सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 128: आदेश 21 नियम 71 व 72 के प्रावधान

Update: 2024-02-17 06:37 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 71 व 72 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-71 व्यतिक्रम करने वाला क्रेता पुनर्विक्रय में हुई हानि के लिए उत्तरदायी होगा-क्रेता के व्यतिक्रम के कारण होने वाले पुनर्विक्रय में जो कमी कीमत में हो जाए, वह और ऐसे पुनर्विक्रय में हुए सब व्यय उस अधिकारी या अन्य व्यक्ति द्वारा जो विक्रय करता है, न्यायालय को प्रमाणित किए जाएंगे और वह व्यतिक्रम करने वाले क्रेता से या तो डिक्रीदार या निर्णीतऋणी की प्रेरणा पर उन उपबन्धों के अधीन वसूलीय होंगे जो धन के संदाय की डिक्री के निष्पादन से सम्बन्धित हैं।

नियम-72 अनुज्ञा के बिना डिक्रीदार सम्पत्ति के लिए न बोली लगाएगा और न उसका क्रय करेगा- (1) जिस डिक्री के निष्पादन में सम्पत्ति का विक्रय किया जाता है उस डिक्री का कोई भी धारक न्यायालय की अभिव्यक्त अनुज्ञा के बिना सम्पत्ति के लिए न तो बोली लगाएगा और न उसका क्रय करेगा। (2) जहां डिक्रीदार क्रय करता है वहां डिक्री की रकम संदाय मानी जा सकेगी- जहां डिक्रीदार ऐसी अनुज्ञा से क्रय करता है वहां क्रयधन और डिक्री मद्धे शोध्य राशि, धारा 73 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, एक दूसरे के विरुद्ध मुजरा की जा सकेगी और डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय डिक्री की पूर्णतः या भागतः तुष्टि की प्रविष्टि तदनुसार करेगा।

(3) जहां डिक्रीदार ऐसी अनुज्ञा के बिना स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से क्रय करता है वहां यदि न्यायालय निर्णीत-ऋणी के या किसी अन्य व्यक्ति के जिसके हित विक्रय से प्रभावित होते हैं, आवेदन पर ऐसा करना ठीक समझे तो वह विक्रय को आदेश द्वारा अपास्त कर सकेगा, और ऐसे आवेदन और आदेश के खर्चे और कीमत में की कोई कमी जो पुनर्विक्रय पर हो, और ऐसे पुनर्विक्रय में हुए सभी व्यय डिक्रीदार द्वारा दिए जाएंगे।

आदेश 21, नियम 71 पुनर्विक्रय से हुई हानि के लिए व्यतिक्रम (चूक) करने वाले क्रेता का उत्तरदायित्व निश्चित करती है।

दायित्व और वसूली का तरीका-इस नियम के अनुसार -

(1) पुनर्विक्रय क्रेता की चूक के कारण हुआ है,

(2) पुनर्विक्रय में सम्पत्ति का मूल्य कम आया है, हानि हुई है,

(3) ऐसे पुनर्विक्रय में हुए सब खर्चे जिनको नीलाम कर्ता द्वारा प्रमाणित किया जायेगा,

(4) उस दोषी क्रेता से वसूल किये जायेंगे,

(5) डिक्रीदार या निर्णीत-ऋणी की प्रेरणा पर (आवेदन लिखित या मौखिक के आधार पर) न्यायालय ऐसे खर्च व हानि धनीय-डिक्री के निष्पादन के तरीके से वसूल किए जायेंगे।

इस नियम का विस्तार-यह नियम सभी प्रकार के पुनर्विक्रय (re sale) पर लागू होता है, चाहे सम्पत्ति जंगम हो या स्थावर। संहिता के अधीन नियम 84 के अधीन जमा कराने में या नियम 85 और 86 के अधीन क्रयराशि जमा कराने में चूक होने के कारण किये गये पुनर्विक्रय पर भी यह नियम लागू होता है। यह आवश्यक नहीं है कि- ऐसा पुनर्विक्रय तुरन्त उसी समय किया जाए। पुनर्विक्रय में केवल वही सम्पत्ति आवेगी, जो पहले विक्रय की गई थी। विक्रय और पुनर्विक्रय के समय सम्पत्ति के नियम 66 द्वारा चाहे गये विवरण में सामभूत अन्तर होने पर डिक्रीदार को इस नियम के अधीन कीमत में हुई कमी को वसूल करने का अधिकार नहीं होगा।

