किसी भी सूचना को मांगे जाने पर सूचना के नहीं दिए जाने पर आवेदक को मिला अपील का अधिकार एक कानूनी अधिकार है। अपील का अधिकार संविधि का सृजन है। यह मूल्यवान विधिक अधिकार है, जो व्यक्ति व्यक्ति को उच्चतर फोरम के समक्ष उसकी सहायता का आश्रय लेने के लिए तथा निम्नतर फोरम की त्रुटियों को सुधरवाने के लिए प्रदान किया गया है।
अधिनियम की धारा 19 (1) अपील के ऐसे अधिकार का प्रयोग ऐसे व्यक्ति द्वारा किये जाने के लिए प्रदान करती है, जो व्यक्ति व्यक्ति को जिसने अधिनियम की धारा 6 के अधीन सूचना प्राप्त करने के लिए निवेदन किया था, को सूचना प्रस्तुत करने के लिए केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी अथवा राज्य लोक सूचना अधिकारी, जैसी भी स्थिति हो, द्वारा इन्कारी अथवा कल्पित इन्कारी के कारण व्यक्ति हो।
अधिनियम की धारा 7, 19 तथा 20 सपठित सूचना का अधिकार नियमावली, 2012 के नियम 8 उत्तरप्रदेश सूचना का अधिकार नियमावली, 2015 के नियम 7 तथा उत्तरप्रदेश राज्य सूचना आयोग (अपील की प्रक्रिया) नियमावली, 2006 के नियम 3 का वाचन यह अप्रतिरोध निष्कर्ष अग्रसर करता है कि "अधिनियम, 2005" की धारा 7 के अधीन पारित प्रत्येक आदेश के विरुद्ध अथवा प्रत्येक कल्पित इनकारी के विरुद्ध सक्षम प्राधिकारी के समक्ष "अधिनियम, 2005" की धारा 19 (1) के अधीन पृथक् प्रथम अपीलें होंगी।
यह सुनिश्चित विधि है कि अपील का अधिकार संविधि का सृजन है। इसलिये अपील संविधि द्वारा केवल यथोपवन्धित रीति में ही दाखिल की जा सकती है। मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक अन्य बनाम मनिपुर राज्य एवं एक अन्य, (2011) 15 एस सी सी 1 (पैरा 45, 49 और 51) के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की धारा 18 तथा 19 के प्रावधानों पर विचार किया था और निम्न प्रकार से अभिनिर्धारित किया था-
इसके अलावा अधिनियम की धारा 19 के अधीन प्रक्रिया को जब धारा 18 से तुलना की जाती है, तब उस व्यक्ति को, जिसे वह सूचना इन्कार कर दी गयी है, जिसकी उसने मांग की है, के हित को संरक्षित करने के लिये विभिन्न रक्षोपाय किये गये हैं। इस सम्बन्ध में धारा 19 (5) को निर्दिष्ट किया जा सकता है। धारा 19 (5) निवेदन की इन्कारी को न्यायसंगत ठहराने का भार सूचना अधिकारी पर अधिरोपित करती है। इसलिये इन्कारों को न्यायसंगत ठहराना अधिकारी का कर्तव्य होता है। धारा 18 में ऐसा कोई रक्षोपाय नहीं है। इसके अलावा धारा 19 के अधीन प्रक्रिया समयबद्ध होती है, परन्तु धारा 18 के अधीन कोई परिसीमा विहित नहीं की गयी है। इसलिये धारा 18 और धारा 19 के मध्य दोनों प्रक्रियाओं में से एक धारा 19 के अधीन है, जो उस व्यक्ति के लिये अधिक लाभदायक होती है, जिसे सूचना की पहुंच से इन्कार किया गया है।
एक अन्य पक्ष भी है। धारा 19 के अधीन प्रक्रिया अपीलीय प्रक्रिया होती है। अपील का अधिकार सदैव संविधि का सृजन होता है। अपील का अधिकार उच्चतर फोरम के समक्ष उसकी सहायता का आश्रय लेने के लिये प्रवेश करने तथा निम्नतर फोरम की त्रुटियों को सुधारने के लिये हस्तक्षेप करने का अधिकार होता है। यह बहुत मूल्यवान अधिकार होता है। इसलिये जब संविधि अपील पर ऐसा अधिकार प्रदत करती है, तब उसका प्रयोग ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिये, जो सूचना प्रस्तुत किये जाने की इन्कारों के कारण द्वारा व्यक्ति हो।
