किसी फैसले को पलटने की अपील और कोर्ट की शक्ति

Update: 2024-11-23 13:00 GMT

अपील कोर्ट के पास यह पॉवर होती है कि वह ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट सकती है। परिवादी, अभियोजन पक्ष और अभियुक्त यह तीनों ही अपील कर सकते हैं। परिवाद द्वारा संस्थित मामलों में परिवादी को भी अपील करने का अधिकार उपलब्ध होता है।

ऐसी परिस्थिति में BNSS के अंतर्गत अपीलीय कोर्ट की शक्तियों का उल्लेख भी आवश्यक हो जाता है। BNSS की धारा 427 अपील कोर्ट की शक्तियों के संदर्भ में विस्तार पूर्वक प्रावधान करती है। अपील कोर्ट को अपनी यह शक्तियां तीन प्रकार से प्राप्त होती है-

दोषसिद्धि के आदेश से की गयी अपील की दशा में।

दंडादेश की वृद्धि के लिए की अपील के संदर्भ में

दोषमुक्ति के आदेश से की गयी अपील की दशा।

धारा 427

इस धारा के अंतर्गत अपील कोर्ट द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग दो शर्तों को पूरा कर लेने के बाद ही किया जाएगा-

यह कि न्यायालय अपील के निस्तारण के पूर्व मामले से संबंधित आवश्यक अभिलेखों का परिशीलन कर ले।

यदि अपीलार्थी या उसका वकील हाजिर है तो उसे और यदि लोक अभियोजक हाजिर है तो उसे धारा 418 धारा 419 के अधीन अपील की दशा में यदि अभियुक्त हाजिर है तो उसे सुनने के पश्चात ही अपील पर विचार करें।

अपील कोर्ट को अपनी अपीलीय शक्तियों का प्रयोग करने के पूर्व शर्तों की पूर्ति करना होती है, यदि कोई भी आपराधिक अपील धारा 425 के अधीन संक्षेपतः खारिज नहीं की जाती है तो उसका निस्तारण इस धारा 427 के अनुसार किया जाएगा।

अभिलेखों का परिशीलन करने के पश्चात यदि अपील कोर्ट अपील को संक्षेप खारिज नहीं करता है तो उसके बाद की प्रक्रिया धारा 427 के अंतर्गत दी गयी है।

अतुल चौधरी बनाम राज्य के एक मामले में कहा गया है कि इस धारा में पुनर्विचार के सिवाय रिमांड की शक्ति का कोई भी प्रावधान नहीं है। जहां अपील के अनुक्रम में दंड के प्रश्न पर सुनवायी की जानी हो तो इस तरह की सुनवायी का प्रक्रम हो तो उक्त दशा में अभियुक्त को रिमांड नहीं दिया जा सकता है।

जब कभी आरंभिक न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि की जाती है, BNSS की धारा 415 के अंतर्गत अभियुक्त को दोषसिद्धि से अपील का अधिकार प्राप्त है। अपीलार्थी द्वारा की गयी इस प्रकार की अपील से अपील कोर्ट की शक्तियां BNSS की धारा 427 में दी गयी है। इन शक्तियों के अनुसार-

निष्कर्ष को दंडादेश को उलट सकता है और अभियुक्त की दोषयुक्ति अनुचित कर सकता है या अपने अधीनस्थ न्यायालय को पुनर्विचार के लिए सुपुर्द करने का आदेश दे सकता है।

दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है अथवा निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिमाण में परिवर्तन कर सकता है किंतु इस प्रकार दंड में वृद्धि नहीं कर सकेगा।

दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की दशा में अपील कोर्ट को यह शक्तियां प्रमुख रूप से प्राप्त होती हैं।

कालूराम बनाम दिल्ली राज्य सुप्रीम कोर्ट 260 के वाद में अभियुक्त के ट्रायल कोर्ट द्वारा धारा 304 भाग-1 और 34 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दोषसिद्धि की गयी थी जबकि उसके अन्य साथियों को दोषमुक्त कर दिया गया था। अतः अपीलार्थी ने अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की जबकि परिवादियो ने अपीलार्थी को केवल धारा 304 भाग-1 अधीन दोषसिद्ध करने तथा उसके अन्य साथियों को दोषमुक्त किए जाने के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत की थी।