क्रेता के व्यतिक्रम के कारण जो कमी कीमत में हो जाए शब्दों का विस्तार आदेश 21, नियम 71 के उपबन्ध केवल तभी लागू होते हैं, जब नीलाम-क्रेता के व्यतिक्रम के कारण सम्पत्ति के पुनर्विक्रय की अपेक्षा की जाती है। जहाँ पुनर्विक्रय का कारण नीलामक्रेता का व्यतिक्रम नहीं था, तो पुनर्विक्रय में वसूल की गई कीमत में हुई कमी का दण्ड नीलाम क्रेता को देने का कोई प्रश्न नहीं उठता। उक्त आदेश और नियम के अधीन विक्रय आयोजित करने वाले अधिकारी या अन्य व्यक्ति द्वारा पुनर्विक्रय में क्रेता के व्यतिक्रम के कारण कीमत में हुई कमी और पुनर्विक्रय में होने वाले खर्चे के सम्बन्ध में न्यायालय को प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना होगा। संहिता में इस प्रमाणपत्र को उसमें कथित तथ्यों का निश्चायक नहीं बनाया गया है। उस क्रेता के लिए, जिसे व्यतिक्रम करने वाला अभिकथित किया गया है, उक्त प्रमाणपत्र को उसकी सभी विशिष्ट्रियों में चुनौती देना अनुज्ञेय है।

क्रेता के व्यतिक्रम (चूक) के कारण से का अर्थ ये शब्द केवल मूल्य की शेष राशि के भुगतान में चूक को ही आवृत नहीं करते हैं, परन्तु नियम 84 में उपबंधित (दिये गये) 25 प्रतिशत जमा कराने की चूक भी आवृत करते हैं। दोषी-क्रेता ने किसी दूसरे के ऐजेन्ट के रूप में कार्य किया। यदि उसने नीलाम कर्ता अधिकारी को सूचित नहीं किया, तो निर्णीत-ऋणी इस बात को जानता था, केवल इस कारण से इस नियम के अधीन आदेश प्राप्त करने से वह अनधिकृत नहीं हो जाता।

जब उच्चतम बोली को स्वीकार नहीं किया और बोली दूसरे दिन जारी रही, तो उस दिन न्यायालय पिछले दिनांक को दी गई बोली को स्वीकार कर उस बोली देने वाले पर दोषी क्रेता के रूप में कार्यवाही नहीं कर सकता।

पुनर्विक्रय कब- एक न्यायालय-नीलामी में तीन व्यक्ति क, ख और ग की बोली क्रमशः रुपये 5000, 6000 और 7000 थी। 'ग' के बोली न्यायालय द्वारा स्वीकार करने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। ऐसी स्थिति में 'ख' की बोली उच्चतम नहीं होगी, क्योंकि 'ग' के बोली लगने के बाद 'ख' की बोली समाप्त (lapsed) हो गई थी। अतः ऐसी स्थिति में उस सम्पत्ति का पुनर्विक्रय करना चाहिये।

यदि किसी भी एक घटना के घटित होने पर पुनर्विक्रय आवश्यक हो जाता है, तो डिक्रीदार उसी सम्पत्ति का पुनर्विक्रय करवाने के लिए बाध्य नहीं है। वह निर्णीत-ऋणी की किसी भी सम्पत्ति के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है और पिछली सम्पत्ति को उसके दोषी क्रेता के विरुद्ध अपने उपचार के लिए छोड़ सकता है।

आवेदन कौन करेगा- इस नियम के अधीन विक्रय कराने वाला डिक्रीदार या निर्णीत-ऋणी या डिक्री का पश्चात्वर्ती (बाद का) समनुदेशिती आवेदन कर सकता है, अन्य कोई व्यक्ति आवेदन नहीं कर सकता।

ब्याज का दायित्व - दोषी-क्रेता उस कमी पर उसके विरुद्ध आदेश देने के दिनांक से ब्याज देने के लिए दायी होगा, न कि विक्रय के दिनांक से। परिसीमा की अवधि- परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 137 के अधीन पुनर्विक्रय के लिए आवेदन देने की अवधि तीन वर्ष है।

अपील या पुनरीक्षण- इस नियम के अधीन दिये गये आदेश की अपील के बारे में आदेश 41, नियम 1 में कोई उपबन्ध नहीं है। अतः इसका पुनरीक्षण धारा 115 के अधीन होगा।

प्रमाणपत्र- (प्ररूप)- क्रेता के व्यतिक्रम के कारण सम्पत्ति के पुनर्विक्रय से कीमत में हुई कमी का विक्रय करने वाले अधिकारी द्वारा प्रमाणपत्र परिशिष्ट (ङ) के प्ररूप संख्या 31 में दिया जावेगा।

आदेश 21, नियम 72 डिक्रीदार द्वारा न्यायालय को अनुमति के बिना नीलाम में बोली लगाने का निषेध करता है (उपनियम-1) और अनुमति लेकर जब क्रय करता है, तो डिक्री को रकम का संदाय माना जावेगा (उपनियम 2) तथा न्यायालय को अनुज्ञा (अनुमति) के बिना क्रय करने पर उस विक्रय को अपास्त किया जा सकेगा और पुनर्विक्रय के सभी खर्चे डिक्रोदार को देने होंगे।