इसलिए यह कोर्ट अपीलार्थीगण को आज से 4 सप्ताह की अवधि के भीतर दिनांक 9.2.2007 और 19.5.2007 के आवेदनों के माध्यम से प्राप्त करने के लिये अपने द्वारा दो निवेदनों के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 19 अधीन अपीलें दाखिल करने के लिये निर्देशित करता है। यदि अपीलार्थीगण द्वारा विधिक प्रक्रिया का पालन करते हुये ऐसी अपील दाखिल की जाती है, तब उस पर अपीलीय प्राधिकारी द्वारा परिसीमा अवधि पर बल दिये बिना गुणावगुण पर विचार किया जाना चाहिये।"
मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक अन्य (उक्त) के वाद में माननीय सुप्रीम कोर्ट का पूर्वोक्त निर्णय पूर्ण रूप से यह स्पष्ट करता है कि जब सूचना प्राप्त करने के लिये दो निवेदन किये गये थे, तब सुप्रीम कोर्ट ने दोनों निवेदनों के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 19 के अधीन अपील दाखिल करने के लिये निर्देशित किया था।
नामित शर्मा बनाम भारत संघ, (2013) 1 एस सी सी 745 के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने प्राधिकारियों के कार्य की प्रकृति तथा अधिनियम की धारा 18, 19 और 20 पर विचार किया था और निम्न प्रकार से अभिनिर्धारित किया था-
सूचना आयोग निकाय के रूप में अपने अधिकारियों के माध्यम से व्यापक मात्रा में कार्यों, जिसमें न्यायनिर्णायक, पर्यवेक्षणकारी के साथ ही साथ दाण्डिक कार्य शामिल हैं, को सम्पन्न करता है। सूचना की पहुंच विधिक अधिकार है। यह अधिकार, जैसा कि ऊपर इंगित किया गया है, कतिपय संवैधानिक तथा विधिक परिसीमाओं के अधीन होता है। अधिनियम, 2005 " स्वयं उन्मुक्त सूचना के साथ ही साथ ऐसे क्षेत्रों को अभिव्यक्त करता है, जहां अधिनियम निष्प्रभावी होगा। केन्द्रीय तथा राज्य सूचना आयोगों में कतिपय परिस्थितियों के अधीन तथा विनिर्दिष्ट स्थितियों में सूचना प्रदान करने से इन्कार करने की शक्ति निहित की गयी है। सूचना, जिसमें पर-पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त होता है, के प्रकटन के लिये सम्बद्ध प्राधिकारी के लिये पर पक्षकार को नोटिस जारी करने की अपेक्षा की गयी है, जो प्रत्यावेदन प्रस्तुत कर सकता है और ऐसे प्रत्यावेदन पर " अधिनियम, 2005 " के प्रावधानों के अनुसार विचार किया जाना है।
भारत में विधि को यह स्थिति कुछ अन्य देशों में विद्यमान विधि को स्थिति के स्पष्ट विरोध में है, जहां पर पक्षकार को अन्तर्ग्रस्त करने वाली सूचना को उस पक्षकार को सम्मति के बिना प्रकट नहीं किया जा सकता है। हालांकि प्राधिकारी यह कथन करते हुये लेखबद्ध कारणों में ऐसे प्रकटन को निर्देशित कर सकता है कि लोकहित प्राइवेट हित पर अधिक भारी हैं। इस प्रकार इसमें न्यायनिर्णायक प्रक्रिया अन्तग्रस्त होती है, जहां पक्षकारों को सुना जाना आवश्यक होता है, उपयुक्त निर्देश जारी किया जाना होता है, मस्तिष्क के सम्यः प्रयोग पर तथा वैध कारणों से आदेश पारित किया जाना आवश्यक होता है। अधिनियम, 2005" के प्रावधानों के अधीन सम्बद्ध प्राधिकारियों द्वारा शक्तियों का प्रयोग तथा आदेशों को पारित करना मनमाना नहीं हो सकता है। इसे नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त तथा ऐसे प्राधिकारी द्वारा विकसित की गयी प्रक्रिया के अनुरूप होना है।
