मध्‍यस्‍थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम 2019 भाग: 1 सामान्य परिचय

Update: 2021-06-14 03:30 GMT

विवादों को न्यायालय के बाहर समाप्त करने के उद्देश्य से मध्‍यस्‍थता तथा सुलह अधिनियम 1996 बनाया गय। यह अधिनियम इसके नाम से ही प्रतीत होता है कि विवादों को सुलह के माध्यम से निपटाने का प्रयास कर रहा है। इसके द्वारा मध्‍यस्‍थता के नियमों को समेकित किया गया है तथा उन्हें सूचित भी किया गया है।

इस अधिनियम के पीछे मूल उद्देश्य है कि अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय, प्रादेशिक विवादों को सुलझाने में मध्‍यस्‍थता के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाए। यह अधिनियम अंतरराष्ट्रीय मध्‍यस्‍थता प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इस अधिनियम में कुल 86 धाराएं हैं तथा जिसे अलग-अलग भागों में बांटा गया है। इस अधिनियम के अंतर्गत 3 अनुसूचियां भी शामिल की गई हैं। इसके पहले के मध्‍यस्‍थता अधिनियम 1940 में अंतरराष्ट्रीय मध्‍यस्‍थता संबंधी कोई प्रावधान नहीं था। वह सिर्फ घरेलू मध्‍यस्‍थता तक ही सीमित था। इस विधि को अधिक स्पष्ट किया गया है। इस अधिनियम के द्वारा मध्‍यस्‍थता न्यायाधिकरण की परिकल्पना की गई है। संविधानिक माध्यस्थ को न्यायाधिकरण का दर्जा दिया गया है। इस अधिनियम द्वारा विदेशी तथा अंतरराष्ट्रीय मध्‍यस्‍थता के चुनाव संबंधी विस्तृत प्रक्रिया को उल्लेखित किया गया है। यह अधिनियम के द्वारा प्रथम बार सुलह की प्रक्रिया को मान्यता प्रदान की गई है। इस अधिनियम के द्वारा सुलह की कार्यवाही को अन्य कार्यवाही में स्वीकार योग्य बनाया गया है। जैसा कि इस अधिनियम के शीर्षक से स्पष्ट है।

इसमें मध्‍यस्‍थता के अलावा सुलह को भी वाणिज्यिक विवादों के निपटारे के साधन के रूप में विधिक मान्यता प्रदान की गई जिसे पूर्ववर्ती अधिनियम में विधिक मान्यता प्राप्त नहीं थी। केवल इतना ही नहीं अधिनियम में सुलह को वही स्थान प्राप्त है जोकि मध्‍यस्‍थता को अर्थात सुलह द्वारा रजामंदी से दिए गए निर्णय को मान्यता वैसी ही होगी जैसी कि माध्यस्थों द्वारा दिए गए पंचाट की तथा इसका न्यायालय डिक्री की भांति प्रवर्तनीय किया जा सकेगा। इस अधिनियम के अधीन देसी अंतरराष्ट्रीय दोनों ही प्रकार के विवाद सुलह द्वारा निपटाए जा सकेंगे। ज्ञातव्य है कि सुलह तथा मध्‍यस्‍थता में मुख्य अंतर यह है कि सुलहकार पक्षकारों को अपने मतभेद या विवाद आपसी रजामंदी से निपटा लेने में केवल उत्प्रेरक सहायक की भूमिका निभाता है।

इस अधिनियम के द्वारा न्यायालय की शक्तियों को सीमित किया गया है। अधिनियम में इस संबंध में उल्लेख किया गया है कि मध्‍यस्‍थता कार्यवाही के ऊपर न्यायिक हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस अधिनियम के अनुसार भाग 1 के प्रावधानों के अधीन मध्‍यस्‍थता पंचाट (अवॉर्ड) अंतिम होगा।

यह अधिनियम के भाग 5 में माध्यस्थता संबंधी विस्तृत प्रक्रिया को उल्लेखित किया गया है। इसके द्वारा प्रथम बार पक्षकारों के बीच समानता रखी गई है तथा पक्षकारों को सामान्य पूर्ण अवसर देने संबंधी प्रावधान रखे गए हैं। मध्‍यस्‍थता अभिकरण को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वह सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रावधानों को अपना सके।

