सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 50 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-50 फर्म के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन (1) जहां डिक्री किसी फर्म के विरुद्ध पारित की गई है वहां निष्पादन-
(क) भागीदारी की किसी सम्पत्ति के विरुद्ध ;
(ख) किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जो आदेश 30 के नियम 6 या नियम 7 के अधीन स्वयं अपने नाम में उपसंजात हुआ है या जिसने अपने अभिवचन में यह स्वीकार किया है कि वह भागीदार है या जो भागीदार न्यायनिर्णीत किया जा चुका है;
(ग) किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जिस पर समन द्वारा भागीदार के रूप में व्यक्तिगत तामील की गई है और जो उपसंजात होने में असफल रहा है, अनुदत्त किया जा सकेगा
परन्तु इस उपनियम की कोई भी बात भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (1932 का 9) की धारा 30] के उपबन्धों को परिसीमित करने वाली या उन पर अन्यथा प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी।
(2) जहां डिक्रीदार डिक्री का निष्पादन किसी ऐसे व्यक्ति से भिन्न जो उपनियम (1) के खण्ड (ख) और (ग) में निर्दिष्ट है, किसी व्यक्ति के विरुद्ध उसके फर्म में भागीदार होने के नाते कराने का हकदार होने का दावा करता है वहां वह डिकी पारित करने वाले न्यायालय से इस इजाजत के लिए आवेदन कर सकेगा और जहां ऐसे दायित्व के बारे में विवाद नहीं किया जाता है वहां ऐसा न्यायालय ऐसी इजाजत दे सकेगा या जहां ऐसे दायित्व के बारे में विवाद किया जाता है वहां आदेश कर सकेगा कि ऐसे व्यक्ति के दायित्व का विचारण और अवधारण किसी ऐसी रीति से किया जाए जिससे वाद का कोई विवाद्यक विचरित और अवधारित किया जा सकता है।
(3) जहां किसी व्यक्ति के दायित्व का विचारण और अवधारण उपनियम (2) के अधीन किया गया है वहां उस पर किए गए आदेश का वही बल होगा और वह अपील के बारे में या अन्यथा उन्हीं शर्तों के अधीन रहेगा मानो वह डिक्री हो।
(4) भागीदार की किसी सम्पत्ति के विरुद्ध हुई डिक्री को छोड़कर, किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री उस फर्म में के किसी भागीदार को तभी निर्मुक करेंगी, दायी बनाएगी, या उसमें के किसी भागीदार पर प्रभाव डालेगी जब कि उपसंजात होने और उत्तर देने के लिए समन की तामील उस पर हो चुकी हो।
(5) इस नियम की कोई बात आदेश 30 के नियम 10 के उपबन्धों के आधार पर किसी हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब के विरुद्ध पारित किसी डिकी को लागू नहीं होगी।
फर्म के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन का तरीका नियम 50 में दिया गया है।
फर्म के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन (उपनियम-1)- यदि डिक्री किसी फर्म के विरुद्ध पारित की गई है, तो उसका निष्पादन भागीदारी की सम्पत्ति के विरुद्ध हो सकता है और फिर किसी भागीदार के रूप में उपस्थित होने वाले या न्यायालय द्वारा भागीदार होना निर्णीत कर देने पर या समन द्वारा भागीदार के रूप में तामील हो जाने पर ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध ऐसी डिक्री का निष्पादन हो सकता है। यह उपनियम भागीदारी अधिनियम की धारा 30 पर कोई प्रभाव नहीं डालता है।
