आदेश II नियम 2: आखिर कब दावे (Claim) का लोप करना या उसे त्याग देना, दूसरे वाद (Second Suit) को रोक देता है?

Update: 2019-06-29 07:06 GMT

    आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) के अंतर्गत आने वाले मामलों में सही परीक्षण है, "क्या नए वाद (suit) में किया गया दावा (claim), वास्तव में उस वादहेतुक (cause of action) पर आधारित है, जो पूर्व वाद (former suit) के वादहेतुक (cause of action) से भिन्न है।"

    किसी भी व्यक्ति को एक ही वादहेतुक (cause of action) के लिए, एक से अधिक बार परेशान नहीं किया जाना चाहिए - यह नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) का अंतर्निहित सिद्धांत है।

    सामान्य नियम यह है कि एक वाद (suit) में सम्पूर्ण दावे (whole of the claim) को शामिल किया जाना चाहिए, जिसका एक वादी, वादहेतुक (cause of action) के संबंध में हकदार है। यह आदेश II नियम 1 (Order II Rule 1) में सन्निहित है।

    हालाँकि ऐसी कोई बाध्यता नहीं है, और वादी इस तरह के दावे के किसी भी हिस्से को त्यागने या छोड़ने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन इसका एक परिणाम है। वादी को उस दावे के हिस्से के लिए, जो छूट गया था या छोड़ दिया गया था, एक और वाद दायर करने से रोक दिया जाएगा। आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) इस रोक (bar) की बात करता है।

    इस प्रावधान का प्रभाव, स्पष्ट रूप से संहिता में दिए गए दृष्टांत में बताया गया है:

    "अ, ब को एक मकान 1200 रूपये प्रति वर्ष के किराए पर देता है। वर्ष 1905, 1906 और 1907 का पूरा किराया बकाया है और उसका भुगतान नहीं किया गया है। वर्ष 1908 में अ, ब के खिलाफ केवल वर्ष 1906 के बकाए किराये के लिए वाद दायर करता है। अ इसके बाद ब के खिलाफ, वर्ष 1905 या वर्ष 1907 के बकाए किराये के लिए वाद दायर नहीं कर सकेगा"

    कोड के आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) की वस्तु दोहरी है:

    • सबसे पहले यह सुनिश्चित करना कि एक ही वादहेतुक (cause of action) के संबंध में किसी भी प्रतिवादी (defendant) के खिलाफ 2 बार वाद दायर एवं उसे परेशान नहीं किया जायेगा।
    • दूसरा, वादी (Plaintiff) को कार्रवाई के एक ही वादहेतुक (cause of action) के आधार पर दावों और उपायों के विभाजन से रोकना है।
दोनों वादों (suits) में समान वादहेतुक (cause of action)

प्रावधान में प्रयुक्त किया गया शब्द "वाद-हेतुक" (cause of action) है, क्योंकि यह रोक (bar) एक ही वादहेतुक से उत्पन्न दावों (claims) पर लागू होती है।
प्रिवी काउंसिल द्वारा निपटाए गए वर्ष 1949 के एक मामले में, 2 अलग-अलग संपत्तियों के संबंध में कब्ज़ा-वापसी (recovery of possession) के लिए 2 मुकदमे दर्ज किए गए थे। दूसरे वाद को रोक दिया गया था, क्योंकि पहले वाद में दूसरी संपत्ति के ऊपर दावा शामिल नहीं किया गया था।
वादी ने यह तर्क दिया कि चूंकि संपत्तियां अलग-अलग हैं, इसलिए वादहेतुक (cause of action) भी अलग थे. इस दलील को इस कारण से खारिज कर दिया गया कि दोनों संपत्तियों पर दावा, समान तथ्यों के एक सेट पर आधारित था। दूसरे शब्दों में, वादी को दोनों संपत्तियों पर टाइटल स्थापित करने के लिए दोनों वादों में समान तथ्यों को स्वीकार करना और साबित करना था। चूंकि दोनों मामलों में टाइटल साबित करने के लिए "आवश्यक तथ्यों का सेट" एक ही था, इसलिए यह अभिनिर्णित किया गया कि दूसरी संपत्ति पर दावा, प्रथम वाद के वादहेतुक (cause of action) पर आधारित था (देखें
मोहम्मद खलील खान बनाम महबूब अली मियां AIR (36) 1949 PC 87)

