किसी भी अपराध में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के बाद पुलिस अपना अन्वेषण शुरू करती है। ऐसे अन्वेषण के बाद पुलिस चालान प्रस्तुत करती है। यह पुलिस की फाइनल रिपोर्ट होती है। इस चालान को प्रस्तुत करने हेतु पुलिस को एक समय सीमा दंड प्रक्रिया संहिता द्वारा दी गई है। यदि पुलिस उस निर्धारित समय के भीतर चालान प्रस्तुत नहीं करती है तो अभियुक्त को आवश्यक रूप से जमानत का लाभ मिल जाता है।
यह प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के अंतर्गत उपलब्ध है। यहां एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा चालान प्रस्तुत करने हेतु 60 और 90 दिन दो अवधि बताई गई। जो अपराध अधिकतम दस वर्ष तक के कारावास से दंडित करने का प्रावधान करते हैं वहां चालान 60 दिनों के भीतर प्रस्तुत किया जाएगा और जहां अपराधों में दस वर्ष से अधिक और आजीवन कारावास एवं मृत्यु दंडादेश का उल्लेख है वहां चालान प्रस्तुत करने की अवधि बढ़कर 90 दिन हो जाती है।
इन प्रावधानों से संबंधित अनेक प्रकरण उच्चतम न्यायालय एवं भिन्न भिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय के समक्ष गए है।
उड़ीसा हाईकोर्ट द्वारा मोहम्मद नसीम 2003 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1050 के मामले में प्रेक्षित किया गया कि सूचना की कोई क्षति कारित नहीं हुई है जबकि फांसी पर लटकाकर मृत्यु के प्रयत्न का अभियोजन उस पर है, मामला दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 307 के प्रथम भाग के अंतर्गत आयेगा क्योंकि धारा 307 के प्रथम भाग के अन्तर्गत प्रावधानित अधिकतम सजा 10 वर्ष का कारावास है। कम से कम दस वर्ष के कारावास से दण्डनीय मामले के अन्वेषण के दौरान अभिरक्षा में निरोध को अवधि प्राधिकृत करने वाले प्रावधान एवं 10 वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दण्डनीय मामले का अन्वेषण सुभिन्न एवं पृथक है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के परन्तुक (क) (1) के अन्तर्गत याची को अधिकतम 60 दिनों तक अभिरक्षा में निरोध को प्राधिकृत किया जा सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के अन्तर्गत जमानत आवेदन 3/8/2002 को दाखिल किया गया और इस अवधि तक आरोप-पत्र नहीं दाखिल किया गया था। याची को मजिस्ट्रेट के समक्ष दिनांक 17/5/2002 गिरफ्तार 3/8/2002 को प्रस्तुत किया गया तथा 60 दिन से अधिक समय बीत गया, इसलिए विद्वान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के उपरोक्त प्रावधान के अन्तर्गत याची को रिहा करने के लिए निर्देशित करना चाहिए था।
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा राजीव चौधरी बनाम राज्य 2001 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2941 के मामले में यह प्रेक्षित किया गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (ii) के प्रावधान उपबंधित करता है कि जहाँ अपराध के लिए प्रावधानित दण्ड 10 वर्ष से कम अवधि का कारावास है, वहाँ मजिस्ट्रेट अभियुक्त को उसकी गिरफ्तारी से 60 दिन की अवधि तक ही अभिरक्षा में निरोधित करने के लिए प्राधिकृत है न इसके परे जो अन्वेषण मृत्युदण्ड आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराधों से सम्बन्धित होता है वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (ii) से आच्छादित होते हैं तथा मजिस्ट्रेट 90 दिन से अधिक अवधि तक अभियुक्त के विरोध के लिए प्राधिकृत होता है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 386 के अन्तर्गत प्रावधानित दण्ड या ऐसी अवधि के कारावास से जो 10 वर्ष तक की हो सकेगी तथा जुर्माने से भी दण्डनीय होगा। इसका तात्पर्य है कि कारावास या तो स्पष्टतः 10 वर्ष से कम का हो सकेगा। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि न्यूनतम दण्ड 10 वर्ष से अधिक का हो सकेगा। अग्रेतर यह कि यदि हम धारा 167 (2) के परन्तुक (क) (1) पर विचार करे तो यह ऐसे दण्ड से दण्डनीय अपराधों के अन्वेषण से संदर्भित होता है और (1) मृत्युदण्ड (2) आजीवन कारावास, तथा (3) 10 वर्ष तक के कारावास से दण्डनीय है।
