क्या भारत से बाहर आंशिक रूप से किए गए अपराधों पर भारतीय अदालतों में मुकदमा चल सकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने Sartaj Khan बनाम उत्तराखंड राज्य (2022) के मामले में एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न पर फैसला दिया कि क्या कोई अपराध जो आंशिक रूप से भारत के बाहर किया गया हो, भारतीय अदालतों में मुकदमे योग्य (Triable) होगा? यह मामला दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure - CrPC) की धारा 188 की व्याख्या (Interpretation) से जुड़ा था।
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि किसी अपराध का कोई भी हिस्सा भारत में घटित हुआ हो, तो उसे भारतीय अदालतों में मुकदमे योग्य माना जाएगा और इसके लिए केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति (Prior Sanction) की आवश्यकता नहीं होगी। इसके अलावा, अदालत ने मानव तस्करी (Human Trafficking), अपहरण (Kidnapping), और बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences - POCSO Act) के प्रावधानों पर भी विचार किया।
धारा 188 CrPC के तहत क्षेत्राधिकार (Jurisdiction under Section 188 of CrPC)
CrPC की धारा 188 उन अपराधों पर लागू होती है जो भारत के बाहर किए गए हों। इसके अनुसार, यदि कोई अपराध:
1. भारतीय नागरिक (Indian Citizen) द्वारा किसी भी स्थान पर किया गया हो, चाहे वह समुद्र में हो या किसी अन्य देश में।
2. किसी गैर-भारतीय (Non-Citizen) द्वारा किसी भारतीय जहाज (Ship) या विमान (Aircraft) पर किया गया हो।
तो इस अपराध पर भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है, जैसे कि वह भारत में ही हुआ हो।
हालांकि, इस धारा के प्रोविज़ो (Proviso) के अनुसार, यदि कोई अपराध पूरी तरह से भारत के बाहर हुआ है, तो उस पर मुकदमा चलाने के लिए केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति (Prior Sanction) आवश्यक होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने Sartaj Khan के मामले में कहा कि यदि अपराध का कोई भी हिस्सा भारत में हुआ है, तो धारा 188 की पूरी शर्तें लागू नहीं होंगी और सरकार की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होगी। चूंकि इस मामले में आरोपी पीड़िता (Victim) को नेपाल से भारत लाया था, इसलिए यह अपराध पूरी तरह से भारत के बाहर नहीं हुआ था और भारतीय अदालतें इस पर मुकदमा चला सकती थीं।
मानव तस्करी और अपहरण पर IPC के प्रावधान (Human Trafficking and Kidnapping under IPC)
इस मामले में आरोपी को भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code - IPC) की निम्नलिखित धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया:
1. धारा 363 (Section 363) – नाबालिग (Minor) के अभिभावक (Guardian) से अपहरण (Kidnapping)।
2. धारा 366-B (Section 366-B) – 21 वर्ष से कम उम्र की लड़की को भारत में अवैध उद्देश्यों (Illicit Purposes) के लिए लाना।
3. धारा 370(4) (Section 370(4)) – मानव तस्करी (Human Trafficking), जिसमें न्यूनतम 10 वर्षों की सजा का प्रावधान है।
4. धारा 506 (Section 506) – आपराधिक धमकी (Criminal Intimidation)।
सुप्रीम कोर्ट ने High Court के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि अगर कोई व्यक्ति नाबालिग लड़की को किसी भी प्रकार के प्रलोभन (Inducement) से सीमा पार कर भारत लाता है, तो यह मानव तस्करी का अपराध होगा, चाहे लड़की की सहमति (Consent) हो या न हो।
POCSO अधिनियम का लागू होना (Application of the POCSO Act)
