है। सामान्यतः न्यायालय द्वारा पारित निर्णय/ डिक्री केवल वाद में पक्षकारों पर ही लागू होते है लेकिन इस नियम का अपवाद भी है अर्थात कुछ परिस्थितियों में ऐसे व्यक्तियों पर भी लागू होती है जो वाद में पक्षकार नहीं हैं।
प्रतिवादी का हित (नियम 5) - यह आवश्यक नहीं है कि कई प्रतिवादी होने पर वे सभी उनके विरुद्ध किये गये दावे में जो सम्पूर्ण अनुतोष मांगा गया है, उसके बारे में हितबद्ध हो। इस प्रकार अनुतोष का सम्पूर्ण रूप से प्रतिवादी से सम्बन्ध या हित होना आवश्यक नहीं है। उसका हित अनुतोष में भागत हो सकता है।
नियम 5 को उपरोक्त नियम 3 के साथ पढ़ना चाहिए। यह नियम यह प्रभाव उपबंधित करता है कि वहाँ किसी एक वाद में अनेक प्रतिवादी हो, तो यह तथ्य कि प्रत्येक प्रतिवादी, उस वाद में माँगे गये समस्त अनुतोष में हितबद्ध नहीं है वहां प्रतिवादियों का संयोजन निहित नहीं होगा।
एक ही संविदा के आधार का प्रभाव (नियम 6 ) – एक ही संविदा है, पर संविदा के पक्षकार कई हैं। उनके दायित्व संविदानुसार अलग-अलग है। यह दायित्व (i) पृथकृतः अलग-अलग प्रत्येक व्यक्ति का हो सकता है या (ii) संयुक्तत: सब का एक साथ हो सकता है, सभी दायी हो सकते हैं, या (iii) पृथकृत; और संयुक्तत:- जिसमें प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से तो दायी है ही वह संयुक्त रूप से भी सब के साथ दायी है।
इस प्रकार विनिमय-पत्रों, हुण्डियों और वचनपत्रों के पक्षकार भी इनमें सम्मिलित है। ऐसे पक्षकारों को वादी एक ही वाद में अपने विकल्प (चयन) के अनुसार संयोजित कर संयुक्त प्रतिवादी बना सकेगा। इससे मुकदमेबाजी नहीं बढ़ेगी और एक ही वाद में अनेक प्रतिवादियों के संविदात्मक दायित्व के आधार पर उनके दायित्व का निपटारा किया जा सकेगा। वाद बहुलता को रोकने के लिए ही यह नियम बनाया गया है।
प्रतिवादियों के बारे में सन्देह का उपाय (नियम-7 )- प्रतिवादियों में से कौन दायी है, जब इसके बारे में वादी को सन्देह हो, तो वह दो या अधिक प्रतिवादियों को एक ही वाद में संयोजित कर सकेगा, ताकि उनमें से कौन किस सीमा तक दायी है, इसका निर्णय हो सके।
अनेकानेक वाद – एक ही वाद-हेतुक पर अनेक वादों की अनुमति नहीं
जब वादी ने एक ही करार के भंग होने के आधार पर तीन अलग दावों के लिए अलग-अलग वाद फाइल किया, जो सिविल प्रक्रिया संहिता के उपबंधों की दृष्टि में फाइल नहीं किए जा सकते थे। पूरे दावे पर न्यायालय फीस लगाना उचित माना गया।
नियम 8-
एक ही हित में सभी व्यक्तियों की ओर से एक व्यक्ति वाद ला सकेगा या प्रतिरक्षा कर सकेगा-
(1) जहां एक ही वाद में एक ही हित रखने वाले बहुत से व्यक्ति है वहां
(क) इस प्रकार हितबद्ध सभी व्यक्तियों की ओर से या उनके फायदे के लिए न्यायालय की अनुज्ञा से ऐसे व्यक्तियों में से एक या अधिक व्यक्ति वाद ला सकेंगे या उनके विरुद्ध वा लाए जा सकेंगे या वे ऐसे वाद में प्रतिरक्षा कर सकेंगे,
(ख) न्यायालय यह निर्देश दे सकेगा कि इस प्रकार हितबद्ध सभी व्यक्तियों की ओर से या उनके फायदे के लिए ऐसे व्यक्तियों में से एक या अधिक व्यक्ति वाद ला सकेंगे या उनके विरुद्ध वाद लाए जा सकेंगे या वे ऐसे वाद में प्रतिरक्षा कर सकेंगे।
(2) न्यायालय ऐसे प्रत्येक मामले में जहां उपनियम (1) के अधीन अनुशा या निदेश दिया गया है, इस प्रकार हितबद्ध सभी व्यक्तियों को या तो वैयक्तिक तामील कराकर या जहां व्यक्तियों की संख्या या किसी अन्य कारण से ऐसी तामील युक्तियुक्त रूप से साध्य नहीं है वहां लोक विज्ञापन द्वारा जैसा भी न्यायालय हर एक मामले में निर्दिष्ट करे, वाद के संस्थित किए जाने की सूचना वादी के खर्च पर देगा।
