पुलिस द्वारा न्यायालय में पेश किया जाने वाला चालान एक सामान्य सा शब्द है और नए लॉ छात्रों के लिए यह शब्द कभी-कभी कठिनाई का विषय बन जाता है। इस आलेख के माध्यम से दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 173 के अंतर्गत 'चालान' पर प्रकाश डाला जा रहा है।
'चालान' अंतिम प्रतिवेदन
पुलिस अपने अन्वेषण में अलग-अलग स्तर पर रिपोर्ट प्रेषित करती है। पुलिस अन्वेषण के चरणों में तीन प्रकार की रिपोर्ट भेजती है, सीआरपीसी की धारा 157 के अधीन पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी मामले की प्रारंभिक रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को प्रेषित करता है।
दूसरी रिपोर्ट उसे कहा जाता है जो इस संहिता की धारा 168 में यह अपेक्षित है कि अधीनस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा अपराध के मामले की रिपोर्ट संबंधित थाने के भारसाधक पुलिस अधिकारी को भेजी जानी चाहिए।
तीसरी रिपोर्ट जिसे चालान कहा जाता है उसे सीआरपीसी की धारा 173 के अंतर्गत अन्वेषण की समाप्ति हो जाने के पश्चात पुलिस द्वारा मामले की अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। एक प्रकार से अंतिम प्रतिवेदन भी कहा जाता है।
यह पुलिस द्वारा की गयी समस्त अन्वेषण की कार्यवाही का एक ब्योरा होता है जो कि मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
इसे दो नामों से जाना जाता है। साधारण भाषा में इसे पुलिस चालान कहा जाता है, परंतु विधि के संदर्भ में यहां पर अंतिम प्रतिवेदन अर्थात अंग्रेजी में फाइनल रिपोर्ट कहा जाता है।
हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 2009 उच्चतम न्यायालय 483 के वाद में पुलिस द्वारा अन्वेषण की अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट न्यायालय को सौंपी जाने को आपराधिक कार्यवाही का एक महत्वपूर्ण चरण मानते हुए अभिकथन किया गया-
" इसे अन्वेषण पूर्ण होते ही मजिस्ट्रेट को प्रेषित किया जाना आवश्यक है। यह रिपोर्ट निर्धारित प्रपत्र में प्रेषित की जानी चाहिए तथा इसमें सीआरपीसी की धारा 173 की धारा दो का मजबूती से पालन किया जाना चाहिए।"
सीआरपीसी की धारा 173 के अंतर्गत पुलिस की अंतिम रिपोर्ट के संदर्भ में संपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। वह संपूर्ण प्रावधान रखे गए हैं कि पुलिस की अंतिम रिपोर्ट में कौन सी चीजों को शामिल किया जाएगा और क्या रिपोर्ट में स्थान होगा तथा रिपोर्ट कब प्रस्तुत की जाएगी।
अनावश्यक विलंब के बिना अन्वेषण का पूरा किया जाना
सीआरपीसी की धारा 173 उपधारा (1) इस बात का उल्लेख करती है कि बगैर विलंब के अन्वेषण पूरा किया जाना चाहिए तथा अन्वेषण शीघ्र पूरा होते ही यह रिपोर्ट मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए।
अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करने की निश्चित अवधि
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 आजीवन कारावास और मृत्युदंड से दंडित अपराधों के लिए अधिकतम 3 महीने की अवधि का समय अंतिम प्रतिवेदन रिपोर्ट पेश करने के लिए पुलिस को देती है और आजीवन कारावास से कम अवधि के कारावास से दंडित अपराधों के लिए 60 दिन का समय पुलिस अधिकारी को या जांच एजेंसी को अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिए दिया जाता है।
