क्या बिना नोटिस, सुनवाई और कारणयुक्त आदेश के नगर निगम द्वारा किसी व्यक्ति की संपत्ति लेना संविधान के अनुरूप माना जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने Kolkata Municipal Corporation v. Bimal Kumar Shah (2024) के निर्णय में यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया कि क्या कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन एक्ट, 1980 की धारा 352 (Section 352) किसी व्यक्ति की भूमि का अनिवार्य अधिग्रहण (Compulsory Acquisition of property) करने की शक्ति देती है।
इस मामले में अदालत ने केवल नगर निगम अधिनियम (Municipal Law) की व्याख्या ही नहीं की, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 300A (Article 300A) में निहित Right to Property की संवैधानिक सुरक्षा पर भी विचार किया। न्यायालय ने कहा कि केवल “अधिग्रहण” (Acquisition) शब्द का प्रयोग और मुआवजे (Compensation) का प्रावधान पर्याप्त नहीं है। जब तक अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया न्यायसंगत (Fair), युक्तिसंगत (Reasonable) और उचित (Just) नहीं होगी, तब तक वह संविधान के अनुरूप नहीं मानी जा सकती।
कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन एक्ट की रूपरेखा (Scheme of the Act)
कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन एक्ट, 1980 में 600 से अधिक धाराएँ हैं। इसमें से दो हिस्से विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं–
1. भाग VI, अध्याय XXI – सार्वजनिक सड़कों (Public Streets) और सार्वजनिक स्थलों (Public Places) से संबंधित।
2. भाग VIII, अध्याय XXXIII – संपत्ति के अधिग्रहण (Acquisition of Property) और निपटान (Disposal) से संबंधित।
धारा 352 (Section 352) अध्याय XXI में आती है। इसमें नगर आयुक्त (Municipal Commissioner) को यह शक्ति दी गई है कि वह सड़क, पार्क या चौक बनाने या चौड़ा करने के लिए भूमि acquire कर सकता है। धारा 363 (Section 363) मुआवजे (Compensation) की बात करती है।
लेकिन वास्तविक अधिग्रहण की प्रक्रिया अध्याय XXXIII में है।
• धारा 535 (Section 535) – निगम को संपत्ति अधिग्रहित करने की शक्ति देती है।
• धारा 536 (Section 536) – समझौते (Agreement) से अधिग्रहण का तरीका बताती है।
• धारा 537 (Section 537) – जब समझौते से अधिग्रहण संभव न हो तो राज्य सरकार की मदद से अनिवार्य अधिग्रहण (Compulsory Acquisition) की प्रक्रिया शुरू होती है।
इससे स्पष्ट है कि धारा 352 केवल भूमि की पहचान (Identification) और आवश्यकता तय करने की धारा है। वास्तविक अधिग्रहण की शक्ति केवल धारा 537 में है।
क्यों धारा 352 अधिग्रहण की शक्ति नहीं है (Why Section 352 is Not Power of Acquisition)
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 352 में नगर निगम को सीधा अनिवार्य अधिग्रहण (Compulsory Acquisition) करने की शक्ति नहीं है। यह केवल इतना कहता है कि नगर आयुक्त तय कर सकता है कि किस भूमि की आवश्यकता है।
यदि अनिवार्य अधिग्रहण करना है तो धारा 537 के तहत राज्य सरकार को आवेदन करना होगा। केवल धारा 352 और धारा 363 पर निर्भर रहकर भूमि लेना असंवैधानिक है।
संवैधानिक दृष्टिकोण: अनुच्छेद 300A (Constitutional Dimension: Article 300A)
अनुच्छेद 300A कहता है – “किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा, सिवाय विधि के प्राधिकार (Authority of Law) से।”
हालाँकि 44वें संविधान संशोधन (44th Constitutional Amendment) के बाद संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार (Fundamental Right) नहीं रहा, फिर भी यह एक संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right) और मानव अधिकार (Human Right) है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “Authority of Law” का मतलब केवल कोई भी कानून नहीं है। वह कानून न्यायपूर्ण (Just), निष्पक्ष (Fair) और तर्कसंगत (Reasonable) होना चाहिए। यदि अधिग्रहण बिना नोटिस, सुनवाई और सार्वजनिक उद्देश्य (Public Purpose) के किया जाए, तो वह असंवैधानिक है।
