सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 138: आदेश 21 नियम 99 से 106 तक के प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 99 से लगायत 106 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-99 डिक्रीदार या क्रेता द्वारा बेकब्जा किया जाना (1) जहां निर्णीतऋणी से भिन्न कोई व्यक्ति स्थावर सम्पत्ति पर कब्जे की डिक्री के धारक द्वारा या जहां ऐसी सम्पत्ति का डिक्री के निष्पादन में विक्रय किया गया है वहां, उसके क्रेता द्वारा ऐसी सम्पत्ति पर से चेकब्जा कर दिया गया हो वहां वह ऐसे बेकब्जा किए जाने का परिवाद करते हुए न्यायालय से आवेदन कर सकेगा।
नियम-100 बेकब्जा किए जाने का परिवाद करने वाले आवेदन पर पारित किया जाने वाला आदेश- नियम 101 में निर्दिष्ट प्रश्नों के अवधारण पर, न्यायालय ऐसे अवधारण के अनुसार-
(क) आवेदन को मंजूर करते हुए और यह निदेश देते हुए कि आवेदक को सम्पत्ति का कब्जा दे दिया जाए या आवेदन को खारिज करते हुए, आदेश करेगा; या (ख) ऐसा अन्य आदेश पारित करेगा जो वह मामले की परिस्थितियों में ठीक समझे।
नियम-101 अवधारित किए जाने वाले प्रश्न नियम 97 या नियम 99 के अधीन किसी आवेदन पर किसी कार्यवाही के पक्षकारों के बीच या उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होने वाले और आवेदन के न्यायनिर्गयन से सुसंगत सभी प्रश्न (जिनके अन्तर्गत सम्पत्ति में अधिकार, हक या हित से संबंधित प्रश्न भी है), आवेदन के संबंध में कार्यवाही करने वाले न्यायालय द्वारा अवधारित किए जाएंगे, न कि पृथक् वाद द्वारा और इस प्रयोजन के लिए न्यायालय, तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी, ऐसे प्रश्नों का विनिश्चय करने की अधिकारिता रखने वाला समझा जाएगा।
नियम-103 वादकालीन अंतरिती को इन नियमों का लागू न होना नियम 98 और 100 में की कोई भी बात स्थावर सम्पत्ति के कब्जे की डिकी के निष्पादन में उस व्यक्ति द्वारा किए गए प्रतिरोध या डाली गई बाधा को या किसी व्यक्ति के बेकब्जा किए जाने को लागू नहीं होगी जिसे निर्णीतऋणी ने वह सम्पत्ति उस वाद के जिसमें डिक्री पारित की गई थी, सस्थित किए जाने के पश्चात् अन्तरित की है।
स्पष्टीकरण- इस नियम में, अंतरण के अन्तर्गत विधि के प्रवर्तन द्वारा अन्तरण भी है।
नियम-103 आदेशों को डिक्री माना जाना जहां किसी आवेदन पर न्यायनिर्णयन नियम 98 या नियम 100 के अधीन किया गया है वहां उस पर किए गए आदेश का वही बल होगा और वह अपील या अन्य बातों के बारे में वैसी ही शर्तों के अधीन होगा मानो वह डिक्री हो।
नियम-104 नियम 101 या नियम 103 के अधीन आदेश लम्बित वाद के परिणाम के अधीन होगा- नियम 101 या नियम 103 के अधीन किया गया प्रत्येक आदेश, उस कार्यवाही के जिसमें ऐसा आदेश किया जाता है प्रारंभ की तारीख को लम्बित किसी वाद के परिणाम के अधीन उस दशा में होगा जिसमें उस वाद में ऐसे पक्षकार द्वारा जिसके विरुद्ध नियम 101 या नियम 103 के अधीन आदेश किया जाता है, ऐसा अधिकार स्थापित करना चाहा गया है जिसका कि वह उस सम्पत्ति के वर्तमान कब्जे की बाबत दावा करता है।
नियम-105 आवेदन की सुनवाई (1) वह न्यायालय जिसके समक्ष इस आदेश के पूर्वगामी नियमों में से किसी नियम के अधीन कोई आवेदन लम्बित है, उसकी सुनवाई के लिए दिन नियत कर सकेगा।
