सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 101: आदेश 20 नियम 15,16,17 के प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश का नियम 15 में भागीदारी के विघटन पर होने वाले डिक्री के संबंध में प्रावधान है, नियम 16 में मालिक एवं अभिकर्ता के बीच लेखा को लेकर होने वाली डिक्री के संबंध में प्रावधान है, नियम 17 में लेखाओं के संबंध में विशेष निदेश दिए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत उक्त तीनों नियमों पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-15 भागीदारी के विघटन के लिए वाद में डिक्री- जहां तक वाद भागीदारी के विघटन के लिए या भागीदारी के लेखाओं के लिए जाने के लिए है वहां न्यायालय अन्तिम डिक्री देने के पूर्व ऐसी प्रारम्भिक डिक्री पारित कर सकेगा जिसमें पक्षकारों के आनुपातिक अंश घोषित होंगे, वह दिन नियत होगा जिसकी भागीदारी विघटित हो जाएगी या विघटित हुई समझी जाएगी, और ऐसे लेखाओं के लिए जाने का और अन्य ऐसे कार्य के, जो वह न्यायालय ठीक समझे, किए जाने का निदेश होगा।
नियम-16 मालिक और अभिकर्ता के बीच लेखा के लिए लाए गये वाद में डिक्री-मालिक और अभिकर्ता के बीच धन-संबंधी संव्यवहारों की बाबत लेखा के लिए वाद में, और ऐसे किसी अन्य वाद में, जिसके लिए इसमें इसके पूर्व उपबंध नहीं किया गया है, हां यह आवश्यक हो कि उस धन की रकम को, जो किसी पक्षकार को या पक्षकार से शोध्य है, अभिनिश्चित करने के लिए लेखा लिया जाना चाहिए, न्यायालय अपनी अन्तिम डिक्री पारित करने के पूर्व ऐसी प्रारम्भिक डिक्री पारित कर सकेगा जिसमें ऐसे लेखाओं के लिए जाने का निदेश होगा जिनका लिया जाना वह ठीक समझे।
नियम-17 लेखाओं के सम्बंध में विशेष निदेश- न्यायालय या तो लेखा लिए जाने के लिए निदेश देने वाली डिक्री द्वारा या किसी पश्चात्वर्ती आदेश द्वारा उस ढंग के बारे में विशेष निदेश दे सकेगा जिसमें लेखा लिया जाना है या प्रमाणित किया जाना है और विशिष्टतः यह निदेश दे सकेगा कि लेखा लेने में उन लेखा बहियों को, जिनमें प्रश्नगत लेखा रखे गये हों, उन बातों की सत्यता के प्रथमदृष्ट्या साक्ष्य के रूप में लिया जाएगा जो उनमें अन्तर्विष्ट हैं। किन्तु हितबद्ध पक्षकारों को यह स्वतंत्रता होगी कि वे उन पर ऐसे आक्षेप कर सकेंगे जो वे ठीक समझे।
आदेश 20, नियम 15 भागीदारी के विघटन (भंग करने) के लिए या भागीदारी के लेखाओं (हिसाब) के लिए किए गए वाद की डिक्री का स्वरूप बताया गया है।
भागीदार का दायित्व-
भागीदारी (Partnership) का जाते है- स्वरूप - भागीदारी अधिनियम 1932 के अनुसार भागीदारी सम्बन्धी वाद लाए
(क) भागीदारी के आवश्यक तत्व- भागीदारी कई व्यक्तियों के बीच प्रत्यक्ष या विवक्षित करार का परिणाम है। यह करार किसी व्यापार के लाभों को भागों (हिस्सों) के अनुसार विभाजन करने सम्बन्धी होगा,वह व्यापार उन सबके द्वारा या उन सबकी ओर से कार्य करते हुए उनमें से किसी द्वारा संचालित किया जावेगा।
(ख) रजिस्ट्रीकरण (धारा 69) - धारा 69 आदेशात्मक है। एक भूतपूर्व अरजिस्ट्रीकृत भागीदारी फर्म का कोई भागीदार धारा 69 के क्षेत्र में आने वाली संविदा से उत्पन्न किसी अधिकार को लागू करने के लिए वाद नहीं ला सकता।
