सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 43: आदेश 8 नियम 3,4 एवं 5 के प्रावधान

Update: 2023-12-19 07:05 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 8 लिखित कथन से संबंधित है जो प्रतिवादी का प्रतिवाद पत्र होता है। आदेश 8 के नियम 3,4 व 5 किसी भी लिखित कथन में इंकार करने से है। वादपत्र के तथ्यों का आधा या स्पष्ट इंकार कैसा होगा यह इन नियमों में बताया गया है। इस आलेख के अंतर्गत इन तीनों नियमों पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-3 प्रत्याख्यान विनिर्दिष्टः होगा-प्रतिवादी के लिए पर्याप्त नहीं होगा कि वह अपने लिखित कथन में उन आधारों का साधारणत: प्रत्याख्यान कर दे जो वादी द्वारा अभिकथित है, किन्तु प्रतिवादी के लिए यह आवश्यक है कि वह नुकसानी के सिवाय ऐसे तथ्य संबंधी हर एक अभिकथन का विनिर्दिष्टतः विवेचन करे जिसकी सत्यता वह स्वीकार नहीं करता है।

वाणिज्यिक विवादों के सम्बन्ध में संशोधन

2016 के अधिनियम संख्यांक द्वारा वाणिज्यिक विवादों के सम्बन्ध में नियम 3 के पश्चात् निम्नलिखित अन्तःस्थापित किया जाएगा एवं दिनांक 23-10-2015 से प्रभावी।

क उच्च न्यायालय के वाणिज्यिक प्रभाग या वाणिज्यिक न्यायालय के समक्ष वादों में प्रतिवादी द्वारा प्रत्याख्यान (1) इस नियम के उपनियम (2), उपनियम (3), उपनियम (4) और उपनियम (5) में उपबन्धित रीति से प्रत्याख्यान किया जायेगा।

(2) प्रतिवादी अपने लिखित कथन में वादपत्र को जिन विशिष्टियों में अभिकधनों का वह प्रत्याख्यान करता है, जिन अभिकथनों को वह स्वीकार करने या उनका प्रत्याख्यान करने में असमर्थ है किन्तु जिनको वह वादी से साथित करने की अपेक्षा करता है और जिन अभिकथनों को वह स्वीकार करता है, उनका कथन करेगा। (3) जहाँ प्रतिवादी वादपत्र में के तथ्य के किसी अधिकथन का प्रत्याख्यान करता है, वहाँ उसे ऐसा करने के अपने कारणों का कथन करना चाहिए और यदि उसका आशय वादी द्वारा जो घटनाओं का विवरण दिया गया है, उससे भिन्न विवरण पेश करने का है तो उसे अपने स्वयं के विवरण का कथन करना होगा।

(4) यदि प्रतिवादी न्यायालय को अधिकारिता के प्रति विवाद करता है तो उसे ऐसा करने के कारणों का कथन करना चाहिए और यदि वह समर्थ है तो इस बारे में उसे अपना स्वयं का कथन करना होगा कि किस न्यायालय की अधिकारिता होनी चाहिए।

(5) यदि प्रतिवादी वादी के वाद के मूल्यांकन के प्रति विवाद करता है तो उसे ऐसा करने के कारणों का कथन करना होगा और यदि यह समर्च है तो उसे वाद के मूल्य के बारे में अपना स्वयं का कथन करना होगा।]

नियम-4 वाग्छलपूर्ण प्रत्याख्यान-जहां प्रतिवादी वाद में के किसी तथ्य के अभिकथन का प्रत्याख्यान करता है वहां उसे वैसा वाग्छलपूर्ण तौर पर नहीं करना चाहिए वरन सार की बात का उत्तर देना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि यह अभिकथित किया जाता है कि उसने एक निश्चित धन की राशि प्राप्त की तो यह प्रत्याख्यान कि उसने वह विशिष्ट राशि प्राप्त नहीं की कि पर्याप्त नहीं होगा वरन उसे यह चाहिए कि वह प्रत्याख्यान करे कि उसने वह राशि या उसका कोई भाग प्राप्त नहीं किया या फिर यह उपवर्णित करना चाहिए कि उसने कितनी राशि प्राप्त की और यदि अभिकधन विभिन्न परिस्थितियों सहित किया गया तो जो उन परिस्थितियों सहित उस अभिकथन का प्रत्याख्यान कर देना पर्याप्त नहीं होगा।

