सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 21: आदेश 6 नियम 7 के प्रावधान

Update: 2023-12-06 10:30 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 7 फेरबदल से संबंधित है। अर्थात इस नियम में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कोई भी अभिवचन में कोई फेरबदल नहीं होगा जब तक अदालत उसमें संशोधन स्वीकार नहीं करे। इस आलेख के अंतर्गत इस ही नियम पर चर्चा प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-7 फेरबदल (Departure)- किसी भी अभिवचन में दावे का कोई नया आधार या तथ्य का कोई अभिकथन, जो उसका अभिवचन करने वाले पक्षकार के पूर्वतन अभिवचनों से असंगत हो, बिना संशोधन किए न तो उठाया जाएगा और न अन्तर्विष्ट होगा।

इस नियम 7 के प्रारम्भ में प्रयोग किये गये शब्द "अभिवचन" से यहां पश्चात्वर्ती या अतिरिक्त अभिवचन से तात्पर्य है। अतः वादी अपने प्रत्युत्तर (Rejoinder) में ऐसे तथ्यों का अभिवचन नहीं कर सकता, जो मूल वादपत्र से असंगत हैं। राज्य सरकार उच्चतम न्यायालय में प्रथम बार ऐसे तर्क या तथ्य का सहारा (stand) नहीं ले सकती है जो अधिनस्थ न्यायालय में उठाये गये तथ्यों से असंगत हो इसके लिये उसे आदेश 6 के नियम 17 के अधीन न्यायालय से अनुमति लेकर अपने अभिवचन में संशोधन करना होगा। वादपत्र के संशोधन के अनुसरण में अतिरिक्त लिखित कथन देने का निर्देश दिया गया। परन्तु मूल लिखित-कथन से असंगत और नये अभिवाक् प्रस्तुत किये गये। माना गया कि आदेश 6 के नियम 7 के अधीन यह अभिवचन से अलग हटना (Departure) है, अत: आदेश 6 के नियम 17 के अधीन न्यायालय से इसके लिये अनुमति लेनी होगी।

इस प्रकार अभिवचन में यदि कोई भी पक्षकार नया आधार या तथ्य सम्मिलित करना चाहता है, जो पहले किए गए अभिवचन से असंगत हो, तो उसे आदेश 6 के नियम 17 की शर्तों के अनुसार न्यायालय से अनुमति लेनी होगी और ऐसा संशोधन स्थापित सिद्धान्तों के अनुसार ही संभव होगा, जिसका हम आगे नियम 17 में वर्णन कर रहे हैं।

आनुकल्पिक तथा असंगत अभिकधन (Alternative & Inconsistent allegations) - वादी अपने वादपत्र में आनुकल्पिक (वैकल्पिक) अभिवचन कर सकता है और जब पहला अभिवाक असफल हो जाय, तो वह दूसरे अभिवाक पर निर्भर कर सकता है।

वादी मकान मालिक ने विवादग्रस्त भवन के बारे में किसी अधिनियन के लागू न होने का दावा किया और साथ में वैकल्पिक रूप से किराया (भाटक) की बकाया राशि के भुगतान में व्यतिक्रम करने के आधार पर किरायेदार की बेदखली की मांग भी की। यह नहीं कहा जा सकता कि वादी वैकल्पिक मामला प्रस्तुत नहीं कर सकता। चिरभोग द्वारा सुखाधिकार के साथ स्वामित्व का आनुकल्पिक अभिवचन किया जा सकता है। भागीदार फर्म के विघटन के बाद में फर्म पहले से ही विपटित (भंग) हो गई है, यह अभिवाक उठाया जा सकता है।

शब्द "आनुकल्पिक" यह प्रदर्शित करता है कि किसी व्यक्ति को चुनने की इच्छा या पसन्द (Choice) है कि वह किसी एक का चरण (चुनाव) करे। जब उसने एक बार अपनी पसन्द का प्रयोग कर लिया, तो वह बाद में उस पसन्द को छोड़कर मनमरजी से दूसरी पसन्द के लिये विवाद नहीं कर सकता। जहां वादी ने अपने वाद में आनुकल्पिक अनुतोष की मांग की और उसे सम्पूर्ण विचारण के बाद उनमें से एक प्रदान कर दी गई, तो वह अपील में दूसरे आनुकल्पिक अनुतोष की मांग नहीं कर सकता।

