1382 जेलों में अमानवीय स्थितियों पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: कैदियों की मौतों पर चिंतन
रे: इनह्यूमन कंडीशंस इन 1382 प्रिज़न्स (2017) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय जेलों में कैदियों के साथ होने वाली हिंसा और मौतों के गंभीर मुद्दों पर गौर किया। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जेलों की खराब स्थितियों, जैसे भीड़भाड़, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, और आत्महत्या के बढ़ते मामलों को उजागर किया।
कोर्ट ने कैदियों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया और उन प्रणालीगत समस्याओं (systemic issues) को संबोधित किया, जो हिरासत में होने वाली अप्राकृतिक मौतों का कारण बनती हैं।
मुख्य मुद्दे (Fundamental Issues) पर चर्चा
इस मामले का मुख्य मुद्दा कैदियों के साथ होने वाली हिंसा, जिसमें जेल में होने वाली अप्राकृतिक मौतें भी शामिल हैं, और यह कैसे अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती हैं।
कोर्ट ने हिरासत में की जाने वाली हिंसा के विभिन्न रूपों पर चर्चा की, जैसे मनोवैज्ञानिक (Psychological) और शारीरिक यातना, उपेक्षा, और चिकित्सा देखभाल की कमी, जो कई बार रोकी जा सकने वाली मौतों का कारण बनती हैं।
यह फैसला राज्य की जिम्मेदारी को रेखांकित करता है कि वह कैदियों की गरिमा बनाए रखे और मानवीय व्यवहार सुनिश्चित करे।
जेलों में भीड़भाड़ (Overcrowding in Prisons)
फैसले में जेलों में भीड़भाड़ की समस्या को प्रमुख कारक बताया गया जो खराब परिस्थितियों में योगदान देती है। कई जेलों में कैदियों की संख्या अनुमत क्षमता से अधिक थी, जिससे उपलब्ध संसाधनों (Resources) और सुविधाओं पर दबाव पड़ता है।
कोर्ट ने यह भी माना कि भीड़भाड़ से कैदियों के बीच हिंसा, खराब स्वास्थ्य सेवाएं, और उचित निगरानी की कमी जैसी समस्याएं बढ़ती हैं।
हिरासत में होने वाली मौतों का वर्गीकरण (Classification of Deaths in Custody)
इस मामले में हिरासत में होने वाली प्राकृतिक और अप्राकृतिक मौतों के बीच अंतर की कमी पर चर्चा की गई। कोर्ट ने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा रिपोर्ट की गई मौतों के वर्गीकरण में अस्पष्टता की ओर इशारा किया।
अप्राकृतिक मौतों में आत्महत्या, अन्य कैदियों द्वारा हत्या, और लापरवाही या हिंसा के कारण होने वाली मौतें शामिल थीं। कोर्ट ने इन मौतों की सही वर्गीकरण (Categorization) और जांच की आवश्यकता पर जोर दिया और अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे इस संबंध में स्पष्टीकरण दें।
स्वास्थ्य सेवाएं और चिकित्सा सुविधाएं (Right to Health and Medical Facilities)
एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी था कि जेलों में उपलब्ध चिकित्सा सुविधाएं (Medical Facilities) कितनी पर्याप्त हैं। फैसले में देखा गया कि स्वास्थ्य सेवाओं के मानक (Standards) संतोषजनक नहीं थे और समय पर चिकित्सा सहायता उपलब्ध नहीं थी।
कोर्ट ने कहा कि कैदियों को अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार है और चिकित्सा सुविधाओं में सुधार अनिवार्य है, जिसमें काउंसलर (Counselors) की नियुक्ति और मानसिक और शारीरिक सेवाओं (Psychological and Medical Services) तक बेहतर पहुंच शामिल है।
कानूनी ढांचा और सिफारिशें (Legal Framework and Recommendations)
कोर्ट ने सुधारों की सिफारिश करते हुए विभिन्न कानूनी प्रावधानों (Legal Provisions) और अंतरराष्ट्रीय दिशानिर्देशों का उल्लेख किया:
1. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 (Article 21 of the Indian Constitution): जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, जो कैदियों तक भी विस्तारित है। फैसले में दोहराया गया कि कारावास (Imprisonment) का मतलब यह नहीं है कि कैदियों के मौलिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं।
