क्या चुनाव हारने वाला व्यक्ति मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त हो सकता है?
अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव जीता लिया है लेकिन पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव हार गईं। ममता ने कहा है कि वे राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगी।
क्या चुनाव हारने वाला व्यक्ति मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त हो सकता है? इससे जुड़े संविधानिक प्रावधान कौन-कौन से हैं? इस कॉलम में इससे संबंधित कानून और मिसाल पर चर्चा किया गया है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 164 मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति से संबंधित है।
यह इस प्रकार है कि,
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 164 (1) मुख्यमंत्री को राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाएगा और अन्य मंत्रियों को मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाएगा और पद पर बने रहेंगे।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 164 (4) कहता है कि, "एक मंत्री जो लगातार छह महीने तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उस मंत्री का पद उस अवधि की समाप्ति पर समाप्त हो जाएगा।"
हर शरण वर्मा बनाम त्रिभुवन नारायण सिंह AIR 1971 SC 1331 मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं होने वाले व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया जा सकता है? उक्त मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में त्रिभुवन नारायण सिंह की नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वे नियुक्ति के समय विधायिका के किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं।
उच्च न्यायालय के समक्ष हर शरण वर्मा ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 164 का खंड (1) किसी भी व्यक्ति को विधानमंडल का सदस्य नहीं होने पर मुख्यमंत्री के रूप में बनाने पर रोक लगाता है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनौती को खारिज करते हुए कहा कि किसी भी अन्य मंत्री की तरह एक मुख्यमंत्री भी विधानमंडल का सदस्य नहीं होते हुए छह महीने के लिए पद धारण कर सकता है।
कोर्ट ने कहा था कि,
" भारतीय संविधान का अनुच्छेद 164 को पांच खंडों में विभाजित किया गया है। पहला मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति से संबंधित है; दूसरा राज्य की विधान सभा के लिए मंत्रिपरिषद की सामूहिक जिम्मेदारी को शामिल करता है; तीसरे में राज्यपाल अपने कार्यालय में प्रवेश करने से पहले प्रत्येक मंत्री को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं, चौथा प्रदान करता है कि एक मंत्री जो लगातार छह महीने तक विधानमंडल का सदस्य नहीं है, इसी अवधि के समाप्त होते ही उसको पद से हटना होगा और पांचवे में विधानमंडल कानून द्वारा मंत्रियों के वेतन और भत्ते को तय करता है। इसके साथ ही इसमें प्रावधान है कि किसी भी अन्य मंत्री की तरह एक मुख्यमंत्री भी विधानमंडल का सदस्य नहीं होते हुए छह महीने के लिए पद धारण कर सकता है। लेकिन अगर छह महीने के बाद मुख्यमंत्री चुनाव जीतकर या नियुक्त होकर विधानमंडल की सदस्यता नहीं प्राप्त कर पाता है तो उसे अपना मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ेगा। मुख्यमंत्री के वेतन, भत्ते, उनके अन्य सहयोगियों के विपरीत राज्य के विधानमंडल के नियंत्रण में नहीं होगा जैसा कि उनके अन्य सहयोगियों के मामले में है। न्यायालय एक व्याख्या को स्वीकार नहीं कर सकता है जिससे इस तरह के बेतुके परिणाम सामने आएंगे। यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 164 के दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें खंड में 'मंत्री' शब्द में मुख्यमंत्री शामिल हैं। खंड पांच में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी अन्य मंत्री की तरह एक मुख्यमंत्री भी विधानमंडल का सदस्य नहीं होते हुए छह महीने के लिए पद धारण कर सकता है।"
एक अन्य मुद्दा उठाया गया कि क्या एक व्यक्ति जो विधान सभा के अधिकांश सदस्यों द्वारा चुना गया है यानी वह पार्टी के नेता प्रमुख चुना गया है क्या उसे विधायिका की सदस्यता प्राप्त करने से पहले मुख्यमंत्री नियुक्त किया जा सकता है?