नैसर्गिक न्याय के तीन अपरिहार्य पक्ष होते हैं, अर्थात् सूचना प्रदान करना, सुनवाई करना तथा कारणयुक्त आदेश पारित करना। इसे विवादित नहीं किया जा सकता है कि "अधिनियम, 2005" के अधीन प्राधिकारीगण तथा अधिकरण अर्द्धन्यायिक कार्यों का निर्वहन कर रहे हैं।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की योजना के अधीन धारा 5 के निबन्धनों में प्रत्येक लोक प्राधिकारी, दोनों राज्य तथा केन्द्र में, से सूचना के अधिकार को इस अधिनियम के अधीन मांगी गयी सूचना को प्रस्तुत करके और अधिक प्रभावी बनाने तथा प्रभावी बनाने के लिये लोक सूचना अधिकारियों को नामित करने की अपेक्षा करती है। सूचना अधिकारी ऐसी सूचना प्रदान करने से इन्कार कर सकता है, जो आदेश नामित वरिष्ठ अधिकारी के समक्ष धारा 19 (1) के अधीन अपीलीय होता है, जिससे पक्षकारों को सुनने तथा मामले को विधि के अनुसार निर्णीत करने की अपेक्षा की जाती है। यह प्रथम अपील होती है। इस अपीलीय प्राधिकारी के आदेश के विरुद्ध "अधिनियम, 2005" की धारा 19 (3) के निबन्धनों में केन्द्रीय सूचना आयोग अथवा राज्य सूचना आयोग, जैसी भी स्थिति हो, के समक्ष द्वितीय अपील होती है।
विधायिका ने अपने कौशल से दो अपीलों के लिये प्रावधान किया है। जहां न्यायनिर्णायक फोरम अधिक होते हैं, वहां न्यायिक रूप से, निष्पक्षता के नियम का पालन करने की तथा विहित प्रक्रिया के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा अधिक होती है और ऐसी किसी विहित प्रक्रिया अभाव में नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा होती है। ऐसे अधिकरण से सार्वजनिक प्रत्याशा भी अधिक होती है। इन निकायों द्वारा सम्पन्न किये गये न्यायनिर्णायक कार्य गम्भीर प्रकृति के होते हैं। आयोग द्वारा पारित किया गया आदेश अन्तिम तथा बाध्यकारी होता है और उसे संविधान के क्रमश: अनुच्छेद 226 और/अथवा अनुच्छेद 32 के अधीन कोर्ट की अधिकारिता के प्रयोग में केवल हाईकोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ही प्रश्नगत किया जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की योजना तथा विविध प्रकार के कार्यों का विश्लेषण करता है, जो सूचना आयोग से अपने कार्यों का निर्वहन करते समय करने की अपेक्षा की जाती है, तब निम्नलिखित लक्षण स्पष्ट हो जाते हैं-
यह हमारे समक्ष ऐसा विवाद है, जो इसे निर्णीत करता है। ब्लैक को विधि शब्दकोश (आठवां संस्करण) के अनुसार "विवाद" का तात्पर्य "वादकरण का प्रकार; विरोध अथवा विवाद" होता है। एक पक्षकार विशेष सूचना के अधिकार का प्रकथन करता है, अन्य पक्षकार उसे इन्कार करता है अथवा उसका इस तरह से विरोध भी करता है कि वह उसक संरक्षित अधिकार का अतिलंघन था, तब यह ऐसा विवाद उद्भूत करता है, जिसे आयोग द्वारा विधि के अनुसार निर्णीत किया जाना है और इस प्रकार उसे सामान्य प्रशासनिक कार्य" के रूप में नहीं कहा जा सकता है। इसलिये यह स्पष्ट हो जाता है कि अपीलीय प्राधिकारी तथा आयोग इस विवाद पर इस अर्थ में विचार करते हैं, जिसमें इसे विधिक भाषा में समझा जाता है।