ऐसा करना पक्षकार की पुनः और मनमरजी को प्रोत्साहन देना होगा। संविदा के अनुसार दिये गये सामान के मूल्य की वसूली के वाद में पारा 70 भारतीय संविदा अधिनियम के अधीन आनुकल्पिक रूप से कहा गया कि प्रदाय (सप्लाई) मुफ्त नहीं किया गया था। इस आनुकल्पिक अनुतोष की मांग को पारा 70 की शर्तों का पूरा उल्लेख नहीं करने से अधूरा माना गया।

जब संशोधन की इजाजत दी गई वादपत्र में अन्तर्विष्ट प्रार्थना साधारण है और उसमें केवल नुकसानी का ही दावा किया गया है। अतः सभी अभिकथन जो संविदा भंग के लिए नुकसानी के दावे को कायम रखने के लिए आवश्यक हैं, पहले से ही वादपत्र में मौजूद हैं। केवल यह अभिकथन नहीं कि वादी, अनुकल्पतः, प्रतिवादियों द्वारा माल परिदत्त न किये जाने से संविदा भंग के लिए नुकसानी का दावा करने का हकदार है।

पक्षकार दो पारस्परिक विरोधी कथन एक साथ नहीं कह सकते। अतः आनुकल्पिक और असंगत कथन कहने की अनुमति नहीं दी जा सकती। यदि आनुकल्पिक रूप से कथन किया गया हो, तो मालिक के रूप में कथन के साथ-साथ उस भूमि पर सुखाचार के अधिकार का कथन उठाने की अनुमति दी जा सकती है। एक वाद में दो आनुकल्पिक आधारों पर सहारा लिया गया कि यह सम्पत्ति का अन्तरण लेनदारों को असफल करने या विलम्ब करने के लिए किया गया था या कि यह विक्रय पत्र फर्जी था। क्योंकि विक्रय पत्र का फर्जी होना साबित नहीं हुआ, केवल इसी कारण से वादी को वाद से बाहर नहीं किया जा सकता।

अभिवचन में संशोधन द्वारा आनुकल्पित कथन सम्मिलित करने की अनुमति उस समय दे देनी चाहिए, जबकि वाद में वादहेतुक मौजूद हो। असंगत तथ्यों का अभिवचन किया जा सकता है और आनुकल्पिक अनुतोष की मांग की अनुमति दी जा सकती है, क्योंकि इससे दूसरा दावा लाने की आवश्यकता नहीं रहेगी।

आनुकल्पिक मानते ही उत्पन्न करने वाले तथ्य जब वादपत्र में दिये गये हैं और ऐसा आनुकल्पिक मामला प्रतिवादी ने स्पष्ट रूप से वाद के दावे का उत्तर देते हुए उठाया है, तो न्यायालय उस आनुकल्पिक मामले के आधार पर वादी को अनुतोष दे सकता है, चाहे वादपत्र में ऐसा मामला नहीं बनाया गया था। जब बादी ने अपने स्वामित्व के आधार पर कब्जा बताया, अतः कब्जे के प्रश्न पर विचार नहीं किया गया, तो अब वादी का यह आनुकल्पिक कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता कि यदि वह अपना पुराना कब्जा साबित कर देता है, तो उसे कब्जा दिलाया जाए।

विधि में ऐसा कोई उपबन्ध नहीं है, जो वादी को उसे प्राप्त अनेक अधिकारों पर आनुकल्पिक रूप से निर्भर करने और उनके अनुसार आनुकल्पिक अनुतोष की मांग करने से मना करता हो। इसी प्रकार वादी तथ्यों के आधार पर असंगत दावे की मांग भी कर सकता है, बशर्ते कि एक मामले को साबित करने वाली साक्ष्य उस अनुतोष को ही नष्ट न कर दे।

उदाहरण के लिये एक रिट याचिका में विलम्ब हो गया या वह अपरिपक्व है। पूर्णतः और एक दूसरे को असंगत बनाने वाले आनुकल्पिक कथन स्वीकार नहीं किये जा सकते। पर तथ्यों पर आधारित असंगत प्रतिरक्षाओं की साधारणतया अनुमति नहीं है। एक बेदखली के वाद में जब प्रतिवादी परिसर (भवन) के मालिक के स्वामित्व को चुनौती देता है वह यह चुनौती नहीं दे सकता कि किरायेदारी को विधि के अनुसार समाप्त नहीं किया गया।

प्रतिकूल कब्जे के अभिवचन का अभाव परिसीमा सम्बन्धी विवाद्यक में प्रतिकूल कब्जे का प्रश्न सम्मिलित नहीं होता-