कोर्ट ने कहा कि,
"मुझे लगता है कि अनुच्छेद 164 का खंड (4) निषिद्ध नहीं करता है। यह कहता है कि एक मंत्री जो लगातार छह महीने तक राज्य के राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं है। इस अवधि के समाप्त होते ही उसका मंत्री पद भी समाप्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी मंत्री विधायिका का सदस्य बने बिना छह महीने तक पद पर रह सकता है। मैंने संकेत दिया है कि इस खंड में "मंत्री" शब्द में मुख्यमंत्री शामिल हैं। ऐसे व्यक्ति की मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति जो विधान सभा का सदस्य नहीं है, लेकिन इसके समर्थन की आज्ञा देता है, छह महीने के भीतर उस सदन के लिए उसका चुनाव लंबित है, संविधान द्वारा निषिद्ध नहीं है और न ही यह संसदीय सरकार के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करता है कि मुख्य या प्रधानमंत्री को विधायिका का विश्वास होना चाहिए। क्या इस तरह के "स्टॉप-गैप" की नियुक्ति राजनीतिक रूप से वांछनीय है या इस तरह के मामलों पर न्यायालय के लिए विचार करने के लिए कोई मामला नहीं बनता है। मुझे प्रतीत होता है कि विधामंडल का सदस्य नहीं होने के बावजूद भी किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति करना गैर-कानूनी नहीं है।"
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनौती को खारिज कर दिया और इस तरह यह मामला उच्चतम न्यायालय और अंतत: संविधान पीठ के समक्ष पहुंच गया।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 177 के मुताबिक मंत्री भले ही वे एक विधान सभा या विधान परिषद के सदस्य नहीं हैं, लेकिन वे बैठक में उपस्थित होने के हकदार होंगे। यह हमें दूसरे के संदर्भ में लगता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 164 (4) कहता है कि एक मंत्री जो लगातार छह महीने तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उस मंत्री का पद उस अवधि की समाप्ति पर समाप्त हो जाएगा।
वर्मा ने लगभग 14 साल बाद फिर से केपी तिवारी की नियुक्ति को चुनौती देने वाली शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया। वर्मा ने कहा कि तिवारी उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री के रूप में नियुक्त हुए हैं जो राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हर शरण वर्मा बनाम त्रिभुवन नारायण सिंह के फैसले में कहा गया था कि मुख्यमंत्री के रूप में किसी व्यक्ति की नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह नियुक्ति के समय राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है। न्यायालय ने संविधान (सोलहवें) संशोधन अधिनियम, 1963 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 173 (क) के संशोधन के प्रभाव पर विचार नहीं किया। उसके अनुसार संविधान के अनुच्छेद 173 के संशोधन के बाद संविधान (सोलहवां) संशोधन अधिनियम, 1963, राज्यपाल के लिए एक ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करने के लिए खुला नहीं है जो राज्य मंत्री के रूप में राज्य मंत्री का सदस्य नहीं है और संविधान का अनुच्छेद 164 (4) केवल उन मामलों पर लागू होता है जब एक व्यक्ति जो एक मंत्री है लेकिन जो किसी कारण से विधानमंडल का सदस्यता खत्म हो जाती है जैसे कि किसी भी चुनाव याचिका की वजह से उसके चुनाव को पलट दिया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान सभा की बहस ने सुझाव दिया कि किसी व्यक्ति को मंत्री के रूप में चुने जाने के समय विधानमंडल का सदस्य होना चाहिए।