इस मामले में प्रिवी काउंसिल ने इससे सम्बंधित सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत किया:
(1) आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) के अंतर्गत आने वाले मामलों में सही परीक्षण है, "क्या नए वाद (suit) में किया गया दावा (claim), वास्तव में उस वादहेतुक (cause of action) पर आधारित है, जो पूर्व वाद (former suit) के वादकारण (cause of action) से भिन्न है।"
(2) वादहेतुक (cause of action) का मतलब हर उस तथ्य से है, जिसे वादी को निर्णय पर अपने अधिकार का समर्थन करने के लिए साबित करना आवश्यक होगा।
(3) यदि 2 दावों (claims) का समर्थन करने के लिए साक्ष्य अलग-अलग हैं, तो उसके वादहेतुक (cause of action) भी अलग-अलग हैं।
(4) 2 वादों (suits) में वादहेतुक (cause of action) को एक ही माना जा सकता है यदि मूल रूप से वे समान हैं।
(5) वादहेतुक (cause of action) का उस बचाव से कोई संबंध नहीं है जो प्रतिवादी (defendant) द्वारा स्थापित किया जा सकता है और न ही यह वादी (plaintiff) द्वारा प्रार्थना की गई राहत के चरित्र पर निर्भर करता है। वादहेतुक (cause of action) उस मीडिया को संदर्भित करता है जिस पर वादी (plaintiff) अदालत को अपने पक्ष में निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कहता है।
जब वादहेतुक (cause of action) अलग होते हैं, तो रोक (bar) लागू नहीं होगी

अलका गुप्ता बनाम नरेंद्र कुमार गुप्ता (2010) 10 SCC 141 का मामला एक ऐसी स्थिति प्रस्तुत करता है, जहां न्यायालय ने कहा कि आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) लागू नहीं होगा।

इस मामले में, पार्टियां एक साझेदारी फर्म (partnership firm) की साझेदार (Partners) थीं, जो एक संस्थान चलाती थी। वर्ष 2004 में, भागीदारों में से एक ने उस संपत्ति में, जहाँ संस्थान चलता था, अपना अविभाजित हिस्सा दूसरे भागीदार को बेच दिया। उस बिक्री के संबंध में बकाया राशि का दावा करने के लिए, वर्ष 2004 में एक वाद दायर किया गया था।
वाद के डिक्री हो जाने के बाद, वर्ष 2000 से 2004 की अवधि के लिए साझेदारी फर्म के खातों के प्रतिपादन के लिए वर्ष 2007 में एक और मुकदमा दायर किया गया, इस आधार पर कि साझेदारी वर्ष 2004 में निहितार्थ द्वारा भंग (dissolved by implication) कर दी गई थी। ट्रायल कोर्ट ने उस वाद को आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) से हिट करता हुआ माना था। उच्च न्यायालय ने भी यही विचार व्यक्त किया और कहा कि पहले वाद में ही खातों के निपटान का दावा किया जाना चाहिए था।
इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट सहमत नहीं हुआ। यह कहा गया:
"पहले वाद का वादहेतुक (cause of action), दिनांक 29.6.2004 को हुए बिक्री-समझौते के तहत कीमत का भुगतान न होना था, जबकि दूसरे वाद का वादहेतुक (cause of action) दिनांक 5.4.2000 को गठित एक भंग साझेदारी विलेख के अंतर्गत खातों का निपटान न होना था. दोनों वादहेतुक (cause of action) के 2 अलग-अलग आधार थे और यह एक दूसरे से भिन्न थे। कोड का आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) केवल तभी हरकत में आयेगा जब दोनों वाद (suits) एक ही वादहेतुक (cause of action) पर आधारित हों और वादी (plaintiff) बिना अदलात की लीव के, प्रथम वाद के वादहेतुक (cause of action) से उत्पन्न होने वाली समस्त राहत मांगने में विफल रहा हो।"

