सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 27: आदेश 6 नियम 16 के प्रावधान

Update: 2023-12-11 04:37 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 16 अभिवचन के काटे जाने से संबंधित है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 16 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-16 अभिवचन का काट दिया जाना - न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम में आदेश दे सकेगा कि किसी भी अभिवचन में की कोई भी ऐसी बात काट दी जाए या संशोधित कर दी जाए-

(क) जो अनावश्यक, कलंकात्मक, तुच्छ या तंग करने वाली है, अथवा

(ख) जो वाद के ऋजु विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली या उसमें उलझन डालने वाली या विलंब करने वाली है अथवा

(ग) जो अन्यथा न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

अभिवचन में संशोधन - (आदेश 6, नियन 16 व 17) - अभिवचन जब दोषपूर्ण हो और उनमें कोई त्रुटि हो, तो उसको दूर करना न्याय के हित में आवश्यक हो जाता है। यह संशोधन दो प्रकार का होता है-

(1) अपने प्रतिपक्षी के अभिवचन में संशोधन (आदेश 6, नियम 16)

(2) अपने स्वयं के अभिवचन में संशोधन (आदेश 6, नियम 17)

सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन किसी वाद की कार्यवाही के दौरान संशोधन करने के कई प्रावधान है।

(क) सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन विभिन्न प्रकार के संशोधनों के प्रसंग संहिता में निम्नलिखित परिस्थितियों में संशोधन के प्रावधान किये गये हैं-

1.धारा 152-निर्णय, डिक्री या आदेश में हुई लिपिकीय या गणित सम्बन्धी भूल या त्रुटि का संशोधन करना,

2. धारा 153- संशोधन करने की साधारण शक्ति

3. आदेश 1 का नियम 10 (2)-न्यायालय पक्षकारों के नाम काट सकेगा या जोड़ सकेगा।

4. आदेश 6, नियम 7 में नये व असंगत कथन जोड़ने के लिए संशोधन करने का प्रसंग आया है।

5. आदेश 6, नियम 16- अभिवचन का काट दिया जाना (विखंडन), इसे "विपक्षी के अभिवचन का अनिवार्य संशोधन" कहते हैं।

6. आदेश 6, नियम 17-अभिवचन का संशोधन-न्यायालय की अनुजा से किसी पक्षकार द्वारा स्वयं के अभिवचनों में संशोधन, इसे ऐच्छिक संशोधन कहते हैं।

7. आदेश 14, नियम 5-विवाधक (वाद प्रश्नों) का संशोधन और काट देने की शक्ति

(ख) संशोधन करने की साधारण शक्ति (धारा-153)

न्यायालयों को, किसी वाद की किसी भी कार्यवाही में यदि कोई त्रुटि या गलती हो, तो उसे दूर करने की सामान्य शक्ति धारा 153 द्वारा दी गई है, जो इस प्रकार है-

धारा 153- संशोधन करने की साधारण शक्ति-न्यायालय किसी भी समय और खर्च-सम्बन्धी ऐसी शर्त पर या अन्यथा जो वह ठीक समझे, वाद की किसी भी कार्यवाही में की किसी भी त्रुटि या गलती को संशोधित कर सकेगा, और ऐसी कार्यवाही द्वारा उठाए गए या उस पर अवलंबित वास्तविक प्रश्न या विवाद के अवधारण के प्रयोजन के लिए आवश्यक संशोधन किए जाए।

प्रतिपक्षी के अभिवचन में संशोधन - अनिवार्य संशोधन (आदेश 6, नियम 16) - यदि अपने प्रतिपक्षी के अभिवचन दोषपूर्ण या अपूर्ण या असंगत हो, तो एक पक्षकार को संहिता के अधीन तीन उपचार दिये गये हैं, जो इस प्रकार है-

(1) अभिवचन के दोषपूर्ण पदों के लिये विशिष्टियां या सुतर (बेहतर) कथनों के लिये आवेदन करना।

[आदेश 6 का नियम 5-अब लोपित कर दिया गया है।]

(2) अपने विपक्षी के वादपत्र में यदि कोई वादहेतुक प्रकट नहीं होता हो, या आदेश 7 के नियम 11 में वर्णित कोई कमियां हो, तो नियम 2 के अधीन वादपत्र को मंजूर (अस्वीकृत rejected) करने के लिये आवेदन।