कोर्ट ने उपर्युक्त अंतर्विरोधों को खारिज करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 173 (क) के कानूनी स्थिति में संशोधन के कारण कोई भौतिक परिवर्तन नहीं हुआ है, जो एक व्यक्ति जो राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उसे मंत्री के रूप में नियुक्त किया जा सके जैसा कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 164 (4) कहता है कि एक मंत्री जो लगातार छह महीने तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उस मंत्री का पद उस अवधि की समाप्ति पर समाप्त हो जाएगा। अदालत ने यह भी देखा कि विधानसभा की बहस यह नहीं बताती है कि किसी व्यक्ति को मंत्री के रूप में चुने जाने के समय विधानमंडल का सदस्य होगा। कोर्ट ने कहा कि संविधान के मसौदे में इस आशय का एक संशोधन प्रस्तावित किया गया, लेकिन स्वीकार नहीं किया गया था। अदालत ने आगे कहा कि संविधान के निर्माताओं ने ऐसी स्थिति के लिए प्रदान किया जहां एक मंत्री नियुक्ति के बाद विधानमंडल की उसकी की सीट खत्म हो सकती है- उदाहरण के लिए एक चुनाव याचिका के परिणामस्वरूप या जब वह नियुक्त किया जाता है तो वह सदस्य नहीं हो सकता है।
वर्मा ने कुछ साल बाद फिर से शीर्ष अदालत के समक्ष याचिका दायर की जिसमें सीता राम केसरी को केंद्रीय मंत्रिमंडल के राज्य मंत्री के रूप में नियुक्त करने को चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने कानून को दोहराया और रिट याचिका को खारिज कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने एसपी आनंद द्वारा एच डी देवगौड़ा की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका में इसी तरह के कानूनी मुद्दे पर विचार किया। देवगौड़ा भारत के प्रधानमंत्री के रूप नियुक्ति किए गए। हालांकि नियुक्ति के समय संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे।
कोर्ट ने उपरोक्त तीन निर्णयों और उच्च न्यायालय के निर्णयों के एक जोड़े का हवाला देते हुए कहा कि एक व्यक्ति जो संसद के किसी भी सदन का सदस्य या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं है, उसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री नियुक्त किया जा सकता है।
कोर्ट ने कहा कि,
"भले ही कोई व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं है, अगर उसके पास सदन का समर्थन और विश्वास है तो उसे लोकतंत्र के मानदंडों का उल्लंघन किए बिना लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करते हुए मंत्रिपरिषद के प्रमुख को चुना जा सकता है। इसलिए हमें याचिकाकर्ता के इस विवाद को समझने में कठिनाई होती है कि यदि कोई व्यक्ति जो सदन का सदस्य नहीं है, उसे प्रधानमंत्री के रूप में चुना जाता है, तो राष्ट्रीय हित खतरे में पड़ जाएगा या इसमें जोखिम है। कोर्ट ने इस फैसले में ने डॉ. बीआर आंबेडकर द्वारा इस संबंध में विधानसभा में दिए गए भाषण को भी सुनाया।"
डॉ. आंबेडकर का भाषाण कुछ इस प्रकार है कि,
"अब पहले बिंदु के संबंध में अर्थात कोई भी व्यक्ति तब तक मंत्री नियुक्त होने का हकदार नहीं होगा जब तक कि वह अपनी नियुक्ति के समय सदन का निर्वाचित सदस्य न हो। मुझे लगता है कि यह कुछ महत्वपूर्ण मामलों को ध्यान में रखना भूल गए जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। पहले इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि यह कल्पना करना पूरी तरह से संभव है कि एक व्यक्ति जो किसी मंत्री के पद को संभालने के लिए अन्यथा सक्षम है उसे किसी कारण से निर्वाचन क्षेत्र में हार गया है, हो सकता इस निर्वाचन क्षेत्र के लोग उससे हों, इस कारण हार गया हो। इस कारण एक सदस्य इतना सक्षम है कि उसे इस धारणा पर मंत्रिमंडल का सदस्य नियुक्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए कि वह खुद उसी निर्वाचन क्षेत्र से या किसी