(3) कोई व्यक्ति जिसकी ओर से या जिसके फायदे के लिए उपनियम (1) के अधीन कोई वाद संस्थित किया जाता है या ऐसे वाद में प्रतिरक्षा की जाती है, उस वाद में पक्षकार बनाए जाने के लिए न्यायालय को आवेदन कर सकेगा।
(4) आदेश 23 के नियम 1 के उपनियम (1) के अधीन ऐसे वाद में दावे के किसी भाग का परित्याग नहीं किया जाएगा और उस आदेश के नियम 1 के उपनियम (3) के अधीन ऐसे वाद का प्रत्याहरण नहीं किया जाएगा और उस आदेश के नियम 3 के अधीन ऐसे वाद में कोई करार समझौता या तुष्टि अभिलिखित नहीं की जाएगी जब तक कि न्यायालय ने इस प्रकार हितबद्ध सभी व्यक्तियों को उपनियम (2) में विनिर्दिष्ट रीति से सूचना वादी के खर्चे पर न दे दी हो।
(5) जहां ऐसे वाद में लाने वाला या प्रतिरक्षा करने वाला कोई व्यक्ति वाद या प्रतिरक्षा में सम्यक् तत्परता से कार्यवाही नहीं करता है वहां न्यायालय उस वाद में वैसा ही हित रखने वाले किसी अन्य व्यक्ति को उसके स्थान पर रख सकेगा।
(6) इस नियम के अधीन वाद में पारित डिक्री उन सभी व्यक्तियों पर आबद्धकर होगी जिनकी ओर से या जिनके फायदे के लिए यथास्थिति, वाद संस्थित किया गया है या ऐसे वाद में प्रतिरक्षा की गई है।
स्पष्टीकरण- इस बात का अवधारण करने के प्रयोजन के लिए कि वे व्यक्ति जो वाद ला रहे हैं या जिनके विरुद्ध वाद लाया गया है या जो ऐसे वाद में प्रतिरक्षा कर रहे हैं, किसी एक वाद में वैसा ही हित रखते हैं या नहीं, यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि ऐसे व्यक्तियों का वही वादहेतुक है जो उन व्यक्तियों का है जिनकी ओर से या जिनके फायदे के लिए, यथास्थिति, वे वाद ला रहे हैं या उनके विरुद्ध वाद लाया जा रहा है या वे ऐसे वाद में प्रतिरक्षा कर रहे हैं।
नियम 8(क)- न्यायालय की कार्यवाही में राय देने या भाग लेने के लिए किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के निकाय को अनुज्ञात करने की शक्ति-यदि वाद का विचारण करते समय न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का निकाय किसी ऐसी विधि के प्रश्न में हितबद्ध है जो किसी वाद में प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्य है और ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के निकाय को उस विधि के प्रश्न पर अपनी राय देने के लिए अनुज्ञात करना लोकहित में आवश्यक है तो वह ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के निकाय को ऐसी राय देने के लिए और वाद की कार्यवाहियों में ऐसे भाग लेने के लिए अनुज्ञात कर सकेगा जो न्यायालय विनिर्दिष्ट करे।
विशेष वाद से अंतर-संहिता की धारा 91 तथा 92 में दिये गये विशेष प्रकार के वाद प्रतिनिधि- याद है, जिनकी प्रक्रिया उन्हीं धाराओं में विशेष रूप से दी गई है। अतः नियम 8 में दी गई प्रक्रिया धारा 92 के याद को लागू नहीं होती।
प्रतिनिधिवाद की मुख्य शर्ते
उपनियम (1) तथा ( 2 ) प्रतिनिधिवाद के लिए बहुत से समान हित वाले व्यक्ति-
(क) न्यायालय की अनुज्ञा से या (ख) न्यायालय द्वारा निदेश देने पर ऐसा वाद ला सकेंगे। इस प्रकार वाद के लिए मुख्य शर्ते इस प्रकार हैं-
(1) पक्षकार बहुत से व्यक्ति हैं
(2) उनका एक हो वाद में एक हो हित हो अर्थात्-समान (कॉमन) हित हो,
(3) न्यायालय से इसके लिए अनुजा (इजाजत) ले ली गई हो या ऐसा वाद करने के लिए न्यायालय का कोई निदेश हो।
(4) न्यायालय द्वारा हितबद्ध सभी व्यक्तियों को वाद संस्थित किए जाने की सूचना दी जायेगी जिसका खर्चा वादी देगा।