इस मामले में आरोपी को POCSO अधिनियम, 2012 (Protection of Children from Sexual Offences Act - POCSO Act) की धारा 8 के तहत भी दोषी ठहराया गया था।
इस धारा के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति नाबालिग (18 वर्ष से कम आयु) के साथ यौन उत्पीड़न (Sexual Assault) करता है, तो यह अपराध होगा और इसमें कठोर सजा का प्रावधान है।
पीड़िता की मेडिकल रिपोर्ट (Medical Report) के अनुसार, उसकी उम्र 18 वर्ष से कम पाई गई। आरोपी ने तर्क दिया कि लड़की स्वेच्छा (Voluntarily) से उसके साथ आई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि POCSO अधिनियम में नाबालिग की सहमति का कोई कानूनी महत्व नहीं होता। यदि कोई नाबालिग किसी अपराध में पीड़ित (Victim) है, तो उसके साथ हुई कोई भी आपराधिक हरकत कानूनन दंडनीय होगी।
धारा 188 CrPC की न्यायिक व्याख्या (Judicial Interpretation of Section 188 CrPC)
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने पहले के कई महत्वपूर्ण निर्णयों की पुष्टि की, जिनमें कहा गया था कि यदि अपराध पूरी तरह से भारत के बाहर हुआ हो, तो मुकदमे के लिए सरकार की स्वीकृति आवश्यक होगी। लेकिन यदि अपराध का कोई भी भाग भारत में हुआ हो, तो भारतीय अदालतें उस पर मुकदमा चला सकती हैं।
इससे पहले Ajay Aggarwal बनाम भारत सरकार (1993) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारत के बाहर हुए अपराधों को भारतीय न्यायालय तभी देख सकते हैं, जब उनका प्रत्यक्ष संबंध (Direct Nexus) भारत से हो।
नाबालिगों की सुरक्षा पर सुप्रीम कोर्ट का रुख (Supreme Court's Stance on Protection of Minors)
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिगों की सुरक्षा (Protection of Minors) को सर्वोच्च प्राथमिकता (Top Priority) दी।
1. कोई भी नाबालिग अपनी सहमति (Consent) नहीं दे सकता, यदि वह मानव तस्करी (Trafficking) या यौन अपराध (Sexual Offence) का शिकार हुआ हो।
2. अगर कोई व्यक्ति नाबालिग को भारत लाने के लिए लालच (Inducement) देता है, तो यह एक गंभीर अपराध होगा।
3. मेडिकल रिपोर्ट (Medical Report) और कानूनी सबूत (Legal Evidence) तय करेंगे कि पीड़िता नाबालिग थी या नहीं।
सजा और न्यायिक विवेक (Sentencing and Judicial Discretion)
इस मामले में आरोपी को निम्नलिखित सजाएं दी गईं:
• धारा 363 IPC – 7 साल की कैद।
• धारा 366-B IPC – 10 साल की कैद।
• धारा 370(4) IPC – 10 साल की कैद।
• धारा 506 IPC – 1 साल की कैद।
• धारा 8 POCSO अधिनियम – 3 साल की कैद।
सभी सजाएं समानांतर (Concurrently) चलेंगी। सुप्रीम कोर्ट ने सजा को उचित ठहराते हुए कहा कि मानव तस्करी और यौन अपराधों में कड़ी सजा (Strict Punishment) होनी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसे अपराधों पर रोक लग सके।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सीमा पार अपराधों (Cross-Border Crimes), मानव तस्करी (Human Trafficking), और नाबालिगों की सुरक्षा (Protection of Minors) को लेकर एक महत्वपूर्ण मिसाल (Precedent) स्थापित करता है।
• यदि अपराध का कोई भी हिस्सा भारत में हुआ हो, तो भारतीय अदालतें मुकदमा चला सकती हैं।
• CrPC की धारा 188 की स्वीकृति केवल उन मामलों में आवश्यक है, जहां अपराध पूरी तरह से भारत के बाहर हुआ हो।
• नाबालिगों के खिलाफ अपराधों में कठोर सजा दी जानी चाहिए।
यह फैसला भारत में मानव तस्करी और बाल संरक्षण कानूनों को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।