सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 61: आदेश 11 नियम 19 से 23 तक के प्रावधान

Update: 2023-12-30 05:12 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) का आदेश 11 परिप्रश्न एवं प्रकटीकरण से संबंधित है। इस आलेख के अंतर्गत संयुक्त रूप से नियम 19,20,21,22 एवं 23 पर विवेचना की जा रही है।

नियम-19 सत्यापित प्रतियां (1) जहां किन्हीं कारबार की बहियों के लिए आवेदन किया गया है यहां यदि न्यायालय यह ठीक समझे तो वह मूल बहियों के निरीक्षण का आदेश देने के बजाय उनमें की किन्हीं प्रविष्टियों की प्रति देने के लिए और किसी ऐसे व्यक्ति के, जिसने मूल प्रविष्टियों से प्रति की तुलना कर ली है, शपथपत्र द्वारा उन प्रविष्टियों के सत्यापित किए जाने के लिए आदेश दे सकेगा और ऐसे शपथपत्र में यह कथन होगा कि मूल बही में कोई उद्घर्षण, अन्तरालेखन या परिवर्तन है या नहीं और है तो कौन से हैं, परन्तु ऐसी प्रति के दिए जाने पर भी न्यायालय उस बही के निरीक्षण के लिए आदेश दे सकेगा जिससे प्रति तैयार की गई थी।

(2) जहां निरीक्षण के आदेश के लिए आवेदन पर किसी दस्तावेज के बारे में विशेषाधिकार का दावा किया जाता है यहां न्यायालय के लिए यह विधिपूर्ण होगा कि वह विशेषाधिकार के दावे की विधिमान्यता का विनिश्चय करने के प्रयोजन से दस्तावेज का, यदि यह राज्य के विषयों से सम्बन्धित दस्तावेज न हो तो निरीक्षण करे।।

(3) न्यायालय वाद के किसी पक्षकार के आवेदन पर किसी भी समय और चाहे दस्तावेजों के शपथपत्र का पहले ही आदेश किया या दिया जा चुका हो या नहीं, किसी भी अन्य पक्षकार को शपथपत्र द्वारा यह कथन करने की उससे अपेक्षा करने वाला आदेश कर सकेगा कि विनिर्दिष्ट एक या अधिक दस्तावेज जिसे आवेदन पत्र में विनिर्दिष्ट किया जाएगा, उसके कब्जे या शक्ति में है या है, किसी समय रही है या रही हैं, और यदि अब उसके कब्जे में नहीं है तो उसे या उन्हें उसने कब अलग किया और उसका या उनका क्या हुआ। ऐसा आवेदन यह कथित करने वाले शपथपत्र द्वारा किया जाएगा कि अभिसाक्षी को विश्वास है कि जिस पक्षकार के विरुद्ध आवेदन किया गया है, उसके कब्जे या शक्ति में यह दस्तावेज है या वे दस्तावेजें हैं या किसी समय थी या थी जो आवेदन में विनिर्दिष्ट की गई है या की गई है, और वाद में प्रश्नगत बातों से या उनमें से कुछ से यह या वे सम्बन्धित है या है।

नियम-20 समयपूर्व प्रकटीकरण - जहां कोई पक्षकार जिससे किसी प्रकार का प्रकटीकरण या निरीक्षण चाहा गया है, उसके या उनके किसी भाग के बारे में आक्षेप करता है, वहां यदि न्यायालय का समाधान हो जाता है कि चाहे गए प्रकटीकरण या निरीक्षण का अधिकार वाद में विवादास्पद किसी विवाद्यक या प्रश्न का अवधारण पर निर्भर करता है या किसी अन्य कारण से यह वांछनीय है कि वाद में विवादग्रस्त किसी विवाद्यक या प्रश्न का अवधारण प्रकटीकरण या निरीक्षण के अधिकार का विनिश्चय करने से पहले किया जाना चाहिए तो वह आदेश दे सकेगा कि ऐसे विवाद्यक या प्रश्न का अवधारण पहले किया जाए और प्रकटीकरण तथा निरीक्षण के प्रश्न को आरक्षित रख सकेगा।

