सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 102: आदेश 20 नियम 18 के प्रावधान

Update: 2024-01-25 10:06 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश का नियम 18 में विभाजन संबंधी वादों में डिक्री की व्यवस्था की गई है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 18 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-18 सम्पत्ति के विभाजन के लिए या उनमें के अंश पर पृथक् कब्जे के लिए वाद में डिक्री-जब न्यायालय सम्पत्ति के विभाजन के लिए या उसमें के अंश पर पृथक् कब्जे के लिए डिक्री पारित करता है तब-

(1) यदि और जहां तक डिक्री ऐसी सम्पदा से सम्बंधित है जिस पर सरकार को संदेय राजस्व निर्धारित है तो और वहां तक डिक्री सम्पत्ति में हितबद्ध विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा करेगी, किन्तु वह यह निदेश देगी कि ऐसा विभाजन या पृथक्करण ऐसी घोषणा और धारा 54 के उपबंधों के अनुसार कलेक्टर द्वारा या उसके द्वारा इस निमित्त प्रतिनियुक्त उसके किसी ऐसे अधीनस्थ द्वारा किया जाए जो राजपत्रित हो;

(2) यदि और जहां तक ऐसी डिक्री किसी अन्य स्थावर सम्पत्ति से या जंगम सम्पत्ति से सम्बन्धित है तो और वहां तक न्यायालय यदि विभाजन या पृथक्करण अतिरिक्त जांच के बिना सुविधापूर्वक नहीं किया जा सकता तो सम्पत्ति में हितबद्ध विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा करने वाली और ऐसे अतिरिक्त निदेश देने वाली जो अपेक्षित हो, प्रारम्भिक डिक्री पारित कर सकेगा।

आदेश 20 का नियम 18 में सम्पत्ति के विभाजन और अंशों का अलग से कब्जा देने के लिए वाद में डिक्री पारित करने के लिए निदेश दिये गये हैं।

सम्पत्ति के भेद व डिक्री का स्वरूप-नियम 18 में दो खण्ड है, जिनमें सम्पत्ति के भेदों के आधार पर डिक्री देने की व्यवस्था की गई है-

(1) वह सम्पदा, जिस पर सरकार का राजस्व निर्धारित है, और

(2) ऐसी अन्य स्थावर या जंगम सम्पत्ति है, जिसका विभाजन बिना अतिरिक्त जाँच के नहीं किया जा सकता।

राजस्व सम्पदा को व्यवस्था- उपरोक्त पहली स्थिति में डिक्री को सम्पत्ति में हितबद्ध पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा डिक्री में न्यायालय द्वारा की जावेगी और यह निदेश दिया जावेगा कि इस घोषणा तथा धारा 54 के उपबंधों के अनुसार सम्पदा (सम्पत्ति) का विभाजन या पृथक्करण कलेक्टर या उसके द्वारा प्रतिनियुक्त राजपत्रित अधीनस्थ अधिकारी द्वारा किया जाएगा।

प्रसंग के लिए धारा 54 का पाठ यहाँ उद्‌द्भुत किया जा रहा है-

"धारा 54-सम्पदा का विभाजन या अंश का पृथक्करण-जहाँ डिक्री किसी ऐसी अविभक (बिना विभाजन के) सम्पदा में विभाजन के लिए है, जिस पर सरकार को दिये जाने के लिए राजस्व निर्धारित है, या ऐसो सम्पदा के अंश पृथक् करने के लिए है, वहाँ सम्पदा का विभाजन या अंश (हिस्से) का पृथक्करण (अलग करना) कलेक्टर या कलेक्टर के ऐसे किसी राजपत्रित अधीनस्य द्वारा, जिसे उसने इस निमित्त प्रतिनियुक्त किया हो, ऐसी सम्पदाओं के विभाजन या अंशों के पृथक कब्जे से सम्बन्धित तत्समय प्रवृत्त विधि (यदि कोई हो) के अनुसार किया जाएगा।

इस प्रकार राजस्व सम्पदा का विभाजन या अंशों का पृथक्करण उपरोक्त राजस्व अधिकारियों द्वारा किया जाएगा, न कि न्यायालय या निष्पादन न्यायालय द्वारा। धारा 54 सपठित आदेश 20, नियम 18 के खण्ड (1) के अधीन यह कार्यवाही निष्पादन की कार्यवाही है।

