सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। निष्पादन का अर्थ डिक्री में दिए गए आदेश को लागू करवाने से है।
नियम-2 डिक्रीदार को न्यायालय के बाहर संदाय- (1) जहां किसी प्रकार की डिक्री के अधीन कोई धन न्यायालय के बाहर संदत किया गया है या किसी प्रकार की पूरी डिक्री या उसके किसी भाग का समायोजन डिक्रीदार को समाधानप्रद रूप में अन्यथा कर दिया गया है। यहां डिक्रीदार उस न्यायालय को जिसका कर्तव्य डिक्री का निष्पादन करना है यह प्रभाणित करेगा कि ऐसा संदाय या समायोजन कर दिया गया है और न्यायालय उसे तदनुसार अभिलिखित करेगा।
(2) निर्णीत ऋणी या कोई ऐसा व्यक्ति भी जो निर्णीतरुणी के लिए प्रतिभू है। ऐसे संदाय वा समायोजन की इत्तिला न्यायालय को दे सकेगा और न्यायालय से आवेदन कर सकेगा कि न्यायालय अपने द्वारा नियत किए जाने वाले दिन को वह हेतुक दर्शित करने के लिए सूचना डिक्रीदार के नाम निकाले कि ऐसे संदाय या समायोजन के बारे में यह क्यों न अभिलिखित कर लिया जाए कि वह प्रमाणित है और यदि डिक्रीदार ऐसी सूचना की तामील के पश्चात् यह हेतुक दर्शित करने में असफल रहता है कि संदाय या समायोजन के बारे में यह अभिलिखित किया जाना चाहिए कि वह प्रमाणित है तो न्यायालय उसे तदनुसार अभिलिखित करेगा।
[(2क) निर्णीतऋणी की प्रेरणा पर कोई भी संदाय या समायोजन तब तक अभिलिखित नहीं किया जाएगा जब तक
(क) वह संदाय नियम में उपबन्धित रीति से किया गया हो, या
(ख) वह संदाय वा समायोजन दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा साबित न हो; या
(ग) वह संदाय या समायोजन डिक्रीदार द्वारा या उसकी ओर से उस सूचना के उसके उत्तर में जो नियम के उपनियम (2) के अधीन दी गई है या न्यायालय के समक्ष स्वीकार किया गया हो।
(3) वह संदाय या समायोजन जो पूर्वोक्त रीति से प्रमाणित या अभिलिखित नहीं किया गया है, डिक्री निष्पादन करने वाले किसी न्यायालय द्वारा मान्य नहीं किया जाएगा।
न्यायालय के बाहर डिक्रीदार को संदाय (भुगतान) करने पर उसके समायोजन का प्रमाणीकरण करने की व्यवस्था इस नियम द्वारा की गई है। इस नियम के अधीन प्रस्तुत निष्पादन आवेदन हेतु आदेश 20 नियम 6 क (2) के प्रावधान लागू होते हैं एवं उचित कारण पर डिक्री को प्रमाणित प्रति के अभाव में इस नियम के अधीन निष्पादन आवेदन पोषणीय है।
समस्त प्रकार को डिक्रियों पर लागू-इस नियम में संशोधन द्वारा उस विवाद को समाप्त कर दिया गया है, जिसमें इस नियम को सभी डिक्रियों पर लागू करने के बारे में भिन्न-भिन्न निर्णय थे। अब यह नियम संशोधन के बाद सब प्रकार को डिक्रियों को लागू होता है। इसमें अब निर्णीतऋणी के प्रतिभू को सम्मिलित कर लिया गया है, जो संदाय या समायोजन के लिए न्यायालय को सूचित कर सकता है।
नियम 2 की आवश्यक शर्ते-
नियम 2 तब लागू होता है, जब उसमें निम्नलिखित दो शर्तें पूरी हो जाती है-
(1) संदाय (भुगतान) - किसी प्रकार की डिक्री के अधीन संदेय (भुगतान योग्य) कोई धन राशि का भुगतान न्यायालय के बाहर डिक्रीदार को किया गया है, या
(2) समायोजन (एडजेस्टमेंट) - किसी प्रकार की पूरी डिक्री या उस डिक्री के किसी भाग का समायोजन डिक्रीदार को उसके सन्तोष (समाधान) के अनुसार कर दिया गया हो।
डिक्रीदार द्वारा प्रमाणित करना- ऐसी स्थिति में उपनियम (1) के अनुसार डिक्रीदार उस भुगतान या समायोजन को निष्पादन न्यायालय में प्रमाणित करेगा। यह आवेदन देगा और न्यायालय उसको अभिलिखित करेगा।
यह निष्पादन-न्यायालय का कर्तव्य है कि वह उपरोक्त दोनों स्थितियों में ऐसा समायोजन अभिलिखित करने से पहले देख ले कि वह समायोजन वैध है और उसे मान्य किया जा सकता है। इस नियम के अधीन डिक्रीदार का आवेदन द्वारा उस समायोजन को प्रमाणित करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् न्यायालय द्वारा उसे अभिलिखित करना भी आवश्यक है। शब्द प्रमाणित या अभिलिखित के बीच या" को और के अर्थ में पढ़ना होगा, जो उप नियम (3) में आया है।