हाई कोर्ट में अपीलार्थी की अपील इस आधार पर खारिज कर दी क्योंकि वादियों द्वारा प्रस्तुत की गयी पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गयी थी। इस निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की गयी। सुप्रीम कोर्ट ने विनिश्चय किया कि हाई कोर्ट का निर्णय उचित नहीं था तथा परिवादियों की पुनरीक्षण याचिका खारिज होने से अपीलार्थी की अपील को खारिज नहीं किया जाना चाहिए था। अपील का निपटारा गुणावगुण (on merits) के आधार पर किया जाना अपेक्षित था।

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 389 B की व्याख्या करते हुए अप्पासाहेब बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में अभिकथन किया किया धारा 374 ऐसी अपील के प्रति लागू होती है जो अभियुक्त की दोषसिद्धि तथा दंडादेश के आदेश के विरुद्ध फाइल की गयी हो।

इस धारा के प्रावधानों को पक्षकार की एक प्रकरण में की गयी दोषमुक्ति को किसी दूसरे प्रकरण में हुई उसकी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील में विचार कर दोषसिद्धि में परिवर्तन करने हेतु प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

अर्थात दूसरे प्रकरण में अभियुक्त की दोषसिद्धि के आधार पर प्रथम प्रकरण में हुई उसकी दोषमुक्ति को दोषसिद्धि में नहीं पलटा जा सकता है।

अभियोजन पक्ष या परिवादी जब आरंभिक न्यायालय द्वारा किए गए विचारण के पश्चात अभियुक्त के दोष सिद्ध होने के बाद आरंभिक न्यायालय द्वारा दिए गए दंड से आहत होता है तथा दंड में वृद्धि के लिए जब अपील की जाती है तो यहां पर अपील कोर्ट को क्या शक्तियां प्राप्त होती हैं इसका उल्लेख BNSS की धारा 427 में किया गया है।

निष्कर्ष आदेश को उलट सकता है और अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है सक्षम न्यायालय को अभियुक्त के पुनर्विचार का आदेश दे सकता है।

दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है।

निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिमाण में परिवर्तन कर सकता है जिससे उसमें वृद्धि एवं कमी हो जाए।

यदि अपील किसी अन्य आदेश के विरुद्ध हुई है तो अपील कोर्ट ऐसे आदेश को परिवर्तित कर सकता है या उलट सकता है।

दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में प्राप्त अपील कोर्ट को शक्तियां-

जहां दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील की दशा में अपील कोर्ट-

दोषमुक्ति के आदेश को उलट सकता है और निर्देश दे सकता है कि अतिरिक्त जांच की जाए अथवा अभियुक्त को यथास्थिति पुनर्विचारार्थ किया जाए या विचारार्थ सुपुर्द किया जाए।

उसे दोषी ठहराते हुए विधि के अनुसार दंडादिष्ट कर सकता है।

अपील कोर्ट को प्राप्त इन शक्तियों के अतिरिक्त भी BNSS की धारा 427 के अंतर्गत शक्तियां उसे दी गयी हैं। कुछ प्रकरणों में ऐसी शक्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है।

अपील कोर्ट को अपील के निस्तारण में संशोधन या कोई परिमाणिक अनुषांगिक आदेश जो न्याय संगत हो पारित करने की शक्ति प्राप्त है।

लेकिन उक्त शक्ति का प्रयोग कुछ दशाओं के अधीन ही किया जाना चाहिए।

दंड में तब तक वृद्धि नहीं की जा सकती है जब तक कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का अवसर प्रदान ना किया गया हो।

अपील कोर्ट उपचार के लिए जिसे उसकी राय में अभियुक्त ने किया है उससे अधिक दंड नहीं देगा जो आदेश पारित करने वाले न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध के लिए दिया जा सकता था। अंबिका सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य इलाहाबाद के मामले में यह कहा गया है अपील के अनुक्रम में किसी भी दशा में अपील कोर्ट द्वारा उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया जा सकता जो अपील का पक्षकार नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने सलीम जिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के बाद में अभी अभिनिर्धारित किया कि दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील के निपटारे के समय अपील कोर्ट को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

