सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 38: आदेश 7 नियम 11 से 13 के प्रावधान

Update: 2023-12-17 07:30 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 7 वादपत्र है। आदेश 7 यह स्पष्ट करता है कि एक वादपत्र किस प्रकार से होगा। आदेश 7 के नियम 11,12,13 वाद के नामंजूर करने से संबंधित हैं। इस आलेख के अंतर्गत इन्हीं तीनों नियमों पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-11 वादपत्र का नामंजूर किया जाना-वादपत्र निम्नलिखित दशाओं में नामंजूर कर दिया जाएगा-

(क) जहाँ वह वादहेतुक प्रकट नहीं करता है:

(ख) जहाँ दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन कम किया गया है और वादी मूल्यांकन को ठीक करने के लिए न्यायालय द्वारा अपेक्षित किए जाने पर उस समय के भीतर, जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है:

(ग) जहाँ दावाकृत अनुतोष का मूल्याँकन ठीक है किन्तु वादपत्र अपर्याप्त स्टाम्प-पत्र पर लिखा गया है और वादी अपेक्षित स्टाम्प-पत्र के देने के लिये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किए जाने पर उस समय के भीतर, जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है:

(घ) जहाँ वादपत्र के कथन से यह प्रतीत होता है कि वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है :

[परन्तु मूल्यांकन की शुद्धि के लिए या अपेक्षित स्टाम्प-पत्र के देने के लिए न्यायालय द्वारा नियत समय तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा जब तक कि न्यायालय का अभिलिखित किए जाने वाले कारणों से यह समाधान नहीं हो जाता है कि वादी किसी असाधारण कारण से, न्यायालय द्वारा नियत समय के भीतर, यथास्थिति, मूल्यांकन की शुद्धि करने या अपेक्षित स्टाम्प-पत्र के देने से रोक दिया गया था और ऐसे समय के बढ़ाने से इंकार किए जाने से वादी के प्रति गम्भीर अन्याय होगा।]

[(ङ) जहाँ यह दो प्रतियों में फाइल नहीं किया जाता है:

(च) जहाँ वादी नियन 9 के उपबंधों की अनुपालना करने में असफल रहता है:]

नियम-12 वादपत्र के नामंजूर किए जाने पर प्रक्रिया-जहाँ वादपत्र नामंजूर किया जाता है वहाँ न्यायालय इस भाव का आदेश कारणों सहित अभिलिखित करेगा।

उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- आदेश 7 नियम 11 के अन्तर्गत वाद खारिज करने से पूर्व सम्पूर्ण वाद को पढ़ लिया जाना चाहिये। केवल कुछ लाइनें पढ़कर किसी वाद को खारिज किया जाना उचित नहीं है।

यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ऐसे वाद को खारिज किया जा सकता है जो विधि द्वारा वर्णित है।

नियम-13 जहाँ वादपत्र की नामंजूरी से नए वादपत्र का उपस्थित किया जाना प्रवारित नहीं होता- इसके पूर्व वर्णित आधारों में से किसी पर भी वादपत्र के नामंजूर किए जाने पर केवल नामंजूरी के ही कारण वादी उसी वाद हेतुक के बारे में नया वादपत्र उपस्थित करने से प्रवारित नहीं हो जाएगा।

जिन आधारों पर किसी वादपत्र को अस्वीकार (नामंजूर) किया जा सकता है, उनका वर्णन आदेश 7 के नियम 11 के उपर्युक्त खण्ड (क) से (च) में किया गया है। खण्ड (क) में वादहेतुक प्रकट नहीं होने पर वादपत्र को नामंजूर किया जाता है, जब कि खण्ड (ख) और (ग) सपठित परन्तुक के वाद मूल्यांकन तथा स्टाम्प पत्र की कमी के कारण वादपत्र को नामंजूर करने का उपबंध करते हैं। खण्ड (घ) के अधीन विधि द्वारा वर्जित होने पर वादपत्र को खारिज किया जाता है। दो नये खण्ड (ड) और (च) 1999-2002 के संशोधनों द्वारा जोड़े गये हैं।