इस प्रकार दोनों कार्य (1) प्रमाणित करना और (2) न्यायालय द्वारा अभिलिखित करना, पूरे होने आवश्यक है। न्यायालय द्वारा भुगतान या समायोजन अभिलिखित करने से पहले डिक्रीदार अपने आवेदन पत्र को वापस ले सकता है। ऐसी स्थिति में प्रमाणीकरण नहीं माना जावेगा।
निर्णीतऋणी या उसके प्रतिभू द्वारा संदाय या समायोजन की सूचना (उपनियम-2)-ऐसे संदाय या समायोजन की सूचना देना निर्णीत या उसके प्रतिभू का कर्तव्य है, जो परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 125 के अधीन भुगतान के दिनांक से 30 दिन के भीतर दी जानी आवश्यक है। इसके साथ-साथ उस आवेदन में डिक्रीदार को यह सूचना देने की प्रार्थना भी करनी होगी कि वह नियत दिनांक को उपस्थित होकर कारण बतावे।
ऐसी सूचना की तामील के बाद यदि डिक्रीदार कारण बताने में असफल रहता है, तो न्यायालय उस संदाय या समायोजन को अभिलिखित करेगा। परन्तु डिक्रीदार यदि उपस्थित होकर कारण बताता है या एतराज करता है, तो उस पर विचार किया जावेगा।
निर्णय दूषित, जब अनुमानों को आधार बनाया- आदेश 21, नियम 2 सपठित साक्ष्य अधिनियम, 1972, धारा 67) न्यायालय से बाहर डिक्री को तुष्टि के लिए संदाय किया गया और डिक्रीदार द्वारा प्राप्त धन के बारे में रसीद दी गई, किन्तु तत्पश्चात् न्यायालय में निष्पादन हेतु उस संदाय की रसीद और अपने हस्ताक्षरों से डिक्रीदार ने इंकार कर दिया।
अपील न्यायालय द्वारा हस्ताक्षर विशेषज्ञ तथा अन्य अभिलिखित साक्ष्य पर ध्यान नहीं दिया गया। अतः ऐसा निर्णय साक्ष्य सम्बन्धी प्रक्रियात्मक गलती के कारण दूषित है क्योंकि यह अभिलेख के साक्ष्य पर आधारित होने की बजाय अनुमानों और कल्पनाओं पर आधारित है। एक मामले में जब रसीद फर्जी पाई गई तो एतराज सही खारिज किया गया।
एक वाद में कहा गया है कि डिक्रीदार को न्यायालय के बाहर संदाय यदि डिक्रीदार द्वारा निष्पादन न्यायालय को दी गई सूचना से यह प्रतीत होता है कि समायोजन का केवल प्रयास ही किया गया था और वास्तविक समायोजन नहीं हुआ है तो ऐसी सूचना को आदेश 21 के नियम 2 (1) के अर्थान्तर्गत प्रमाणीकरण मानना उचित और न्यायसंगत नहीं है।
निर्णीत-ऋणी की प्ररेणा पर संदाय या समायोजन अभिलिखित करने के लिए आवश्यक शर्तें
इस उपनियम में (क) से (ग) तीन शर्तें दी गई हैं, जिनमें से किसी एक का पालन यदि निर्णीत-ऋणी या उसके प्रतिभू द्वारा किया जाता है, तो न्यायालय उस संदाय या समायोजन को अभिलिखित करेगा, अन्यथा नहीं।
(क) वह संदाय आदेश 21, नियम । में बताये तरीके से किया गया हो, या
(ख) वह संदाय या समायोजन किसी दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा साबित हो, या
(ग) डिक्रीदार द्वारा आदेश 21 के नियम 1 के उपनियम
(2) के अधीन सूचना प्राप्त होने पर उसके उत्तर में उस संदाय या समायोजन को न्यायालय के समक्ष स्वीकार कर लिया हो।
ये शर्तें भी आज्ञापक हैं, आदेशात्मक हैं। इनमें से किसी एक द्वारा ऐसा संदाय या समायोजन प्रमाणित किए जाने के बाद ही न्यायालय उसे अभिलिखित करेगा, जो उपनियम (3) के अधीन मान्य होगा।
न्यायालय के बाहर संदाय या समायोजन की मान्यता (उपनियम-3) इस नियम में ऊपर बताये गये तरीके से न्यायालय के बाहर किए गए संदाय या समायोजन को प्रमाणित या अभिलिखित किया जावेगा और तभी उसे निष्पादन न्यायालय द्वारा मान्य किया जावेगा। यहां (1) प्रमाणित करना या (D) अभिलिखित करने के बीच आये शब्द या को और पढ़ा जावेगा और दोनों कार्यवाही पूरी करनी होगी।
न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त-
(1) भुगतान जब मान्य नहीं यदि आदेश 21, नियम 2 के अधीन अभिलिखित नहीं किया गया हो, तो न्यायालय के बाहर निर्णीत-ऋणी द्वारा डिक्रीदार को किया गया भुगतान मान्य नहीं हो सकता।
