क्या बिना धार्मिक रस्मों के केवल Marriage Certificate के आधार पर पति-पत्नी का कानूनी दर्जा प्राप्त किया जा सकता है?

Update: 2025-08-06 12:14 GMT

Dolly Rani बनाम Manish Kumar Chanchal के मामले में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि क्या केवल एक प्रमाणपत्र (Certificate) या पंजीकरण (Registration) से किसी पुरुष और महिला को पति-पत्नी का दर्जा दिया जा सकता है, जब वैवाहिक रीति-रिवाज़ (Rituals) और विधियाँ (Ceremonies) पूरी तरह से नहीं निभाई गई हों।

अदालत ने यह निर्णय हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) की धारा 7 और 8 के आलोक में दिया और संविधान के अनुच्छेद 142 (Article 142 of Constitution) की शक्तियों का प्रयोग करते हुए अंतिम निष्कर्ष निकाला।

हिन्दू विवाह: एक धार्मिक संस्कार (Sacramental Institution) [Sacrament = Dharma-related ritual]

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 (Section 7) के अनुसार, विवाह तभी "वैध" (Valid) माना जाएगा जब उसे उचित धार्मिक विधियों और परंपराओं (Customary Rites and Ceremonies) के अनुसार "सम्पन्न" (Solemnised) किया गया हो। 'Solemnised' शब्द का अर्थ है विवाह को विधिवत धार्मिक तरीके से पूरा करना। यदि ये अनिवार्य रस्में पूरी नहीं हुईं, तो विवाह को क़ानूनन मान्यता नहीं दी जा सकती।

धारा 7(2) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि 'सप्तपदी' (Saptapadi – Seven Steps) विवाह की रस्मों में शामिल है, तो विवाह केवल तभी पूरा और बाध्यकारी (Binding) माना जाएगा जब दूल्हा और दुल्हन सातवां कदम लें।

इस प्रकार, यह साफ़ है कि धार्मिक विधियों की अनुपस्थिति में कोई हिंदू विवाह अस्तित्व में नहीं आता, चाहे कोई प्रमाणपत्र या काग़ज़ी प्रक्रिया क्यों न पूरी कर ली गई हो।

सिर्फ पंजीकरण (Registration) से विवाह वैध नहीं होता [Registration Cannot Cure the Defect]

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 8 (Section 8) विवाह के पंजीकरण (Marriage Registration) की प्रक्रिया को दर्शाती है। यह प्रावधान सिर्फ इस उद्देश्य से है कि विवाह का प्रमाण (Proof) न्यायिक या सामाजिक विवादों में प्रस्तुत किया जा सके। लेकिन यह प्रावधान विवाह को वैध नहीं बनाता अगर वास्तविक विवाह संस्कार कभी हुआ ही नहीं।

इस मामले में "Vadik Jankalyan Samiti" द्वारा जारी प्रमाणपत्र सिर्फ एक काग़ज़ी कार्यवाही थी। न तो इसमें विवाह की वास्तविक रस्मों का विवरण था और न ही यह सिद्ध करता था कि विवाह 'सम्पन्न' हुआ है। फिर भी, उत्तर प्रदेश विवाह पंजीकरण नियम, 2017 (Uttar Pradesh Marriage Registration Rules, 2017) के तहत रजिस्ट्रेशन हो गया, जो कि क़ानून के अनुसार अमान्य (Invalid) है।

अतः, केवल Marriage Certificate से विवाह नहीं माना जा सकता जब तक विवाह के धार्मिक संस्कार (Ceremonies) पूरे न किए जाएं।

अनुच्छेद 142 (Article 142): पूर्ण न्याय के लिए संवैधानिक शक्ति [Power to Do Complete Justice]

इस मामले में, दोनों पक्षों ने एक संयुक्त याचिका (Joint Application) दायर कर यह स्वीकार किया कि उनके बीच कोई वास्तविक विवाह संस्कार नहीं हुआ था। इस पर, सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के अंतर्गत यह घोषित किया कि न केवल विवाह अमान्य है बल्कि उससे जुड़ी सभी कार्यवाहियाँ जैसे तलाक़ की याचिका, भरण-पोषण का मुकदमा और आपराधिक मामला भी स्वतः समाप्त मानी जाएंगी।