यह ऐसे अपराधों को आच्छादित नहीं करेगा जिसके लिए दण्ड 10 वर्ष से कम अवधि का कारावास है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 356 का दण्ड न्यूनतम एवं अधिकतम 10 वर्ष के बीच का हो सकता है और यह नहीं कहा जा सकता है कि विहित कारावास दस वर्ष से कम नहीं होगा। इसलिए धारा 386 के अन्तर्गत अपराध के लिए अभियुक्त को 90 दिन तक निरोधित किया जा सकता है तथा 60 दिन तक आरोप पत्र का दाखिल न होना उसे सांविधिक या बाध्यकारी जमानत का हकदार नहीं बनाती है।
महाराष्ट्र उच्च न्यायालय द्वारा मोहम्मद आरिफ बनाम महाराष्ट्र राज्य 1999 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2645 के मामले में यह प्रेक्षित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 को देखने से स्पष्ट होता है कि जहाँ क्षति नहीं पहुंची है वहां दण्ड 10 वर्ष तक का कारावास या जुर्माना हो सकता है।
अभिव्यक्ति 'जो व्यक्ति का हो सकेगा' मेरे विचार में 10 वर्ष के दण्ड को समाविष्ट करता है। दूसरे शब्दों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अन्तर्गत अपराध में जहां उपहति नहीं कारित हुई 10 वर्ष का दण्ड आरोपित किया जा सकता है, और जहाँ ऐसे मामले में 10 वर्ष का दण्ड दिया गया है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (1) के अन्तर्गत अन्वेषण को पूरा करने की अवधि 60 दिनों की होगी।
उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा अदा उर्फ अदिता बेहरा के वाद में प्रेक्षित किया गया कि यथास्थिति 90 या 60 दिन की अवधि की गणना मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 167 के अन्तर्गत प्रथम रिमाण्ड की तिथि को सम्मिलित करते हुए की जानी चाहिए।
बाबू एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य 1998 के मामले में प्रश्न यह था कि क्या यह मामला संहिता की धारा 167 (2) की उपधारा (1) एवं (2) के अन्तर्गत आयेगा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अन्तर्गत विहित दण्ड 10 वर्ष तक का कारावास है। इसका मतलब यह है कि यदि अपराध साबित हो जाये तो उसके लिए दण्ड जो आरोपित हो सकेगा वह 10 वर्ष तक का कारावास हो जाये तो उसके लिए दण्ड जो आरोपित हो सकेगा वह 10 वर्ष का कारावास होगा न कि उसके परे। धारा 167 (2) के उपखण्ड (ii) में प्रयुक्त भाषा जो 10 वर्ष से कम ही है लेकिन न्यूनतम विहित दण्ड 10 वर्ष है।
इन परिस्थितियों में विद्वान न्यायाधीश ने अभिरक्षा से अभियुक्त को रिहाई के लिए विधि के सिद्धान्तों का सही प्रयोग किया। हालांकि विद्वान सत्र न्यायाधीश शब्दावली '10 वर्ष से कम नहीं' हो समझायेगें। इसलिए यह स्पष्ट है कि जहाँ अधिकतम विहित दण्ड 10 वर्ष तक का कारावास है, वहां आरोप पत्र को गिरफ्तारी की तिथि से 60 दिन के भीतर पेश किया जाना चाहिये। दूसरे शब्दों में यहां न्यूनतम दण्ड 10 वर्ष का है या अपराध मृत्युदण्ड आजीवन कारावास के दण्ड से दण्डनीय है वहाँ धारा 167 (1) आरोप-पत्र को 90 दिन के भीतर दाखिल किये जाने का प्रावधान करती है।
उपरोक्त इंगित मामले में अधिकतम विहित दण्ड 10 वर्ष है। इसलिए आरोप पत्र 60 दिनों के भीतर न कि 90 दिनों के भीतर दाखिल किया जाना चाहिए। याची को अभिरक्षा में दिनांक 9/10/1995 को रिमाण्ड किया गया। जबकि आरोप-पत्र 60 दिनों के भीतर दायर नहीं किया गया तो याची के आवेदन पर धारा 167 के अन्तर्गत विद्वान न्यायाधीश ने उसे 12/12/1995 को रिहा कर दिया तथा आरोप पत्र दिनांक 13/12/1995 को दाखिल किया गया, जमानत पर रिहा करने का आदेश उचित था।
सुनील कुमार बनाम झारखंड राज्य 2002 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2507 के मामले में यह प्रेक्षित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन अपराध आजीवन कारावास तक विस्तारित हो सकता है लेकिन यह जीवन भर के लिये कारावास नहीं हो सकता जैसा कि संहिता की धारा 311 के अन्तर्गत अपराध के लिए विहित है। हालांकि न्यूनतम दण्ड 7 वर्ष से कम अवधि का कारावास नहीं हो सकता लेकिन इसकी समानता उन अपराधों से नहीं की जा सकती जिसके लिए विहित न्यूतनतम दण्ड 10 वर्ष का कारवास है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अन्तर्गत अपराध को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (1) की परिधि से बाहर करती है और उसे धारा 167 (2) (क) (ii) की परिधि के दायरे में लाती है।