नियम-21 प्रकटीकरण के आदेश का अननुपालन- [(1)] जहां कोई पक्षकार परिप्रश्नों का उत्तर देने या दस्तावेजों के प्रकटीकरण या निरीक्षण के किसी आदेश का अनुपालन करने में असफल रहता है वहां यदि वह वादी है तो वह इस बात के लिए दायी होगा कि उसका वाद अभियोजन के अभाव में खारिज कर दिया जाए, और यदि वह प्रतिवादी है तो वह इस बात के लिए दायी होगा कि यदि उसने कोई प्रतिरक्षा की है तो वह काट दी जाए और वह ऐसी स्थिति में रख दिया जाए मानो उसकी प्रतिरक्षा न की गई हो और परिप्रश्न करने वाला या प्रकटीकरण या निरीक्षण चाहने वाला पक्षकार न्यायालय से उस भाव के आदेश के लिए आवेदन कर सकेगा; और 1 [ पक्षकारों को सूचना देने के पश्चात् और उनको सुनवाई के लिए युक्तियुक्त अवसर देने के पश्चात् ऐसा आदेश ऐसे आवेदन पर तदनुसार किया जा सकेगा] ।

(2) जहां किसी वाद को खारिज करने का कोई आदेश उपनियम 1 के अधीन किया जाता है वहां वादी उसी वादहेतुक पर नया वाद लाने से प्रवारित किया जाएगा।

नियम-22 परिप्रश्नों के उत्तरों का विचारण में उपयोग- कोई भी पक्षकार परिप्रश्नों के लिए दिए गए विरोधी पक्षकार के उत्तरों में से किसी एक या अधिक का या उत्तर के किसी भाग का, अन्य उत्तरों या ऐसे पूरे उत्तर को पेश किए बिना, वाद के विचारण में साक्ष्य में उपयोग कर सकेगा: परन्तु सदा ही यह कि ऐसी दशा में न्यायालय उन उत्तरों को पूर्णत: देख सकेगा और यदि उसकी यह राय है कि उनमें से कोई अन्य उत्तर, पेश किए गए उत्तरों से ऐसे संसक्त है कि अन्तिम वर्णित उत्तरों का उनके बिना उपयोग नहीं करना चाहिए तो वह उनके पेश किए जाने के लिए निदेश दे सकेगा।

नियम-23 आदेश अवयस्क का लागू होना- यह आदेश अवयस्क वादियों और प्रतिवादियों को और निर्योग्यताधीन व्यक्तियों के वाद-मित्रों और वादार्थ संरक्षकों को लागू होगा।

नियम 19 में कुछ दस्तावेजों की सत्यापित प्रतियां देने की व्यवस्था है जैसे कि व्यापार का बही खाता। भारतीय साक्ष्य आधिनियम की धारा 162 राज्य के कार्यकलाप संबंधी दस्तावेज का न्यायालय द्वारा निरीक्षण वर्जित करती है। उच्चतम न्यायालय ने एक वाद में इस विवादास्पद प्रश्न पर विचार कर निर्णय दिया कि -जब साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 के अधीन विशेषाधिकार की मांग की जाती है, तो न्यायालय की शक्ति यह जांच करने तक सीमित है कि क्या वह दस्तावेज धारा 123 में वर्णित प्रकार की है। जब एक बार यह तय हो जाय कि वह उस धारा में आती है, तो क्या उसे न्यायालय में पेश किया जाना चाहिये या नहीं, इसका निर्णय एक मात्र लोकाधिकारी में निहित होगा और न्यायालय उस निर्णय की पृष्ठभूमि में नहीं जा सकेगा।

इस प्रकार यह जाँच केवल इसी प्रश्न तक सीमित रहेगी कि क्या प्रश्नगत दस्तावेज राज्य के क्रियाकलाप से सम्बंधित है या नहीं। नियम 19(2) में इसी निर्णय को संशोधन द्वारा अधिनियमित किया है, जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 162 को तात्विक रूप से निरसित करती है।