धारा 69 के अधीन अपंजीकृत फर्म किसी पर व्यक्ति (Third party) के विरुद्ध वाद नहीं ला सकती, परन्तु एक भागीदार उस फर्म के विघटन तथा लेखे के लिए वाद ला सकता है।
(ग) विघटन-धारा 43 के अधीन इच्छाधीन भागीदारी को दूसरे भागीदारों को नोटिस देकर विघटित किया जा सकता है। भागीदारी के विघटन के लिए धारा 44 में वर्णित आधारों पर वाद संस्थित किया जा सकता है। ऐसे वाद में भागीदारी की शर्तों तथा विघटन के आधार का विवरण देकर लेखे (हिसाब) की मांग की जा सकती है और प्रापक (रिसीवर) की नियुक्ति के लिए भी आवेदन किया जा सकता है।
डिक्री का स्वरूप, प्रारम्भिक डिक्री- नियम 15 के अनुसार, भागीदारी के विघटन के लिए वाद में-या- भागीदारी के लेखा के वाद में-
प्रारम्भिक डिक्री पारित की जा सकेगी, जिसमें-
पक्षकारों के आनुपातिक अंश (हिस्सों) की घोषणा होगी, वह दिनांक तय करके दी जायेगी, जिससे भागीदारी विघटित (समाप्त) हो जाएगी या विघटित हुई मानी जाएगी, और ऐसे लेखाओं के लिए जाने का और अन्य ऐसे कार्य करने का निदेश होगा, जो न्यायालय ठीक समझे। इस प्रारम्भिक डिक्री की पालना में लेखे लेने तथा अन्य आवश्यक कार्य पूरे करने के बाद अन्तिम डिक्री पारित की जावेगी।
प्रारम्भिक डिक्री- जब भागीदारी के विघटन के वाद में प्रारम्भिक डिक्री दी जावे, तो सदा उसमें लेखा लेने के निदेश के साथ पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा होनी चाहिए। इसमें बातों का उल्लेख किया जावेगा पक्षकारों के भाग (हिस्से), विघटन का दिनांक निश्चित किया जाएगा, और लेखा लेने का निर्देश होगा। इन बातों का पालन नहीं कर वादी को यह निदेश देना गलत है कि-वह अपने अधिकारों के समायोजन के लिए अलग से वाद संस्थित करे।
भागीदारी वाद में अन्तिम डिक्री-जब लेखे से लिए गये, तो फिर अन्तिम डिक्री पारित की जायेगी, जिसमें ये निदेश होंगे कि भागीदारी की आस्तियों को निम्न प्रकार से उपयोग किया जावेगा-
(1) पहले भागीदारी के ऋणों का चुकारा किया जावेगा,
(2) फिर बाद के खर्चों का भुगतान किया जावेगा, और
(3) अन्त में, लिए गये लेखे के अनुसार जो रकम प्रत्येक भागीदार को देय पायी गयी, उसका भुगतान किया जावेगा।
(4) यदि लेखा लेने पर यह पाया जाए कि प्रतिवादी कोई बकाया देनी है, तो उसके लिए उसके पक्ष में एक डिक्री पारित की जावेगी।
नोटिस न देने का प्रभाव जब एक मामले में भागीदारी अधिनियम की धारा 43 में चाहा गया नोटिस दिये बिना भागीदारी के विघटन का वाद संस्थित कर दिया गया, तो डिक्री द्वारा भागीदारी के विघटन की घोषणा की जावेगी और वादपत्र को नोटिस मानकर प्रतिवादी को समन की तामील के दिन से पहले यह लागू नहीं होगी।
नियम 16 में मालिक और अभिकर्ता (एजेन्ट) के बीच लेखा के लिए डिक्री का स्वरूप बताया गया है।