तत्समय प्रवृत्त विधि से यहां विभिन्न राज्यों में बनाये गए भू-राजस्व अधिनियमों तथा उनके अधीन बनाये गये नियमों से है।

अन्य स्थावर या जंगम सम्पत्ति की व्यवस्था- अतिरिक्त जाँच के लिए निर्देश- यदि और जहाँ तक किसी विभाजन या पृथक्करण की डिक्री में ऐसी कोई अन्य स्थावर या जंगम सम्पत्ति का सम्बन्ध है, जिसके बारे में अतिरिक्त जाँच किए बिना सुविधापूर्वक विभाजन या पृथक्करण नहीं किया जा सकता तो-

1) उस सम्पत्ति से सम्बन्धित पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा करने वाली प्रारम्भिक डिक्री पारित की जाएगी, जिसमें अतिरिक्त जांच करने के लिए या जो अपेक्षित हों वैसे निर्देश दिये जायेंगे।

इस प्रकार अतिरिक्त जांच के बाद जब सब उलझनें दूर हो जाए, तो अन्तिम डिक्री पारित की जावेगी। विभाजन के वाद में गृह सम्पत्ति का आवंटन करने में न्यायालय को यह देखना होगा कि भोगियों के कब्जा, अधिभोग व जीवन निर्वाहन जैसे कारकों में न्यूनतम बाधा हो। ऐसे मामलों में कोई अटूट सिद्धान्त लागू नहीं किया जा सकता। प्रत्येक मामले को परिस्थितियों को नजर में रखते हुये विभाजन की डिक्री पारित करनी होगी। विभाजन वादों के लिए नियम 18 लागू होता है, न कि नियम 12 और इसके अनुसार विभाजन वाद में भविष्य के अन्तःकालीन लाभ के लिए निर्देश दिया जा सकता है, यद्यपि प्रारम्भिक डिक्री इसके बारे में शान्त है।

प्रारम्भिक तथा अन्तिम डिक्रियों का स्वरूप-

प्रारम्भिक डिक्री किसी वाद में उसके पक्षकारों के अधिकारों का निर्णय और विभाजित की गई सम्पत्ति में से उनके अंशों (हिस्सों) का आवंटन करती है, जब कि अन्तिम डिक्री सम्पत्तियों का अन्तिम विभाजन कर अलग-अलग आधिपत्य (कब्जा) देती है। ऐसे वाद में अन्त:कालीन लाभों का कोई दावा (मांग) नहीं हो सकता और केवल लेखे के लिए मांग की जा सकती है। विभिन्न सम्पत्तियों से उत्पन्न लाभ भी सम्पत्ति होंगे, जिनको सह-भागीदारों में विभाजित किया जावेगा।

अनेक प्रारंभिक डिक्रियाँ- जब तक अन्तिम डिक्री नहीं दी जाती, विभाजन-वाद लम्बित रहेगा और ऐसे वाद में कई प्रारम्भिक डिक्रियाँ पारित की जा सकती हैं।

वादों ने एक विभाजन-वाद में अपने 50% अंश के लिए दावा किया और उसके पक्ष में प्रारम्भिक डिक्री दे दी गई। इसके बाद उसके पिता को मृत्यु हो गई, तो उसने अपना अंश बढ़ाकर 60 प्रतिशत करने के लिए आवेदन किया। प्रतिवादी को नोटिस दिये बिना ही न्यायालय ने कमिश्नर को निर्देश दिया कि उसे दस आना अंश आवंटित कर दिया जावे। अभिनिर्धारित कि-ऐसा आदेश अविधिमान्य (अवैध) था।

एक विभाजन-वाद में प्रारम्भिक डिक्री पारित की गई। इसके बाद प्रश्न उठाया गया कि-सामान्य निधि (फण्ड) में से अपने नाम पर सह-स्वामो द्वारा अधिग्रहण को विभाजन के लिए दायी माना जाय या नहीं? अभिनिर्धारित कि ऐसे प्रश्न का निर्णय अन्तिम डिक्री में नहीं किया जा सकता, क्योंकि पक्षकार प्रारम्भिक-डिक्री से बाध्य हैं, जिसे पूरा करना नहीं चाहा गया।

एक विभाजन-वाद में प्रारम्भिक डिक्री पारित की गई। उस वाद के एक पक्षकार की मृत्यु हो गई, तो उसके विधिक प्रतिनिधि अन्तिम डिक्री तैयार करने के लिए आवेदन कर सकते हैं, उनको वादाधिकार प्राप्त है।