इस प्रकार, अनुच्छेद 142 का प्रयोग करके न्यायालय ने “पूरा न्याय” (Complete Justice) किया, और दोनों पक्षों को स्वतंत्र जीवन जीने की अनुमति दी।

विवाह की पवित्रता और सामाजिक महत्व (Sacredness and Social Significance)

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह केवल सामाजिक या कानूनी व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक धार्मिक और आत्मिक बंधन (Spiritual Union) है। ऋग्वेद (Rig Veda) से उद्धरण देते हुए कहा गया कि सप्तपदी के बाद पति-पत्नी 'सखा' (Friends) बन जाते हैं। यह मित्रता आजीवन चलने वाली होती है और यह विवाह की नींव होती है।

न्यायालय ने उस प्रवृत्ति की भी आलोचना की जिसमें युवा जोड़े, केवल व्यावहारिक लाभ (जैसे वीज़ा, विदेश यात्रा, या नौकरी) के लिए बिना विवाह संस्कार किए पंजीकरण करवा लेते हैं। न्यायालय ने कहा कि ऐसे 'तथाकथित' विवाह न तो वैध हैं, न ही समाज में उन्हें पति-पत्नी का दर्जा दिया जा सकता है।

विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act): गैर-धार्मिक विवाह का रास्ता

न्यायालय ने यह भी कहा कि जो लोग धार्मिक विधियों के बिना विवाह करना चाहते हैं, वे Special Marriage Act, 1954 के अंतर्गत वैध विवाह कर सकते हैं। यह अधिनियम धर्म, जाति या परंपरा की बाध्यता के बिना विवाह की अनुमति देता है।

लेकिन अगर कोई जोड़ा हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह करना चाहता है, तो उसे धारा 5 (Conditions of Marriage) और धारा 7 (Ceremonies of Marriage) की सभी शर्तें पूरी करनी होंगी। बिना विधिवत संस्कारों के सिर्फ कोई संस्था द्वारा जारी प्रमाणपत्र वैध नहीं माना जा सकता।

धारा 4: अधिनियम की सर्वोच्चता (Overriding Effect of the Act)

धारा 4 (Section 4) इस अधिनियम को हिन्दू विवाह से जुड़े सभी पूर्व प्रथाओं, प्रचलनों या अन्य क़ानूनों से ऊपर रखता है। इसका मतलब है कि कोई भी परंपरा या प्रमाणपत्र जो इस अधिनियम के विपरीत है, वह स्वतः अमान्य (Null and Void) है।

इसलिए कोई भी 'समाज की मान्यता' या 'आशय से विवाह' (Marriage by Intention) तब तक वैध नहीं हो सकता जब तक विवाह अधिनियम के अनुसार सभी रस्में पूरी न हों।

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है, न कि सिर्फ एक प्रशासनिक औपचारिकता। केवल Marriage Certificate, चाहे किसी संस्था से हो या सरकारी रजिस्ट्रेशन से, तब तक मान्य नहीं होगा जब तक विवाह संस्कार (Rites and Ceremonies) पूरे न हों।

यह निर्णय समाज, विवाह कार्यालयों, पंडितों, और युवा जोड़ों को यह चेतावनी देता है कि वे विवाह के धार्मिक पक्ष को नज़रअंदाज़ करके सिर्फ काग़ज़ी प्रक्रिया पर भरोसा न करें। यदि विवाह की रस्में नहीं हुईं, तो वह सिर्फ नाम का विवाह रहेगा क़ानून और समाज दोनों की नज़र में अवैध।

इस प्रकार न्यायालय ने यह महत्वपूर्ण संदेश दिया कि "विवाह" एक शाश्वत बंधन (Eternal Bond) है, जिसे गंभीरता, विधिवत प्रक्रिया और आपसी प्रतिबद्धता (Mutual Commitment) के साथ निभाया जाना चाहिए not just for legal status, but for a meaningful and dignified relationship.

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