सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 29: आदेश 6 नियम 17 के किसी भी स्तर पर संशोधन का क्या अर्थ है
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 17 की शब्दावली है कि न्यायालय किसी भी स्तर पर संशोधन कर सकता है। किंतु इसका समय समय पर न्यायलयों द्वारा मनन किया गया है। इस शब्दावली के अर्थ को समझते हुए यह आलेख है।
किसी स्टेज पर संशोधन
अभिवचनों में संशोधन किसी प्रक्रम पर किया जा सकता है और ऐसे संशोधित अभिवचनों को स्वीकार किया जा सकता है। वादपत्र का संशोधन किया जाना यदि न्याय के हित में है, तो न्यायालय वाद के किसी भी प्रक्रम पर संशोधन अनुज्ञात कर सकता है। प्रस्तावित संशोधन के सद्भावी, सुसंगत एवं पक्षकारों के अधिकारों का विनिश चयन हेतु आवश्यक होने पर ऐसा संशोधन न केवल वाद के विचारण के दौरान अपितु प्रथम या द्वितीय अपीलीय चरण पर भी न्यायालय की अनुमति से अनुज्ञेय है।
वाद के किसी प्रक्रम पर जिसमें अपील भी सम्मिलित है, अभिवचनों के संसोधन को अनुज्ञात करने के लिए न्यायालयों में निहित व्यापक विवेकाधिकार का गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्वात् न्यायिक रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए- इस प्रश्न पर विचार करते समय कि प्रस्ताविक संशोधन अनुज्ञात किया जाए या नहीं, न्यायालयों द्वारा ध्यान में रखे जाने वाली मुख्य विचारणाओं में से एक यह है कि क्या कार्यवाही में इप्सित परिवर्तन से वाद की प्रकृति और स्वरूप में इस प्रकार परिवर्तन आएगा कि अन्य पक्षकार पर घोर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और मामले में ऋजु प्रतिविरोध करने की स्थिति में नहीं होगा।
न्याय की दृष्टि में पक्षकारों के मध्य के सभी विवादों या वास्तविक झगड़ों के सुलझाने हेतु कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम पर संशोधन आवेदन प्रस्तुत किया जा सकता है और भी किया जा सकता है, किन्तु किसी पुनरीक्षण आवेदन में तभी। कोई त्रुटि हो हस्तक्षेप कर सकता है जब न्यायालय द्वारा स्वीकार आक्षेपित आदेश में।
विधि सम्बन्धी विचारण प्रारम्भ होने से तात्पर्य -
आदेश 6 नियम 17 के परन्तुक में प्रयुक्त अभिव्यक्ति विचारण प्रारम्भ होने से का तात्पर्य साक्ष्य का शपथ पत्र प्रस्तुत होने के बाद दस्तावेज को प्रमाणित करने के लिये साक्ष्य में इसे प्रथम साक्षी द्वारा प्रमाणित करने या ऐसे व्यक्ति द्वारा किसी प्रस्तुत करने या ऐसे व्यक्ति की प्रतिपरीक्षा प्रारम्भ होने के बाद न्यायालय द्वारा प्रथम बार अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करने से है। वादपत्र में संशोधन - प्रस्तावित संशोधन से कोई हानि नहीं हो रही है। ऐसी दशा में संशोधन के आवेदन सम्बन्धित साक्ष्य अभिलेख पर पहले ही आ जाते हैं केवल इसीलिए अस्वोकर नहीं। उक्त आवेदन अपीलीय स्थिति (स्टेज) पर प्रस्तुत किया गया है।
वादी ने पादपत्र में ये सब तथ्य दिये जिन पर अनुतोष मांगा गया था, किन्तु उसने उचित प्ररूप में अनुतोष नहीं मांगा। अपील के प्रक्रम पर उचित प्ररूप में अनुतोष मांगने का संसोधन पूर्णतः औपचारिक प्रकार का है। यदि अपील न्यायालय सोचता है कि उस संशोधन को प्रतिवादी से उत्तर आवश्यक है, तो स्वयं प्रतिवादी से ऐसा उत्तर प्राप्त कर स्वयं ऐसा निर्णय करना चाहिए कि क्या आगे कार्यवाही और कहाँ तक की का सकती है। ऐसी स्थिति में अधीनस्थ न्यायालय को मामला वापस भेजना आवश्यक है।