मोहम्मद अब्दुल कादिर बनाम दी अंजुमन मोनिया फकीरा में पैरा 22 में इस न्यायालय ने निम्न प्रकार टिप्पणी की है:

हम यह भी निर्दिष्ट करेंगे कि प्रतिवादी अंजुमन ने अपने लिखित कथन में प्रतिकूल कब्जे का विनिर्दिष्ट रूप से अभिवचन नहीं किया और प्रतिवादी अंजुमन को यह अनुमति नहीं दे सकते कि वह इस प्रक्रम पर प्रथम बार प्रतिकूल कब्जे का अभिवचन करे।

एस एन करीम बनाम मुसम्मात बीबी सकीना में उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने निम्नलिखित टिप्पणी की:-

किन्तु अनुकल्पी दावे को स्पष्ट रूप से किया जाना चाहिये और सिद्ध किया जाना चाहिये। प्रतिकूल कब्जा पर्याप्त रूप से निरन्तर, प्रचारित और विस्तृत होना चाहिये और यह प्रदर्शित करने के लिए कि कब्जा कब से प्रतिकूल है, कम-से-कम अभिवचन किया जाना तो आवश्यक है ही जिससे प्रभावित पक्षकार के विरुद्ध परिसीमा के प्रारम्भिक बिन्दु का पता लगाया जा सके। अनुतोष खण्ड में मात्र यह सुझाव कि अनेक 12 वर्षों से अविरत कब्ज़ा है या वादी को "पूर्णतः हक" अर्जित हो गया है, ऐसे अभिवचन करने के लिए पर्याप्त नहीं। लम्बे समय से कब्ज़ा प्रतिकूल कब्जा ही हो यह आवश्यक नहीं और खण्ड अभिवचन का प्रतिस्थान नहीं है।

वासुदेव प्रसाद सिन्हा बनाम गेन्दा महतो में उच्चतम न्यायालय ने, न्यायालयों को अभिवचन के अभाव में प्रतिकूल कब्जे के प्रश्न पर विचार करने से वर्जित किया है।

उक्त केस का पैरा सं. 6 निम्न प्रकार है:-

उच्च न्यायालय के विद्धान न्यायाधीशों का आदर करते हुए हम करेंगे कि उन्होंने प्रतिकूल करने के प्रश्न के अभिवचनों पर उचित विचार नहीं किया। लिखित कथनों में परिसीमा से सम्बन्धित अभिवचन पैरा 2 में अन्तर्पिष्ट था जिसे पहले ही पुनः उद्‌धृत किया जा चुका है। इस अभिवचन को प्रतिकूल कब्जे द्वारा अर्जित स्थायी किरायेदारी के अधिकार की प्रतिरक्षा में किया गया अभिवचन नहीं माना जा सकता। प्रतिवादियों के लिए यह अनिवार्य था कि वे यह दावा स्थापित करने के लिए कि स्थायी किरायेदारी के अधिकार किसी कथित या विनिर्दिष्ट कालावधि हेतु विहित किये जा रहे हैं और वे विहित कालावपि तक निरन्तर तथा अविरत और विरोधी कब्जे के कारण किरायेदार हो गये, विनिर्दिष्ट और स्पष्ट रूप से कथन करते।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रतिकूल कब्जे के अभिवचन में विहित कालावपि के लिए वादी के विरुद्ध विरोधी अविरत निरन्तर और प्रकट प्रतिकूल कब्जे के प्रकथन होने चाहिए और जब तक लिखित कथन में उपर्युक्त वर्णित 2 हो तब तक प्रतिकूल कब्जे के किसी अभिवचन का अनुमान नहीं किया जा सकता। मात्र इसलिए कि प्रतिवादी मालिक के रूप में 1948 से कब्जे का दावा करते हैं इस बात को प्रतिकूल कब्जे का अभिवचन नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार मात्र इसलिए कि एक अभिवचन किया गया है कि वाद समय-वर्जित है, उसे प्रतिकूल कब्जे का अभिवचन नहीं माना जा सकता।

अतः मुझे विश्वास है कि विनिर्दिष्ट अभिवचन के अभाव में प्रतिकूल कब्जे सम्बन्धी विवाद्यक विरचित न करके निचले न्यायालय ने कोई गलती नहीं की है और परिसीमा विषयक विवाद्यक में प्रतिकूल कब्जे का विवाद सम्मिलित नहीं हो सकता था। मेरा यह भी विचार है कि दोनों निचले न्यायालयों ने परिसीमा सम्बन्धी विवाद्यक पर सही निष्कर्ष दिया है और उसे दूषित करने वाली कोई शिथिलता प्रदर्शित नहीं की है। यह स्पष्ट है कि वाद समय के भीतर था और यह सिद्ध करना कि यह समय वर्जित था, प्रतिवादी का कार्य था।