साक्षियों की विश्वसनीयता के बारे में ट्रायल कोर्ट का दृष्टिकोण।

अभियुक्त के पक्ष में निर्दोषिता की परिकल्पना।

किसी युक्तियुक्त आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ दिए जाने की संभावना।

ट्रायल कोर्ट द्वारा साक्ष्यों को सुनने तथा उनका परीक्षण किए जाने के पश्चात निकाले गए तथ्यों तथा निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने के पूर्व अपील कोर्ट से अपेक्षित है कि इन सब बातों पर सावधानीपूर्वक विचार करें।

मोहम्मद साबिर बनाम महाराष्ट्र राज्य के बाद में बंबई हाई कोर्ट ने अभिमत प्रकट किया कि यदि अभियुक्त की दोष सिद्धि के विरुद्ध अपील में अपील कोर्ट कोई निरर्हता जोड़ता है तो इसे उसके दंड में वृद्धि माना जाएगा।

कुरुप्पन थेवर बनाम तमिलनाडु राज्य के प्रकरण में अभियुक्त के विरुद्ध धारा 302 भारतीय दंड संहिता के अधीन हत्या का आरोप था तथा सेशन न्यायालय ने उसे धारा 304 भारतीय दंड संहिता के अपराध के लिए सिद्धदोष किया। सेशन न्यायालय ने आदेश के परिणाम स्वरूप अभियुक्त को धारा 302 के अपराध के लिए दोषमुक्त माना गया। दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में अपीलार्थी को धारा 302 के अपराध के लिए दोषी नहीं कर सकता था क्योंकि उस अपराध के लिए दोषमुक्त माना जा चुका था।

जब किसी व्यक्ति को अपील में दोषसिद्धि हुई हो इसका अर्थ यह हुआ कि अपील कोर्ट ने प्रारंभिक न्यायालय के स्थान पर अपनी शक्ति का प्रयोग किया है अतः उस व्यक्ति का दोषसिद्धि तथा दंड ट्रायल कोर्ट के निर्णय के दिनांक से ही प्रतिस्थापित तथा पूर्ण प्रभावी माना जाएगा।

रामास्वामी नादर बनाम मद्रास के मामले में कहा गया है अपील का निपटारा करते समय हाई कोर्ट को यह शक्ति होगी कि वह अभियुक्त को दोष मुक्ति के आदेश को बहाल रखते हुए उसे किसी अन्य अपराध के लिए सिद्धदोष कर सकता है।

BNSS की धारा 427 (386 Crpc) के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने बाली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के बाद में अभिनिर्धारित किया है कि यदि अपील की सुनवायी हेतु निर्धारित तिथि को अपीलार्थी तथा उसका एडवोकेट दोनों ही न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं रहते हैं तो न्यायालय अपील की सुनवायी को मुल्तवी करने के लिए बाध्य नहीं है तथा वह गुणावगुण के आधार पर अपील का निपटारा कर सकता है। न्यायालय ने अभिकथन किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि अपील की सुनवायी हेतु तिथि समय पर उसके वकील को न्यायालय में उपस्थित रहना चाहिए। ऐसा नहीं किया जाता तो न्यायालय गुणावगुण के आधार पर मामला निपटा सकता।

यह बात अलग है कि दूरदर्शिता या अनुग्रह दिखाते हुए अपील को किसी अगली तिथि के लिए स्थगित कर दें। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 425 भी अपील कोर्ट को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह समुचित आधार ना होने पर अपील को संक्षेपतः खारिज कर सकता है।

साधासिंह बनाम राज्य 1985 के मामले में कहा गया है कि धारा (386 Crpc) के अंतर्गत अपील कोर्ट को व्यापक शक्ति प्राप्त है। यदि न्यायालय की राय में अभियुक्त को दिया गया दंड अत्यधिक कठोर है तथा उसे परिवर्तित करना आवश्यक है तो वह दोषसिद्धि की पुष्टि करते हुए अभियुक्त के दंड में परिवर्तन कर सकता है या उसे कम कर सकता है।

अपील की सुनवायी करते समय अपील कोर्ट को अभियुक्त के दंड में वृद्धि करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार की शक्ति केवल हाई कोर्ट को पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में प्राप्त है। दंड में वृद्धि की जाने हेतु हाई कोर्ट में अपील लोक अभियोजक द्वारा राज्य के निर्देशानुसार की जाती है।

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