(2) जहां नियत दिन या किसी अन्य दिन जिस तक सुनवाई स्थगित की जाए मामले की सुनवाई के लिए पुकार होने पर आवेदक उपसंजात नहीं होता है वहां न्यायालय आदेश कर सकेगा कि आवेदन खारिज कर दिया जाए।
(3) जहां आवेदक उपसंजात होता है और विरोधी पक्षकार जिसको न्यायालय द्वारा सूचना दी गई है, उपसंजात नहीं होता है वहां न्यायालय आवेदन को एकपक्षीय रूप से सुन सकेगा और ऐसा आदेश पारित कर सकेगा जो वह ठीक समझे।
नियम-106 एकपक्षीय रूप से पारित आदेशों, आदि का अपास्त किया जाना- (1) आवेदक जिसके विरुद्ध नियम 105 के उपनियम (2) के अधीन कोई आदेश किया जाता है अथवा विरोधी पक्षकार जिसके विरुद्ध उस नियम के उपनियम (3) के अधीन या नियम 23 के उपनियम (1) के अधीन कोई एकपक्षीय आदेश पारित किया जाता है, उस आदेश को अपास्त करने के लिए न्यायालय से आवेदन कर सकेगा और यदि वह न्यायालय का समाधान कर देता है कि आवेदन की सुनवाई के लिए पुकार होने पर उसके उपसंजात न होने के लिए पर्याप्त कारण था तो न्यायालय खर्चों या अन्य बातों के बारे में ऐसे निबंधनों पर जो वह ठीक समझे, आदेश अपास्त करेगा और आवेदन की आगे सुनवाई के लिए दिन नियत करेगा।
(2) उपनियम (1) के अधीन आवेदन पर कोई आदेश तब तक नहीं किया जाएगा जब तक उस आवेदन की सूचना की तामील दूसरे पक्षकार पर न कर दी गई हो। (3) उपनियम (1) के अधीन आवेदन आदेश की तारीख से तीस दिन के भीतर किया जाएगा या जहां एकपक्षीय आदेश की दशा में, सूचना की सम्यक् रूप से तामील नहीं हुई थी वहां उस तारीख से जब आ रे आदेश की जानकारी हुई थी, तीस दिन के भीतर किया जाएगा।
एक वाद में यह अभिनिर्धारित हुआ कि एक विभाजन का वाद वादी के पक्ष में डिक्रीत कर दिया गया, जिसके निष्पादन के लिए आवेदन किया गया। प्रत्यर्थी ने डिक्रीदार के आवेदन का विरोध करते हुए चेतावनी-पत्र (केविएट) फाइल किया, जो संधारणीय नहीं है। अतः प्रत्यर्थी निष्पादन आवेदन को सुनवाई पर न्यायालय के समक्ष उपसंजात (उपस्थित) होने के लिए अधिकृत नहीं है।
नियम 99 के अनुसार स्थावर सम्पत्ति से बेदखली को डिक्री के निष्पादन में उस पर कब्जा रखने वाला कोई परव्यक्ति बेदखली की कार्यवाही से तभी बच सकता है जब वह नियम 99 के उपबंधों का अनुपालन करता है और न्यायालय का समाधान कर देता है कि उसका कब्जा इस प्रकृति का है कि वह उसे डिक्रीधारक द्वारा निर्णीत ऋणी के विरुद्ध प्राप्त को गई डिक्री के निष्पादन में बेदखली से संरक्षण देता है।
निष्पादन न्यायालय की अधिकारिता-
यदि आदेश 21, नियम 101 की शर्तें पूरी हो जाती हैं, तो निष्पादन न्यायालय को उन सभी विवादों को निपटाने की अधिकारिता है, जिनमें विशेष न्यायालयों को अधिकारिता के विवाद सम्मिलित है-जैसे माध्यस्थम पंचाट धारक व निर्णीत ऋणी ने तीसरे पक्ष के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता किया, ऐसा तीसरा पक्ष निष्पादन कार्यवाही में आदेश 21 नियम 97-101 के प्रावधानों के अधीन अपने अधिकारों की रक्षा के लिए पक्षकार के रूप में संयोजित किया जा सकता है।
बेदखली की डिक्री में उप-किरायेदार द्वारा चुनौती- बेदखली की डिक्री किरायेदार के विरुद्ध दी गई थी, किन्तु उप किरायेदार उसे निष्पादन कार्यवाही में चुनौती देकर आक्षेप कर सकता है। अतः उपकिरायेदार उस डिक्री को चुनौती देते हुए अलग वाद करने से धारा 47 द्वारा वर्जित है।