नियम 20 का उद्देश्य न्यायालय को प्रकटीकरण के प्रयोजन से वाद के किसी विवाद्यक (वादप्रश्न) को तय करने के लिए समर्थ बनाना है, न कि वाद स्वयं को। न्यायालय के लिए, येनकेन, यह आवश्यक नहीं है कि जब तक उस वादप्रश्न का निर्णय न हो, वह प्रकटीकरण को स्थगित कर दे। यह न्यायालय के विवेकाधिकार का मामला है कि किसी मामले के तथ्यों के आधार पर, वह ऐसा स्थगन करे। जो प्रश्न इस प्रक्रम पर पर्याप्त रूप से तात्विक नहीं हो, तो उसे अपरिपक्व कहा जायेगा।

आदेश 11 का नियम 21 दण्डनीय उपबंध है, जो नियम 11, 12 और 18 का पालन नहीं करने पर लागू होता है। इस नियम के उपबंधों को कठोरता से सभी आवश्यक शर्तें पूरी होने पर ही प्रयोग में लेना चाहिये। नियम 21 में उपनियम (1) 1976 के संशोधन द्वारा वादी या प्रतिवादी को नोटिस देकर उसे सुनवाई का एक अवसर देने की व्यवस्था की गई है और नया उपनियम (2) जोड़ा गया है, जिसके अनुसार इस नियम के अधीन किसी वाद को खारिज कर देने पर वादी को उसी वादहेतुक पर नया वाद लाने से प्रवारित किया गया है।

दण्डनीय उपबंध और प्रक्रिया- आदेश 11 का नियम 21 इस प्रकार का दण्डनीय उपबंध है।

इसमें (i) परिप्रश्नों का उत्तर देने का आदेश (नियम 11), या (ii) दस्तावेजों के प्रकटीकरण के आदेश (नियम 12), या (iii) दस्तावेजों के निरीक्षण के आदेश (नियम 18) की अनुपालना करने में असफल रहने पर निम्न दाण्डिक स्वरूप की कार्यवाही की जावेगी-

(i) वादी के असफल रहने पर- अभियोजन के अभाव में वाद खारिज कर दिया जाएगा।

(ii) प्रतिवादी के असफलता पर- उसकी प्रतिरक्षा काट दी जाएगी।

इस नियम के अधीन आदेश करने के लिए निम्न प्रक्रिया होगी-

(1) परिप्रश्न, प्रकटीकरण या निरीक्षण चाहने वाले पक्षकार को इस नियम के अधीन आवेदन करना होगा,

(2) पक्षकारों को सूचना दी जायेगी और सुनवाई का अवसर दिया जायेगा।

आदेश 11, नियम 21 एक दाण्डिक उपबंध - यह नियम एक अत्यधिक दाण्डिक उपबंध को अधिनियमित करता है, अतः किसी पक्षकार को इसके अधीन दण्डित करने से पहले इसके प्रयोग के लिए आवश्यक शर्तों का स्पष्ट रूप से पूरा होना आवश्यक है।

दस्तावेज पेश करने से मना करने का प्रभाव - आदेश 11 के नियम 21 के अर्थ में कुछ दस्तावेजों को पेश करने से मना करना बिलकुल ही कोई गलती नहीं है। अतः इस नियम में विहित (निर्धारित) दाण्डिक परिणामों नहीं किया जा सकता।

नामों को अधिकारिता-विहीन आदेश-अपील- इस मामले में जो आदेश, आदेश 11 के नियम 21 के अधीन किया गया बताया गया है और जिसके द्वारा प्रतिरक्षा को काट दिया गया है, यह आदेश बिना अधिकारित के है। अतः आदेश 43, नियम 1 के अधीन अपील चलने योग्य है।