पूर्व के बकाया राशि के वाद से मोर्टगेज़ वाद हिट नहीं होगा

एस. नजीर अहमद बनाम स्टेट बैंक ऑफ़ मैसूर AIR 2007 SC 289 एक दिलचस्प मामला है।

वहां, बैंक ने पहले बस की खरीद के लिए दिए गए ऋण के बकाया की वसूली के लिए वाद (suit) दायर किया। बस पर दृष्टि बंधक चार्ज (hypothecation charge) लगा था। हालांकि वाद डिक्री हो गया था, परन्तु बैंक इसे निष्पादित नहीं कर सका क्योंकि इस दौरान बस गायब हो गई थी।
इसलिए, बैंक ने सुरक्षा के रूप में पेश की गई संपत्तियों के खिलाफ साम्यिक बंधक (equitable mortgage) को लागू करने के लिए एक और वाद (suit) दायर किया।
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि बंधक (mortgage) के आधार पर दायर किये गए वाद का वादहेतुक (cause of action) भिन्न है। कोर्ट ने CPC के आदेश 34 नियम 14 का भी हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया है कि गिरवी रखी गई संपत्ति को केवल एक वाद (Suit) के माध्यम से बिक्री के लिए लाया जा सकता है, भले ही mortgagee ने बकाया राशि के भुगतान के लिए एक और डिक्री प्राप्त कर रखी हो। यह आदेश 34 नियम 14 में भी उल्लिखित है कि mortgage के लिए वाद को आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) के बावजूद लाया जा सकता है।
"कोड के O.34 के R.14 के उप-नियम (1) से स्पष्ट है कि कोड के O.2 R.2 में कुछ भी होने के बावजूद, mortgage के प्रवर्तन में बिक्री के लिए वादी बैंक द्वारा एक वाद दायर किया जा सकता है, और वास्तव में बैंक के पास mortgage को लागू करने के लिए यह एकमात्र उपाय उपलब्ध है क्योंकि वह इस तरह के एक वाद को स्थापित किए बिना, गिरवी रखी गई संपत्ति को बिक्री के लिए लाने का हकदार नहीं होगा", शीर्ष अदालत ने देखा।
आदेश 2 नियम 2 के अंतर्गत रोक (bar) को लागू करने के लिए पहले ही वाद चलाने और साबित करने की आवश्यकता है
आदेश II नियम 2 के तहत रोक (bar) को प्रतिवादी (defendant) के कहने भर से लागू नहीं किया जा सकता है।
प्रतिवादी (defendant) को यह निवेदन करना होगा कि मौजूदा वाद (suit) पिछले वाद के समान वादहेतुक (cause of action) पर आधारित है, और उसे इसे साबित करना होगा।
पूर्व वाद की प्लीडिंग को सहमति से प्रदर्शित किया जाना चाहिए या कम से कम दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। वादी को यह समझाने या प्रदर्शित करने का अवसर दिया जाना चाहिए कि दूसरा वाद भिन्न वादहेतुक (cause of action) पर आधारित था। कोर्ट को इस बारे में एक मुद्दा (issue) तैयार करना होगा। यदि प्रतिवादी (defendant) यह दिखाना चाहता है कि वाद के दोनों वादहेतुक (cause of action) समान थे, तो पहले के plaint को साक्ष्य में चिह्नित करना और यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वादी (plaintiff) द्वारा मांगी जा सकने वाली राहत (relief) को त्याग दिया गया था। (देखें,
अलका गुप्ता, एस. नज़ीर अहमद
)
न्यायालय द्वारा, यह निर्धारित करने के लिए कि क्या आदेश 2 नियम 2 के अनुसार कोई वाद रोकने योग्य है, वादी (plaintiff) द्वारा दाखिल उसके वादों में संबंधित वादहेतुक (cause of action) की जांच की जाएगी। आदेश 2 नियम 2 की दलील की तकनीकी बारीकियों को ध्यान में रखते हुए, वादहेतुक की पहचान करने के लिए दोनों वादों को, जो कि वादी के लिए एक दावा स्थापित करने के लिए आवश्यक हैं, एक पूरे के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।
वादहेतुक (cause of action) की पहचान करने के बाद यदि यह पाया जाता है कि दोनों मुकदमों में निवेदन किया गया वादहेतुक (cause of action) एक जैसा है और बाद के वाद में दावा की गयी राहत, पूर्व के वाद में मांगी जा सकती तो, तो बाद के वाद को आदेश 2 नियम 2 द्वारा रोक दिया जायेगा। (कॉफी बोर्ड v रमेश एक्सपोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड (2014) 6 SCC 424)