किरायेदार और मकान मालिक के बीच समझौता - सम्मति-डिक्री (समझौता डिक्री) का निष्पादन - अभिनिर्धारित कि-उच्च न्यायालय द्वारा पूर्वतर अवसर पर किए गए निर्णय को देखते हुए, सम्मति डिक्री के अधीन अपीलार्थी के अधिकार को निरर्थक नहीं बनाया जा सकता। उच्च न्यायालय को संविधान के अधीन अपनी विशेष अधिकारिता का प्रयोग नहीं करना चाहिये, जब तक कि आपवादिक परिस्थतियाँ विद्यमान न हो।
डिक्री के निष्पादन में बाहरी व्यक्ति द्वारा एतराज (आदेश 21. नियम 97) कब विचारणीय- डिक्री संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए थी। निर्णीत ऋणी को पत्नी ने एतराज किया कि मौखिक दान (Hiba) के आधार पर वह विवादित सम्पत्ति उज़की है। मौखिक दान को झूठी कहानी डिक्री को असफल बनाने के लिए है। निष्पादन-न्यायालय ऐसे एतराज का निपटारा करने के लिए बाध्य नहीं है। केवल वही व्यक्ति एतराज उठा सकता है, जो उस सम्पत्ति पर स्वतंत्र अधिकार के साथ वास्तविक भौतिक कब्जा रखता है।
परिसर जिसके बारे में आधिपत्य की डिक्री पारित की गई थी, विधिपूर्ण किरायेदारों के कब्जे में था और उसका केवल प्रतीकात्मक आधिपत्य संभव था। गलती से खास आधिपत्य दे दिया गया। अभिनिर्धारित कि इन परिस्थितियों में किरायेदारों द्वारा नये मकान-मालिक को स्वीकार कर लेना पर्याप्त था। आदेश 21, नियम 100 के अधीन किरायेदारों को वापस अधिपत्य दिलवाने के आवेदन को धारा 47 के अधीन माना जा सकता है। आदेश 21, नियम 100 का प्रविषय - यह नियम केवल ऐसे मामलों को लागू होता है जिसमें सम्पत्ति के कब्जेदार ने बिना किसी प्रतिविरोध या बाधा के डिक्रीदार को कब्जा दे दिया हो और वाद में अपने कब्जे के लिए आवेदन किया हो।
इस नियम के अधीन अन्य पक्षकार (जो निर्णीत ऋणी नहीं है) की बेदखली करके उसे उक्त नियम के अधीन कब्जा प्राप्त करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। आदेश 21 नियम 101 का विस्तार - कब्ज़ा वापिस प्राप्त करने के लिए डिक्री के निष्पादन में बेदखल किये गये पर-व्यक्ति को न केवल यह साबित करना होना होगा कि वह सद्भावी रूप से कब्जे में था बल्कि उसे यह भी साबित करना होगा कि उसका अधिकार स्वत्व या हित सम्पत्ति में निहित है। उसका यह आवेदन संहिता में 1976 के संशोधन के बाद नियम 103 के स्थान पर नियम 101 के अधीन निर्णीत किया जावेगा।
आदेश 21, नियम 102 - एक पक्षकार द्वारा पूर्विक कार्यवाही में सम्पत्ति का सांकेतिक परिदान लिया जाना और तत्पश्चात् वास्तविक कब्जा वादी अपीलार्थी से न्यायालय के आदेश के अधीन और रिसीवर की हैसियत में प्राप्त करना, अन्ततः अपील उस पक्षकार के विरुद्ध निर्णीत हो जाना-क्या अन्य पक्षकार द्वारा प्रत्यास्थापन के जरिए कब्जा वापस दिलाए जाने की कार्यवाही में वह पक्षकार प्रतिरोध कर सकता है।
आदेश 21, नियम 102 के प्रावधान न्याय एवं समानता पर आधारित है। वादकालीन अन्तरिती (Transferee) से यह उपधारणा की जाती है कि वह न्यायालय में चल रही कार्यवाही को जानता है, आदेश 21 नियम 102 से आकर्षित करने के लिए यह आवश्यक है कि डिक्रीधारक यह सिद्ध करें कि सम्पत्ति पर हक दावा पेश होने के बाद का है, जिसमें न्यायालय ने डिक्री पारित कर दी है एवं निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध निष्पादन चाहा है। उक्त शर्तें पूरी होने पर अंतरिती आदेश 21 नियम 98 एवं 100 के प्रावधानों का सहारा नहीं ले सकता