यह न्यायनिर्णायक कार्यों को सम्पन्न करता है और उससे प्रभावित पक्षकार को सुनवाई का अवसर प्रदान करने तथा अपने आदेशों के लिये कारणों को अभिलिखित करने की अपेक्षा को जाती है। लोक सूचना अधिकारी के आदेश प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष अपीलीय होते हैं और प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के आदेश सूचना आयोग के समक्ष अपीलीय होते हैं, जो तय सुप्रीम कोर्ट अथवा हाईकोर्ट के समक्ष न्यायिक पुनर्विलोकन की उसकी असाधारण शक्ति के प्रयोग में चुनौती के लिये खुले होते हैं।
यह न्यायनिर्णायक प्रक्रिया है, जो विवादों के प्रशासनिक अवधारण के समान नहीं होती है, परन्तु यह प्रकृति में अवधारण की न्यायिक प्रक्रिया के समान होती है। सम्बद्ध प्राधिकारी से न केवल यह निर्णीत करने की अपेक्षा की जाती है कि क्या मामला किसी अपवाद के अधीन आच्छादित था अथवा ऐसे किसी संगठन से सम्बन्धित था, जिसे "सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" लागू नहीं होता है, वरन् विधिक तथा संवैधानिक प्रावधानों को लागू करके यह निर्धारित करने की अपेक्षा की जाती है कि क्या सूचना के अधिकार का प्रयोग एकान्तता के अधिकार में अतिसंचन की कोटि में आता है। विधि का ऐसा सूक्ष्म अन्तर होने के कारण ऐसे मामलों में विधिक सिद्धान्तों का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
सम्बद्ध प्राधिकारी दाण्डिक शक्तियों का प्रयोग करता है और व्यतिक्रमी पर " सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की धारा 20 के अधीन यथा-अनुचिन्तित कॉस्ट अधिरोपित कर सकता है। इसे अन्वेषणकारी तथा पर्यवेक्षणकारी कार्यों को सम्पन्न करना होता है। इससे व्यतिक्रमियों, जिसमें धारा 20 (2) के निबन्धनों में सेवा में व्यक्ति शामिल है, के विरुद्ध रिपोर्ट दे सकने तथा अनुशासनिक कार्यवाही की सिफारिश कर सकने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों तथा सेवा विधि के विधिशास्त्र को प्रयोज्य सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने के लिये अपेक्षा की जाती है।
आयोग की कार्यप्रणाली सिविल न्यायालयों की कार्यप्रणाली के अनुरूप है और इसमें अभिव्यक्त रूप से सिविल कोर्ट की सीमित शक्तियां निहित की गयी हैं। इन शक्तियों का प्रयोग तथा ऊपर विचार-विमर्श किये गये कार्यों का निर्वहन इन प्राधिकारियों की कार्यप्रणाली को न केवल न्यायिक और/अथवा अर्द्धन्यायिक कार्यप्रणाली कर रंग प्रदान करता है, वरन् आयोग में सिविल कोर्ट के आवश्यक पाशों को भी विहित करता है।
धारा 20 दाण्डिक प्रावधान है। यह केन्द्रीय अथवा राज्य लोक सूचना आयोग को ऐसे लोक सूचना अधिकारी के विरुद्ध कॉस्ट अधिरोपित करने के साथ ही साथ अनुशासनिक कार्यवाही करने को सिफारिश करने के लिये सशक्त करती है, जिसने उसकी राय में बिना किसी युक्तियुक्त कारण से इस धारा में विनिर्दिष्ट कोई कृत्य अथवा लोप कारित किया है। उक्त प्रावधान यह प्रदर्शित करता है कि आयोग की कार्यप्रणाली केवल प्रशासनिक ही नहीं है, वरन् प्रकृति में अर्द्धन्यायिक है। यह ऐसी शक्तियों तथा कार्यों का प्रयोग करता है, जो स्वरूप में न्यायनिर्णायक तथा प्रकृति में विधिक होती है। इस प्रकार विधि की अपेक्षा, विधिक प्रक्रिया तथा संरक्षण प्रकट रूप से आवश्यक होंगे। आयोग द्वारा अर्द्धन्यायिक विवेकाधिकार का सबसे अच्छा प्रयोग संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन अन्तर्निहित संरक्षणों के विरुद्ध संविधान के अनुच्छेद 19 के अधीन मान्यता प्राप्त सूचना के अधिकार को सुनिश्चित करना तथा प्रभावी बनाना है।