लेखा के लिए वाद-मालिक और अभिकर्ता के बीच लेखा के लिए वाद संविदा अधिनियम के अधीन लगाया जाता है, जिसके अनुसार अभिकर्ता अपने मालिक की माँग पर उचित लेखा देने के लिए आबद्ध है। परन्तु अभिकर्ता को मालिक के विरुद्ध लेखा समझाने के लिए कोई वाद लाने का विधिक अधिकार नहीं है, पर संविदा या व्यापारिक प्रथा के अनुसार ऐसा वाद लाया जा सकता है। अभिकर्ता का लेखा माँगने का अधिकार साम्योचित है, न कि विधिक।
लेखा के लिए वाद में डिक्री का स्वरूप-आदेश 20 के नियम 16 के अनुसार-ऐसे वाद में दो डिक्रिया होंगी-
(1) प्रारम्भिक डिक्री-जिसमें पक्षकारों के बीच शोध्य (वसूलनीय) राशि का पता लगाने के लिए लेखा लिए जाने का निर्दश होगा।
(2) अन्तिम डिक्री- यह सामान्य नियम है कि जब ऐजेन्सी का तथ्य स्थापित (साबित) हो जाए, तो न्यायालय का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह पक्षकारों के बीच लेखा लेने का निदेश देंवे । परन्तु जब मामला साधारण प्रतीत हो, उस समय अन्तिम डिक्री भी दी जा सकती है।
लेखा के लिए वाद में डिक्री- यह तर्क चलने योग्य नहीं है कि इस वाद में पहले लेखा लेने के लिए प्रारम्भिक डिक्री पारित की जाए और अन्तिम डिक्री किसी निश्चित राशि के लिए लेखा लेने से पहले पारित नहीं की जाए। यह हर मामले के तथ्य और परिस्थिति पर निर्भर करता है।
लेखा (एकाउन्ट्स) के लिए वाद का स्वरूप
(1) लेखा के लिए वाद कौन फाइल कर सकता है-
आदेश 20, नियम 16- ऐसा वाद फाइल करने का कोई अधिकार नहीं देता। यह केवल प्रक्रिया का नियम बताता है। यह तभी लागू होता है, जब लेखा के लिए वाद करने का अधिकार विद्यमान होता है।
(2) ठेकेदार की स्थिति-निर्माण कार्य को करने में लगा ठेकेदार अपने नियोजक के विरुद्ध लेखे के लिए नहीं ला सकता।
(3) ठेकेदार अपने किए गए निर्माण कार्य का मूल्य प्राप्त करने के लिए वाद ला सकता है। ऐसी स्थिति में, वाद चलने योग्य नहीं कह कर उसे खारिज करना अनुचित होगा।
आदेश 20 का नियम 17 लेखाओं (एकाउन्ट्स) के लेने के लिए दी जाने वाली डिक्री में विशेष निदेश देने की व्यवस्था करती है, ताकि लेखे का सही स्वरूप सामने आ सके और बाद में उसके आधार पर अन्तिम डिक्री पारित की जा सके। भागीदारी के वाद में लेखा लेने की डिक्री का प्ररूप (फार्म) परिशिष्ट (घ) के संख्यांक 21 में दी गई है, जिसमें निदेश दिये गये हैं।
विशेष निदेश का स्वरूप-नियम 17 के अनुसार (1) न्यायालय दो प्रकार से लेखा लेने के लिए निदेश दे सकता है, (क) लेखा लेने के लिए निदेश देने वाली डिक्री द्वारा-जो एक प्रारम्भिक डिक्री होगी या (ख) किसी पश्चात्वर्ती आदेश द्वारा उस ढंग (तरीके) के बारे में विशेष निदेश दे सकेगा (i) जिसमें लेखा किया जाना है, या (ii) लेखा प्रमाणित किया जाना है।
लेखा बहियों (Account Books) के बारे में विशेष रूप से न्यायालय द्वारा यह निदेश दिया जा सकेगा कि उन लेखा बहियों को, जिनमें प्रश्नगत (विवादित) लेखा रखे गये हैं, उन बातों की सत्यता को प्रथम दृष्टया साक्ष्य के रूप में लिया जावेगा, जो उनमें अन्तर्विष्ट हैं, दी गई हैं।
परन्तु हितबद्ध पक्षकारों को उन लेखाओं पर ऐसे आक्षेप करने के लिए छूट होगी, जो वे उचित समझते हैं। इस प्रकार लेखाओं के लेने की प्रक्रिया (तरीके) को न्यायालय व्यवस्थित कर सही स्थिति पर विचार कर सकेगा।