सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 121: आदेश 21 नियम 46(क) से 46(झ) के प्रावधान

Update: 2024-02-10 08:40 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 46(क) से लेकर 46(झ) तक पर विवेचना की जा रही है।

नियम-46(क) गारनिशी को सूचना (1) न्यायालय (बन्धक या प्रभार द्वारा प्रतिभूत ऋण से मित्र) ऐसे ऋण की दशा में, जिसकी नियम 46 के अधीन कुर्की की गई है, कुर्की कराने वाले लेनदार के आवेदन पर ऐसे ऋण का संदाय करने के दायित्वाधीन गारनिशी को सूचना दे सकेगा जिसमें उससे यह अपेक्षा की जाएगी कि वह निर्णीत ऋणी को उसके द्वारा शोध्य ऋण या उसका इतना भाग जितना डिक्री और निष्पादन के खर्चों को चुकाने के लिए पर्याप्त हो, न्यायालय में जमा करे या उपसंजात हो तथा कारण दर्शित करें कि उसे वैसा क्यों नहीं करना चाहिए।

(2) उपनियम (1) के अधीन कोई आवेदन शपथपत्र पर किया जाएगा जिसमें अभिकथित तथ्य सत्यापित होंगे और यह कथित होगा कि अभिसाक्षी को विश्वास है कि गारनिशी निर्णीत ऋणी का ऋणी है।

(3) जहां गारनिशी निर्णीत ऋणी को उसके द्वारा शोध्य रकम या उसका इतना भाग जितना डिक्री और निष्पादन के खर्चों को चुकाने के लिए पर्याप्त है, न्यायालय में जमा कर देता है वहां न्यायालय निदेश दे सकेगा कि वह रकम डिक्री की तुष्टि और निष्पादन के खर्चें को चुकाने के लिए डिक्रीदार को संदत्त कर दी जाए।

नियम-46(ख) गारनिशी के विरुद्ध आदेश- जहां गारनिशी निर्णीतऋणी को उसके द्वारा शोध्य रकम या उसका इतना भाग जितना डिक्री की तुष्टि और निष्पादन के खर्चों को चुकाने के लिए पर्याप्त है तुरन्त न्यायालय में जमा नहीं करता है और उपसंजात नहीं होता है तथा सूचना के अनुसरण में कारण दर्शित नहीं करता है वहां न्यायालय गारनिशी को आदेश दे सकेगा कि वह ऐसी सूचना के निबन्धनों का अनुपालन करे और ऐसे आदेश पर निष्पादन इस प्रकार किया जा सकेगा मानो ऐसा आदेश उसके विरुद्ध डिकी हो।

46(ग) विवादग्रस्त प्रश्नों का विचारण- जहां गारनिशी दायित्व के बारे में विवाद करता है वहां न्यायालय आदेश कर सकेगा कि दायित्व के अवधारण के लिए किसी विवाद्यक या आवश्यक प्रश्न का विचारण इस प्रकार किया जाएगा मानो वह वाद में का विवाद्यक हो और ऐसे विवाद्यक के अवधारण पर ऐसा आदेश या ऐसे आदेश करेगा जो वह ठीक समझे।

परन्तु यदि वह ऋण, जिसके सम्बन्ध में नियम 46(क) अधीन आवेदन किया गया है, इतनी धनराशि के बारे में है जो न्यायालय की धनसंबंधी अधिकारिता के बाहर है तो न्यायालय निष्पादन के मामले को उस जिला न्यायाधीश के न्यायालय को भेजेगा जिसके उक्त न्यायालय अधीनस्थ है और तब जिला न्यायाधीश का न्यायालय या कोई अन्य सक्षम न्यायालय जिसे वह जिला न्यायाधीश द्वारा अंतरित किया जाए, उसे उसी प्रकार निपटाएगा मानो वह मामला प्रारम्भ में उसी न्यायालय में संस्थित किया गया हो।