नियम-5 विनिर्दिष्टतः प्रत्याख्यान- [(1)] यदि वाद पत्र में के तथ्य सम्बन्धी हर अभिकथन का विनिर्दिष्टतः यह आवश्यक विवक्षा से प्रत्याख्यान नहीं किया जाता है या प्रतिवादी के अभिवदन में यह कथन कि वह स्वीकार नहीं किया जाता तो जहां तक निर्योग्यताधीन को व्यक्ति को छोड़कर किसी अन्य लिया गया माना जाएगा : व्यक्ति का सम्बन्ध है वह स्वीकार कर परन्तु ऐसे स्वीकार किए गए किसी भी तथ्य के ऐसी स्वीकृति के अलावा अन्य प्रकार से साबित किए जाने की अपेक्षा न्यायालय स्वविवेकानुसार कर सकेगा।

प्रतिवादी अपने लिखित-कथन में वादी के अभिवचनों का उत्तर देता है। वह उत्तर स्वीकृति या अस्वीकृति के रूप में होता है। वादी के कथनों के तथ्यों को अस्वीकार करना "प्रत्याख्यान" (डिनायल) कहलाता है। आदेश 8 के नियम 3,4, और 5 में इस प्रत्याख्यान का स्वरूप व तरीका बताया गया है।

इन तीनों नियमों का सार निम्न बिंदुओं में समझा जा सकता है-

(1) वादी द्वारा अभिकथित अर्थात्- वादपत्र में दिये गये आधारों का साधारण रूप से प्रत्याख्यान (अस्वीकार) करना पर्याप्त नहीं होगा, और

(2) प्रतिवादी के लिये आवश्यक है कि नुकसानी के सिवाय ऐसे तथ्य सम्बन्धी प्रत्येक कथन का विशेष से विवेचन करे, जिसकी सत्यता वह स्वीकार नहीं करता है।

(3) आवश्यक विवक्षा से भी प्रत्याख्यान किया जा सकता है।

अतः प्रत्येक वादपत्र के तात्विक तथ्य को अलग से लेकर उसे या तो स्वीकार किया जाय या विशेष रूप से पूरे विवरण सहित अस्वीकार किया जाय। केवल साधारण शब्दों में किया गया प्रत्याख्यान "विनिर्दिष्टतः प्रत्याख्यान" नहीं माना आयेगा और नियम 5 के अनुसार उसे "आन्वयिक स्वीकृति" अर्थात-"स्वीकार कर लिया गया" मान लिया जावेगा।

इस नियम में शब्द" शब्द रूप से" (विनिर्दिष्टतः) (Specifically) का प्रयोग इसे शब्द" साधारण रूप से" (सामान्यतः) (Generally) से विपरित अर्थ में बताने के लिये कहा जाता है। यह विधि का सुस्थापित नियम है कि किसी विनिर्दिष्ट प्रत्याखान किया जाना आवश्यक है। वाग्छलपूर्ण प्रत्याखान वाद में वर्णित तथ्यों को यदि किसी प्रकरण में लिखित-कथन प्रस्तुत नहीं स्वीकृति मानी जावेगी किए जाते है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है वाद में वर्णित सभी तथ्यों को स्वीकृत कर लिया है, इस प्रावधान में प्रतिवादी पूरी तरह से सावधान रहना चाहिए कि प्रतिवादी ने वाद के विरुद्ध निर्णय पारित करने से पूर्व न्यायालय को उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि प्रस्तुत करने करने पर निर्भर करती है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा सेठ रामदया जाट बनाम लक्ष्मी प्रसाद गौतम स्वरूप बनाम लीला व बलराज तूनेजा मामलों में की गई अभिव्यक्ति के आधार पर एस. देवीवदाई मामले में मद्रास उच्च न्यायालय वाद पत्र में इंकार से मामले को निपटारा करवाये जाने बाबत् किये गये उल्लेख का किया है अतः यह माना जावेगा कि प्रतिवादी ने उनका अभिवचन को स्वीकार कर लिया है।

निम्न विनिर्दिष्ट प्रत्याख्यान नहीं है- (उदाहरण)

1. वादपत्र का पद सं.. जैसा अधिकथित किया गया है (या जैसा उल्लिखित है) स्वीकार नहीं है।

2. वादपत्र का पद सं. प्रतिवादी के अन्य कथनों के अध्यधीन, स्वीकार है।

3. वादपत्र के पद सं... का भाग कि वादी के पिता की मृत्यु 1970 में हुई स्वीकार है, शेष भाग स्वीकार नहीं है।

4. प्रतिवादी वादपत्र सं... ...को स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि उसे इसका ज्ञान नहीं है या वह उस परिवार के बारे में अनजान है।