(5) प्रक्रिया की अन्य आवश्यक बातें -[उपनियम (3) से ( 6 ) तक] (1) ऐसे वाद में हित रखने वाला कोई भी व्यक्ति आवेदन देकर पक्षकार बन सकेगा। [उपनियम (3)] (2) आदेश 23 के निम्न उपबंधों के अधीन कार्यवाही करने से पहले सभी हितबद्ध व्यक्तियों को सूचना दी जावेगी, जो वादी के खर्चे पर होगी। उपनियम (4)]
(i) आदेश 23, नियम 1 (1) ऐसे वाद में दावे के किसी भाग का परित्याग करना छोड़ना)
(ii) आदेश 23, नियम (3) ऐसे वाद का प्रत्याहरण (वापस लेना) नहीं किया जाएगा। (iii) आदेश 23, नियम 3 - ऐसे वाद में कोई करार, समझौता या तुष्टि अभिलिखित नहीं की जायेगी।
(3) सम्यक् कार्यवाही की व्यवस्था के लिए वैसे ही हित रखने वाले किसी दूसरे व्यक्ति को वादी या प्रतिवादी के स्थान पर न्यायालय प्रतिस्थापित कर सकेगा।[उपनियम (5)]
(4) डिक्री का प्रभाव उन सभी पर आबद्धकर होगा, जिनकी ओर से या जिनके फायदे के लिए ऐसा वाद लाया गया था। (उपनियम (6) समान हित के लिए समान वादहेतुक साबित करना आवश्यक नहीं है। (स्पष्टीकरण)
6. कार्यवाही में सम्मिलित करना (नियम 8 क) – विचारण के समय जब न्यायालय का यह समाधान हो जाए कि इस मामले में विधि का जो प्रश्न विचाराधीन है, उससे कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का निकाय (समूह) हितबद्ध है, तो ऐसे निकाय या व्यक्ति को लोकहित में आवश्यक होने पर अपनी राय देने और उस वाद को कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दी जा सकेगी, ताकि कोई पक्ष प्रतिनिधित्व से वंचित नहीं रह सके।
7. प्रतिनिधि वाद में पक्षकार (नियम-8 ) – नियम 8 के अनुसार एक ही हित में सभी व्यक्तियों को और से एक व्यक्ति वाद ला सकेगा या प्रतिरक्षा कर सकेगा। इस प्रकार के वाद को" प्रतिनिधि वाद" (Representative suit) कहते है। इसके लिये न्यायालय से अनुमति प्राप्त करनी होगी।
प्रतिनिधिक वाद (आदेश 1 के नियम 8) में अन्तर्हित सिद्धान्त यह है कि उन लोगों के अधिकारों को प्रभावित करता है, जो न्यायालय के सामने उपस्थित नहीं है। अतः यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह इस नियम द्वारा विहित प्रक्रिया का ध्यानपूर्वक पालन करे। जब वाद पत्र में यह कथन हो कि वादीगण प्रतिनिधियों की हैसियत से वाद ला रहे हैं और इसके साथ आदेश 1 के नियम 8 के अधीन आवेदन किया जाए, तो न्यायालय या तो सशर्त अनुज्ञा देगा और अन्य लोगों के ऐतराजों के लिये नोटिस जारी किये जायेंगे या फिर सीधे ही ऐतराज माँगते हुए नोटिस जारी करेगा।
इन ऐतराजों का निपटारा करने के वाद न्यायालय अनुज्ञा देने या न देने का अन्तिम आदेश देगा। यदि ऐसा आदेश नहीं दिया गया, तो वह वाद प्रतिनिधि वाद का स्वरूप प्राप्त नहीं करेगा। इस नियम को सारभूत पालना पर्याप्त होगी। इसका उद्देश्य यही है कि जो व्यक्ति इसमें प्रतिवादी बनना चाहे, उसे अनुज्ञा दी जायेगी और जब यह उद्देश्य पूरा हो जाये, तो फिर किसी तकनीकी लोप के कारण ऐसा वाद दूषित नहीं होगा।
एक वाद किसी न्यास की ओर से उसके सचिव द्वारा पेश किया गया। न्यास की सम्पत्ति का मालिक न्यास न होकर उसके न्यासी होते हैं। अतः न्यायालय की अनुमति लेकर उनमें से कोई एक न्यासी वाद ला सकता। है। यह याद जब सही रूप से विरचित नहीं था, तो इसे आदेश 1 के नियम 9 व 10 के अधीन गलत वादी के स्थान पर सही वादों का नाम रखकर सही किया जा सकता था और केवल पक्षकार के सुसंयोजन पर इसे सीधा खारिज कर देना न्यायोचित नहीं माना गया। प्रतिनिधिक वाद में प्रतिवादियों को पक्षकार बनाये जाने पर आपत्ति उठाई गई।