(3) विपक्षी के अभिवचन आपत्तिजनक अंश को विखण्डित करने (काट देने के लिये आवेदन करना (आदेश 6, नियम 16)।

उपरोक्त तीनों मामलों में न्यायालय को स्वप्रेरणा से ऐसे दोषपूर्ण या अपूर्ण अभिवचनों को संशोधित करवाने की भी शक्तियाँ हैं, फिर भी न्यायालयों की व्यस्तता को देखते हुए स्वयं पक्षकार द्वारा आवेदन प्रस्तुत कर कार्यवाही करना उचित होगा। इस प्रकार प्रतिपक्षी के अभिवचन का संशोधन जो न्यायालय को स्वप्रेरणा से या विपक्षी के आवेदन पर [आदेश 6 के नियम 16 के अधीन] दिये गये आदेश के अधीन किया जाता है, उसे अनिवार्य संशोधन कहा जाता है।

संशोधन या काट देने की शर्ते - (नियम 16) - नियम 16 के अनुसार निम्नांकित तीन कारणों के आधार पर किसी भी प्रक्रम पर न्यायालय अभिवचन को उसको किसी बात को काट देने या संशोधित करने का आदेश दे सकता है-

(क) जो अनावश्यक, कलंकात्मक, तुच्छ या तंग करने वाली है, अथवा

(ख) जो वाद के ऋजु विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली या उसमें उलझन डालने वाली या विलंब करने वाली है, अथवा

(ग) जो अन्यथा न्यायालय को प्रक्रिया का दुरूपयोग है।

इस प्रकार इस नियम के अधीन न्यायालय को व्यापक विवेकाधिकार दिया गया है, जिसका प्रतिपक्षी लाभ उठाने के लिये न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। धारा 35-क के अनुसार ऐसे मामले में प्रतिकरात्मक खर्च भी दिलाये जाते हैं।

(क) न्यायालय द्वारा अधिकारिता का प्रयोग- न्यायालय को किसी सामग्री को असंगति के बारे में किसी महत्वपूर्ण बिन्दु को उस सामग्री को असंगत कहकर निकालने के आवेदन पर एक नियम के रूप में ही निर्णय नहीं करना चाहिये। संहिता के आदेश 6 के नियम 16 में न्यायालय को दो गई अधिकारिता ऐसी है, जिसका बहुत सावधानी और सतर्कता से प्रयोग किया जाना चाहिये।

प्रतिवाद पत्र में दिये गये अभिवचनों को तब तक नहीं काटना चाहिये, तब तक किसी युक्तियुक्त (उचित) संदेह से परे यह स्पष्ट नहीं हो जाये कि- वे अभिकथन (आरोप) जो प्रतिवादी द्वारा दिये गये हैं, ऐसे हैं कि उनसे कोई प्रतिरक्षा नहीं होती हो और उनको अभिलेख पर रहने देने से आवश्यक रूप से उस वाद का विचारण विलम्बित होता हो। आदेश 6 नियम 16 न्यायालय को असाधारण शक्ति प्रदान करती है लेकिन न्यायालय को इसका प्रयोग अति सावधानी एवं कभी- कभार ही करना चाहिये ।

विवेकाधिकार के प्रयोग के लिये मापदण्ड - अभिवचन में से असंगत और अनुचित अधिकथनों को काट देने या निकाल देने के लिये मापदण्ड यह है कि क्या वे अभिवचन उस पक्षकार के मामले को साबित करने के लिये साक्ष्य का एक अंग बन सकते हैं या नहीं? दूसरे शब्दों में, किसी अभिवचन को तब तक नहीं काटना चाहिये, जब तक कि वह नाराज करने वाली सामग्री उस वाद के सही विचारण में अनावश्यक या कलंकात्मक या प्रतिकूलता, उलझन और देरी करने वाली न हो। कोई कथन जिन पर गलत या अनुचित रूप से अभिवचनित किया जाने का आरोप लगाया गया है, वे ऐसे हैं या नहीं, यह निश्चित रूप से इस पर निर्भर करेगा कि- क्या वे इस वाद में विचार किये जाने वाले विवाद्यकों से या उस वाद के स्वरूप से संगत हैं।