5. वादपत्र सं के अधिकथन के लिये उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है। ..उस सम्बन्धी ज्ञान (जानकारी) के अभाव में अस्वीकार है।

6. वादपत्र सं (ii) शब्दों का अर्थ व प्रयोग तथा शब्दों के प्रयोग पर या इनकार या प्रत्याख्यान किया) और "not इसके लिये शब्दों के दो शब्द प्रयोग में लिये जाते है-"Denjed" (अस्वीकार इनके लिये कमशः "अस्वीकार है" और " स्वीकार नहीं Admitted" (स्वीकार नहीं किया) ये दोनों पर्यायवाचा नहीं है।

(हिन्दी में का प्रयोग करना उचित नहीं होगा। इन दोनों पदों के अर्थ में अन्तर है। अतः इनका बिना सोचे समझे प्रयोग नहीं करना चाहिये। जहां कोई तथ्य प्रतिवादी के ज्ञान (जानकारी) में है, तो उसे उसके द्वारा स्वीकार (Admitted) या "अस्वीकार" (Denied) किया जाना चाहिये, इसके लिये " स्वीकार नहीं "पद का प्रयोग उचित नहीं होगा परन्त जहां किसी तथ्य का प्रतिवादी को ज्ञान नहीं है, या यह कोई ऐसा तथ्य है जो उसके व्यक्तिगत ज्ञान में नहीं होना चाहिये, तो ऐसे तथ्य को "स्वीकार नहीं" (not admitted) कहा जाता है। परन्तु ऐसे तथ्य का विशेष रूप से विवेचन नहीं करने से उसे" "अस्वीकृति" या प्रत्याख्यान नहीं माना जायेगा और ऐसे तथ्य को साबित करने का भार वादी पर नहीं जावेगा और उसे स्वीकार किया गया मान लिया जावेगा।

इसी प्रकार भाषा का प्रयोग भी ध्यान देने योग्य है। दो नकारात्मक शब्द एक वाक्य में प्रयोग करने पर सकारात्मक बन मूक बन जाते हैं। जैसे- प्रतिवादी अस्वीकार करता है कि उसने वादी को दुकान में दि को या किसी दिन जबरन प्रवेश किया। 'यह वाक्य सही है पूर कई बार प्रकार लिख दिया जाता है जो गलत है और (स्वीकृति के है- "प्रतिवादी अस्वीकार करता है भूल से इसे इस रूप में कि उसने वादी की दुकान में दि को या किसी दिन जबरन प्रवेश नहीं किया। यहां "नहीं" का प्रयोग" अस्वीकार" के साथ करने से यह वाक्य सकारात्मक हो गया। इसे दूसरे रूप में इस प्रकार लिखा जा सकता है-" प्रतिवादी ने वादी की दुकान में दि... को या किसी दिन जबरन प्रवेश नहीं किया।

स्वीकारोक्ति या स्वीकृतियाँ (Admissions) - प्रतिवादी को यह छूट है कि वह वादपत्र के किसी तथ्य को स्वीकार करें या अस्वीकार करे। जब यह किसी तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है, तो उस तथ्य को स्वीकारोक्ति माना जाता है और उसके लिये वादी को कोई साक्ष्य पेश नहीं करना होगा। इसी प्रकार अस्वीकरण भी स्पष्ट रूप से होना चाहिये और विशेष रूप से भी। अस्पष्ट और वाग्छलपूर्ण प्रत्याख्यान या अस्वीकरण को नियम 5 के अधीन "स्वीकार किया गया" मान लिया जाता है और इस प्रकार प्रतिवादी की स्वीकारोक्ति हो जाने से इसे भी वादी को साक्ष्य द्वारा प्रमाणित नहीं करना पड़ता। अतः प्रतिवादी को किसी तथ्य को स्वीकार या अस्वीकार करने में बहुत सावधानी और सतर्कता से काम लेना होगा। जहाँ प्रतिवादी ने वादपत्र में तथ्यों का इन्कार नहीं किया है उसे तथ्य स्वीकार किया हुआ माना जायेगा।

1. सीधे सीधे और माने हुए तथ्यों को अस्वीकार करना गलत है।

2. ऐसे तथ्य जिनको अस्वीकार करना यदि आपके पक्षकार (मुवक्किल) के हित में नहीं है, तो उन्हें भी स्वीकार करना चाहिए।

3. कई बार भूमिका के प्रारम्भिक पदों को मामूली समझकर स्वीकार कर लेना खतरनाक साबित हो सकता है। अत: सावधानी से ही उनको स्वीकार करना चाहिए।