नियम 103 के अधीन वाद - यदि आदेश 21 के नियम 103 के अधीन वाद संस्थित करने का अधिकार संशोधन अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व उद्भूत हुआ था, तो वह साधारण खण्ड अधिनियम की धारा 6 सपठित सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 1976 की धारा 97(2) के अधीन परिरक्षित होगा और नियम 103 के अधीन संस्थित वाद सक्षम माना जाएगा।
पुनःस्थापना का प्रश्न (नियम 105, 106) -एक वाद में डिक्रीदारों की उपसंजाति में चूक (अनुपस्थिति) के कारण निष्पादन-आवेदन खारिज कर दिये गये। यह खारिजी आदेश 21 के नियम 105 के अधीन नहीं मानी जा सकती, ताकि यह नियम 106 को आकर्षित करे। परन्तु अन्तर्निहित शक्ति के प्रयोग में पुनःस्थापना का आवेदन करना चाहिये। आदेश 21 नियम 106 के दो भाग हैं। प्रथम भाग सामान्य एक पक्षीय आदेश के क्रम में है। द्वितीय भाग उस स्थिति का द्योतक है जहाँ किसी पक्ष को बिना नोटिस दिये उसके विरुद्ध एक पक्षीय कार्यवाही की जाती है। केवल द्वितीय स्थिति में आदेश की जानकारी होने के समय से 30 दिवस में आवेदन प्रस्तुत करने की छूट होगी।
सामान्य मामले में आदेश से 30 दिवस के भीतर आवेदन करना होगा। ऐसे मामले में परिसीमा अधिनियम की धारा 5 का लाभ उपलब्ध नहीं है। आदेश 21, नियम 106 में अनुध्यात (चाहा गया) आवेदन आदेश 21, नियम 105 (2) के अधीन एकपक्षीय आदेश को अपास्त करने के बारे में हैं। यदि खारिजी का दिनांक सुनवाई का दिनांक नहीं है, तो प्रार्थी को विधि द्वारा नियम 106 (3) में विहित (दी गई) अवधि के भीतर आवेदन करना सुनिश्चित नहीं है।" जहां खारिजी का आदेश अनुपस्थिति के आधार पर न हो और तलबाना का भुगतान न करने के कारण हो, तो आदेश 21, नियम 106 लागू नहीं होगा। पुनः स्थापना के लिए धारा 151 के अधीन आवेदन करना होगा।
अपीलनीय आदेश - नियम 43 के नियम 1 के खण्ड (ञक) के अनुसार, आवेदन को नामंजूर करने का आदेश जो आदेश 21 के नियम 106 के उपनियम (1) के अधीन किया गया हो, परन्तु मूल आवेदन पर अर्थात् उस आदेश के नियम 105 के उपनियम (1) में विनिर्दिष्ट आवेदन पर, आदेश अपीलनीय है।
निष्कासन डिक्री का निष्पादन-सह-किरायेदार द्वारा आपत्ति प्रस्तुत की गई कि उसे प्रकरण में पक्षकार नहीं बनाया गया था, इसलिए डिक्री का निष्पादन संभव नहीं है, किन्तु यह पाया गया कि मूल किरायेदार की मृत्यु के पश्चात् उसका एक विधिक वारिस व्यापार कर रहा था, एवं उसके विरुद्ध निष्कासन की डिक्री किराये की चूक के आधार पर पारित की गई थी जो कि वैध है एवं सह किरायेदार को पक्षकार बनाया जाना आवश्यक नहीं था।
वाद के दौरान सम्पत्ति अन्तरिती का प्रतिवाद डिक्री के निष्पादन में संधारण योग्य नहीं है। सम्पत्ति का नीलामी द्वारा विक्रय किया गया, एवं नीलामी क्रेता को सम्पत्ति का कब्जा प्रदान करने का आदेश दिया गया, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसला मान्य ठहराया गया, यह सब कार्यवाही एक वर्ष से चल रही है। प्रार्थी ने कभी भी किरायेदारी द्वारा हक जाहिर नहीं किया, अब आपत्ति स्वीकार नहीं की जा सकती है।