कब्जे की वापसी के वाद में प्रतिकूल कब्जे का अभिवचन-जब ऐसा कथन नहीं किया गया, तो अभिवचन के अभाव में कब्जे की डिक्री नहीं दी जा सकती।

स्वत्याधिकार (टाइटिल) की घोषणार्थ वाद- असंगत अभिवचन

प्रतिवादी ऐसे वाद में दो असंगत अभिवचनों का सहारा लेकर उस वाद का प्रतिरोध कर सकता है। प्रतिवादी एक ओर बेनामी संव्यवहार का तर्क उठाता है, तो दूसरी ओर लम्बे उपभोग (long user) का। दोनों कथन चलने योग्य हैं। जहां वादी ने वादपत्र में स्वामित्व का अधिकार मांगा है, तो वह अपील के प्रक्रम पर अब गटर के बहाव के बारे में चिरभोगाधिकार की मांग के लिए वादपत्र में संशोधन नहीं कर सकता।

दो असंगत अधिकारों के अभिवचन का प्रभाव स्वामित्व और सुखाधिकार दोनों असंगत अधिकार हैं और दोनों एक व्यक्ति में विद्यमान नहीं रह सकते। एक सुखाचार के सृजन और अस्तित्व के लिए अधिष्ठायी और अनुसेवी दोनों सम्पतियों का होना आवश्यक है। तभी कोई व्यक्ति चिरभोग द्वारा सुखाधिकार का दावा कर सकता है, जब वह इन दोनों का स्वामी हो। वादपत्र में यह अनुमेय है कि स्वामित्व तथा सुधाधिकार के आनुकल्पिक कथन दिये जाएं, परन्तु यह आवश्यक है कि वादी उनमें से एक पर ही साक्ष्य के प्रक्रमया बाद के प्रक्रम में जोर दे।

अतः जहां वादी उसकी सम्पत्ति की ओर जा रहे रास्ते पर सुखाधिकार का दावा करते हुए आज्ञापक और शाश्वत व्यादेश के लिए वाद फाइल करता है, जिसमें वह रास्ते की वापसी और उसे हानि पहुँचाने में रोकने का दावा करता है। परन्तु बाद में यह स्वीकार करता है कि यद्यपि वह सम्पत्ति जिसमें होकर वह मार्गाधिकार का दावा कर रहा है, उसी की है, तो उसका यह मामला कि वह चिरभोग से उस सम्पति में सुखाधिकार रखता है, स्वीकार नहीं किया जा सकता।

दावे या प्रतिरक्षा का नया आधार उठाने की अनुज्ञेयता - एक व्यवहार वाद में पक्षकार अपने अभिवचन से बाध्य होते हैं और कोई पक्षकार किसी मामले को साबित करने के लिये तभी साक्ष्य दे सकता है, जबकि वह अभिवचन में दिया गया हो। परन्तु अभिवचन में नहीं दिये गये किसी नये मामले के लिये उसे साक्ष्य देने की अनुमति नहीं दी जा सकती। बहस के प्रक्रम पर पहली बार नया मामला (तर्क) उठाने की अनुमति नहीं दी गई।

एक वचन-पत्र पर आधारित वाद में जब वादी द्वारा लिखत में बताये गये व अभिवचन में दिये गये प्रतिफल को सच्चा नहीं पाया गया, तो वादी नये प्रतिफल का अभिवचन नहीं कर सकता। जब वादी ने अपने अपमान सम्बन्धी मामले में वादपत्र में विशेष नुकसानी का कोई दावा नहीं किया, तो इसके लिये वास्तविक आर्थिक हानि होने की साक्ष्य देना वादी के लिये न्याय संगत नहीं माना गया। ऐसी साक्ष्य पर विचार कर निर्णय देने में अधीनस्थ न्यायालयों की त्रुटि मानी गई।

अभिवचन और सबूत के बीच भिन्नता होना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के विपरीत है। इससे विस्मय तथा उलझन उत्पन्न होती है और इसलिये इसका समर्थन नहीं किया जाता। यह नियम इसलिये निर्धारित किया गया, ताकि कोई भी पक्षकार उसके द्वारा अभिवचनित बात को बदल न देवे।

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