दूसरे मामले की मेरिट अप्रासंगिक है।

यह विचार करते हुए कि क्या किसी पक्ष द्वारा दायर वाद (suit) पर, कोड के O.2 R.2 द्वारा रोक लगती है, यह देखना आवश्यक है कि क्या दोनों वादों (suits) में राहत का दावा (relief claimed) एक ही वादहेतुक (cause of action) से उत्पन्न हुआ है। अदालत से दावे (suit) के मेरिट में जाने और दूसरे दावे की वैधता तय करने की उम्मीद नहीं की जाती है। दूसरे मामले की ताकत और वादी (plaintiff) का आचरण यह तय करने के लिए प्रासंगिक नहीं है कि क्या कोड के O.2 R.2 द्वारा दूसरा वाद प्रतिबंधित है (देखें,
अलका गुप्ता मामला
)।
लिमिटेशन की अलग-अलग अवधि, आदेश II नियम 2 के आवेदन को प्रभावित नहीं करेगी

हाल ही के एक फैसले में (प्रमोद कुमार एवं अन्य बनाम वी. ज़लक सिंह एवं अन्य), सुप्रीम कोर्ट एक ऐसी स्थिति से निपट रहा था, जहाँ वादी (plaintiff) द्वारा अपने पिता द्वारा निष्पादित 2 अलग-अलग बिक्री डीड को रद्द करने के लिए 2 अलग-अलग वाद दायर किया गया था। उन्होंने इस दलील पर राहत मांगी कि उनके पिता ने संयुक्त परिवार की संपत्ति को अनधिकृत रूप से अलग-थलग कर दिया था और ऐसा करना परिवार के हितों के खिलाफ था।
बिक्री डीड को 1 महीने के अंतराल में निष्पादित किया गया था, और यह एक ही संपत्ति के विभिन्न भागों से संबंधित था। दोनों भागों का खरीददार भी एक ही व्यक्ति थे।
सवाल यह था कि क्या आदेश 2 नियम II द्वारा दूसरे वाद पर रोक थी।
वादी द्वारा लिमिटेशन अधिनियम की धारा 109 को संदर्भित किया गया, जो धारा यह कहती है कि मिताक्षरा कानून द्वारा शासित एक हिंदू के लिए, अपने पिता द्वारा पैतृक संपत्ति के अलगाव को रद्द करने के लिए वाद दायर करने की समयावधि, खरीदार द्वारा संपत्ति पर कब्ज़ा प्राप्त कर लेने के बाद शुरू होगी।
इसके आधार पर, वादी ने यह तर्क दिया कि दूसरे वाद के लिए वादहेतुक (cause of action) अलग था, क्योंकि यह पूर्व के वाद के बाद ही उत्पन्न हुआ था।
इस दलील को जस्टिस अशोक भूषण और के. एम. जोसेफ की बेंच ने खारिज कर दिया था। पीठ ने कहा कि दोनों वादों में दावे का आधार काफी हद तक एक जैसा था। दोनों वादों (suits) में दोनों बिक्री लेनदेन के संबंध में समान दलीलें शामिल थी। इसलिए, यह अभिनिर्णीत किया गया कि दोनों वाद, एक ही वादहेतुक (cause of action) से उत्पन्न हो रहे थे, जिसे वादी के पिता द्वारा पैतृक संपत्ति के अलगाव के रूप में पहचाना गया था। कोर्ट ने
मोहम्मद खलील खान
के मामले में प्रिवी काउंसिल द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण को अपनाया।
बेंच ने कहा कि, "मात्र यह तथ्य कि लिमिटेशन की एक अलग अवधि प्रदान की गयी है, आदेश II नियम 2 के तहत रोक (bar) के रास्ते में नहीं खड़ा हो सकता है।"
कॉफी बोर्ड v रमेश एक्सपोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड (2014) 6 SCC 424 के मामले में, प्रतिवादी (respondent) ने निर्यात नीलामी (export auctions) में कॉफी खरीदी और उन्हें कुछ देशों को निर्यात किया। कॉफी बोर्ड ने कॉफी के निर्यात के लिए टिकट प्रणाली की व्यवस्था की थी। वादी की शिकायत यह थी कि प्रतिवादी उन डाक टिकटों की आपूर्ति करने में विफल रहे, जिससे निर्यात में देरी हुई और नुकसान हुआ। उन्होंने क्षति के लिए 2 वाद दायर किए।