जहां गलत या अनुचित रूप से अभिवचनित की गई सामग्री शेष अभिवचन में से अलग नहीं को सकती हो, तो फिर उनको काट देने का निर्देश देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनमें विचाराधीन विवाद्यक से कुछ संगति हो सकती है। एक प्रतिपक्षी के अभिवचन को काट देने को आज्ञा देने को शक्ति को साधारणतया बहुत चौकसी से प्रयोग में लेना चाहिये, क्योंकि असंगत या अनुचित सामग्री पक्षकार के मामले में आन्तरिक रूप से गुंधी हुई हो सकती है। यह नहीं है कि ऐसे अभिवचन कलंकात्मक सामग्री वाले हों।

(ख) अनावश्यक कधन - जहां कोई कथन कार्यवाही के विरुद्ध कोई प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं कर सकता हो और उसे यदि काटा नहीं जाता है तो उससे वाद में अनावश्यक रूप से देरी होती है, तो ऐसे कथन को काट देना चाहिये। जहां इस मामले के तथ्यों पर यह पाया गया कि- प्रतिरक्षा केवल बिक्री-कर को वापसी की एक समाश्रित आशा थी और उससे कोई मांग या मुजरा के लिये वादहेतुक नहीं बनता है और प्रतिवादी अनावश्यक, असंगत, तुच्छ तथा उलझन में डालने वाले अभिवचनों में उलझ गया है, जो विचारण को लम्बा व अनिश्चित बना देगा। अतः प्रतिरक्षा काट दी गई। अभिवचन में दिये गये अधिकधनों को केवल इसीलिये नहीं काट दिया जावेगा, क्योंकि वे अनावश्यक हैं। परन्तु यदि विवादग्रस्त साक्ष्यिक तथ्यों पर गलत विवाद्यक बना दिये गये हो, तो न्यायालय उनको आदेश 14 के नियम 5 के अधीन काटने से मना नहीं कर सकता। अभिवचनों को इसी कारण से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पक्षकार उन आरोपों को साबित करने में पूर्णत असफल रहेगा। प्रतिवाद पत्र में दिये गये कथा असंगत नहीं हैं, उनको काटना प्रतिरक्षा से मना करना होगा। इस नियम को इस आधार पर लागू नहीं किया जा सकता कि इनसे वादी की प्रतिष्ठा पर प्रभाव पड़ सकता है।

(ग) असंगत तथा कलंकात्मक कथन- आदेश 6 के नियम 16 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग अत्यधिक सावधानी और चौकसी से करना चाहिये। ऐसा नहीं है कि प्रत्येक कलंकात्मक अभिकथन काट दिये जाने योग्य है। न्यायालय को इस प्रश्न पर विचार करना चाहिये कि क्या वे कथन किसकी शिकायत की गई है, वादी के दावा प्रतिवाद को स्थापित करने के लिये आवस्यक हैं या नहीं। यदि वे आवश्यक हैं तो ऐसे कथन केवल कलंकात्मक होने से ही नहीं काटे जा सकते हैं। यह न्यायालय का कर्तव्य है कि सार्वजनिक नैतिक हित में असंगत और कलंकात्मक अभिकथनों को काट दिया जावे।

कलंकात्मक का अर्थ- एक वाद में एक विक्रय-पत्र को अपास्त करने का वाद इस आधार पर लाया गया कि यह प्रतिफल द्वारा समर्थित नहीं है और प्रतिवादी द्वारा प्रपीड़न तथा कपट से प्राप्त कर लिया गया था। वादपत्र के कुछ पैराओं में प्रतिवादी की राज्य के प्रशासन में वास्तविक स्थिति तथा उस स्थिति का लाभ उठाते हुए उसके द्वारा शोषण करने का कथन केवल अनावश्यक ही नहीं परन्तु कलंकात्मक भी माना गया।

शपथ पत्र में कलंकात्मक कथन- शपथपत्र में दिये गये कलंकात्मक अभिकधनों को यदि वे असंगत हो, तो धारा 151 सि. प्र. सं. के अधीन निकाला जा सकता है।

(प) शब्दावली वाद के प्रऋजु (सही) विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव या उलझन में डालने वाली या विलम्ब करने वाली बात का अर्थ व महत्त्व आदेश 6 के नियम 16 (ख) में प्रयुक्त इस शब्दावली पर पटना उच्च न्यायालय की खण्डपीठ में विचार किया गया और अभिनिर्धारित किया कि सत्य है कि प्रतिरक्षा के विभिन्न आपारों पर असंगत कथनों को आदेश 8 के नियम 1 के द्वारा अनुज्ञेय किया गया है। बहुत पहले 1978 में ही बेर्डन बनाम ग्रीन वुड के मामले में ऐसे विशेषाधिकार को मान्यता दे दी गई थी।