अपील के स्तर पर नई प्रार्थना (अनुतोष) जोड़ने को स्वीकृति की पुष्टि की गई, जबकि वादपत्र में उस सम्बन्धी सभी तथ्य दिए गए थे और इस बारे में विवाधक बनाकर पक्षकार ने आवश्यक साक्ष्य भी दिया। इस प्रकार पक्षकार इस मामले में सचेत व सक्रिय थे। संविदा के विनिदिष्ट अनुपालना के वाद में प्रथम अपील के दौरान प्रतिवादी द्वारा उठाई गई आपत्ति के उतर में संशोधन से संविदा की रजामंदी दर्शित हेतु की गई मांग देरी ना होने से अनुज्ञेय नहीं है।
स्वत्व की घोषणा एवं स्थायी निषेधाज्ञा के लिये प्रस्तुत वाद आरम्भिक स्टेज पर होने व अविलम्ब संसोधन हेतु आवेदन करने पर वाद की प्रकृति में परिवर्तन नहीं होने की दशा में संशोधन अनुज्ञेय है। विशिष्ट अनुपालना संविदा के वाद में वादी तत्पर के पश्चात् एवं रजामन्द शब्द संशोधन के द्वारा जोड़ना चाहता है, चाहे गये संशोधन से वाद की प्रकृति नहीं बदलती है अतः संशोधन अनुज्ञेय है।
विभाजन के वाद में वादी के समझौते से हो रही प्रतिपरीक्षा के दौरान वादी ने उसके पिता द्वारा खरीदी गई दो सम्पत्तियों के विभाजन हेतु उक्त सम्पत्तियों को पूर्व में वर्णित सम्पत्तियों के साथ जोड़ा जाने हेतु संशोधन आवेदन प्रस्तुत करते हुये प्रकट किया कि वह निरक्षर है एवं आजीविका हेतु विभिन्न स्थानों पर घूमता रहता है गलती से इन सम्पत्तियों का विवरण देने से रह गया। महिला
रामकली देवी बनाम नन्दराम मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को प्रक्रिया के नियम न्याय करने के लिये है एवं किसी पक्षकार को मात्र इसलिये कि उसके द्वारा कुछ गलती, असावधानी या किसी नियम का उल्लंघन किया है उसे न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता के आधार पर उक्त संशोधन अनुज्ञेय होना माना एवं प्रकट किया कि विभाजन के वाद में उक्त सम्पत्ति को सम्मलित किया जाने से वाद को प्रकृति नहीं बदलती।
अपीलीय आदेश जब अवैध माना गया- एक वाद को खारिज कर दिया गया था। उच्च न्यायालय ने द्वितीय अपील में इस आधार पर पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया कि उसमें संशोधन के आवेदनों के बिना विचार किए, अस्वीकार कर दिया गया था, परन्तु उच्च न्यायालय ने ऐसा कोई वर्डिक्ट नहीं दिया कि वह संशोधन आवश्यक था। अत: उच्च न्यायालय का आदेश अवैध ठहराया गया।
अग्रक्रम के लिए पड़ोसी होने के आधार पर परिसीमा के भीतर किये गये आवेदन में सह-अंशधारी होने का नया आधार जोड़ने के लिए आवेदन किया, जिसे अस्वीकार किया गया था, परन्तु पुनरीक्षण में उस आदेश को अपास्त कर संशोधन को अनुमति दी गई। एक वाद में वाद को संशोधन खर्च के संदाय पर स्वीकार किया गया, परन्तु प्रतिवादी ने आपत्ति के साथ खर्चे स्वीकार किये। ऐसी स्थिति में प्रतिवादी उस आदेश को चुनौती देने से प्रवारित (बाधित) नहीं हो जाता है। इस मामले में जो संशोधन स्वीकार किया गया था, उससे विवाद का सारा स्वरूप नष्ट हो गया। अतः अपास्त किया गया।
द्वितीय अपील में जब संशोधन अनुमेय नहीं स्थायी व्यादेश द्वारा वादी को कब्जे से हटाने से रोकने के लिए प्रतिवादी के विरुद्ध एक वाद लाया गया, परन्तु वाद पत्र में विवादित भूमि का स्पष्ट वर्णन न होने से उस स्थान की स्थिति साबित न हो सकी और वाद खारिज कर दिया गया। निचले अपील न्यायालय में वादी वादपत्र का संशोधन करने में असफल रहा। द्वितीय अपील में उसने वादपत्र से संलग्न अनुसूची को प्रतिस्थापित करने व नया विवरण देने के लिए आवेदन किया अभिनिर्धारित किया कि द्वितीय अपील के प्रक्रम पर ऐसी संशोधन नहीं किया जा सकता है।