दस्तावेजों का प्रस्तुतीकरण-

न्यायालय द्वारा प्रतिकूल उपधारणा - आदेश 11, नियम 12, 14 व 5 सी पी सी के तहत न्यायालय द्वारा आदेशित दस्तावेजात के प्रस्तुति के आदेश को अनुपालना में न्यायालय ऐसे पक्षकार के विरुद्ध साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 दृष्टान्त (9) के तहत प्रतिकूल अवधारणा कर सकेगा, लेकिन न्यायालय अनुपालना के अभाव में प्रतिरक्षा या वाद खारिज नहीं कर सकता।

प्रतिरक्षा को काट देना-

प्रकटीकरण के आदेश का अन्नुपालन तथा लिखित कथन को काट दिया जाने पर न्यायालय आदेश 11, नियम 21 के अधीन स्वप्रेरणा पर आदेश पारित नहीं कर सकता। नियम 21 के अधीन प्रतिवादी के प्रतिवाद को केवल ऐसे आत्यन्तिक मामलों में काटा जाना चाहिए जिनमें प्रतिवादी ने न्यायालय के आदेश जानबूझकर उल्लंघन किया है।

जब कोई पक्षकार परिप्रश्नों का उत्तर देने या दस्तावेजात के प्रकटीकरण या निरीक्षण के आदेश को अनुपालना नहीं करता है वहाँ न्यायालय व्यथित पक्ष की प्रार्थना पर वादी का दावा खारिज या प्रतिवादी की प्रतिरक्षा ऐसे पक्षकार को सुनने के उपरांत काट सकता है। इस प्रकार खारिज किये गये वाद के लिये उसी वाद हेतुक पर नया दावा नहीं लाया जा सकता

न्यायालय की शक्तियों का प्रयोग-

उच्चतम न्यायालय ने आदेश 11 नियम 21 के अधीन न्यायालय को शक्तियों का विवेचन करते हुए प्रतिपादन किया है कि यह मान लेने पर भी कुछ परिस्थितियों में आदेश 11 के नियम 21 के उपबंधों को शब्दशः प्रवृत्त किया जाना चाहिए, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वाद को बिना सोचे विचारे खारिज किया जायेगा या प्रतिवाद को पर्याप्त कारण दिये बिना काट दिया जाएगा। अधिकथित कसौटी यह है कि क्या व्यतिक्रम जानबूझकर किया गया है।

आदेश 11 के नियम 21 के अधीन वाद को खारिज किये जाने या प्रतिवाद को काटे जार की शक्ति का प्रयोग केवल उसी मामले में किया जाना चाहिए, जिसमें व्यतिक्रमी पक्षकार सुनवाई के समय उपस्थित होने में असफल रहता है या लम्बे या असाधारण और माफ न किये जाने योग्य विलम्ब का अपराधी है जिससे विरोधी पक्षकार पर सारवान या गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

यह सुस्थिर है कि आदेश 11 के नियम 21 के कठोर उपबंध को केवल आत्यन्तिक मामलों में लागू किया जाना चाहिए जिनमें प्रतिवादी ने आज्ञा का उल्लंघन किया है या न्यायालय के आदेश को अवहेलना का जानबूझकर किया गया प्रयास सिद्ध कर दिया गया है। इस नियम को सावधानी से लागू किया जाना चाहिए और इसका प्रयोग अन्तिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिए।

न्यायालय द्वारा अन्तर्हित शक्तियों का प्रयोग धारा 151 सीपीसी के अधीन प्रतिरक्षा को काटने में करना अवैध माना गया है। व्यतिक्रम या अनाभियोजन के लिए किसी वाद को डिक्री तैयार करने से पहले अपास्त किया जा सकता है।

प्रकटीकरण की आज्ञा के विरुद्ध आदेश 43, नियम 1 (च) के अधीन कोई अपील नहीं की गई, तो उस आज्ञा को अननुपालना के लिए प्रतिरक्षा काट दी गई। प्रतिरक्षा को पुनःस्थापना के पुनःस्थापना के लिए धारा 151 सीपीसी के अधीन आवेदन करना गलत धारणा पर आधारित है और संधारणीय नहीं है। खण्डपीठ ने अपील का प्रावधान होते हुए भी धारा 151 के अधीन ऐसे आवेदन को सक्षम माना है।

Tags:    

Similar News