(2) अन्तिम डिक्री के लिए लम्बित कार्यवाही पर यह नियम लागू नहीं होता सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 21, नियम 2 केवल निष्पादन में लागू होता है और चूंकि निष्पादन तब तक आरम्भ नहीं होता जब तक अन्तिम डिक्री बंधकित सम्पत्ति के विक्रय के लिए तैयार नहीं हो जाती। अतः सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21. नियम : सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 34, नियम 5 के अधीन अन्तिम डिक्री की तैयारी के लिए लम्बित कार्यवाहियों को लागू नहीं होता। जब तक कोई अन्तिम डिक्री नहीं दी जाती, यह नियम लागू नहीं होगा।
पर व्यक्ति द्वारा भुगतान- डिक्रीदारों के अलावा कोई व्यक्ति डिक्रीत राशि का भुगतान कर सकता है और डिक्री की संतुष्टि अभिलिखित करवा सकता है। डिक्रीदार को उस राशि के भुगतान से मतलब है, चाहे वह किसी भी स्त्रोत से किया गया हो। आदेश 21, नियम 2 किसी व्यक्ति को, जो डिक्रीदार, निर्णीत-ऋणी या प्रतिभू के अलावा है, न्यायालय को भुगतान के बारे में सूचित करने और डिक्री की संतुष्टि अभिलिखित कराने से वर्जित या अपवर्जित नहीं करता है। ऐसे मामले में डिक्रीदार को कोई प्रतिकूलिता (हानि) नहीं होती।
गिरफ्तारी आदेश के अधीन संदाय यदि गिरफ्तारी आदेश के अधीन न्यायालय के बाहर डिक्रीदार को भुगतान किया जाता है, तो उसको न्यायालय से प्रमाणित करवाया जा सकता है।
यदि अपील के डिक्रीदार और निर्णीत-ऋणी के बीच समायोजन हो जाता है, तो ऐसे समायोजन को अपीली-न्यायालय द्वारा प्रमाणित किया जाएगा, न कि विचारण न्यायालय द्वारा।
आदेश 21, नियम 2- निर्णीत-ऋणी द्वारा किए गए संदाय के आधार पर विक्री की पूर्णतः या भगतः तुष्टि दर्ज कराने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के नियम 2 के अधीन आवेदन के सम्बन्ध में धारा 17 लागू नहीं होती है। यदि निर्णीत-ऋणी डिक्रीदार को संदाय करता है तो तुष्टि दर्ज कराने के लिए आवेदन करना एक स्वतंत्र अधिकार है जिसका डिक्रीदार द्वारा न्यायालय को दृष्टि की रिपोर्ट करने से कोई सम्बन्ध नहीं है।
समायोजन के आधार पर निष्पादन कार्यवाही का स्थगन समायोजन के पक्ष में दृढ प्राथमिक दृष्ट्या मामला प्रस्तुत करना आवश्यक है। ऐसा करने पर ही निष्पादन कार्यवाही को रोका जा सकेगा।
करार की अस्वीकृति (आदेश 21, नियम 2 (3), सपठित धारा (1) निर्णीत ऋणियों और डिक्रीधारक के बीच डिक्री की तुष्टि के संबंध में किसी करार की बाबत डिक्रीधारक द्वारा इन्कार किए जाने पर निष्पादन न्यायालय द्वारा उक्त धारा 47 के अधीन अन्वेषण और न्याय-निर्णयन किया जाना होगा। ऐसा करार डिक्री के समायोजन की कोटि में नहीं आता, अतः उक्त आदेश 21 के नियम 2 के अधीन प्रमाणन की आवश्यकता नहीं है और आदेश 21 के नियम 2 का उपनियम (3) वर्जन के रूप में प्रवर्तित नहीं हो सकता है।
करार का स्वरूप (आदेश 21, नियम 2) डिक्री के पक्षकारों द्वारा उक्त डिक्री के निबन्धनों में फेरफार करते हुए किया गया करार संहिता में विहित तरीके से न्यायालय में अभिलिखित न होने के कारण प्रवृत्त नहीं कराया जा सकता। यह स्थापित विधि है कि-निष्पादन करने वाला न्यायालय अप्रमाणित संदाय या समायोजन के तथ्य की जांच करने के लिए सक्षम नहीं है, चाहे उसमें कपट का ही आरोप क्यों न लगाया गया हो।
जहां पक्षकारों के बीच संदाय या समायोजन का विवाद उसके तथ्य का न होकर उस शर्त से संबंधित है कि उसे पूरा नहीं किया गया तो न्यायालय उसकी जांच कर सकेगा। इसी प्रकार अन्य कार्यवाहियों में किये गये समायोजन, जो आदेश 21, नियम 11 (जी) या आदेश 21, नियम 95 एच के अधीन किए गए हैं, निष्पादन की कार्यवाही में नहीं आते हैं। अतः यह नियम वहां लागू नहीं होगा।