2. नेल्सन मंडेला नियम (Nelson Mandela Rules): कैदियों के उपचार के लिए ये अंतरराष्ट्रीय दिशानिर्देश उनकी गरिमा को बनाए रखने और मानवीय स्थितियों की आवश्यकता पर जोर देते हैं। कोर्ट ने इन नियमों को अपनाने की सिफारिश की ताकि जेल प्रशासन में सुधार हो सके।
3. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के दिशानिर्देश: NHRC ने हिरासत में मौतों के मामले में कई सलाहें जारी की हैं, जिनमें जांच के लिए दिशानिर्देश (Guidelines) और रोकथाम के उपाय शामिल हैं। कोर्ट ने इन दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन करने पर जोर दिया।
4. दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 176(1A): यह प्रावधान जेल में हुई मौतों की न्यायिक जांच को अनिवार्य बनाता है, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित हो सके। फैसले में हर हिरासत में होने वाली मौत की जांच के महत्व पर जोर दिया गया।
महत्वपूर्ण फैसले जिनका उल्लेख किया गया (Important Judgments Cited)
इस मामले में कई पुराने फैसलों का संदर्भ दिया गया, जैसे:
• नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य (1993): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत में हुई मौत के लिए मुआवजा दिया और यह स्थापित किया कि राज्य अपनी हिरासत में व्यक्तियों की भलाई के लिए जिम्मेदार है।
• डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997): इस मामले में हिरासत में यातना और मौतों को रोकने के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए।
• रुदुल साह बनाम बिहार राज्य (1983): इस फैसले में अदालत ने कहा कि अवैध हिरासत के लिए मुआवजा अनिवार्य है।
कोर्ट द्वारा जारी निर्देश (Directions Issued by the Court)
फैसले में जेल सुधार के लिए एक व्यापक दिशानिर्देश सेट जारी किया गया:
• जेल स्टाफ का प्रशिक्षण (Training for Prison Staff): जेल अधिकारियों को कैदियों के अधिकारों और उनकी जिम्मेदारियों को समझाने के लिए संवेदनशीलता (Sensitization) कार्यक्रमों की सिफारिश की गई।
• काउंसलर और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की नियुक्ति (Appointment of Counselors and Mental Health Professionals): कैदियों के मनोवैज्ञानिक (Psychological) और भावनात्मक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए।
• परिवार के साथ संपर्क बढ़ाना (Increased Family Contact and Communication Facilities): मुलाकात के समय को बढ़ाना और कैदियों को फोन या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से परिवार के सदस्यों और वकीलों के साथ बात करने की अनुमति देना।
• निरीक्षकों का बोर्ड स्थापित करना (Establishment of a Board of Visitors): इसमें समाज के प्रतिष्ठित सदस्यों को शामिल करना ताकि वे जेल सुधार में योगदान दे सकें।
• स्वतंत्र शिकायत निवारण तंत्र (Independent Mechanism for Addressing Grievances): ताकि कैदी बिना किसी डर के अपनी समस्याओं की रिपोर्ट कर सकें।
हिरासत में मौतों के लिए मुआवजा (Compensation for Custodial Deaths)
फैसले में दोहराया गया कि हिरासत में मौत के लिए मुआवजा न केवल पीड़ितों के परिवारों के लिए एक राहत है, बल्कि भविष्य में ऐसे मामलों को रोकने के लिए एक निवारक उपाय (Deterrent) भी है। कोर्ट ने कहा कि हिरासत में मौतें प्रणालीगत विफलताओं का प्रतीक हैं और केवल आर्थिक मुआवजा ही पर्याप्त नहीं हो सकता।
रे: इनह्यूमन कंडीशंस इन 1382 प्रिज़न्स का फैसला जेल सुधार और कैदियों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। इसने भारतीय जेल प्रणाली में व्याप्त प्रणालीगत समस्याओं को उजागर किया और कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया।
अदालत द्वारा दिए गए निर्देशों का उद्देश्य दीर्घकालिक सुधार लाना और यह सुनिश्चित करना है कि जीवन और गरिमा का अधिकार जेल की दीवारों के भीतर भी सम्मानित हो।