नियम 72 (1) के उपबंध आज्ञापक- यदि डिक्रीदार अपने फायदे के लिए स्वयं या किसी व्यक्ति के माध्यम से न्यायालय को पूर्व अनुज्ञा प्राप्त किए बिना या न्यायालय द्वारा ऐसी अनुज्ञा देने से इन्कार किए जाने के पश्चात् की गई नीलामी में बोली लगाता है या सम्पत्ति को क्रय करता है तो ऐसा किया जाना निश्चित रूप से विधि के आज्ञापक उपबन्ध का उल्लंघन होगा जिसके कारण ऐसी डिक्री को अपास्त किया जा सकता है तथा इसके लिए निर्णीत-ऋणों को यह साबित करने को आवश्यकता नहीं है कि इससे उसे सारवान् क्षति हुई है।' डिक्रोदार न्यायालय को अनुमति से हो नीलामी में बोलो लगा सकता है। उसे विक्रय राशि जमा कराने को आवश्यकता नहीं है।

डिक्रीदार द्वारा नीलामी में बिना अनुज्ञा बोली लगाने का प्रभाव - अनुज्ञा आज्ञापक-विचारार्थ-

प्रश्न यह था कि क्या निर्णीत-ऋणी को यह साबित करने के साथ कि न्यायालय नीलाम में विक्रय डिक्रीदार के लिए बेनामी था, यह और साबित करना आवश्यक है कि डिक्रीदार ने आदेश 21, नियम 72 के अधीन अनुज्ञा प्राप्त नहीं को और उसे (निर्णीत ऋणी को) तात्विक क्षति पहुंची।

न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि- आदेश 21, नियम 72 (3) के अधीन विक्रय अपास्त कराने का आवेदन आदेश 21, नियम 90 के अधीन आवेदन से भिन्न था। पहला तात्विक क्षति (Substantial injury) का निर्देश करता है, जबकि दूसरा नहीं। भाषा में इस मूल अन्तर को देखते हुए, जब दो भिन्न आवेदनों के लिए उपबंध करते हुए दो भिन्न उपबन्ध थे, तो उनको तुलना करने या एक के प्रतिबंधों या सीमाओं को दूसरे में आयातित करने का कोई औचित्य नहीं है।

आदेश 21, नियम 72 कहता है कि न्यायालय को स्पष्ट अनुज्ञा के बिना कोई डिक्रीदार निष्पादन में सम्पत्ति की बोली नहीं लगायेगा या उसे नहीं खरीदेगा। इस प्रकार अनुज्ञा (परमिशन) प्राप्त करना आदेशात्मक (अनिवार्य) था। डिक्रीदार जो इस आदेशात्मक अपेक्षा का उल्लंघन करता है, उसे अपनी स्वयं को अवैधता का लाभ उठाने और निर्णीत-ऋणी या सम्पत्ति में हित रखने वाले किसी अन्य व्यक्ति को जो विक्रय को अपास्त करने के लिए आवेदन करता है, बुलाकर यह स्थापित करने के लिए कहने की अनुमति नहीं दी जा सकतो कि-ऐसे आवेदक को तात्विक क्षति हुई है।

प्रापक डिक्रीदार सम्पत्ति नहीं खरीद सकता- जब एक डिक्रीदार को आदेश 40, नियम 1 के अधीन (निर्णीत-ऋणी की) सम्पत्ति का प्रापक नियुक्त कर दिया जाता है, यदि यह न्यायालय को अनुमति लेकर उस सम्पत्ति को खरीद लेता है, तो उस विक्रय को अपास्त कर दिया जावेगा। ऐसा क्रय इस सिद्धान्त का उल्लंघन करता है कि किसी व्यक्ति को उस स्थिति में नहीं आना चाहिये, जिसमें उसका हित उसके कर्तव्य से टकराता हो। यह विक्रय शून्य नहीं है और उसे अलग वाद द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती

बोली लगाने की अनुमति - बिना अच्छे आधार या कारण के डिक्रीदार को बोली लगाने को अनुमति देने से इन्कार नहीं करना चाहिए। अनुमति प्राप्त करने के बाद डिक्रीदार को वहीं स्थिति हो जाती है, जो साधारण क्रेता को होती है। यही स्थिति एक बंधकितो-क्रेता को होगी। वह बंधकदार के न्यासी की स्थिति में नहीं होगा। नीलामी-विक्रय में जब डिक्रीदार ने बिना उचित स्वीकृति प्राप्त किए बोली लगाई, तो वह विक्रय नियम 72 का स्पष्ट उल्लंघन करता है।