एक अन्तिम-डिक्री की कार्यवाही स्वयं उत्पन्न नहीं होती, परन्तु यह पहले से पारित की गई प्रारम्भिक- डिक्री का अनुसरण करती है, जो उस वाद में उसके पक्षकारों के उस भूमि के बारे में अधिकार और हितों का निपटारा पहले ही कर चुकी है। अन्तिम डिक्री पहले से विनिश्चित तथा डिक्रीत मामले को लागू करती है और इसका पक्षकारों के तात्विक अधिकारों के विनिश्चय करने से कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः एक विभाजन के वाद में मृतक-पक्षकार के विधिक प्रतिनिधि प्रारम्भिक डिक्री द्वारा निर्धारित अंशों के अनुसार अन्तिम-डिक्री के लिए विधिपूर्वक आवेदन कर सकते हैं।

जब विभाजन के वाद में सम्पत्ति के अस्तित्व (होने) के बारे में कोई विवाद नहीं था और केवल एक वस्तु के बारे में कुछ तय नहीं हो सका, तो उसको छोड़कर अन्य सम्पत्ति के बारे में एक प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी गई। ऐसे वाद में कई प्रारम्भिक डिक्रियाँ पारित करने पर कोई रोक नहीं है। उस एक बची हुई वस्तु को सम्मिलित करने के लिए, यदि यह संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति है, आदेश 20, नियम 18 या धारा 151 के अधीन कार्यवाही की जा सकती है।

कृषि भूमि का विभाजन-

जहां कृषि भूमि तथा अन्य सम्पतियों के विभाजन के लिए वाद लाया जाता है, वहां डिक्री को तब तक प्रारम्भिक डिक्री समझा जाएगा, जब तक कि उस कृषि भूमि का विभाजन करके कब्जा न दे दिया जाये।

एक विभाजन-वाद में कृषि-भूमि व अन्य सम्पत्तियों के विभाजन व कब्जे के लिए प्रार्थना की गई। इसमें डिक्री, जहां तक कृषि-भूमि का प्रश्न है, आदेश 20, नियम 18 (1) के अधीन एक प्रारम्भिक डिक्री मानी जावेगी, जब तक कि उस कृषि भूमि का विभाजन होकर कब्जा न दे दिया जाए।

सम्पति के विभाजन के लिए या उसमें के अंश पर पृथक् कब्जे के लिए वाद में डिक्री कृषि भूमि की बाबत डिक्री को उस समय तक एक प्रारम्भिक डिक्री के रूप में माना जाएगा जब तक भूमि का विभाजन नहीं हो जाता और राजस्व प्राधिकारियों द्वारा उसका कब्जा परिदत्त नहीं कर दिया जाता कलेक्टर के समक्ष कार्यवाहियों पर सिविल न्यायालय का नियंत्रण होगा और वह ऐसे आदेश पारित कर सकेगा जो विभाजन को प्रभावी करने के लिए उचित समझे जाएं- यदि अन्तःकालीन लाभ के लिए वादी द्वारा की गई प्रार्थना न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दी गई है तो वादी निष्पादन न्यायालय में अन्तःकालीन लाभ के लिए पुनः प्रार्थना नहीं कर सकता।

निजी-न्यास (प्राइवेट ट्रस्ट) के विस्ट लेखा देने तथा न्यास के प्रबन्ध व कब्जे के लिए वाद- एक निजी न्यास का प्रबन्धकर्ता व्यक्ति उचित लेखा रखने के लिए बाध्य है। ऐसे वाद में, जो परिवार के दूसरे सदस्य द्वारा फाइल किया गया, लेखा देने का अनुतोष एक प्रारम्भिक डिक्री के रूप में दिया जा सकता है। ऐसा वाद परिसीमा से वर्जित नहीं होगा, क्योंकि कब्जे की वापसी का दावा केवल तभी उत्पन्न होगा, जब कुप्रबन्ध और गबन स्थापित हो जाएगा।

