क्या POCSO कानून के तहत केवल बच्चे के बयान के आधार पर दोष सिद्ध किया जा सकता है?

Update: 2025-07-28 11:40 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने Navas @ Mulanavas बनाम राज्य केरल मामले में यह तय किया कि क्या POCSO कानून (Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012) के तहत केवल पीड़ित बच्चे के बयान (Testimony) के आधार पर किसी आरोपी को दोषी ठहराया जा सकता है, जब उसके पक्ष में कोई अन्य पुख्ता सबूत (Corroborative Evidence) न हो।

इस निर्णय में कोर्ट ने यह समझाया कि कैसे बच्चे के बयान की कानूनी दृष्टि से जांच की जानी चाहिए, और क्या केवल उस पर भरोसा करके किसी व्यक्ति को सज़ा दी जा सकती है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि POCSO कानून का उद्देश्य बच्चों की सुरक्षा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि Criminal Law (आपराधिक कानून) में दोष सिद्ध करने का मापदंड (Standard of Proof) कम कर दिया जाए।

आपराधिक कानून में दोष सिद्ध करने का मानक (Standard of Proof in Criminal Jurisprudence)

भारतीय दंड प्रक्रिया में यह मूल सिद्धांत है कि किसी भी आरोपी को तभी सज़ा दी जा सकती है जब उसके खिलाफ अपराध को Beyond Reasonable Doubt (सभी संदेह से परे) सिद्ध किया गया हो।

सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि यह मानक POCSO कानून जैसे विशेष कानूनों में भी पूरी तरह लागू होता है। सिर्फ इसलिए कि आरोप गंभीर हैं या पीड़ित एक बच्चा है, आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसके खिलाफ ठोस और विश्वसनीय सबूत न हों।

बच्चों के बयान को साबित करने से जुड़ी साक्ष्य अधिनियम की धाराएं (Sections 118 and 134 of Indian Evidence Act)

भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 118 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो अदालत की कार्यवाही को समझ सकता है और उचित उत्तर दे सकता है, गवाही देने के लिए सक्षम होता है – इसमें बच्चे भी शामिल हैं, यदि वे आवश्यक समझदारी रखते हों।

धारा 134 कहती है कि किसी तथ्य को साबित करने के लिए कितने गवाह चाहिए, इसकी कोई संख्या तय नहीं है। यानी एक अकेले गवाह की सच्ची और साफ-सुथरी गवाही भी किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त हो सकती है। लेकिन कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि यह गवाही Sterling Quality (उत्कृष्ट गुणवत्ता वाली) होनी चाहिए — साफ, बिना विरोधाभास के और विश्वास योग्य।

POCSO कानून में धाराओं 29 और 30 के तहत आरोपित के खिलाफ पूर्वधारणा (Presumptions Under POCSO Act)

POCSO कानून की धारा 29 यह कहती है कि यदि अभियोजन (Prosecution) कुछ मूल बातें साबित कर देता है, तो यह माना जाएगा कि आरोपी ने अपराध किया है। धारा 30 कहती है कि कोर्ट आरोपी के Culpable Mental State (दोषपूर्ण मानसिक स्थिति) की भी पूर्वधारणा कर सकता है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि ये धाराएं तभी लागू होती हैं जब अभियोजन सबसे पहले प्राथमिक सबूत (Prima Facie Evidence) प्रस्तुत कर दे। यदि पीड़ित के बयान में विरोधाभास (Contradiction) है या वह पूरी तरह असंगत है, तो धारा 29 की पूर्वधारणा आरोपी के खिलाफ लागू नहीं की जा सकती।

बच्चे की अकेली गवाही का मूल्यांकन (Evaluation of Sole Testimony of Child Witness)

कोर्ट ने कहा कि बच्चे की गवाही को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन इसे Judicial Scrutiny (न्यायिक जांच) से गुजारना ज़रूरी है। कम उम्र और बाहरी प्रभाव के कारण बच्चे कभी-कभी घटनाओं को ठीक से समझ नहीं पाते या बता नहीं पाते। इसलिए उनकी गवाही को पूरी सावधानी और समझदारी से जांचना आवश्यक है।