आदेश 7 नियम 11 (क) के अधीन निमित जाँच के लिए केवल यह देखा जाना है कि क्या वाद पत्र में वर्णित तथ्यों से वाद हेतुक प्रदर्शित होता है। इस नियम के अधीन आवेदन किसी भी प्रक्रम पर प्रस्तुत किया जा सकता है। आवेदन का निस्तारण अग्रिम अन्वीक्षा के पूर्व करना आवश्यक है। प्रतिवादी की प्रार्थना मात्र, कि वाद हेतुक प्रदर्शित नहीं होता है, के आधार पर वाद खारिज नहीं किया जा सकता। न्यायालय को सम्पूर्ण वादपत्र का अवलोकन कर देखना होगा कि क्या वादहेतुक प्रदर्शित होता है। ऐसा प्रश्न तथ्य का प्रश्न है।

आदेश 7 नियम 11 के अधीन आवेदन पर विचार करने के लिये न्यायालष को केवल वाद पत्र में वर्णित प्रकथन पर विचार करना होगा। वादोत्तर के प्रतिकथन पर नहीं न्यायालय फीस में कमी की दशा में न्यायालय को आदेश 7 नियम 11(ब) के तहत आदेश करने से पूर्व ऐसी कमी को पूर्ति करने हेतु आदेश देना होगा।

लिखित कथन प्रस्तुत होने के बाद विवाद्यक बनने के पश्चात् एवं वादी को प्रति-परीक्षा होने के बाद, यदि आदेश 7 नियम 11 में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत होता है तो ऐसा प्रार्थना-पत्र निरस्तनीय योग्य है।

प्रक्रिया -नियम 12 के अनुसार वादपत्र नामंजूर करने का आदेश कारणों सहित लेखबद्ध किया जावेगा।

(नियम 13) - उपर्युक्त आधारों पर नामंजूर किये गये वादपत्र को केवल इसी कारण से नये वादपत्र के रूप में प्रस्तुत करने के लिए मनाही नहीं है।

महत्वपूर्ण न्यायिक विवेचन

चुनाव याचिका के सत्यापन को नहीं किया जाना व दस्तावेजों को प्रति उपलब्ध नहीं करवाने के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता है।

बालक की अभिरक्षा के मामले में, बालक का साधारणतया निवास वहाँ माना जायेगा, जहाँ से उसे हटाया गया है न कि वह स्थान जहाँ यह रह रहा है। वाद कारण क्षेत्राधिकार निर्धारित करता है। याचिका खारिज नहीं की जा सकती है। चुनाव याचिका-प्रार्थियां का नामांकन पत्र चुनाव अधिकारी द्वारा गलत खारिज किया गया। प्रार्थीयां प्रत्यासी की परिभाषा में आती है। चुनाव याचिका खारिज नहीं की जा सकती है।

केवल इस आधार पर कि बाद आदेश 7 नियम 11 के प्रावधानों के अधीन अग्रहित (reject) कर दिया गया है वादी उसी वाद हेतुक पर नया वाद लाने से प्रतिबंधित नहीं है। वाद अप्रहित (rejection) करना एवं वाद खारिज करना दो भिन्न व सुभिन्न (distinct) कार्यवाहियाँ है।

विदेशी नागरिक अवयस्क बच्चों, संरक्षक और प्रतिपात्य अधिनियम 1990 की धारा 9 (1) के अधीन हैदराबाद के मामूली तौर पर निवासी नहीं हैं, कि अभिरक्षा के लिये प्रस्तुत वाद आदेश 7 नियम 11 के तहत पोषणीय नहीं है क्योंकि अमेरिकी न्यायालय में इस बावत् कार्यवाही लम्बित है।

कृषि भूमि में खातेदारी अधिकार की घोषणात्मक डिक्री को प्रार्थना हेतु लम्बित वाद के होते हुये भी इसी भूमि के अपने कथित हिस्से के बारे में दान पत्र को शून्य घोषित करवाने हेतु प्रस्तुत वाद पोषणीय नहीं है

वाद चलने योग्य होने का प्रश्न-समझौता डिक्री के समस्त फायदे उठाने के बाद उस डिक्री को चुनौती- वादहेतुक दर्शित नही होता- नामंजूर किया गया।