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 के नियम 16 के अधीन न्यायालय को अभिवचन में से ऐसी सामग्री को काट देने की शक्ति दी गई है, जो उस वाद के ऋजु विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। जो पक्षकार विभिन्न और विरोधी तथ्यों पर आधारित पूर्णत असंगत कथन कहता है, और साक्ष्य देने के समय उसे साबित करने के लिये भी परस्पर विरोधी बातें (एक साथ गर्म व ठण्डी सांस में) कहेगा, जिनसे उन कथनों की सत्यता में विश्वास डगमगायेगा, तो ऐसे पक्षकार के लिये कुछ मात्रा में यह नियम भयानक भी है।

इन्हीं कारणों से असंगत प्रतिरक्षा जो परस्पर विरोधी तथ्यों पर निर्भर होती है, के लिये साधारणतया अनुमति नहीं दी जाती। यदि प्रतिवादी वादग्रस्त भवन वादी के स्वामित्व को चुनौती देता है, तो उसी समय वह यह अभिवचनित नहीं कर सकता कि किरायेदारी की विधि के अनुसार उसकी सहमति नहीं की गई थी।

कोई अभिवचन उलझन में डालने वाला है या नहीं, यह प्रश्न न्यायालय को प्रत्येक मामले में उसके तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार तय करना होगा। कोई दावा या प्रतिरक्षा, जिसका उपयोग कोई पक्षकार करने के लिये हकदार है या कोई अभिवचन जो असंगत प्रकथनों से अन्तर्विष्ट है, उलझन में डालने वाला (Embarrassing) होता है। जहाँ कोई अभिकथन कार्यवाही के लिये कोई प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं कर सकता और यदि उसे काटा नहीं जावे, तो वह वाद के निर्णय में अनावश्यक रूप से विलम्ब करें, तो उसे काट दिया जाना चाहिये।

एक मामले में प्रतिवादी द्वारा विरोधी-तथ्यों पर लिये गये आधारों को देखते हुए कि उसने वादी के पक्ष में वचन-पत्र निष्पादित नहीं किया है और फिर यह कथन कि यह एक बेनामी संव्यवहार है, इन कथनों को काटा जाना उचित था।

(ङ) बेनामी का तर्क- एक प्रोनोट के आधार पर किए गए वाद में प्रतिवादी ने तर्क दिया है कि- (1) उसने प्रोनोट निष्पादित नहीं किया और (2) वादी अपने पिता (वादी) का बेनामीदार था। दोनों तर्क असंगत होने से आदेश 6 नियम 17 के अधीन काटे जा सकते हैं। इसके साथ परकाम्य लिखत अधिनियम, 1881 को धारा 82 (ग) के अधीन बेनामी की प्रतिरक्षा नहीं उठाई जा सकती है। अब बेनामी संव्यवहार (निषेध) अधिनियम, 1988 के द्वारा बेनामी संव्यवहारों को अवैध तथा दण्डनीय बना दिया गया है।

(ग) शपथ पत्र में से कलंकात्मक सामग्री को काट देना हालांकि आदेश 6 के अर्थ में शपथ पत्र अभिवचन में नहीं आता, फिर भी न्यायालय को शपथ पत्र में कलंकात्मक सामग्री को काट देने को अन्तर्निहित जय वादी ने वाद पत्र में यह कथन किया कि विभाजन का दस्तावेज कपटपूर्वक उसके अंगूठे का चिन्ह शक्ति है।

(छ) अभिवचन को निकालना (काट देना) (आदेश 6, नियम 14)- केवल ऐसे अभिवचनों को निकाला जा सकता है जो अनावश्यक, कलंकात्मक, तुच्छ या तंग करने वाला है अथवा जो वाद के ऋजु विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला है या जिससे अन्यथा न्यायालय की प्रक्रिया का दुरूपयोग होता है। अभिवचन में यदि विवाद का कारण दर्शित नहीं है तो ऐसे अभिवचन को हटाया जा सकता है। मूल तथ्यों का समावेश नहीं किया जाना भी अभिवचन को कमजोर करता है।

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