अन्य निर्वाचन क्षेत्र से चुनकर आ जाएगा। सभी विशेषाधिकारों के बाद भी उन्हें अनुमति दी जाती है, जो एक विशेषाधिकार है जो छह महीने तक विस्तारित होता है। यह उस व्यक्ति पर अधिकार नहीं प्रदान करता है कि वह व्यक्तिगत हो। यह सदन में निर्वाचित किया जा रहा है। मेरा दूसरा सबमिशन यह है कि यह तथ्य कि एक मनोनीत मंत्री कैबिनेट का सदस्य है तो वह सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है और न ही यह विश्वास के सिद्धांत का उल्लंघन करता है क्योंकि वह कैबिनेट का सदस्य है और यदि वह स्वीकार करने के लिए तैयार है कि वह मंत्रिमंडल की नीति मंत्रिमंडल का हिस्सा है। इसके साथ ही जब सदन का विश्वास खो देता है तो उसे इस्तीफा देना पड़ता है। मंत्रिमंडल की उसकी सदस्यता किसी भी तरह से मूलभूत सिद्धांतों के किसी भी असुविधा या उल्लंघन का कारण नहीं बनती है जिस पर संसदीय सरकार आधारित है। इसलिए मेरे फैसले में यह योग्यता गैर जरूरी है। "
'छह महीने' के प्रावधान का उपयोग करके किसी व्यक्ति को लगातार नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
एस.आर. चौधरी बनाम पंजाब राज्य मामले से जुड़े हुए कानून में कहा गया है कि क्या कोई गैर-सदस्य जो लगातार छह महीने की अवधि के दौरान निर्वाचित होने में विफल रहता है जब उसे एक मंत्री के रूप में नियुक्त किया जाता है और यह अवधि समाप्त होने से पहले ही इस्तीफा दे देता है और एक मंत्री विधायक लगातार छह महीने की अवधि समाप्त होने के बाद विधानमंडल के लिए चुने बिना एक मंत्री के रूप में फिर से नियुक्त किया जा सकता है?
न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को जो कि विधानमंडल का सदस्य नहीं है, को लगातार छह महीने के कार्यकाल के लिए बार-बार मंत्री नियुक्त किया जाना गैरकानूनी है, जबकि वह इस बीच खुद को निर्वाचित नहीं कर सका। यह प्रथा संवैधानिक योजना, अनुचित, अलोकतांत्रिक और अमान्य होने के लिए स्पष्ट रूप से अपमानजनक होगी। अनुच्छेद 164 (4) केवल विधानमंडल के मंत्रियों के सामान्य नियम के अपवाद के रूप में सबसे अच्छा है, जो एक छोटी अवधि लगातार छह महीनों की अवधि के लिए प्रतिबंधित है। इस अपवाद को अनिवार्य रूप से बहुत ही असाधारण स्थिति को पूरा करने के लिए उपयोग करने की आवश्यकता होती है और इसका सख्ती से उपयोग किया जाना चाहिए और अनुच्छेद 164 (4) के अनुसार कोई गैर-सदस्य जो लगातार छह महीने की अवधि के दौरान निर्वाचित होने में विफल रहता है जब उसे एक मंत्री के रूप में नियुक्त किया जाता है और यह अवधि समाप्त होने से पहले ही इस्तीफा दे देता है और एक मंत्री विधायक लगातार छह महीने की अवधि समाप्त होने के बाद विधानमंडल के लिए चुने बिना एक मंत्री के रूप में फिर से नियुक्त नहीं किया जा सकता है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया जो हमारी संविधान की योजनाओं के मूल में है, को इस तरीके से खत्म करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसके साथ ही कोर्ट ने पंजाब राज्य के मंत्री रूप में तेज प्रकाश की नियुक्ति को रद्द कर दिया और इस नियुक्ति को अमान्य और असंवैधानिक कहा था।
ये मिसालें स्पष्ट करती हैं कि एक व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त करने में कोई शर्मिंदगी नहीं है जो राज्य के विधायिका का सदस्य नहीं है। यद्यपि तकनीकी रूप से और कानूनी रूप से, कोई भी यह तर्क दे सकता है कि एक गैर-सदस्य (जिसने चुनाव नहीं लड़ा ) और एक गैर-सदस्य (जो चुनाव लड़ा और हार गए) के बीच कोई अंतर नहीं है। इसलिए यह सवाल अभी भी बना हुआ है कि क्या यह नैतिक रूप से सही है कि एक व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाए जो चुनाव हार गया है?