4. कई बार यह भी वांछनीय होता है कि किसी तथ्य को केवल इसलिए इन्कार किया जाय, ताकि वादी किसी गवाह को पेश करे जिसकी प्रतिपरीक्षा से आप अपने पक्ष के किसी तथ्य को साबित कर सके।

5. जो तथ्य आपके विरुद्ध आसानी से साबित किये जा सकते हैं, उनको स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि हर तथ्य को अस्वीकार करना आपके मामले की कमजोरी को प्रकट करता है।

6. जो तथ्य प्रत्यक्षतः सत्य है, उनका खण्डन करना आसान नहीं होता और यह महंगा सौदा भी होता है।

7. जो तथ्य किसी दस्तावेज पर आधारित है और उस दस्तावेज के शब्द वादपत्र में है या आपने दस्तावेज का निरीक्षण कर लिया है, तो फिर उसको सत्यता को केवल नाममात्र के लिये इन्कार करना उचित नहीं होगा।

अभिवचन में स्वीकारोक्तियाँ - प्रतिवाद पत्र में प्रतिवादी ने लिखा कि " प्रतिवादी वादपत्र के पद संख्या 1, 2, 3, और 6 में दिये कचनों की सत्यता को स्वीकार नहीं करता है।" इसे प्रतिवादी द्वारा वादी के कथनों का पर्याप्त प्रत्याख्यान (अस्वीकारोक्ति) नहीं माना गया। इसी प्रकार "वादी से वादपत्र में दिये अनेक अभिकथनों के प्रमाण दिलाये जायें - यह कथन भी प्रत्याख्यान नहीं माना गया।

अत: इन कथनों को स्वीकारोक्ति मान लिया गया। परिसीमा को बाधा को पार करने के लिये वादी ने प्रतिवादी द्वारा लिखे एक पत्र पर निर्भर किया। प्रतिवादी ने प्रतिवाद-पत्र में केवल इतना लिखा कि प्रस्तुत किये गये पत्र से वाद परिसीमा की बाधा से नहीं बचता है। अतः यह माना गया कि उस पत्र को स्वीकार कर लिया गया है और वादी को उसे साबित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वाद के प्रकथन के विनिर्दिष्ट प्रत्याख्यान का अभाव, समझी गई स्वीकारोक्ति माना जावेगा जिसके प्रमाणीकरण की आवश्यकता नहीं है।

स्वीकृत तथ्यों का साबित करना आवश्यक नहीं है-किसी ऐसे तथ्य को जिसके बारे में अभिवचन सम्बन्धी किसी तत्समय प्रवृत्त नियम के अधीन यह समझ लिया जाता है कि उन्होंने उसे अपने अभिवचनों द्वारा स्वीकार कर लिया है:

परन्तु न्यायालय स्वीकृत तथ्यों को ऐसी स्वीकृतियों द्वारा साबित किये जाने से अन्यथा, साबित किया जाना अपने विवेकानुसार अपेक्षित कर सकेगा।

इसी सिद्धान्त के अनुसार प्रतिवादी द्वारा अस्वीकृत नहीं किये गये अभिकथनों को कुछ विशेष परिस्थितियों में सुनवाई के समय अस्वीकार करने को अनुमति दी गई है।

स्वीकृत तथ्य और न्यायालय का विवेकाधिकार- प्रारम्भिक (अधीनस्थ) न्यायालयों में पेश किये गये अभिवचन सर्वज्ञात हैं और न्याय के हित में न्यायालय को यह अधिकार है कि यह पक्षकारों को उनके अभिवचनों से कठोरता से न पकड़े। सिक्किम में अधिकतर अभिवचनों का प्रारूपण अधिवक्ताओं द्वारा नहीं किया जाता, परन्तु ऐसे लोगों द्वारा किया जाता है, जिनको विधि तया भाषा तक का थोड़ा सा ज्ञान ही है। ऐसे मामले में जहाँ पक्षकार साधारण जीवन के क्षेत्र से आते हैं और उनका प्रतिनिधित्व वकीलों द्वारा नहीं किया जाता, तो यह केवल अधिकार ही नहीं। वरन् न्यायाधीश का कर्तव्य भी है कि वह पक्षकारों की स्वीकृति, प्रतिपरीक्षा करने में असफलता या किसी विशेष बात के प्रत्याख्यान के लिये साक्ष्य के तकनीकी नियमों का सहारा लेने से पहले वह पक्षकारों को उचित प्रश्न पूछकर सत्यता पर विचार विमर्श करे।

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