व्यतिक्रम (चूक) के कारण खारिजी नहीं की जा सकती, जब प्रारम्भिक डिक्री पारित की जा चुकी हो- एक प्रारम्भिक डिक्री वाद के विवादग्रस्त विषयों में से समस्त या कुछ के बारे में पक्षकारों के अधिकारों और दायित्वों का पूर्णरूप से निपटारा कर देती है इसके आगे की कार्यवाही पक्षकारों के अधिकारों का समायोजन करने और उसकी योजना बनाने के लिए प्रतीक्षा करती है। जब एक बार प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी गई, तो न्यायालय उस वाद को व्यतिक्रम के कारण खारिज नहीं कर सकता। यदि वादी प्रारम्भिक डिक्री पारित करने के बाद कोई कदम नहीं उठाता है, तो न्यायालय अनिश्चितकाल के लिए कार्यवाही को स्थगित कर सकता है और सम्बन्धित पक्षकारों को यह छूट दे सकता है कि वे उचित कार्यवाही कर उस वाद को सक्रिय करे।

पूर्व न्याय और विबन्ध के सिद्धान्त प्रभावी

एक विभाजन वाद में प्रारम्भिक डिक्री द्वारा निर्णीत बातों पर पक्षकारों को विक्न्ध का सिद्धान्त लागू होगा और वे किसी दूसरे बाद में उन बिन्दुओं को पूर्व न्याय के सिद्धान्त से वर्जित होने के कारण नहीं उठा सकेंगे।

विभाजन वाद में प्रारम्भिक डिक्री का निष्पादन सम्पति में वादी को उसके अंश (भाग) का कब्जा देने के लिए भुगतान करने की शर्त प्रारम्भिक डिक्री में दी गई थी। अत: जब तक सम्पति के विभाजन की अन्तिम डिक्री पारित नहीं हो जाती, इस शर्त के अनुसार प्रारम्भिक डिक्री का निष्पादन नहीं हो सकता।

विभाजन के लिए वाद- जब वादी पर विलकर्ता की स्वयं द्वारा अर्जित सम्पति न्यायागत हो गई और यह साबित भी हो गया, तो वह "विल" पक्षकारों पर बाध्य है। विचारण-न्यायालय का यह आदेश निरस्त कर दिया गया कि- वादी अलग वाद लाकर उपचार प्राप्त करे। निदेश दिया गया कि सम्पति का विभाजन करके वादी के उपचार का पता लगाया जावे।

विभाजन के वाद में, जब तक अन्तिम डिक्री की कार्यवाही का निपटारा नहीं हो जाता, कोई निष्पादनीय डिक्री नहीं होती है।

अंगों के निर्धारण की तारीख-

एक विभाजन वाद में पक्षकारों के अंगों (शेषर्स) का निर्धारण (अवधारणा) उस दिनांक को किया जावेगा, जिस दिनांक को प्रारम्भिक डिक्री पारित की गई है। अत: यदि उस दिनांक को एक सहदायिकी (को-पार्सन्स) का आधा अंश एक नीलाम-क्रेता द्वारा खरीद लिया गया, तो वह नीलामक्रेता उस आधे अंग के लिए डिक्री अपने पक्ष में करवाने का हकदार होगा।

अन्तिम डिक्री का स्वरूप-

विभाजन-वाद में अन्तिम डिक्री प्रारम्भिक डिक्री में संशोधन नहीं कर सकती और न उसकी पृष्ठभूमि में जा सकती है, जो मामले उस प्रारंभिक डिक्री में तय किये जा चुके है, उन पर पुनः विचार नहीं किया जा सकता। विभाजन-वाद में प्रारम्भिक डिक्री अन्तःकालीन लाभों के बारे में शान्त थी, फिर भी अन्तिम डिक्री तैयार करते समय अन्त कालीन लाभों के बारे में निर्देश दिया जा सकता है, यद्यपि वादपत्र में इसके लिए कोई प्रार्थना नहीं की गई थी।

डिक्री में परिवर्तन विभाजन और लेखाओं के लिए वाद में प्रारम्भिक डिक्री के पश्चात् भी अंशों और अधिकारों का पुनः अवधारण किया जा सकता है और डिक्री में तद्नुसार परिवर्तन किया जा सकता है।

यदि किसी पक्षकार के अधिकार और हिस्से की बाबत प्रारम्भिक डिक्री में घोषणा नहीं की जाती है तो ऐसी दशा में आयुक्त (कमिश्नर) वादगत सम्पत्ति में से ऐसे पक्षकार के हिस्से का विभाजन या पृथकू रूप से आवंटन करने के लिए तब तक सक्षम नहीं होगा जब तक कि अपील या पुनर्विलोक्न में प्रारम्भिक डिक्री में उस आशय का विनिर्दिष्ट रूप से उपान्तरण न कर दिया गया हो।