46(घ) जहां ऋण अन्य व्यक्ति का हो वहां प्रक्रिया जहां यह सुझाया जाता है या संभाव्य प्रतीत होता है कि ऋण किसी अन्य व्यक्ति का है या ऐसे ऋण पर किसी अन्य व्यक्ति का धारणाधिकार या प्रभार अथवा उसमें अन्य हित है वहां न्यायालय ऐसे अन्य व्यक्ति को आदेश दे सकेगा कि वह उपसंजात हो और ऐसे ऋण के बारे में अपने दावे की प्रकृति और विशिष्टियां, यदि कोई हो, कथित करे और उसे साबित करे।

46(ङ) अन्य व्यक्ति के बारे में आदेश ऐसे अन्य व्यक्ति और किसी ऐसे व्यक्ति को जिन्हें तत्पश्चात् उपसंजात होने का आदेश दिया जाए या जहां ऐसा अन्य या दूसरा व्यक्ति या दूसरे व्यकि ऐसा आदेश दिए जाने पर उपसंजात नहीं होते हैं वहां न्यायालय ऐसा आदेश कर सकेगा जो इसमें इसके पूर्व उपबन्धित है या ऐसे अन्य अथवा दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के, यथास्थिति, धारणाधिकार, प्रभाव या हित के सम्बन्ध में, ऐसे निबन्धनों पर, यदि कोई हों, ऐसा अन्य आदेश या ऐसे अन्य आदेश दे सकेगा जो वह ठीक और उचित समझे।

46(च) गारनिशी द्वारा किया गया संदाय विधिमान्य उन्मोचन होगा- नियम 46(क) के अधीन सूचना पर या पूर्वोक्त किसी आदेश के अधीन गारनिशी द्वारा किया गया संदाय निर्णीतऋणी और पूर्वोक्त रूप से उपसंजात होने के लिए आदिष्ट किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध उस रकम के लिए जो संदत्त की गई हो या उद्‌गृहीत की गई हो उसका विधिमान्य उन्मोचन होगा चाहे वह डिक्री जिसके निष्पादन में नियम 46(क) के अधीन आवेदन किया गया था, या ऐसे आवेदन पर की गई कार्यवाहियों में पारित आदेश अपास्त कर दिया जाए या उलट दिया जाए।

46(छ) खर्चे- नियम 46(क) के अधीन किए गए किसी आवेदन के और उससे होने वाली किसी कार्यवाही के अथवा उसके आनुषंगिक खर्चे न्यायालय के विवेक के अधीन होंगे।

46(ज) अपीलें- नियम 46(ख) नियम 46(ग) या नियम 46(ङ) के अधीन किया गया कोई आदेश डिक्री के रूप में अपीलनीय होगा।

46(झ) परक्राम्य लिखतों को लागू होना- नियम 46(क) से 46(ज) तक के (जिनके अन्तर्गत ये दोनों नियम भी हैं) उपबन्ध नियम 51 के अधीन कुर्क की गई परक्राम्य लिखतों के सम्बन्ध में जहां तक हो सके वैसे ही लागू होंगे जैसे वे ऋणों के सम्बन्ध में लागू होते हैं।

आदेश 21 के नियम 46(क) से 46(झ) तक 1976 में अन्तःस्थापित किये (जोड़े) गये हैं, जिनमें गारनिशी से निर्णीत-ऋणी के ऋण की वसूली सम्बन्धी व्यवस्था की गई है।

गारनिशी वह व्यक्ति है, जो निर्णीत-ऋणी को कुछ राशि ऋण के रूप में चुकाने को दायी है, अर्थात् निर्णीतऋणी का ऋणी है। उसे न्यायालय के आदेश द्वारा वह राशि उस निर्णीत-ऋणी को न देकर न्यायालय में जमा कराने का आदेश दिया जाता है। यह आदेश एक सूचना के रूप में नियम 46(क) (1) के अधीन लेनदार (डिक्रीदार) के आवेदन पर दिया जाएगा। ऐसा आवेदन एक शपथ पत्र पर दिया जाएगा। इस पर गारनिशी यदि वह रकम जमा करा देता है और उससे डिक्री की तुष्टि हो जाती है, तो वह रकम डिक्रीदार को दे दी जावेगी।