संपत्ति के सात उप-अधिकार (Seven Sub-Rights of Property)
न्यायालय ने समझाया कि केवल मुआवजा देना पर्याप्त नहीं है।
संपत्ति का अधिकार (Right to Property) सात मूलभूत उप-अधिकारों (Sub-Rights) से मिलकर बना है–
1. नोटिस का अधिकार (Right to Notice) – व्यक्ति को पहले से सूचना मिले।
2. सुनवाई का अधिकार (Right to be Heard) – व्यक्ति अपनी आपत्ति दर्ज करा सके।
3. कारणयुक्त निर्णय का अधिकार (Right to Reasoned Decision) – प्रशासन लिखित कारण बताए।
4. सार्वजनिक उद्देश्य का कर्तव्य (Duty to Acquire Only for Public Purpose) – केवल लोकहित में अधिग्रहण हो।
5. न्यायपूर्ण मुआवजे का अधिकार (Right to Fair Compensation) – व्यक्ति को उचित और न्यायसंगत मुआवजा मिले।
6. शीघ्र और कुशल प्रक्रिया का अधिकार (Right to Efficient and Expeditious Process) – प्रक्रिया समयबद्ध और त्वरित हो।
7. समापन का अधिकार (Right of Conclusion) – अधिग्रहण पूरा होने पर विधिवत कब्ज़ा (Possession) लिया जाए और प्रक्रिया समाप्त हो।
धारा 352 इनमें से कोई भी प्रक्रिया नहीं देती, इसलिए इसे अधिग्रहण की शक्ति नहीं माना जा सकता।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय (Important Precedents)
सुप्रीम कोर्ट ने कई पुराने फैसलों का हवाला दिया, जिनमें मुख्य हैं:
• Nagpur Improvement Trust v. Vithal Rao (1973) – समानता (Equality) के उल्लंघन पर जोर।
• State of Bihar v. Kameshwar Singh (1952) – सार्वजनिक उद्देश्य और मुआवजे की आवश्यकता।
• Hindustan Petroleum v. Darius Shapur Chenai (2005) – आपत्ति दर्ज कराने का अधिकार।
• K.T. Plantation v. State of Karnataka (2011) – अनुच्छेद 300A के तहत न्यायपूर्ण कानून की आवश्यकता।
• Vidya Devi v. State of Himachal Pradesh (2020) – संपत्ति का अधिकार मानव अधिकार भी है।
• Munshi Singh v. Union of India (1973) – सार्वजनिक उद्देश्य अस्पष्ट नहीं होना चाहिए।
इन निर्णयों से यह स्थापित हुआ कि संपत्ति का अधिकार केवल मुआवजे तक सीमित नहीं है बल्कि निष्पक्ष प्रक्रिया (Fair Procedure) पर आधारित है।
केवल मुआवजा क्यों पर्याप्त नहीं (Why Compensation Alone is Not Enough)
न्यायालय ने कहा कि यदि अधिग्रहण में नोटिस, सुनवाई और कारणयुक्त आदेश नहीं हैं, तो केवल मुआवजा देना अधिग्रहण को वैध नहीं बनाता। यह दृष्टिकोण राज्य को मनमाने ढंग से संपत्ति लेने से रोकता है।
सार्वजनिक उद्देश्य की आवश्यकता (Need for Public Purpose)
न्यायालय ने दोहराया कि अधिग्रहण केवल वास्तविक सार्वजनिक उद्देश्य (Genuine Public Purpose) के लिए हो सकता है। “योजना विकास” (Planned Development) जैसे अस्पष्ट शब्द पर्याप्त नहीं हैं।
समयबद्ध अधिग्रहण (Efficient and Timely Acquisition)
लंबे समय तक प्रक्रिया लटकाना व्यक्ति को असुरक्षा में डालता है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कहा है कि अधिग्रहण समय पर पूरा होना चाहिए, वरना यह अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है।
अंतिम निष्कर्ष (Final Conclusion)
सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की अपील खारिज कर दी और कहा कि:
• धारा 352 केवल भूमि की पहचान का प्रावधान है।
• अनिवार्य अधिग्रहण (Compulsory Acquisition) केवल धारा 537 के तहत राज्य सरकार के माध्यम से हो सकता है।
• धारा 363 केवल समझौते वाले मामलों में मुआवजे से संबंधित है।
• अनुच्छेद 300A के तहत सभी सात उप-अधिकारों का पालन आवश्यक है।
इस प्रकार, नगर निगम द्वारा धारा 352 का सहारा लेकर भूमि लेना असंवैधानिक और अवैध है।
महत्व (Significance)
यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि भले ही संपत्ति मौलिक अधिकार न हो, लेकिन यह संवैधानिक और मानव अधिकार के रूप में संरक्षित है। कोई भी अधिग्रहण केवल उचित प्रक्रिया और सार्वजनिक उद्देश्य के साथ ही वैध होगा। यह फैसला भविष्य में ऐसे सभी विवादों के लिए मार्गदर्शक रहेगा।