न्यायालय की इजाजत (उपनियम 2 तथा 3) ऊपर उपनियन के खण्ड (ख) और (ग) में वर्णित श्रेणी के व्यक्तियों के अलावा किसी व्यक्ति के भागीदार होने के रूप में डिक्री का निष्पादन डिक्रीदार चाहता है, तो वह डिक्री पारित करने वाले न्यायालय से इजाजत (स्वीकृति/अनुमति) के लिए आवेदन करेगा।
इसमें दो बातें संभव है-
(1) यदि ऐसे दायित्व के बारे में उस व्यक्ति द्वारा कोई विवाद या एतराज नहीं किया जाता है, तो ऐसा (मूल) न्यायालय ऐसे निष्पादन की इजाजत दे सकेगा, या
(2) यदि ऐसे दायित्व के बारे में वह व्यक्ति आक्षेप / विवाद करता है, तो उस दायित्व के बारे में विचारण (जांच) करनी होगी और वाद की तरह विवाद्यक बनाकर उस पर सुनवाई कर निर्णय किया जावेगा। ऐसा आदेश उपनियम (3) के अनुसार एक डिक्री की तरह अपीलनीय होगा।
भागीदार का दायित्व (उपनियम 4)-भागीदारी की सम्पत्ति के विरुद्ध डिक्री न होकर यदि किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री है, तो उस भागीदार पर समन की तामील होना आवश्यक है। इसके बाद में ही ऐसे भागीदार के दायित्व का निर्णय हो सकेगा।
हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब को लागू नहीं होना (उपनियम-5) आदेश 10, नियम 10 के उपबंधों के आधार पर यह नियम किसी हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब के विरुद्ध पारित किसी डिक्री को लागू नहीं होगा।
भागीदार के विरुद्ध निष्पादन [आदेश 21 नियम 37 सपठित आदेश 21, नियम 50, पारा 47 और 151]- किसी फर्म के विरुद्ध प्राप्त की गई डिक्री का निष्पादन किसी भागीदार के विरुद्ध तभी कराया जा सकता है जब वह आदेश 30 के नियम 6 अथवा नियम 7 के अधीन अपने नाम से उपसंजात हुआ हो अथवा जिसने अभिवचन किए जाने पर यह स्वीकार किया हो कि वह फर्म में भागीदार है अथवा भागीदार निर्णीत किया गया है तथा उसका निष्पादन किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध भी कराया जा सकता है, जिस पर भागीदार के रूप में समन की तामील की गई है।
वह उपसंजात होने में असफल रहा है। फर्म के विरुद्ध प्राप्त की गई डिक्री किसी ऐसे भागीदार को, जहां तब उसकी भागीदारी सम्पत्ति से भिन्न संपत्ति का सम्बन्ध है, प्रभावित नहीं करेगी जिस पर हाजिर होने तथा उत्तर देने के लिए समन की तामील नहीं की गई है। डिक्रीधारी का यह कर्तव्य है कि वह निर्णीतऋणी फर्म के भागीदारों के विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से कार्यवाही करने के लिए उस न्यायालय की इजाजत ले जिसने तथाकथित डिक्री पारित की है।
अनुमति (इजाजत) का प्रभाव-जहां कोई डिक्री किसी फर्म के विरुद्ध पारित की गई है, तो पहले उसे भागीदारी-सम्पत्ति के विरुद्ध निष्पादित किया जावेगा, फिर उसे उपनियन 1 (ख) और (ग) में वर्णित मामलों में भागीदारों के विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से निष्पादित किया जाएगा। यदि एक डिक्रीदार जो उपनियम 1 (ख) और (ग) में वर्णित व्यक्तियों के विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से डिक्री निष्पादित कराने का हकदार है और वह गलती से उपनियम (2) के अधीन अनुमति के लिए आवेदन करता है, तो भी वह अपना अधिकार (हक) नहीं खोता है।