गारनिशी के द्वारा उपस्थित न होने तथा कारण न बताने पर धारा 46(ख) के अधीन आदेश दिया जाएगा, जिसका निष्पादन डिक्री की तरह होगा। विवादग्रस्त मामलों पर गारनिशी के दायित्व का निर्णय करने के लिए विवाद्यक बनाकर वाद की तरह उस पर निर्णय दिया जाएगा। यदि ऋण अन्य व्यक्ति का हो, तो नियम आय के अनुसार कार्यवाही करते हुए नियम 46(ङ) के अनुसार उचित आदेश दिया जावेगा। नियम क-च के अनुसार गारनिशी द्वारा किया गया संदाय विधिमान्य उन्मोचन होगा। इस कार्यवाही के खर्च नियम 46-3 के अनुसार न्यायालय के विवेकानुसार होंगे।

गारनिशी का निवास यदि गारनिशी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहता है और उसकी सम्पत्ति भी वहीं है, तो भी इस नियम के अनुसार प्रतिषेधात्मक आदेश जारी किया जा सकता है। इसी प्रकार चाहे ऋणी बाहर रहता हो, उसका अधिकार-क्षेत्र में संदेय (भुगतान योग्य) ऋण कुर्क किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि- गारनिशी कहीं भी रहता हो, ऋण चाहे कहीं भी देय हो, उसे नियम 46 के अधीन कुर्क किया जा सकता है।

आदेश डिक्री के रूप में गारनिशी के विरुद्ध नियम 46(ख) के अधीन न्यायालय में धन जमा कराने का आदेश डिक्री के समान है और नियम 40(च) के अधीन उसके विरुद्ध अपील की जा सकती है। गारनिशी द्वारा की गई आपत्ति का निराकरण निष्पादन न्यायालय कर सकता है।

गारनिशी के साथ कार्यवाही-

(क) गारनिशी द्वारा ऋण को स्वीकार करने पर यदि गारनिशी ऋण को स्वीकार कर लेता है, तो न्यायालय उस स्वीकृति की सीमा तक उस ऋण को न्यायालय में जमा कराने का आदेश दे सकता है। परन्तु जब तक वह ऋण देय (भुगतान योग्य) नहीं हो जाता है, न्यायालय ऐसा आदेश नहीं दे सकता है। यदि निर्णीत ऋणी और गारनिशी के बीच कुर्की के दिनांक को कोई आपसी ऋण में से गारनिशी का जो ऋण बकाया है, उसका मुजरा दिया जा सकता है; परन्तु कुर्की के बाद के ऋण का नहीं।

(ख) गारनिशी द्वारा ऋण को अस्वीकार करने पर जब गारनिशी किसी ऋण को स्वीकार नहीं करता है, तो न्यायालय का यह कार्य नहीं है कि वह उस ऋण के वास्तव में देय होने का पता लगाये।

मृतक-ऋणी के विधिक प्रतिनिधियों के विरुद्ध पारित डिक्री के मामले में यदि यह विवाद उठे कि कोई उस मृतक की आस्तियों में से है या वह निर्णीत-ऋणियों (विधिक प्रतिनिधियों) की व्यक्तिगत सम्पत्ति है, तो इस प्रश्न का निर्णय निष्पादन कार्यवाही में ही किया जाएगा।

गारनिशी को सूचना व उसके द्वारा किए गए एतराज पर विचार आवश्यक- एक वाद में एक समझौता के आधार पर प्राप्त धनीय डिक्री का निष्पादन किया गया, जिसमें डिकीदार की प्रेरणा पर अपीलार्थी/गारनिशी के कब्जे में बताई गई निर्णीत-ऋणी की कुछ राशि की निर्णय पूर्व कुर्की की गई और इसके लिए एक प्रतिबन्धात्मक आदेश जारी किया गया। परन्तु निष्पादन-न्यायालय ने किसी भी प्रक्रम पर आदेश 21 नियम 46-क के अधीन उस गारनिशी को नोटिस जारी नहीं किया और केवल एक पत्र लिखकर गारनिशी को राशि भेजने की प्रार्थना का निर्देश दिया गया।