इस अधिनियम के प्रावधानों के द्वारा मध्यस्थ को बड़ी शक्तियां दी गई हैं। वह अंतरिम आदेश भी जारी कर सकता है। मध्यस्थ को किसी प्रकार से उचित कार्यवाही के तहत प्रतिभूति लेने का भी अधिकार है। इस अधिनियम में मध्‍यस्‍थता पंचाट के विरुद्ध अपील का कोई प्रावधान नहीं है। मध्यस्थ तथा मध्यस्थों द्वारा दिया गया पंचाट निर्णय पक्षकारों के लिए अंतिम और बंधनकारी होगा। पर अधिनियम की धारा 34 में वर्णित कतिपय आधारों पर व्यथित पक्षकार पंचाट को अपास्त करने हेतु न्यायालय में आवेदन कर सकता है। पूर्ववर्ती अधिनियम में पंचाट की संतुष्टि न्यायालय डिक्री द्वारा हुए बिना उसे प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता था। इस हेतु पक्षकारों को न्यायालय में आवेदन करना पड़ता था।

मध्‍यस्‍थता तथा सुलह अधिनियम 1996 पारित होने की प्रमुख आवश्यकता

संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि आयोग ने अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य मध्‍यस्‍थता पर संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि आयोग आदेश विधि को स्वीकार कर लिया था, जिस कारण भारत में भी ऐसी ही विधि की आवश्यकता थी। संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय विधि आयोग ने संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय विधि आयोग ने उन नियमों को स्वीकार कर लिया था, इसलिए भारत में 2016 विधि संबंधी नियमों की आवश्यकता थी।

अंतर्राष्ट्रीय मध्‍यस्‍थता तथा सुलह संबंधी प्रक्रिया को ध्यान में रखकर उचित विधि की आवश्यकता थी जो कि अंतरराष्ट्रीय मानक स्तर पर निष्पक्ष हो, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों में विदेशी तथा अन्य माध्यस्थ को नियुक्त करने संबंधी प्रावधानों की आवश्यकता थी। मध्‍यस्‍थता अधिनियम 1940 के उन प्रावधानों को समाप्त करना था जो कि अपनी उपयोगिता खो चुके थे। मध्‍यस्‍थता अधिनियम 1940 में न्यायालयों का अत्यधिक नियंत्रण था जिस कारण से वह उपयोगी साबित नहीं हो पा रहा था। वैश्वीकरण और उदारीकरण की औद्योगिक तथा व्यापारिक नीति के पालन के कारण विदेशी निवेशकों को शीर्ष उपचार प्रदान करने के मध्‍यस्‍थता विधि अति आवश्यक मानी गई जिससे न्यायालय हस्तक्षेप न्यूनतम स्तर पर हो गया। न्यायालय हस्तक्षेप किसी झगड़ा के समाधान करने में बहुत समय तथा खर्च एक पक्ष दूसरे से व्यवहार जाने पर दुश्मनी को जन्म देता है।

जबकि मध्‍यस्‍थता विधा झगड़े के समापन पर सौहार्द बराबरी और प्रेम का मार्ग प्रशस्त करती है। इन सभी कारणों से यह स्पष्ट था कि मध्‍यस्‍थता विधि पर एक नए अधिनियम की आवश्यकता है जिसे मध्‍यस्‍थता तथा सुलह अधिनियम 1996 पूर्ण कर देता है।

यह राष्ट्रीय श्रीनिवास जोशी बनाम ओमेगा इनफार्मेशन सिस्टम 2009 के मामले में कहा गया है - जहां मध्‍यस्‍थता अधिनिर्णय को समय से पूर्व चुनौती देने वाली याचिका को नामंजूर कर दिए जाने पर अंतिमता प्राप्त हो गई थी जबकि अभी निर्णय निष्पादित करने योग्य डिक्री की कोटि मे आता था वहां जिला न्यायालय को आरंभिक अधिकारिता कि न्यायालय होने के कारण अधिनियम के अधीन पारित किए गए अधिनिर्णय के निष्पादन के लिए न्यायालय माना गया।

इस अधिनियम के अंतर्गत पक्षकार शब्द का प्रयोग मध्‍यस्‍थता कार्यवाही के एक पक्ष कार का अर्थ रखने के लिए इसकी परिभाषा वाले भाव में धारा 34(2) में किया जाता है और इसके अंतर्गत वह पक्षकार नहीं आता है जो करार का एक पक्षकार है। मध्‍यस्‍थता संबंधी अधिनिर्णय की वैधता पर अपील में मध्‍यस्‍थता करार के पक्षकार द्वारा आक्रमण किया जा सकता है न कि रिट अधिकारिता पर व्यक्ति द्वारा अवलंब लेकर।

चेन्नई कंटेंट टर्मिनल प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया एआईआर 2007 मद्रास 325 के प्रकरण में कहा गया है कि पक्षकर मध्‍यस्‍थता कार्यवाही के एक प्रकार का अर्थ रखने के इसकी परिभाषा अभाव में धारा 34( 2) में प्रयोग किया गया है और इसके अंतर्गत एक तृतीय पक्षकार नहीं आता है जो करार का एक पक्षकार नहीं होता है। यह भी तय शुदा है कि एक अधिनिर्णय अंतिम होता है। मात्र पक्षकारों पर बंधनकारी होता है और अधिनिर्णय को पक्षकार के विरुद्ध मात्र प्रवर्तनीय बनाया जा सकता है।