यदि गवाही में बार-बार बदलाव हो, बातों में तारतम्य न हो, या वह परिस्थितियों से मेल न खाए, तो केवल उस पर भरोसा करके सज़ा नहीं दी जा सकती।

महत्वपूर्ण निर्णय जिनका उल्लेख हुआ (Relevant Case Law Discussed)

इस फैसले में कोर्ट ने कई पुराने महत्वपूर्ण निर्णयों का उल्लेख किया:

Rameshwar v. State of Rajasthan (1952) – इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि बच्चा सत्य बोल रहा है और उसकी गवाही विश्वसनीय है, तो केवल उसी के आधार पर सज़ा दी जा सकती है, लेकिन यदि उसमें कोई संदेह हो, तो सहयोगी साक्ष्य (Corroboration) वांछनीय होता है।

State of Punjab v. Gurmit Singh (1996) – इसमें कहा गया कि यौन अपराध की पीड़िता की गवाही का विशेष महत्व है, लेकिन उसे सावधानीपूर्वक जांचना भी ज़रूरी है, खासकर तब जब अन्य कोई भौतिक साक्ष्य (Medical or Physical Evidence) न हो।

Radhu v. State of Madhya Pradesh (2007) – इस फैसले में यह स्पष्ट किया गया कि केवल इसलिए किसी पीड़िता की गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता कि FIR में देरी हुई या चोटें नहीं थीं, लेकिन उसकी बातों की सच्चाई की जांच जरूरी है।

Vijay v. State of Madhya Pradesh (2010) – इसमें कहा गया कि यदि पीड़िता की बातों में मेल नहीं है, तो कोर्ट को सावधानी बरतनी चाहिए, भले ही कोई अन्य गवाह मौजूद न हो।

पीड़िता के अधिकार और आरोपी की निष्पक्ष सुनवाई के बीच संतुलन (Balancing Victim's Protection with Fair Trial Rights)

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यौन उत्पीड़न झेलने वाले बच्चों के लिए गवाही देना कठिन होता है, और कोर्ट को उनके लिए एक सुरक्षित वातावरण देना चाहिए। लेकिन इसके साथ-साथ आरोपी का Right to Fair Trial (निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार) भी बराबर जरूरी है।

कोर्ट ने कहा कि समाज की भावनाओं, अपराध की गंभीरता या सहानुभूति के आधार पर आरोपी को सज़ा नहीं दी जा सकती। न्याय का अर्थ है – दोनों पक्षों को सुना जाए और कानून के नियमों का पालन हो।

Navas @ Mulanavas मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि बच्चे की अकेली गवाही पर ही सज़ा दी जा सकती है, लेकिन वह गवाही बिल्कुल साफ, सुसंगत और भरोसेमंद होनी चाहिए। यदि उसमें विरोधाभास, अस्पष्टता या बाहरी दबाव के संकेत मिलते हैं, तो केवल उस पर भरोसा करना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ होगा।

POCSO कानून की पूर्वधारणाएं अभियोजन की सहायता के लिए हैं, लेकिन वे अभियोजन की ज़िम्मेदारी को खत्म नहीं करतीं। अदालत को पहले यह देखना होता है कि क्या शुरूआती सबूत मज़बूत हैं।

यह फैसला यह संतुलन स्थापित करता है कि बच्चों की सुरक्षा और आरोपी के अधिकार – दोनों का ध्यान रखा जाए। न तो निर्दोष को सज़ा दी जाए और न ही किसी पीड़ित की बातों को सिर्फ इसलिए खारिज किया जाए कि वह बच्चा है।

इस निर्णय से भविष्य के मामलों में स्पष्ट मार्गदर्शन मिलेगा, जहां केवल पीड़ित की गवाही मौजूद हो और अदालत को तय करना हो कि क्या वही सज़ा के लिए पर्याप्त है या नहीं।

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