इस पत्र में समन या नोटिस के लिए वांछित कोई विवरण नहीं दिया गया, अतः यह आदेश 38, नियम 5 को आकर्षित नहीं करेगा। उस पत्र के उत्तर में गारनिशी ने न्यायालय में उपस्थित होकर एक प्रति-शपथ पत्र द्वारा कुछ एतराज उठाये। अभिनिर्धारित किया गया कि उसने अपने प्रति-शपथ पत्र में अपने कथन उठाये, उनको आदेश 21, नियम 46क के अधीन औपचारिक नोटिस के अभाव में भी आदेश 21, नियम 25क में चाहे गये एतराज समझा जा सकता है।

ऐसा होने पर निचले न्यायालय का आदेश 21, नियम 46-ग के अधीन यह आदेश देने का कर्तव्य था कि विवादग्रस्त प्रश्न का एक विवाद्यक के रूप में विचारण किया जाएगा और इसके बाद उस विवाद्यक पर निर्णय दिया जाता। इस प्रश्नगत आदेश में, निचले न्यायालय ने यह दृष्टिकोण अपनाया कि यह तर्क कि उस (गारनिशी) के पास कोई राशि उपलब्ध नहीं है, संधारणीय (चलने योग्य) नहीं है और उसे ऐसा कहने की छूट नहीं थी। निचले न्यायालय का यह कथन कि वह गारनिशी नहीं है, कोई अर्थ नहीं रखता।

वह इस अर्थ में गारनिशी था कि उसने प्रतिबंधात्मक आदेश प्राप्त किया था। परन्तु उसे यह कहने की छूट थी कि उसके पास निर्णीतऋणी की या निर्णीतक्रणी को देने योग्य कोई धनराशि नहीं थी। यदि आदेश 21, नियम 46-क के अधीन नोटिस के उत्तर में उचित प्रक्रम पर यह तर्क उठाया जाता है, तो उस पर न्यायालय को विचार करना होगा।है।

जंगम (चल) सम्पत्ति, जो निर्णीत-ऋणी के कब्जे में नहीं यदि निर्णीत-ऋणी ने अपनी सम्पत्ति का कब्ज़ा किसी पर व्यक्ति (थर्ड परसन) को दे दिया है, तो भी कुर्की प्रतिषेपात्मक आदेश द्वारा की जा सकेगी इस नियम के अधीन परव्यक्ति के गोदाम पर चस्पा (सील) लगाना न्यायाचित नहीं है, जिसमें निर्णीत-ऋणी का सामान भी रखा हुआ है। बैंक के साथ रहन (Pledged) रखे गये सामान की कुर्की के लिए बैंक को लिखित में प्रतिषेधात्मक आदेश इस नियम के अधीन दिया जावेगा।

भागीदार के भाग का निष्पादन भागदारी के भाग में हित के अलावा निर्णीत-ऋणी के पास कोई सम्पत्ति नहीं थी। अतः वादी ने आदेश 38, नियम 5 सपठित आदेश 21, नियम 26क के अधीन गारनिशी आदेश के लिए आवेदन किया। अभिनिर्धारित कि वादी को आदेश 21, नियम 46(क) के अधीन कार्यवाही करनी चाहिये थी, जो विशेष रूप से ऐसे मामलों के लिए है।

ऐसी स्थिति में वादी को भार-आदेश (Charging order) के लिए आवेदन करना होगा, जो साधारणतया न्यायालय द्वारा प्रापक नियुक्त करके या अन्य तरीके से किया जाता है। एक भागीदार के लेनदार को इससे अधिक उपयुक्त उपचार भागीदारी की आस्तियों में भागीदारी के हित के विरुद्ध उपलब्ध नहीं है।

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