नियम के प्रावधान-जब तक न्यायालय से आदेश 21, नियम 50 के अधीन अनुमति (छूट) प्राप्त न कर ली जावे, एक फर्म के विरुद्ध पारित डिक्री की राशि की वसूली के लिए भागीदारों की गिरफ्तारी के द्वारा जिनको प्रतिवादियों के रूप में पक्षकार नहीं बनाया गया था, उस डिक्री का निष्पादन नहीं करवाया जा सकता।
आदेश 21, नियम 50(2) निष्पादन सम्बन्धी है, परन्तु वास्तव में यह आदेश 30 (फर्मों के विरुद्ध वाद) में दिए गए उपबंधों का एक भाग है। अतः ऐसे व्यक्ति के दायित्व का सही अर्थ लगाने के लिए इनको साथ-साथ पढ़ना होगा। जहां डिक्री में व्यक्तिगत दायित्व को अस्वीकार किया गया है और भागीदारी सम्पतियों का दायित्व पोषित किया गया है, वहां इस नियम के अधीन अनुमति प्राप्त करने का आवेदन चलने योग्य नहीं है। एक भागीदार, जिसने फर्म से निवृत्त होने का नोटिस दे दिया है, फर्म के उन देयों के लिए ऐसे दायित्व से छुटकारा नहीं पा सकता, जो उसकी निवृत्ति के पहले उत्पन्न हो चुके हैं।
नियम जब लागू नहीं होता जब व्यापार एक अकेले व्यक्ति का है और वाद उस व्यक्ति के विरुद्ध आदेश 30, नियम 10 के अधीन परिकल्पित नाम से किया गया है, तो आदेश 21 नियम 50(2) आकर्षित नहीं होता है।
डिक्री की वैधता को चुनौती नहीं दी जा सकती यह सुस्थापित विधि है कि- उपनियम (2) के अधीन जिस व्यक्ति को समन जारी किए गए हैं, वह केवल यह प्रश्न उठा सकता है कि वह भागीदार नहीं है या डिक्री कपट या मिली भगत का परिणाम है। परन्तु वह डिक्री की निष्पादनीयता या वैधता का प्रश्न नहीं उठा सकता।
अनुमति का आवेदन और पूर्व न्याय- एक वाद में कहा गया है कि आदेश 21, नियम 50 (2) के अधीन फर्म के भागीदारों को पक्षकार बनाने के लिए आवेदन अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि डिक्रीत राशि के भुगतान में चूक न होने पर निष्पादन का प्रश्न ही नहीं उठेगा और भागीदारों को पक्षकार बनाने का प्रश्न संगत नहीं था।
अभिनिर्धारित कि यहां दूसरा आवेदन पूर्व-न्याय से वर्जित नहीं होगा, क्योंकि पहला आवेदन गुणागुण पर नहीं निपटाया गया था। वास्तव में पहले आवेदन पर आदेश किए गये आदेश में यह निहित था कि यदि चूक की गई, तो बाद में भागीदारों को पक्षकार बनाया जा सकेगा। अब डिक्रीदार का मामला यह है कि भुगतान में चूक हो गई है, अत: पहला निर्णय पूर्व-न्याय के रूप में लागू नहीं होगा।
न्यायालय की अधिकारिता का प्रश्न- उप नियम (2) के अधीन यह निर्विवाद है कि डिक्री को अन्तरित करने वाला (मूल) न्यायालय कार्यवाही कर सकता है। वह डिक्री को शून्य पोषित कर सकता है।
आदेश डिक्री के समान अपीलनीय उपनियम (3) यह अनुध्यात करता है कि इस नियम के अधीन आदेश दायित्व पर विचारण कर निर्णय के रूप में दिया गया है। एकपक्षीय आदेश इस नियम के भीतर नहीं आता है। यह नियम एक डिक्री की अपील की तरह उन्हीं शर्तों के अध्यधीन है। इस पर मूल्य के आधार पर नियमित अपील की तरह स्टाम्प लगाने होंगे। भागीदार होने या न होने का निर्णय एक डिक्री की तरह अपीलनीय है, जो उप नियम (3) के अधीन होगी।
भागीदारी फर्म की डिक्री का निष्पादन-एक डिक्री में धनराशि की वसूली के लिए एक भागीदारी-धर्म के विरुद्ध पारित की गई। डिक्रीदार ने निर्णीत ऋणी फर्म के भागीदारों के विरुद्ध दिल्ली में स्थित सिविल-यायालयों में उस डिक्री को निष्पादन के लिए अन्तरित करने तथा उन सभी भागीदारों को गिरफ्तार कर सिविल जेल में भेजने के लिए आवेदन किया।