इस प्रकार इस मामले का परिणाम यह है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 304-ख के अधीन आने वाले मामलों का अन्वेषण अभियुक्त को गिरफ्तार होने या समर्पण की तिथि से 60 दिनों के भीतर पूरा किया जाना चाहिए तथा यदि उक्त अवधि के भीतर आरोप-पत्र दाखिल नहीं किया जाता है तो अभियुक्त दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (ii) के अन्तर्गत सांविधिक जमानत का हकदार हो जाता है यदि वह जमानत बंधपत्र देने और उसे पूरा करने के लिए तैयार है। यह सांविधिक अधिकार जो उसे प्राप्त है को हतोत्साहित नहीं किया जा सकता है।
रुपेश कुमार बनाम झारखंड राज्य 2005 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1802 के मामले में यह प्रेक्षित किया गया कि वर्तमान मामला जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अन्तर्गत कथित अपराध है तथा उसके लिए प्रावधानित दण्ड आजीवन कारावास या ऐसा कारावास जो सात वर्ष से कम नहीं है और इस प्रकार द० प्र० सं० की धारा 167 (2) (क) (i) में समाविष्ट 90 दिन का नियम लागू होगा न कि धारा 167 (2) (क) (ii) के अन्तर्गत नियम।
प्रल्हाद मिथल गिरि के मामले में यह प्रेक्षित किया गया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (i) का प्रावधान यह स्पष्ट करता है कि जहां अपराध मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या कम से कम 10 वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय मामलों से विदित है। वहां कोई मजिस्ट्रेट कुल मिलाकर जिस अवधि के कारावास के लिए अभियुक्त को अभिरक्षा में निरोधित करने के लिए प्राधिकृत है वह 90 दिन से अधिक का नहीं होगा। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (ii) के प्रावधान उपबंधित करता है जहां अपराध के लिए उपबंधित दण्ड 10 वर्ष से कम अवधि का कारावास है वहां मजिस्ट्रेट गिरफ्तारी की तिथि से 60 दिनों की समाप्ति तक पुलिस अभिरक्षा में निरोध करने के लिए प्राधिकृत है न कि उससे अधिक।
रुपेश कुमार के मामले में प्रेक्षित किया गया कि यह निर्णीत करने के लिए कि क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (क) (i) भा० द० सं० के अन्तर्गत किसी विशेष अपराध के लिए प्रावधानित अधिकतम दण्ड को विचार में लिया जाना चाहिए न कि उसके अन्तर्गत प्रावधानित न्यूनतम अवधि के दण्ड को।
हिमाचल प्रदेश बनाम लालसिंह 2003 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1668 के वाद में यह प्रेक्षित किया गया कि यथास्थिति 60 या 90 दिन की अवधि की गणना में अभिव्यक्ति कारावास की अवधि' का तात्पर्य कारावास की अधिकतम अवधि से है जैसा कि विधि के अन्तर्गत प्रावधानित है न कि कारावास की न्यूनतम अवधि जो कि अपराध करने के लिए दोषी पाये जाने पर दोषी अभियुक्त को दी जायेगी ।
लाल सिंह के मामले में धारा 304-ख भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत अग्रेतर यह प्रेक्षित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध को कारित करने के लिए प्रावधानित कारावास, आजीवन कारावास का है लेकिन यह सात वर्ष से कम का नहीं होगा। विधायिका का यह प्रावधानित करने का आशय कि इस धारा के अन्तर्गत कारावास का दण्ड सात वर्ष से कम का नहीं होगा, दोषी को गंभीर दण्ड देना है।
इसलिए न्यूनतम सात वर्ष के कारावास के दण्ड को प्रावधान कर विधायन का आशय न्यायालयों द्वारा 7 वर्ष से कम अवधि के कारावास को दंडित करने से रोकना है, जबकि धारा 304-ख के अन्तर्गत अपराध साबित हो जाता है और उस प्रकार 7 वर्ष से कम अवधि के कारावास देने के न्यायालय के विवेकाधिकार को निर्धारित कर दिया गया है। हालांकि न्यायालय स्वविवेकाधिकार आजीवन कारावास तक विस्तारित हो सकने वाले कारावास का दण्ड दे सकता है लेकिन, वह सात वर्ष से कम अवधि के कारावास का दण्ड नहीं दे सकता है।
इसलिए संहिता की धारा 167 (2) के परन्तुक के प्रयोजन के लिए पदावली "ऐसी अवधि के कारावास " जो 10 वर्ष से कम अवधि का नहीं होगा" केवल ऐसे मामलों को लागू होगा जिसमे अधिकतम प्रावधानित दण्ड दस वर्ष से कम का है न कि ऐसे मामलों में जहां कि विधि 10 वर्ष या अधिक के कारावास के लिए दण्ड का प्रावधान करती है लेकिन 10 वर्ष से कम अवधि के कारावास के दण्ड का भी प्रावधान करती है।