इसके पश्चात्, प्रत्यर्थी ने याची-विधिक प्रतिनिधियों के विरुद्ध उपर्युक्त सम्मति डिक्री को इसके अधीन समस्त फायदे उठाने के पश्चात् चुनौती दी। इस वाद का याचियों द्वारा इस आधार पर विरोध किया गया कि यह पक्षकारों के मध्य हुए पूर्व न्याय निर्णयन द्वारा पूर्व न्याय के कारण वर्जित था तथा चलाए जाने योग्य नहीं था। विचारण न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वाद चलाए जाने योग्य था। तब याचियों ने उच्च न्यायालय में सिविल पुनरीक्षण फाइल किया जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।

उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की गई। उच्चतम न्यायालय ने अपील मंजूर करते हुए अभिनिर्धारित किया कि विद्वान् कांउसेल यह बताने में असमर्थ रहा कि वादपत्र में के सभी या इनमें से किसी प्रकथन से ऐसा वादहेतुक दर्शित है जिससे कि विचारणीय विवाद्यक उद्‌द्भत होता हो। वास्तव में, कांउसेल इस अवश्यंभावी परिणाम की बाबत विवाद उठाने में असमर्थ रहे कि वादपत्र को सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन इन प्रकथनों के आधार पर खारिज किया जा सकता था।

कांउसेल ने केवल यह दलील दी कि न्यायालय ने वास्तव में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन वादपत्र को नामंजूर नहीं किया और समन जारी होने पर विचारण की आगे कार्यवाही होनी चाहिये। न्यायालय की राय में, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि विचारण न्यायालय अपने कर्तव्य पालन में असफल रहा और वादपत्र को सावधानीपूर्वक पढ़े बिना समन जारी करने की कार्यवाही की और उच्च न्यायालय ने भी इस भयंकर गलती की उपेक्षा कर दी।

चूंकि वादपत्र इस भयंकर गलती से ग्रस्त है, विचारण न्यायालय द्वारा मात्र समन जारी किए जाने के लिए यह अपेक्षित नहीं है कि विचारण न्यायालय ऐसी स्थिति में भी कार्यवाही कर सकता था जबकि किसी प्रकार का विचारणीय विवाद्यक दर्शित न किया गया हो। ऐसे वाद का जारी रखा जाना तुच्छ या परेशान करने वाली मुकदमेबाजी को लाइसेंस प्रदान करने के बराबर है। ऐसा नहीं किया जा सकता। इस बाबत कोई विवाद नहीं है कि वादपत्र में के प्रकथनों से किसी प्रकार का वादहेतुक दर्शित नहीं है, इसलिए वाद सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 23 के नियम 3-क को प्रस्तुत वाद में लागू किए जाने की बाबत विचार किए बिना सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन नामंजूर किया जा सकता है।

तंग करने वाले और सारहीन वादों की दशा में विचारण न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह ऐसी मुकदमेबाजी को न पनपने दे। यह प्रावधान इसलिए ही संहिता में दिए गए हैं।

विचारण न्यायालय को यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि यदि वादपत्र को अर्थपूर्ण न कि औपचारिक दृष्टि से पढ़ने पर यह पता चलता है कि यह प्रकट रूप से तंग करने वाला है और इसमें कोई सार नहीं है जिससे कि यह वाद लाने के स्पष्ट अधिकार को प्रकट करने का आशय नहीं रखता है तो उसे सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 के नियम 11 के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग यह सतर्कता रखते हुए करना चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि उसमें वर्णित आधार पूरा हो गया है और यदि बुद्धिमतापूर्ण प्रारूपण ने वादहेतुक की भ्रान्ति पैदा कर दी है तो इसे प्रथम सुनवाई पर पक्षकार की सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 के अधीन परिपृच्छापूर्वक परीक्षा करके प्रारम्भ में ही समाप्त कर देना चाहिए। एक क्रियाशील न्यायाधीश अनुत्तरदायी विधि-वादों का जवाब है।