अभिनिर्धारित कि निष्पादन न्यायालय ने यह आदेश देने में गलती की कि इस छोटे से आधार पर कि- फर्म कुछ नहीं होती, परंतु उसको निर्मित करने वाले भागीदारों के नाम को प्रकट करने का संग्रहित रूप है। यह बताया गया कि निर्णीत ऋणी फ़र्म के किसी भागीदार को उस वाद में प्रतिवादी के रूप में सम्मिलित नहीं किया, न उनमें से कोई उस न्यायालय में किसी समन के उत्तर में उपस्थित हुआ। इसमें उस न्यायालय की अनुमति नहीं ली गई, जिसने डिक्री पारित की थी।
एक मामले में एक फर्म के विरुद्ध पारित डिक्री पारित की गई और डिक्रीदार ने उस डिक्री का निष्पादन एक निवृत-भागीदार के विरुद्ध इस आधार पर करवाना चाहा कि वह वाद के समय भागीदार था। आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि डिक्रीत राशि के भुगतान में कोई चूक नहीं की गई है। अतः निष्पादन का प्रस्न नहीं उठेगा, और भागीदारों को पक्षकार बनाने का प्रश्न भी नहीं उठेगा। अभिनिर्धारित कि-
(1) उसी समान अनुतोष के लिए दूसरा आवेदन पूर्व न्याय से वर्जित नहीं है, क्योंकि पहला आवेदन गुणागुन पर खारिज नहीं किया गया था।
(2) भागीदार के दायित्व संबंधी विवाद्यक का निपटारा आदेश 19, नियम 1 सपठित आदेश 21, नियम 50 (2) के अधीन शपथपत्रों द्वारा किया जा सकता है।
(3) जब डिक्री कपटपूर्ण या मिली भगत से प्राप्त नहीं पाई गई, तो प्रत्येक भागीदार उससे बाधित है।
शपथ-पत्र पर साक्ष्य-आदेश 21, नियम 50 (2) के अधीन, जहां एक फर्म के विरुद्ध पारित डिक्री के अधीन एक भागीदार के दायित्व पर विवाद हो, तो दायित्व के बारे में विवाद का किसी तरीके से जिसमें एक वाद में विवाधक पर विचारण किया जाता है विचारण करना होगा। ये शब्द इस प्रयोजन के लिए कुंजी हैं।
आदेश 19, नियम 1 के अधीन, न्यायालय पर्याप्त कारण होने पर आदेश दे सकेगा कि कोई विशेष तथ्य को शपथपत्र (परन्तुक के अधीन रहते हुए) द्वारा साबित किया जा सकेगा। अतः आदेश 21, नियम 50 (2) के अधीन एक विवाद का आदेश 19, नियम 1 के परन्तुक के अधीन रहते हुए शपथपत्रों पर विचारण किया जा सकता है।
भागीदार के आक्षेप और उसकी बाध्यता-एक व्यक्ति जिसे भागीदार के रूप में पक्षकार बनाया है, यह कह सकता है कि वह भागीदार नहीं था, परन्तु जब एक बार फर्म के विरुद्ध पारित डिक्री के बारे में यह पाया गया कि वह मिली भगत से या कपट से प्राप्त नहीं की गई है, तो प्रत्येक भागीदार उस डिक्री से बाध्य होगा।
आदेश 21, नियम 50(2) के अधीन, जहां फर्म के विरुद्ध पारित डिक्री के अधीन एक भागीदार के दायित्व पर विवाद हो, तो दायित्व के बारे में विवाद का किसी तरीके से जिसमें एक वाद में विवाद्यक पर विचारण किया जाता है विचारण करना होगा। ये शब्द इस प्रयोजन के लिए मुख्य-शब्द है।
आदेश 19, नियम 1 के अधीन, न्यायालय पर्याप्त कारण होने पर आदेश दे सकेगा कि कोई विशेष तथ्य को शपथपत्र (परन्तुक के अधीन रहते हुए) द्वारा साबित किया जा सकेगा। अतः आदेश 21, नियम 50(2) के अधीन एक विवाद का आदेश 19, नियम 1 के परन्तुक के अधीन रहते हुए शपथपत्रों पर विचारण किया जा सकता है।
इस नियम का उद्देश्य उस व्यक्ति को एक अवसर देना है, जो नियम 50 के उपनियम (1) के खण्ड (ख) और (ग) में नहीं आता है और जिसके विरुद्ध डिक्रीदार अपनी डिक्री का निष्पादन करवाना चाहता है ताकि ऐसा व्यक्ति भागीदार के रूप में अपने दायित्व के बारे में, यदि वह चाहे, तो एतराज उठा सके।