सम्पत्ति के अंत का पर व्यक्ति द्वारा क्रय-आदेश 20, नियम 18 और 12 सपठित हिन्दू विधि- समस्त सहदायिक निकाय की सम्पत्ति को न्यायालय द्वारा नीलाम किया गया। सम्पत्ति का 1/5 अंश एक पर व्यक्ति क्रेता द्वारा क्रय किया गया तथा शेष 4/5 अंश का एक दूसरे पर व्यक्ति द्वारा क्रय किया गया। अतः सम्पत्ति में किसी प्रकार का सहदायिकी हित नहीं रहा नीलाम क्रेताओं में से एक क्रेता द्वारा अन्य क्रेता की सहमति से सम्पत्ति के विभाजन और अन्तःकालीन लाभों के लिए वाद लाया गया। ऐसा वाद कायम रखा जा सकता है और ऐसे मामले में इस प्रकार का कोई वर्जन लागू नहीं होगा कि परव्यक्ति (अजनबी) क्रेता तब तक कब्जा प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि शेष सम्पत्ति सहदायिकों के पास रहती है।

अंशों (शेयर्स) का अभ्यर्पण सम्पत्ति के अंश भागीदारों की अपनी सम्पति है और वे उन अंशों को वादी के पक्ष में अभ्यर्पित (सरेण्डर) कर सकते हैं। अतः जहां एक वाद में भागीदारों ने अपने अंशों का अभ्यर्पण कर दिया, तो न्यायालय को विभाजन-वाद के विचारण में उसे प्रभावशील करना होगा।

विभाजन में अन्तःकालीन लाभ का बंटवारा करना न्यायालय का कर्तव्य एक विभाजन बाद में, सफल पक्षकारों को आवंटित अंश (भाग) की सम्पतियों से सम्बन्धित अन्तःकालीन लाभ उस सम्पति (corpus) का अभिन अंग होता है और उसी प्रकार से अव्यस्थित रहता है, जैसे वह भूमियाँ स्वयं हैं। यह असाम्यपूर्ण और अनुचित (unjust) होगा कि प्रारंभिक डिक्री द्वारा अन्तःकालीन लाभ का निर्धारण करने का निर्देश होने के बावजूद सफल पक्षकार को अन्तःकालीन लाभों के लिए अलग से वाद करना पड़े। न्यायालय का केवल यह कर्तव्य ही नहीं है कि वह सम्पति की बहुत-सी चीजों का विभाजन को, परन्तु यह भी है कि वह उनसे प्राप्त अन्तःकालीन लाभों का भी विभाजन करें।

विभाजन वाद में अभिवचन के अभाव का प्रश्न जांच की मांग फिर भी उचित

पटना उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ का निर्णय विभाजन तथा लेखा देने के लिए किए गए वाद में प्रारम्भिक डिक्री दे दी गई। जब अन्तिम डिक्री तैयार की जा रही थी, तो वादी ने आवदेन किया कि वाद के लम्बित रहने की अवधि के दौरान प्रतिवादियों द्वारा प्राप्त किये गये लाभों के बारे में जांच की जावे। इस कथन को विचारण-न्यायालय ने इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि वादी ने वाद पत्र में यह अभिवचन नहीं किया कि उसे लाभों के हिस्से से वंचित (अलग) कर दिया गया था।

उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण में पूर्व निर्णयों में मतभेद होने से मामला पूर्णपीठ द्वारा सुना गया। पूर्णपीठ ने अभिनिर्धारित किया कि चाहे वादी ने यह अभिवचन वादपत्र में नहीं किया हो कि उसे लाभों के हिस्से से वंचित कर दिया गया है, तो भी वादी एक हिन्दू संयुक्त कुटुम्ब के सदस्य के रूप में प्रतिवादियों द्वारा प्राप्त किये गये लाभों के बारे में जांच करने के लिए अन्तिम डिक्री की तैयारी के प्रक्रम पर आवेदन करने के लिए हकदार था, क्योंकि विभाजन के लिए प्रत्येक वाद उसके संस्थित करने के दिनांक को लेखे के लिए वाद भी होता है।

ऐसी जांच की मांग करना पक्षकारों के बीच समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है। अतः यह न्यायालय के विवेकाधिकार के भीतर है कि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर ऐसी प्रार्थना की अनुमति दे।

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