मध्यस्थम की नियुक्ति

बैंक के और दो कंपनियों के बीच त्रि पक्षीय अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य करार हुआ। शर्तों का उल्लंघन होने की दशा में बैंक ने न्यायालय में पक्षकारों के बीच विवाद को निपटाने के लिए शरण ली। उच्चतम न्यायालय ने अभिलेख पर सामग्री तथा करार के निबंधनों का परीक्षण किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह न्याय हित मांग करता था की पक्षकारों के बीच विवाद के निपटारे के लिए मध्यस्थम की नियुक्ति की जाए। परिणामस्वरूप एकमात्र मध्यस्थ के रूप में कार्य के लिए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की नियुक्ति की गई। अधिनियम के प्रावधान मध्यस्थ की नियुक्ति विवादों के निर्देश तथा मध्यस्थम की नियुक्ति के प्रक्रम से अधिनिर्णय के किए जाने एवं निष्पादित किए जाने एवं प्रभावी बनाए जाने तक मध्‍यस्‍थता की संपूर्ण प्रक्रिया आदेशिका को प्रक्रिया को शासित करेंगे। कथित अधिनियम के प्रावधान संधियों में प्रमाणित मामलों की जांच सूची की अपेक्षा को पूरी करेगा। जब एक बार पक्षकारगण मध्‍यस्‍थता और सुलह अधिनियम 1996 के अनुसार विवाद के संकल्प के करार करते हैं तब कथित अधिनियम संपूर्ण आदर्श एवं प्रक्रिया को ध्यान में रखेगा।

जब मध्यस्थम अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक होगा तब मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए आवेदन पत्र उच्चतम न्यायालय के समक्ष पोषणीय होगा न कि उच्च न्यायालय के समक्ष। यह बात असलम इस्माइल खान देशमुख बनाम अंशप फ्लूट प्राइवेट लिमिटेड मुंबई एआईआर 2019 के प्रकरण में कही गई है।

आलेख में वर्णित की गई सभी बातों से यह माना जाना चाहिए कि मध्‍यस्‍थता और सुलह अधिनियम 1996 अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर होने वाले व्यापारिक काम में मध्यस्थ के माध्यम से किसी भी विवाद को निपटाने का कार्य करता है। कोई भी विवाद जब न्यायालय में जाता है तो उस विवाद को समाप्त करना अत्यधिक मुश्किल कार्य होता है परंतु माध्यस्थम के माध्यम से ऐसे विवाद शीघ्र निपटाए जा सकते हैं क्योंकि किसी भी व्यापारिक प्रतिष्ठान का कार्य व्यापार करना होता है न कि विवादों में बढ़ाना होता है। ऐसे व्यापारिक संस्थाओं को विवादों से बचाने हेतु तथा उनके विवादों पर शीघ्र निपटारा करने हेतु मध्‍यस्‍थता एवं सुलह अधिनियम 1996 का निर्माण किया गया।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 के वर्ष 2019 में किए गए संशोधन

अध्यादेश में छल या भ्रष्टाचार से किए जाने वाले मध्यस्थता समझौते अथवा अनुबंधों के मामले में संबंधित पक्षकारों को मध्यस्थता निर्णय के प्रवर्तन पर बिना शर्त रोक लगाए जाने का अवसर प्रदान किया गया है इसी प्रकार इस संशोधन अधिनियम के अंतर्गत दूसरे भी संशोधन किए गए हैं जो इस अधिनियम को अधिक समृद्ध बनाते हैं। अध्यादेश में मध्यस्थता अधिनियम की 8वीं अनुसूची को निरसित कर दिया गया है। 8वीं अनुसूची में मध्यस्थों (Arbitrators) की आवश्यक अहर्ता के प्रमाणन संबंधी प्रावधान सम्मिलित थे।अभी तक किसी मध्यस्थता फैसले के खिलाफ कानून की धारा 36 के तहत अपील दायर किए जाने के बावजूद इसे लागू किया जा सकता था।संशोधन के अनुसार, यदि न्यायालय इस बात से संतुष्ट होता है, कि संबंधित मामले में दिया गया 'मध्यस्थता निर्णय', प्रथमदृष्टया, 'धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से किये जाने वाले मध्यस्थता समझौते अथवा अनुबंधों' पर आधारित है, तो अदालत अधिनियम की धारा 34 के तहत, प्रदान किये गए 'मध्यस्थता निर्णय' पर अपील लंबित रहने तक बिना शर्त रोक लगा देगी।

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