Arup Bhuyan बनाम असम राज्य (2023): UAPA के तहत संगठन की सदस्यता पर ऐतिहासिक फैसला

Update: 2024-09-07 12:57 GMT

Arup Bhuyan बनाम असम राज्य (2023) का मामला भारत के सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जो Unlawful Activities (Prevention) Act, 1967 (UAPA) के प्रावधानों की व्याख्या से संबंधित है। इस फैसले ने यह सवाल उठाया कि क्या केवल किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना अपराध करने के समान है।

इस लेख में हम इस मामले के तथ्यों, तर्कों, और सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या को सरल भाषा में समझेंगे और यह जानेंगे कि यह निर्णय मौलिक अधिकारों पर कैसे असर डालता है, खासकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत दिए गए अभिव्यक्ति और संघ (Association) की स्वतंत्रता पर।

Arup Bhuyan बनाम असम राज्य (2023) का मामला यह याद दिलाता है कि एक लोकतंत्र में व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है। हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता बनी रहेगी, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह सुनिश्चित होता है कि संवैधानिक स्वतंत्रताओं का बलिदान नहीं किया जाएगा।

इस मामले में निष्क्रिय और सक्रिय सदस्यता के बीच का अंतर इस बात का प्रमाण है कि कैसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्य की कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी के बीच संतुलन स्थापित किया जा सकता है।

मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)

इस मामले में अरूप भुइयां पर आरोप था कि वे United Liberation Front of Assam (ULFA) के सदस्य थे, जो UAPA के तहत एक प्रतिबंधित संगठन है। भुइयां पर UAPA की धारा 10(a)(i) के तहत आरोप लगाए गए थे, जिसमें केवल किसी अवैध संगठन का सदस्य होना अपराध माना जाता है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल यह था कि क्या बिना किसी अवैध गतिविधि में सक्रिय रूप से शामिल हुए केवल संगठन का सदस्य होना अपराध है।

उठे हुए मुद्दे (Issues Raised in the Case)

मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि UAPA की धारा 10(a)(i), जो केवल सदस्यता को ही अपराध मानती है, संवैधानिक (Constitutional) है या नहीं।

इस संदर्भ में, निम्नलिखित सवाल सामने आए:

1. क्या केवल प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता अपराध के लिए पर्याप्त है?

2. क्या अमेरिका के "guilt by association" के सिद्धांत (Doctrine) को भारत में लागू किया जा सकता है?

3. क्या धारा 10(a)(i) अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है?

याचिकाकर्ता के तर्क (Petitioner's Arguments)

अरूप भुइयां के वकील ने तर्क दिया कि केवल ULFA का सदस्य होना तब तक अपराध नहीं माना जा सकता, जब तक यह साबित न हो कि उन्होंने हिंसक गतिविधियों (Violent Activities) में सक्रिय रूप से भाग लिया या हिंसा को भड़काया हो।

उन्होंने State of Kerala vs. Raneef और Scales vs. United States जैसे मामलों का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया कि निष्क्रिय सदस्यता (Passive Membership) को आपराधिक उत्तरदायित्व (Criminal Liability) का कारण नहीं बनना चाहिए।

याचिकाकर्ता ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति और संघ की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, और केवल किसी संगठन का सदस्य होना इस अधिकार का उल्लंघन नहीं होना चाहिए जब तक अवैध गतिविधियों में लिप्त होने का कोई प्रमाण न हो।

प्रतिवादी के तर्क (Respondent's Arguments)

असम राज्य, जिसे सॉलिसिटर जनरल द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया, ने तर्क दिया कि UAPA की धारा 10(a)(i) के तहत केवल प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना अपराध सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।

राज्य ने जोर देकर कहा कि ULFA एक आतंकवादी संगठन (Terrorist Organization) है और इसके किसी भी सदस्य का जुड़ा होना राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) के लिए खतरा है।

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि यदि संगठन की सदस्यता को बिना किसी दंड के छोड़ दिया जाता है, तो यह आतंकवाद से लड़ने की राज्य की क्षमता को कमजोर कर देगा।

राज्य ने यह भी बताया कि UAPA को भारत की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा के लिए लागू किया गया है, और अवैध संगठनों की सदस्यता सीधे तौर पर इन सिद्धांतों को चुनौती देती है।

सॉलिसिटर जनरल ने यह तर्क भी दिया कि अनुच्छेद 19(1)(c) के तहत दी गई संघ की स्वतंत्रता (Freedom of Association) पूर्ण नहीं है और इसे अनुच्छेद 19(4) के तहत सीमित किया जा सकता है, विशेष रूप से जब राष्ट्रीय सुरक्षा की बात हो।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया विश्लेषण (Analysis by the Supreme Court)