विचारण न्यायालयों को प्रथम सुनवाई पर ही पक्षकार की आज्ञापक परीक्षा का आग्रह करना होगा जिससे कि झूठी मुकदमेबाजी को प्रारम्भिक प्रक्रम पर ही बन्द किया जा सके। दण्ड संहिता का अध्याय 11 भी ऐसे व्यक्तियों का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त उपाय है और उन्हें उनके विरुद्ध लागू किया जाना चाहिए।

अर्जी खारिज की गई, जब वादहेतुक प्रकट नही-

भगवती प्रसाद बनाम राजीव गांधी और धरतीपकड़ मदनलाल अग्रवाल बनाम राजीव गांधी वाले मामलों में इस मत को पुनः दोहराया था। यदि निर्वाचन अर्जी से कोई वादहेतुक प्रकट नहीं होता है, तो उसे सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 के नियम 11 के अधीन कार्यवाही के प्रारम्भ में ही संक्षिप्तत: खारिज किया जा सकता है। यदि निर्वाचन अर्जी कार्यवाही के प्रारम्भ में संक्षिप्ततः अस्वीकार की जा सकती है, तो हमें ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता है जिससे कि उसे बाद वाली कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर अस्वीकार न किया जा सके।

यदि विवाद्यक के विरचित करने के बाद निर्वाचन अर्जी में कोई आधारिक त्रुटि (वादहेतुक का अभाव) बनी रहती है, तो विरोध करने वाले प्रत्यर्थी को इस बात पर जोर देने की सदैव छूट रहती है कि निर्वाचन अर्जी आदेश 7 नियम 11 के अधीन अस्वीकार कर दी जाए और न्यायालय ऐसे आक्षेप पर विचार करते हुए अपनी अधिकारिता के भीतर ही कार्य कर रहा होगा। आदेश 7 का नियम 11 न्यायालय की शक्ति के प्रयोग पर कोई भी निर्बन्धन या परिसीमा अधिरोपित नहीं करता; वह अभिव्यक्त रूप से या आवश्यक विवक्षा द्वारा यह उपबंध नहीं करता है कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 के नियम 11 के अधीन शक्ति का प्रयोग किसी विशिष्ट प्रक्रम में ही किया जाना चाहिए।

कानूनी उपबंध द्वारा लगाए गए किसी भी निर्बन्धन के अभाव में न्यायालय को यह छूट होती है कि वह किसी भी प्रक्रम में उस शक्ति का प्रयोग करेवजबकि यह सच है कि मामूली तौर से ऐसी अर्जी से ग्रहण किए जाने पर इस आधार पर प्रारंभिक आक्षेप किया जा सकता है कि उसमें वादहेतुक का अभाव है, प्रत्यर्थी यथासंभव शीघ्र उसे उठा सकता है, किंतु यदि पक्षकार लिखित कथन फाइल करने के बाद आक्षेप करता है, तो प्रारंभिक आक्षेप की उपेक्षा की जा सकती है।

यदि निर्वाचन अर्जी से कोई वादहेतुक प्रकट नहीं होता है, तो अर्जी के ग्रहण किए जाने पर आक्षेप करने संबंधी प्रत्यर्थी का अधिकार या ऐसे आक्षेप पर विचार करने संबंधी न्यायालय की शक्ति पर प्रतिकूल रूप से प्रभाव मात्र इसलिए नहीं पड़ता है, क्योंकि वह आक्षेप लिखित कथन फाइल करने के बाद या विवाद्यक विरचित करने के बाद किया गया है। न्यायालय विवाद्यकों के स्थिरीकरण के बाद भी उसे अस्वीकार करके आदेश 7 के नियम 11 के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग करने में अपनी अधिकारिता के भीतर ही कार्य करेगा।

उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद में वाद-कारण के प्रकट नहीं होने पर वाद पत्र को खारिज किया जा सकता है। विशेष रूप से तब जब कोई अनुतोष अनुदत्त नहीं किया जा सकता हो। सिक्किम उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि-वाद खारिज नहीं किया जा सकता। यदि वाद-कारण (cause of action) स्पष्ट प्रकट हो रहा है।

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