यदि जांच एजेंसी या पुलिस अधिकारी इस समय अवधि के भीतर अपनी पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं करता है तो अभियुक्त जमानत प्राप्त करने का अधिकारी होता है, परंतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के अंतर्गत कहीं पर भी किसी विशेष समय अवधि का कतई प्रावधान नहीं किया गया है, केवल बलात्कार के मामले में मामले में 3 माह के भीतर अन्वेषण पूरा करने का प्रावधान धारा 173 के अंतर्गत रखा गया है।
आरोप के संदर्भ में संपूर्ण जानकारी
सीआरपीसी की धारा 173 उपधारा (2) इस धारा की महत्वपूर्ण उप धारा है। इस धारा के अंतर्गत वह समस्त बातें दी गयी हैं, जिसका उल्लेख पुलिस अपनी रिपोर्ट में करेगी। उन बातों का स्पष्ट उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 की उपधारा 2 के अंतर्गत कर दिया गया है। पुलिस अपना अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 (2) के अंतर्गत ही मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करती है।
धारा 173 (2) के अंतर्गत दी जाने वाली जानकारियां निम्नलिखित है
पक्षकारों के नाम
सूचना का स्वरूप
मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम
क्या कोई अपराध किया गया है प्रतीत होता है यदि किया गया प्रतीत होता है तो किसके द्वारा
क्या अभियुक्त गिरफ्तार कर लिया गया है
क्या बंद पत्र पर छोड़ दिया गया है यदि छोड़ दिया गया है तो वह बंद पत्र पत्र प्रतिभू सहित है या प्रतिभू रहित है
क्या धारा 170 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है
सीआरपीसी की धारा 173 की उपधारा (5)-
सामान्यता पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट के साथ सभी आवश्यक दस्तावेज संलग्न करके मजिस्ट्रेट को भेजे जाते है, परंतु यदि इनमें से कुछ दस्तावेज पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट के साथ ना भेजे गए हो तो इसके कारण पुलिस द्वारा प्रेषित रिपोर्ट आग्रहम( जिसे साक्ष्य में स्वीकार नहीं किया जाए) नहीं हो जाती।
पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित प्रत्यक्ष कार्यवाही में धारा 207 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से यह उपेक्षा की जाती है कि वह उपधारा में उल्लेखित सभी दस्तावेजों की प्रतियां अभियुक्त को उपलब्ध कराएं।
इन दस्तावेजों में वह दस्तावेज भी शामिल थे। धारा 173 (5) में उल्लेखित है सुविधा की दृष्टि से वह धारा साथ में यह व्यवस्था की गयी है कि यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी अभियुक्तों को धारा 5 में दर्शाए गए सभी दस्तावेजों को देना सुविधाजनक समझता है ऐसा कर सकता है।
धारा 173 की उपधारा (5) स्पष्ट इस बात का उल्लेख कर रही है के अभियोजन जिन साक्ष्य के आधार पर चलेगा जिनमें कोई वस्तुएं भी हो सकती है। यदि उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं किया गया है तो धारा 173 के अंतिम प्रतिवेदन के साथ धारा 161 के बयान जो पुलिस के समक्ष दिए जाते हैं उन्हें भी अंतिम प्रतिवेदन के साथ लगा दिया जाए।
सीआरपीसी की धारा 173 की उपधारा (8) महत्वपूर्ण धारा
सीआरपीसी की 173 धारा की उपधारा (8) के अंतर्गत अन्वेषण को अधिकृत करती है कि अंतिम रिपोर्ट फाइल कर दी गयी है, इसके पश्चात भी यदि आवश्यक हो तो अन्वेषण कार्यवाही जारी रह सकती है। पुलिस की भले ही उस रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने अपराध का संज्ञान कर लिया हो।
उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि जब तक अनवेषण अधिकारी द्वारा धारा 173 (2) के अंतर्गत अंतिम रिपोर्ट न्यायालय को प्रेषित नहीं कर दी जाती है यह माना जाएगा कि अन्वेषण कार्रवाई जारी है। कतिपय परिस्थितियों में इस धारा की उपधारा 8 के अंतर्गत अंतिम रिपोर्ट न्यायालय को प्रेषित कर दी जाने के पश्चात भी आगे अन्वेषण अनुज्ञ है, भले ही मजिस्ट्रेट ने अपराध का संज्ञान कर लिया हो।
अन्वेषण अधिकारी की अन्वेषण करने की शक्ति समाप्त नहीं होती है। यदि कोई आरोपी फरार है, जिनके नाम अभियोजन में है तो ऐसे फरार आरोपियों के संदर्भ में धारा 173 की उपधारा 8 का प्रयोग किया जाता है और अन्वेषण को जारी रखा जाता है। अन्वेषण अधिकारी जो आरोपी उपस्थित होते है उनके लिए अंतिम प्रतिवेदन पेश कर देता है।
कारी चौधरी बनाम श्रीमती सीता देवी एआरआई 2002 सुप्रीम कोर्ट 441 के वाद में मृतका की हत्या के बारे में एफआईआर उसकी सास द्वारा दर्ज करायी गयी जिसके आधार पर अन्वेषण प्रारंभ किया गया।
अन्वेषण के दौरान पुलिस ने पाया कि सास द्वारा दर्ज करायी गयी प्राथमिकी झूठी थी और वास्तव में हत्या के लिए सास ही दोषी थी।
उसने यह हत्या नियोजित षड्यंत्र पूर्वक की थी, अतः पुलिस ने मजिस्ट्रेट को सूचित किया कि सास द्वारा दायर की गयी प्रथम सूचना रिपोर्ट झूठी थी। मजिस्ट्रेट ने उक्त रिपोर्ट स्वीकार कर ली परंतु अभियुक्ता द्वारा इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण आवेदन किया जाने पर उच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश रद्द कर दिया। पुलिस ने अपनी अन्वेषण कार्यवाही जारी रखते हुए न्यायालय को सूचित किया कि उसने दूसरी प्राथमिकी दर्ज कर ली है। इस आधार पर सास के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल किया गया। सास के विरुद्ध प्रारंभ की गयी दांडिक कार्यवाही को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया।
उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि यह कहना कि- पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत कर दिए जाने पर सास द्वारा दायर की गयी प्राथमिकी झूठी थी उसके विरुद्ध कार्यवाही संस्थित की जाना जिसे की उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था, पुलिस द्वारा सास के विरुद्ध दूसरी प्राथमिकी दर्ज करके कार्यवाही नहीं की जा सकती न्यायोचित नहीं होगा। अतः हत्या जैसे जघन्य अपराध के मामले में पुलिस द्वारा दूसरी प्राथमिकी दर्ज करके अन्वेषण कार्यवाही की जाना उचित था, अपील स्वीकार की गयी।
हरमिंदर पाल सिंह बनाम पंजाब राज्य 2004 क्रिमिनल लॉ 2648 के वाद में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने विनीत किया है कि-
जहां किसी भ्रष्टाचार के प्रकरण में पुलिस द्वारा अंतिम अन्वेषण रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी हो, लेकिन उसे न्यायालय द्वारा स्वीकार ना कि जाकर मामले का पुनः अन्वेषण आदेशित किया गया हो वह न्यायालय के आदेश का अनुपालन करते हुए पुनः अन्वेषण के पश्चात पुलिस पुनः अपने पूर्ववर्ती निष्कर्ष पर पहुंची हो कि अभियुक्त का रिश्वत लेने का कोई उद्देश्य प्रकट नहीं होता है।
ऐसी दशा में न्यायालय मामले का तीसरी बार फिर से अन्वेषण किए जाने का आदेश नहीं दे सकेगा। इसका कारण स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कथन किया है कि पुलिस द्वारा मामले के पुनः अन्वेषण से इंकार ना किया जाना तथा ऐसे अन्वेषण के पश्चात अपने पूर्ववर्ती निष्कर्ष पर कायम रहना यह दर्शाता है कि पुलिस ने प्रकरण का भली-भांति अन्वेषण कर लिया है और किसी नए आधार के बिना उसका तृतीय बार अन्वेषण कराया जाना व्यर्थ होगा।