यदि प्रतिवादियों के विरुद्ध वाद उनकी प्रतिनिधिक हैसियत में फाइल किया गया हो, व्यष्टिक (व्यक्तिगत) हैसियत में नहीं, तो कुछ प्रतिवादियों को अपील में सम्मिलित न करने से (जबकि उन्हें वाद में सम्मिलित किया गया हो अपील न चलने योग्य नहीं हो जाएगी प्रतिनिधिवाद में उन प्रतिवादगणों के विरुद्ध डिक्री पारित की जा सकेगी जो हितबद्ध सभी व्यक्तियों की ओर से वाद में प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन न्यायालय ऐसे प्रतिवादियों के विरुद्ध व्यक्तिगत डिक्री पारित नहीं कर सकता है।
प्रतिनिधिवाद में प्राप्त की गई डिक्री को वाद के पक्षकार न्यायालय से निष्पादन करवा सकते है, यदि ऐसी डिक्री तथ्यों को छिपाकर या धोखे से (Collusively) प्राप्त की है तो ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध निष्पादन नहीं करवाया जा सकता है जो उस वाद में पक्षकार नहीं थे पर व्यक्ति के अधिकार (Juster till) का अभिवाक्- ऐसे मामले में जिसमें कि वादों अन्य सहस्वामी को प्रोफार्मा प्रतिवादी के रूप में सम्मिलित करता है।
फिर भी यह दावा करता है कि उसका उस सम्पत्ति में कोई हित नहीं है और केवल वह वादी ही उस सम्पत्ति का अनन्य स्वामी है, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह वाद उस सह स्वामी की ओर से फाइल किया गया है और इसलिए वादी सम्पूर्ण सम्पत्ति की बाबत कब्जे की डिक्री प्राप्त करने का हकदार बन गया है।
प्रत्यर्थी द्वारा अपनी वैयक्तिक हैसियत में लाया गया वाद प्रतिनिधिक वाद नहीं होगा और उस बारे में आदेश 1 नियम के उपबन्ध लागू नहीं होंगे।
नोटिस [ उपनियम (2)] - किसी व्यक्ति को प्रतिनिधि के रूप में दूसरों की ओर से वाद करने की अनुमति देना दूसरों के हितों पर प्रभाव डाल सकता है, जो कि न्यायालय के समक्ष नहीं है। अतः प्रभावित व्यक्तियों को आपत्ति पेश करने के लिए एक नोटिस जारी करना आवश्यक है। किसी सम्प्रदाय के विशाल भाग की ओर से पेश किये वाद में घोषणा द्वारा या प्रकाशन द्वारा नोटिस देना पर्याप्त है, उपनियम (2) प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत नोटिस देने की मांग नहीं करता।
एक ही हित में सब व्यक्तियों की ओर से एक व्यक्ति द्वारा प्रतिनिधिमूलक वाद में यथा उपबन्धित प्रक्रिया का अनुसरण करने के पश्चात् अनुच्छेद 32 या 226 के अधीन कार्यवाही की जा सकती है। आदेश 1, नियम 8 के अनुसार प्रतिनिधि को हैसियत से रिट याचिका पेश की जा सकती है। जब संयुक्त हिन्दू परिवार के सभी सदस्य वाद के पक्षकार हैं, तो "कर्ता" को प्रतिनिधि का स्थान देने का प्रश्न ही नहीं उठता।
न्यायालय की अनुमति आज्ञापक जब कोई सामान्य प्रश्न अन्तर्वलित हो और उससे बड़ी संख्या में व्यक्तियों का सम्बन्ध हो, तो उनमें से कुछ प्रतिनिधिक रूप में वाद ला सकते हैं। इसके लिए आदेश 1 नियम के अधीन न्यायालय की अनुमति देना आज्ञापक है। प्रतिनिधि वाद माने जाने के लिए यह आवश्यक है कि उक्त नियम के अधीन न्यायालय ने अनुज्ञा दी हो। जब आदेश 1, नियम 8 के अधीन आवेदन पर न्यायालय विचार करता है, तो उसको ध्यान में रखना चाहिए कि उसमें वर्णित उपबंध आज्ञापक हैं, केवल निदेशात्मक नहीं। इसमें कई पूर्व शर्तें हैं।
न्यायालय जब समाचार पत्र में सार्वजनिक विज्ञापन का निदेश दे, तो उसे देखना होगा कि यह नोटिस वाद का स्वरूप और उसमें मांगे गये अनुतोष को प्रकट करे, ताकि हितबद्ध व्यक्ति पक्षकार बन सकें और उसका समर्थन या प्रतिरक्षा कर सकें। नोटिस में उन लोगों के नाम भी दिए जाएं, जिनको प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी गई है।