मामले के दौरान, सुप्रीम कोर्ट को यह देखना पड़ा कि क्या पहले दिए गए निर्णय Raneef और Arup Bhuyan (2011) ने UAPA की सही व्याख्या की थी। इन दोनों मामलों में अमेरिकी कानूनी सिद्धांतों (Legal Doctrines) पर बहुत भरोसा किया गया था, जहां "guilt by association" के सिद्धांत को खारिज कर दिया गया था, और किसी अवैध गतिविधि में सक्रिय भागीदारी को ही अपराध माना गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने इन पूर्व के निर्णयों का संदर्भ दिया और माना कि केवल किसी संगठन का सदस्य होना व्यक्ति को अपराधी साबित नहीं करता। निष्क्रिय सदस्यता और सक्रिय रूप से अवैध गतिविधियों में भाग लेने के बीच अंतर करना आवश्यक है।

Raneef और Arup Bhuyan (2011) दोनों ही मामलों में न्यायालय ने यह फैसला दिया था कि केवल सदस्यता से किसी व्यक्ति की अवैध गतिविधियों में भागीदारी साबित नहीं होती है, और यह मानक भारत में भी लागू होना चाहिए।

न्यायालय ने यह भी माना कि अभिव्यक्ति और संघ की स्वतंत्रता एक लोकतांत्रिक समाज (Democratic Society) में महत्वपूर्ण हैं। हालांकि, यह स्वतंत्रताएं राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में उचित प्रतिबंधों के अधीन हो सकती हैं। न्यायालय ने जोर देकर कहा कि किसी मौलिक अधिकार पर कोई भी प्रतिबंध उचित और आनुपातिक (Proportional) होना चाहिए।

प्रमुख अवधारणाएं: Mens Rea और UAPA (Key Concepts: Mens Rea and the UAPA)

इस फैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू "mens rea" (अपराधिक मंशा) की अवधारणा थी। न्यायालय ने माना कि प्रतिबंधित संगठन का केवल सदस्य होना तब तक अपराध नहीं है, जब तक कि व्यक्ति हिंसा में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेता या हिंसा भड़काने का इरादा नहीं रखता। यह निष्क्रिय और सक्रिय सदस्यता के बीच भेद करने का एक महत्वपूर्ण बिंदु था।

कोर्ट ने UAPA के प्रावधानों की भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के संदर्भ में भी जांच की। न्यायालय ने माना कि जबकि UAPA का उद्देश्य राष्ट्र को आतंकवाद और अवैध गतिविधियों से बचाना है, यह व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकता जब तक कि यह संवैधानिक सिद्धांतों का पालन नहीं करता।

न्यायालय ने यह भी कहा कि UAPA की धारा 10(a)(i) को संविधान के साथ सामंजस्यपूर्ण (Harmonious) तरीके से पढ़ा जाना चाहिए, और केवल सदस्यता के आधार पर मौलिक अधिकारों को बाधित नहीं किया जा सकता जब तक कि अपराध की मंशा (Intent) का प्रमाण न हो।

निर्णय (Judgment)

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में पहले दिए गए Raneef और Arup Bhuyan (2011) के सिद्धांत को पुनः पुष्टि की। न्यायालय ने यह फैसला दिया कि निष्क्रिय सदस्यता को अवैध गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी के समान नहीं माना जा सकता। न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को UAPA की धारा 10(a)(i) के तहत दोषी ठहराने के लिए अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि व्यक्ति न केवल संगठन का सदस्य था, बल्कि उसकी अवैध गतिविधियों को आगे बढ़ाने का इरादा भी रखता था।

न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि धारा 10(a)(i) को संवैधानिक मानकों के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि जबकि यह प्रावधान वैध है, इसे ऐसे तरीके से व्याख्यायित किया जाना चाहिए जो व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का सम्मान करता हो।

फैसले के प्रभाव (Implications of the Judgment)

अरूप भुइयां बनाम असम राज्य (2023) का फैसला एक ऐतिहासिक निर्णय है जो लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांतों की रक्षा करता है, जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा की जरूरतों को भी ध्यान में रखता है। यह पुनः पुष्टि करता है कि केवल किसी समूह से जुड़ा होना, भले ही वह प्रतिबंधित संगठन हो, अपराध नहीं हो सकता जब तक कि अवैध गतिविधियों में भागीदारी या इरादा न हो।

इस निर्णय का UAPA और अन्य समान कानूनों की व्याख्या पर गहरा असर पड़ेगा। यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों पर उनके संघों के लिए नहीं, बल्कि उनके कार्यों और इरादों के लिए मुकदमा चलाया जाएगा। यह फैसला अनुच्छेद 19 के तहत संघ की स्वतंत्रता पर कानूनी व्याख्याओं को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि इस स्वतंत्रता पर कोई भी प्रतिबंध उचित और आनुपातिक हो।

Tags:    

Similar News