डिक्रीत-राशि का क्रय-राशि के साथ समायोजन (मुजरा setting off)- यदि न्यायालय द्वारा डिक्रीदर को बोली लगाने की अनुमति देते समय यह शर्त लगाई हो कि समायोजन का अधिकार नहीं होगा, तो ऐसे मामले में समायोजन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।

जब डिक्रीदार को बोली लगाने की छूट दी गई है, तो उसे इस नियम सपठित नियम 84 के अधीन क्रयराशि का 25 प्रतिशत जमा कराने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि विक्रय की राशि डिक्री की राशि से अधिक न हो।

निष्पादन न्यायालय द्वारा प्रत्यर्थी डिक्रीदार को नियम 72 के अधीन नीलामी विक्रय में बोली लगाने और डिक्री की रकम को क्रयधन से मुजरा करने के लिए अनुज्ञात किया गया अनुमति दी गई। उस डिक्रीदार क्रेता ने नियन 84(1) के अधीन क्रयधन का 25 प्रतिशत जमा करा दिया और मुजरा के बाद अतिशेष को समय के अन्तर्गत जना करा दिया। ऐसी स्थिति में, ऐसे क्रेता को नियम 84(1) की अपेक्षा से अभिमुक्त करने के लिए न्यायालय द्वारा नियम 84(2) के अधीन अभिव्यक्त आदेश करना आवश्यक नहीं है।

अपीलार्थी द्वारा सार्वजनिक नीलाम में द्वितीय प्रत्यर्थी द्वारा सबसे ऊंची बोली लगाने और नीलाम के अगले दिन बोली की 25 प्रतिशत बकाया रकम जमा करने पर आक्षेप किया जाना- द्वितीय प्रत्यर्थी द्वारा नीलाम के अगले दिन नीलाम में लगाई गई बोली में सामग्री की कीमत की 25 प्रतिशत की बकाया रकम को जमा किए जाने का यह अर्थ लगाया जा सकता है कि उसने सामग्री की कीमत की 25 प्रतिशत रकम तत्काल जमा कर दी है।

आनुपातिक-वितरण अप्रभावित रहेगा इस नियम के अधीन डिक्रीदार को मुजरा की गई राशि को वापस करने का धारा 73 के अधीन डिक्रीदार का दायित्व आनुपातिक वितरण के प्रयोजन के लिए पारा 83 से प्रभावित नहीं होगा।

न्यायालय द्वारा नीलामी इसमें डिक्रीदार को केवल बोली लगाने की ही अनुमति नहीं दी गई, वरन् निम्नतम मूल्य से भी कम पर बोली लगाने की छूट दे दी गई। इस बारे में निर्णीत-ऋणी को कोई सूचना नहीं दी गई। यह एतराज तो उठाया गया, पर इस अनियमित कार्यवाही के परिणामस्वरूप आपत्तिकों को क्या सारभूत हानि हुई, यह दर्शित नहीं किया गया। अतः हस्तक्षेप नहीं किया गया।

अलग से वाद लाना वर्जित-यदि डिक्रीदार न्यायालय विक्रय में न्यायालय की अनुमति लिए बिना निर्णीत-ऋणी की सम्पत्ति खरीद लेता है, तो निर्णीतऋणी का उपचार इस नियम के अधीन सपठित धारा 41 के अधीन आवेदन करना है। अलग से वाद लाना धारा 47 द्वारा वर्जित है। क्या विक्रय को अपास्त किया जाय या नहीं यह प्रश्न डिक्री के "निष्पादन" से सम्बन्धित है। अतः इसका निर्णय निष्पादन न्यायालय ही करेगा, न कि अलग बाद द्वारा। उपनियम (3) में शब्दावली आदेश से विक्रय को अपास्त कर सकेगा का प्रयोग किया गया है।

न्यायालय यदि ठीक समझे, विक्रय को अपास्त कर सकेगा - (उपनियम-3)-बिना अनुमति प्राप्त किए विक्रय में सम्पत्ति को डिक्रीदार द्वारा खरीदे जाने पर वह विक्रय शून्य नहीं हो जाता, वह शून्यकरणीय होता है, जिसे निर्णीत-ऋणी के आवेदन पर निष्पादन न्यायालय अपास्त कर सकता है और अलग से वाद करना वर्जित है। निष्पादन में नीलामी को अपास्त करने के लिए आवेदन दिया गया। डिक्रीदार को सम्पत्ति के विक्रय में बोली लगाने के लिए न्यायालय द्वारा अनुमति नहीं दी गई थी। उसके द्वारा बिना अनुमति बोली लगाने से बिक्री अवैध हो गई।

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