दूसरा वाद आदेश II नियम 2 के द्वारा वर्जित माना गया। न्यायालय ने यह कहा कि वादी केवल स्टैम्प प्रदान करने में अपीलार्थी द्वारा विफलता साबित करके ही सफल हो सकता है। वाद में अंतर का आधार, कॉफी की मात्रा एवं उस तिथि, जब वो खरीदा गया के संबंध में पाया गया था। अकेले इस अंतर से वादहेतुक (cause of action) अलग नहीं होगा।
ऐसा देखा गया :
"दोनों वादों में प्रतिवादी (वादी होने के नाते) द्वारा, अपने दावों में सफल होने के लिए, यह तथ्य साबित किया जाना आवश्यक था कि अपीलकर्ता (प्रतिवादी होने के नाते) द्वारा आवश्यक ICO टिकटों (जो सुनिश्चित किये गए थे) को उपलब्ध कराने में विफलता के कारण प्रतिवादी को नुकसान उठाना पड़ा। प्रतिवादी द्वारा दावा की गई 2 अलग-अलग राहतें एक ही तथ्य पर निर्भर हैं कि अपीलकर्ता द्वारा अपने कर्तव्य में चूक की गयी। वाद में अंतर का आधार, कॉफी की मात्रा एवं वह तिथि, जब वो खरीदी गयी, था, हालांकि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि 11 अगस्त, 1982 और 18 अगस्त, 1982 के बीच की अवधि दोनों वादों के लिए समान है और दोनों को अलग करने का कोई विशिष्ट आधार मौजूद नहीं है। इसके अलावा, वाद एक दूसरे से 9 दिनों की अवधि के भीतर दायर किए गए थे।
"

कोड के आदेश II नियम 2 (Order II Rule 2) की वस्तु दोहरी है:

सबसे पहले यह सुनिश्चित करना कि एक ही वादहेतुक (cause of action) के संबंध में किसी भी प्रतिवादी (defendant) के खिलाफ 2 बार वाद दायर एवं उसे परेशान नहीं किया जायेगा।

दूसरा, वादी (Plaintiff) को कार्रवाई के एक ही वादहेतुक (cause of action) के आधार पर दावों और उपायों के विभाजन से रोकना है।

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